गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कमला बाई की कहानी, उसकी जुबानी

नागपुर से ट्रेन में सवार हुआ, आरक्षण था नहीं, नसीब में रायपुर तक का जनरल बोगी का ही सफ़र लिखा था। दूरी भी अधिक नहीं है, सिर्फ 5 घंटे का सफ़र यूँ ही कट जाएगा। भारी भीड़ के बीच बड़ी मशक्कत के बाद बोगी में घुस सका, चलने की जगह पर भी लोगों का सामान रखा हुआ था।
बड़ी जद्दोजहद के बाद बालकनी (उपर की सीट) पर पहुंचा। नीचे की सीटों पर छत्तीसगढ़ से कमाने-खाने बाहर गए परिवार बैठे थे। लम्बी सी एक महिला पहुंची, नीचे सीट न देखकर वह भी बालकनी में चढ़ने का प्रयास करने लगी, लेकिन सफल नहीं हो सकी।
सहायता के लिए मेरी और देखा तो मैंने उनका हाथ थाम कर चढाने की प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। फिर वह सामने की तरफ से सीट पर पैर रख कर बालकनी तक पहुचने में कामयाब हो गयी। अब सभी सवारियां कोच में ठंस चुकी थी। ट्रेन खुलने में एक घंटा और था।
उस अधेड़ महिला ने मुझसे पूछा कि कहाँ जा रहे हो? मैंने बताया "रायपुर", तो उसने बताया कि वह रायपुर के गर्ल्स डिग्री कालेज से पास आउट है। वर्ष पूछने पर वही वर्ष बताया जिसमे मैंने भी रायपुर से पढाई की थी। मेरे कालेज का नाम सुनकर बोली -" वह तो बड़ा ही फेमस कालेज है, और ठहाका लगा कर कहा - आप भी कभी लाइन मारने हमारे कालेज आते होगे? 
मैं सकपका गया :) कहीं पहचान तो नहीं गई, मैंने भी ठहाका लगा कर उसका साथ दिया और कहा - मेरे कालेज का रास्ता आपके कालेज से ही होकर जाता था। फिर वहां की कैंटीन और उसके साथ पुरानी भूली-बिसरी यादों में गोते लगाने लगे। उस समय के साथियों को याद करने लगे। चर्चा चलते रही।
मैं उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। परन्तु पहचान नहीं पाया। उसने भी अपनी पहचान छुपा ली, मुझे कुछ नहीं बताया अपने बारे में। एक हाथ में सोने का कंगन और दूसरे हाथ में सोने की घडी पहने थी। सुहाग चिन्ह कहीं दिखाई नही दे रहे थे, चेहरे पर विधवा सी उदासी थी। मैंने अधिक जानना ठीक नहीं समझा। 
ट्रेन चल पड़ी थी, मैं सोचते रहा कि इस तरह बिंदास होकर किसी ने पुरे जीवन में ही नहीं पूछा कि कभी लाइन मारने हमारे कालेज आते होगे? उसके व्यक्तित्व को लेकर चिंतन चलते रहा। उसने बताया कि उसके परेंट्स नागपुर में रहते थे और वह गर्ल्स डिग्री कालेज के हास्टल में रहकर बायो की पढाई कर रही थी। 
इससे इतना ही जाहिर हुआ की वह बायो स्नातक है। अगले स्टेशन पर मेरे बगल की सीट खाली हुई। नीचे बैठी एक मोटी सी अधेड़ महिला उस पर चढ़ गयी। उसे ऊपर चढ़ने के लिए किसी भी सहायता जरुरत नहीं पड़ी। हाथो में सोने की मोटी-मोटी चूड़ियाँ पहन रखी थी, गले में सोने की चैन और कान में सोने के बुँदे भी। रंग धूप में पका हुआ था, चेहरे पर जीवन से संघर्ष की छाया स्पष्ट दिख रही थी। छुई-मुई नहीं, मेहनतकश महिला लग रही थी।
प्रदेश के लोग मिलने पर अपनी छत्तीसगढ़ी बोली में बात करने का लोभ नहीं छोड़ पाता। छत्तीसगढ़िया मिला और बात शुरू हो जाती है। महिला ऊपर की सीट पर बैठ कर अपने साथियों के साथ छत्तीसगढ़ी में बात करने लगी। इससे जाहिर हुआ कि सब जम्मू से से आ रहे हैं। मैंने सोचा कि महिला इतनी मोटी है कि वह मजदूरी नहीं कर सकती, अपने बेटे बहुओं के बच्चों की रखवारी करने साथ गई होगी।
