रविवार, 13 दिसंबर 2009

भारतीय इतिहास का काल दिन 13 दिसम्बर

मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिन्हें वह चाह कर भी नहीं भूला पाता. इन घटनाओं की छवि मस्तिष्क में स्थायी रूप से जगह बना लेती हैं और जीवन भर याद रहती हैं. 

ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी थी. 13  दिसंबर का वह दिन आज भी मुझे याद है. 

इसके कुछ दिन पहले भाटापारा निवासी नरेश शर्मा ने मुझे कहा कि दिल्ली चलना है. उसके जीजाजी के ट्रांसफर का काम था. नीतिश जी जानते हैं, यदि आप कह देंगे तो जीजाजी की समस्या को देखते हुए उनका ट्रांसफर हो जाएगा. 

मैंने उनसे मिलने का समय लिया, तो पता चला कि वो १३ को दिल्ली में रहेंगे, अब उनसे निवेदन करना हमारा काम था, सही लगा तो ट्रांसफर हो ही जायेगा. 

12 को नरेश और मैं गोंडवाना एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रायपुर से निकले, दुसरे दिन जब दिल्ली पहुचे तो बड़ी ठण्ड थी, कोहरा छाया हुआ था. 

सबसे पहले हम अपने होटल पहाड़गंज में पहुंचे. स्नान करने के पश्चात् नरेश ने कहा कि उसे संसद भवन देखना है. मैंने कहा चल दिखा देता हूँ, बाद में नीतिश जी से मिल लेंगे. 

अब हम ऑटो करके संसद भवन के पास पहुंचे. पैदल चलते-चलते. सामने से गुजरते हुए निकले तभी अचानक कुछ भगदड़ सी होने लगी खाकी वर्दी वाले सब हरकत में आ गये थे. 

मुझे लगा कि कुछ अनहोनी घट रही है. अब अचानक कुछ घट जाये नए शहर में तो सर छुपाना भी मुस्किल हो जाता है. हम लोग गोल चक्कर से जल्दी जल्दी यु.एन.आई. के आफिस तक पहुंचे. तभी गोलियां चलने की आवाज आने लग गयी थी. 

हम लोग वी.पी. हॉउस के पास यु.एन.आई पहुँच गए. नए शहर में आदमी सबसे पहले अपनी सुरक्षा देखता है, उसके बाद खाना और समाचार. इसके हिसाब से यु.एन.आई का आफिस सुरक्षित था. क्योंकि वहां पर कैंटीन भी थी. 

जब हम पहुंचे तो पता नहीं था क्या हो रहा है. फिर किसी ने कहा की संसद भवन में कोई घुस गया है और बम फोड़ रहा है. गोली चला रहा है. 

नरेश बोला कि अब हम फँस गए. मैंने कहा कि जल्दी से पेट भर नाश्ता कर ले बाद में फिर मिले या ना मिले. कम से कम पेट तो भरा रहेगा, शाम तक के लिए. इस बीच हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया. और उसके बाद मेरा मोबाईल बजने लग गया, 

उस समय दिल्ली में रोमिंग के २५ या २८ रूपये मिनट रोमिंग चार्ज लगता था. मित्रों के फोन आने शुरू हो गये, एक घंटे में ही मेरा 1000 बैलेंस ख़तम होगया.मैंने सुबह ही होटल से निकलते हुए रिचार्ज करवाया था. 

घर से फोन था कहाँ पर हो ? घर वाले जानना चाहते थे. तो मैंने पूछा क्या हो गया? तो उन्होंने कहा कि जी टीवी पर संसद भवन में हमले का सीधा प्रसारण कर रहा था. 

हमने सोचा कि अब यहाँ से चला जाये. यु.एन. आई के बगल में वी.पी.हॉउस में समता पार्टी का दफ्तर था जिसमे तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्णा राव जी रहते थे. मैंने कहा कि वहां चलने पर शरण मिल जाएगी, 

कृष्णा राव जी मुझसे अच्छी तरह परिचित थे. हम लोग वहां से निकल कर वी.पी हॉउस ले लिए चल पड़े, उस समय शायद 11.30  या 12 बज रहे होंगे. 

जब हम समता पार्टी के कार्यालय पहुचे तो सब टी.वी. पर झूमे हुए थे. बस हमने भी वहां बैठ कर संसद में होने वाली आतंकवादी कार्यवाही को देखा. नरेश की बोलती बंद थी. वो बोला कहाँ फँस गए? अब फँस गए तो फँस गए जो होगा सो देखा जायेगा. 

शाम को 3  बजे के बाद हालत कुछ सामान्य लगे. तो हम लोग वहां से होटल के लिए निकले. उसी समय हमारे पास खलीलपुर वाले महाराज सतबीर नाथ जी का फोन आया कि आश्रम में आ जाओ मैं गाड़ी भेज रहा हूँ, 

मेरे मना करने के बाद भी जिद करके उन्होंने अपनी गाड़ी दिल्ली भेज दी.लेकिन मुझे तो सुबह नीतिश जी से मिलना था इसलिए बाबा के यहाँ नहीं जा सकता था. 

बाबाजी की गाड़ी से एस्कार्ट हास्पिटल गया, वहां पर हमारे तत्कालीन राज्यपाल महामहिम दिनेश नंदन सहाय जी की बाइपास सर्जरी हुयी थी, उससे मिलने जाना था. हम एस्कार्ट में सहाय जी से मिले, आधा घंटा हमारी बात-चीत हुई. उसके बाद हम होटल वापस आ गये. 

सुबह जल्दी उठ कर हमने सोचा की जार्ज साहब से मिल लेते हैं कई दिन हो गये थे उनसे मिले, सुबह कोहरा छाया हुआ था. ठंड भी गजब ढा रही थी. 

हम 9 बजे जार्ज साहब के यहाँ पहुँच गए, कृष्ण मेनन रोड  कोठी  नंबर 3 पर, वहां हमें एक घंटा लगा. उसके बाद हम उनकी कोठी से निकल कर पैदल-पैदल सुनहली बाग़ स्टैंड तक पहुँचने के लिए निकल पड़े, जार्ज साहब की कोठी और उस इलाके में अब पुलिस ही पुलिस थी. कदम-कदम पर गन लेकर तैनात थे. 

तभी पुलिस वाले बोले सड़क पर मत चलो साईड में दीवाल की तरफ चलो, हम दीवाल की तरफ सरकते गए. तो फिर बोले दीवाल की तरफ चलो.हम तो पहले ही फुटपाथ के साथ की दीवाल से चिपक लिए थे. तो मैंने कहा कि अब दीवाल में घुस जाएँ क्या? 

इतने एक स्कुल का बच्चा आ गया कंधे पर बैग लटकाए. अब पुलिस वालों ने हमें दो कोठियों के बीच की संकरी सी गली में घुसेड दिया और एक पुलिस वाला हमारे तरफ एके 47  तान कर खड़ा हो गया जैसे हम ही आतंकवादी हों. 

फिर बोला अपने बैग नीचे जमीन पर रख कर चुपचाप खड़े हो जाओ. हमने बेग नीचे रखा दिया, उस बच्चे ने भी अपना स्कुल बेग नीचे रख दिया,  

मैंने उससे पूछा कि ये क्या हो रहा है? 

वह बोला प्वाईंट आया है की अभी महामहिम राष्ट्रपति जी संसद भवन जाने वाले हैं. उनके यहाँ से निकलने के बाद आपको छोड़ दिया जायेगा. 

इतनी मुस्तैद थी उस दिन दिल्ली की पुलिस. अब इन्हें हर आदमी और यहाँ तक स्कुल का बच्चा भी आतंकवादी दिखाई दे रहा था. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती तो संसद पर हमला ही क्यों होता? 

महामहिम राष्ट्रपति जी का काफिला निकला,उसके बाद हमें वहां से जाने दिया गया. 

नरेश बोला कि हमें अब दिल्ली में नहीं रुकना है, चलो जल्दी से निकल चलो, नहीं तो क्या पता?  इनकी गोलियों का शिकार हम ही हो, 

हमारे मारे जाने बाद ये श्रद्धांजलि दे कर बोल देंगे कि गलती से मारे गए. चलो और अभी चलो. दिल्ली में अफरा-तफरी का माहौल था, हमने भी वहां से टलने में ही अपनी भलाई समझी. 

इसके बाद हम जहानाबाद के संसद अरुण कुमार जी के यहाँ वापसी की टिकिट बनवाई तत्काल कोटे से  और २.३० को निजामुद्दीन आकर गोंडवाना एक्सप्रेस में सवार हो गए. 