मेरा ऐसा सोचना सही नहीं था। उससे पूछ बैठा कि वह जम्मू में क्या काम करती है? मेरा  पूछना ही था बस वह शुरू हो गयी, उसने अपने जीवन की कथा ही खोल कर रख दी। मैं मन्त्र मुग्ध उसे सुनता रहा।
"मैं जम्मू में अपना धंधा करती हूँ, देह भारी हो गई और उम्र भी बढ़ गई इसलिए शारीरिक श्रम के काम नहीं होते। महीने में 15 दिन जम्मू के पास बड़ी बम्हना में रहती हूँ, वहां बहुत सारे छत्तीसगढ़िया रहते हैं, उनको कपडे, सुकसी( सुखाई हुई मछली), गुड़ाखू, बाहरी, सूपा और भी बहुत सारे सामान ले जाकर बेचती हूँ, इससे ही मेरा गुजर बसर चलता है। बच्चों को पालने के लिए कुछ तो करना पड़ता है बाबू साहब। आप क्या करते हैं? उसने अपनी बात कहते हुए सवाल दाग दिया। मैंने बताया कि घुमक्कड़ हूँ और घुमक्कड़ी पर लिखता हूँ। वह समझ गई "पेपर लिखैया" है।
बाबू, मैंने भी सरपंची का चुनाव अपने गाँव सरसींवा से लड़ा है। फेर लोगों ने हरवा दिया। ढाई लाख खर्च हो गया। सब सगा लोग खा पी गए, रांड़ी दुखाही का खाने से कौन सा उनका भला होने वाला है? 22 बरस पहले मेरे धनी की मौत हो गई। 
मेरे पांचो लड़के छोटे थे। धनी के रहते कभी बाजार नहीं गई थी सब्जी लेने भी। मुझे बहुत चाहते थे, सिर्फ घर का ही काम करती थी। उनकी किडनी ख़राब हो गयी तो रायपुर के समता कालोनी के बड़े डाक्टर से उनका इलाज करवाया, सब गहना गुंथा बिक गया, लेकिन उन्हें बचा नहीं पाई।
बच्चों को पढाना बहुत जरुरी था, इसलिए नए सिरे से जिन्दगी शुरू की। मैंने पहला धंधा दारू बेचने का शुरू किया। उलिस-पुलिस थाना कभी देखा नहीं था। दारू के धंधे में अच्छी कमाई थी।
थाने वालों ने 6 बार छापा मार कर अपराध दर्ज किया, कोर्ट में पेशी में जाती थी। सब में बाइज्जत बरी हो गयी। बस वकील लोगों को डट के पैसा देना पड़ा। बड़े लड़के ने एम् ए किया, उससे छोटे ने बी ए। नौकरी नहीं लगी तो ड्राईवर बन गए। 
उससे छोटा लड़का पखांजूर से आई टी आई किया है और एक फैक्टरी में नौकरी कर रहा है। 5 बेटा और 3 बहु और 7 पोते -पोती हैं। पक्का घर और 6 दुकान बना दी हूँ, एक बेटे का व्यव्हार ठीक नहीं है इसलिए उसे अलग कर दिया। वह अलग रहता है, उसका महीने का राशन भेज देती हूँ, बहु को कह दिया है कि किसी चीज की कमी हो तो लिस्ट बना कर भेज दिया करे।
मैं रिक्शे में राशन भरवा कर भेज देती हूँ।  रानी कुंती ने 5 बेटों के लिए एक बेटे कर्ण को त्याग दिया था, मैंने भी 4 बेटों के लिए एक बेटे  को त्याग दिया। उसे अलग कर दिया। मेरी सम्पत्ती का बटवारा उसे मेरे मरने पर मिलगा, ऐसा फौती चढवाई तब पटवारी को लिखवा दी थी।
उसकी कहानी शुरू थी और मैं सुन रहा था। गाड़ी अपनी रफ़्तार से स्टेशन पर सवारी उतारते-चढाते चल रही थी। मेरी सफ़र की साथिन के जीवन के उतार चढाव भी कुछ इसी तरह जारी थे। उसने कथा जारी रखी। 
एक दिन थानेदार ने छापा मारा और कहा - कमला बाई अब दारू का धंधा बंद कर दो। तो मैंने कहा कि साहब अपने घर में झाड़ू बर्तन का काम दे दो। जिससे मैं अपने बच्चों को पाल सकूं। थानेदार साहब चुप हो गए। दारू का धंधा चालू रहा।
दिन भर आडर लिखती और रात को 12 बजे के बाद हाथ में लोहे की राड लेकर घर से चुपके से निकलती, गाँव से 3 किलो मीटर दारू की गाड़ी बुलवाती और रात भर में आडर का माल सप्लाई करके सुबह 4 बजे घर आकर चुपचाप सो जाती।
दारु का धंधा जरुर किया पर कभी भी दारु का एक छींटा मुंह में नहीं लिया। बच्चे बड़े  होने लगे तो मैंने दारू का धंधा खुद ही छोड़ दिया। कमाई तो बहुत थी पर ऐसा धंधा भी किस काम का जिससे बच्चे बिगड़ जाएँ।
गाँव के आस पास से काफी लोग जम्मू कमाने खाने जाते हैं, मैंने सोचा कि उनके लिए छत्तीसगढ़ में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली जरुरत की चीजे वहां ले जाकर बेचूं तो अच्छी कमाई हो सकती है। तब से मैंने यह धंधा शुरू कर दिया।
यहाँ से जम्मू तक सामान ले जाने में समस्या बहुत आती है, लगेज में बुक करके ले जाने में बहुत खर्च होता है। सारी कमाई लगेज में ही खप जाती है। इसलिए सब सामान जनरल बोगी में ही भर देती हूँ, एक तरफ की लैट्रिन में सामान भर कर दरवाजा लगा देती हूँ और एक सीट पकड़ कर बैठ जाती हूँ।
पुलिस वाले सब पटे हुए हैं, कोई 10 तो कोई 20, ज्यादा से ज्यादा 50 रूपये देती हूँ। लेकिन कई बहुत मादर ....... होते हैं। तो उनसे उसी तरह निपटती हूँ, जस को तस। एक बार टी टी ने बहुत परेशान किया। पुलिस बुला लिया। जेल भेजूंगा कहने लगा, तो मैंने उसे समझाया कि जेल से बहर आउंगी तो धंधा यही करुँगी। तेरे से भी निपट लुंगी।
अकेली औरत देख कर धमकाता है क्या बे? मेरा भी नाम कमला बाई है। तेरे जैसे पता नहीं कितने देखे। हर महीने आती हूँ बीसों साल से तेरे को जो उखाडना है उखाड़ ले। मैं किसी से से नहीं डरती, कोई चोरी चकारी करुँगी तो डरूंगी। बाकायदा टिकिट लेकर गाड़ी में चढ़ती हूँ। फिर वह टीटी 200 में मान गया। पेट की खातिर सब करना पड़ता है। 
उसने ब्लाउज से बटुवा निकला, उसमे मतदाता पहचान पत्र और पैन कार्ड था। ये सब मैंने बनवा रखा है, भले ही पहली दूसरी क्लास पढ़ी हूँ पर हिसाब-किताब सब जानती हूँ, जो भी सामान उधारी में बेचती हूँ उसे डायरी में लिखती हूँ, हर महीने 5 तारीख तक जम्मू  जाती हूँ सामान लेकर और 20 तारीख तक सामान बेच कर उधारी वसूल कर घर आ जाती हूँ। 
अभी जम्मू में मेरी 2-3  लाख की उधारी बगरी है। वहां काम करने वालों को 7 से 15 तारीख तक तनखा मिलती है। उस समय मेरा वहां रहना जरुरी रहता है वर्ना उधारी डूब जाएगी। गांव में ए टी एम् है, वहां से बैंक में पैसा जमा करवा देती हूँ और यहाँ निकाल लेती हूँ। जम्मू में एक झोपडी बना रखी है, जिसमे टी वी कूलर सब है। खाना बनाने के सारे सामान की बेवस्था है।
कभी आप जम्मू आओगे तो अपने हाथ से बना कर खिलाऊंगी। मुझे उसके बटुए में दवाई दिखाई दी, तो उसने बताया कि बी पी की गोली है। बच्चेदानी का आपरेशन करवाया तब से खा रही है।बीपी की गोली के साथ नींद की गोली भी थी। कहने लगी इसे दिन में खाती हूँ तब अच्छा लगता है। अब आदत हो गयी है। 
जम्मू में सब लोग पहचानते हैं, किसी छत्तीसगढ़िया कोई समस्या होती है तो उसका निदान भी करती हूँ, उन्हें अस्पताल ले जाती हूँ, उधारी पैसा कौड़ी भी देती हूँ, किसी का रुपया पैसा घर भेजना रहता है तो अपने एकाउंट से भेज देती हूँ। 
गाँव में मेरा बेटा एटीएम् से रुपया निकल कर सम्बंधित के घर पहुंचा देता है। मेरे से जितना बन पड़ता है उतना कर भला कर देती हूँ। अब कुछ लोग कह रहे थे कि जम्मू आने के लिए भी लायसेंस लेना पड़ेगा। ऐसा होगा तो बहुत गलत हो जायेगा।