ये घटना हमें आज भी सालती है. अगर हमारा तन्त्र पहले से ही मजबूत होता तो देश के स्वाभिमान पर हमला नहीं होता. संसद के अन्दर की सुरक्षा जिन सिपाहियों ने अपनी जान पर खेल कर की, उन्हें मेरा सलाम।

12 टिप्‍पणियां:

  1. संसद के अन्दर की सुरक्षा जिन सिपाहियों ने अपनी जान पर खेल कर की, उन्हें मेरा सलाम. ...मेरा भी!!

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  2. सलाम मैं भी करता हूं लेकिन अफजल को फांसी कब होगी ????

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  3. सुन्दर संस्मरण!

    "इतनी मुस्तैद थी उस दिन दिल्ली की पुलिस. अब इन्हें हर आदमी और यहाँ तक स्कुल का बच्चा भी आतंकवादी दिखाई दे रहा था. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती तो संसद पर हमला ही क्यों होता?"

    हमारे देश में मुस्तैदी हमेशा कुछ न कुछ हो जाने के बाद ही आती है।

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  4. ललित भाई,
    मुझे विश्वास है कि अगर संसद पर हमला करने वाला एक आधा दुश्मन आपके हाथ लग जाता तो आप बिना हथियार ही उसका टेंटूआ दबा देते...संसद की हिफ़ाज़त करते हुए शहीदों का बलिदान देश कभी नहीं भुला सकता...लेकिन अफसोस तो इस बात का है जब संसद के भीतर बैठने वाले नेता ही एक-दो साल बाद शहीदों को भुला देते हैं और शहीदों के परिवारों की व्यथा सुनकर जो दिल को चोट लगती है, वो बड़ी गहरी है...

    (आपका दिल्ली आने का प्रोग्राम था...क्या हुआ)

    जय हिंद...

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  5. संस्मरण बहुत अच्छा लगा शुभकामनायें

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  6. सुन्‍दर संस्‍मरण ललित भाई.

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  7. भाई आपकी संस्‍मरण शैली और आपके अनुभव बहुत रोचक हैं आप अपनी देशभर में हुई यात्राओं के संबंध में भी लिखें, हमारा ज्ञानवर्धन होगा.

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  8. @ संजीव भाई याद दि्लाने के लिए शुक्रिया, अब मै अपने देश-विदेश भ्रमण की यादों को भी लिखने का विचार बना रहा हुँ, जल्दी ही इस पर लिखना शुरु करुंगा।

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  9. यह बहुत सोचने पर मजबूर करता है संस्मरण ।

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  10. भारत के आजादी के बाद भारतीय नारी का सफ़र क्या पाया क्या खोया

    हिन्दुस्तान को आजाद कराने में जिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने संघर्ष किया उनमे वीरों के साथ विरंग्नाएं भी थीं जिन्होंने कदम से कदम मिला कर अपना साथ दिया जान तक न्योछावर कर दी | गुलामी की बेड़ियाँ काटने में भारतीय नारियों ने भी पुरुषों के साथ अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
    स्वतन्त्रता होने से ज्यों ज्यों माँ भारती के रूप लावण्यता में बढ़ोतरी होती गयी उसी तरह उसकी गोद में पैदा हुई बालिकाओं को भी स्वतन्त्रता के अधिकार मिलने लगे, धीरे धीरे शुरू हुआ नारी शिक्षा पर जोर जिसका प्रभाव देश के हर कोने में पड़ने लगा. और इसकी नीव
    शुरू हो चुकी थी,

    एक बार चिड़ियाँ के खेत चुग जाने से सतर्क हो जाना बुद्धिमानी है ,पर ये सतर्कता भी धरी की धरी रह गयी कुछ दिन याद रखते हैं सब फिर जब कोई घटना घटती है पुराने जखम ताज़े हो जाते हैं फिर दिल्ली की घटना ही ले लीजिये जो ब्लास्ट हुए अभी .......

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  11. "खेत चुंग जाने के बाद पहरा बिठाया तो क्या मिला ???"

    हमेशा से ऐसा ही होता आया हैं जब आतंकी अपना काम खत्म करके चैन की बंसी बजाते हैं तब हमारा तन्त्र हरकत मे आता हैं ..और वो बड़े आराम नाल टी.वी.के सामने बैठ कर मुर्गियों की टांगे तोड़ते रहते हैं......
    आज का प्रसंग लाजबाब था ललितजी .....लेकिन आपने जब भोगा होगा तो क्या हालत होगी ..महसूस कर सकते है हम .....उन देश के सिपाहियों को मेरा भी सलाम!!!

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