इस बात पर कई लोगों से मेरा झगडा भी हो गया। जम्मू से चलते हुए सेब लेकर आई हूँ, नाती पोते लोग इंतजार करते रहते हैं, दाई आएगी तो खई खजानी लाएगी अभी घर जाउंगी तो मेरे लिए नाती पोते पानी लेकर आयेगें, खाट पर पड़ते ही मेरे ऊपर चढ़ कर खूंदना शुरू कर देगें। देह का सारा दर्द मिट जायेगा। फिर नहा कर अपने आस पड़ोस में बच्चों को सेब दूंगी। नाती पोतों के संगवारी भी मेरे आने का इंतजार करते हैं।
गाडी दुर्ग स्टेशन पहुँच चुकी थी। कमला बाई की कहानी ख़त्म होने का ही नाम नहीं ले रही थी। उसके पैन कार्ड में यही नाम लिखा था "कमला बाई", फिर वह कहती है - मेरा बेटा रायपुर आया है, पुलिस में भरती होने। आज उसका नाप जोख है। 
वह कहता है कि पुलिस की ही नौकरी करेगा। कोई उसे पुलिस की नौकरी लगा दे तो 4 लाख भी खर्च करने को तैयार हूँ, एक बार अपने सगा थानेदार को 3 लाख रुपया दी थी, पर वह नौकरी नहीं लगा सका। 5 हजार रुपया काट कर बाकी वापस कर दिए।
5 बेटा हे महाराज, नोनी के अगोरा मा 5 ठीक बेटा होगे। अब एक गरीब की लड़की को पाल पोस रही हूँ, वही मेरी बेटी है। उसकी शादी करुँगी। जब तक जांगर चल रही है। जम्मू की यात्रा चलते रहेगी। मेरा गंतव्य समीप आ रहा था, कमला बाई का साथ छूटने का समय था।
उससे मोबाईल नंबर लिया और अपना कार्ड दिया। सामने बैठी महिला से कमला बाई ने पूछा कि वह कहाँ जाएगी? तो उसने कहा कि जहाँ फोन आएगा वहीँ उतर जाउंगी, बिलासपुर, जांजगीर, खरसिया इत्यादि। दोनो महिलाओं में कितना अंतर था। एक ने पूरी जीवन गाथा सुना दी और दूसरी ने पता ठिकाना भी नहीं बताया।
दो अनुठे पात्रों से मेरा सामना हुआ। कमला बाई के जीवन संघर्ष की गाथा सुनते हुए रायपुर कब पहुँच गया, पता ही नहीं चला। गाडी से उतरते हुए कमला बाई को सैल्यूट किया और कभी जम्मू में मिलने का वादा करके गंतव्य की ओर बढ़ लिया। आगे की स्टोरी पढने के लिए यहाँ क्लिक करें।

शनिवार, 22 सितंबर 2012

एक बंदरिया उछल रही है .......... ब्लॉग4वार्ता .............ललित शर्मा

ललित शर्मा का नमस्कार, जब से गूगल ने ब्लॉग की नयी सेटिंग दी है, तब से मुंडा ख़राब है, पोस्ट लिखने का ही मन नहीं करता और न ही वार्ता लगाने का। 4 साल से पुराने ब्लॉगर पर काम  करते हुए आसानी होती थी। नए पर काम करने लिए मन बनाने में समय लगेगा। गूगल की यह दादागिरी ठीक नहीं है। पर हम क्या कर सकते हैं, उसका मुफ्त का प्लेटफार्म इस्तेमाल कर रहे हैं जो वह करेगा वही झेलना पड़ेगा>>>>>>>>अब चलते हैं आज की वार्ता पर प्रस्तुत हैं कूछ उम्दा लिंक ............

एक्सेल पर अंकों मे लिखी धनराशि को शब्दों मे स्वतः रूपांतरित करने का आसान तरीका एक्सेल पर काम करते समय कई बार आवश्यकता होती है कि अंकों मे लिखी गयी धनराशि को शब्दों (रुपए पैसे) मे भी लिखा जाए (जैसे 1254.25 को One thousand two hundred fifty four and twentyfive paise Only)। यद्यपि एक्सेल मे माइक्रोसॉफ्ट की तरफ से यह प्रयोग सीधे नहीं उपलब्ध कराया गया है। लेकिन इसका उपाय [...] रोहित उमराव के तीन लैंडस्केप   सेना द्वारा संचालित एक फ़ोटोग्राफ़ी कोर्स पूरा करके कबाड़ी फोटूकार रोहित उमराव आज जम्मू से वापसी कर रहे हैं. उन्होंने कश्मीर से तीन ज़बरदस्त लैंडस्केप कबाड़खाने के लिए भेजे हैं. फ़ोटो बड़ा कर के देखने के लिए उन पर क्लिक करें.एक बंदरिया उछल रही है देखो अपने आप   बाबा की एक और कविता- छतरी वाला जाल छोड़करअरे, हवाई डाल छोड़करएक बंदरिया कूदी धम सेबोली तुम से, बोली हम से,बचपन में ही बापू जी का प्यार मिला थासात समन्दर पार पिता के धनी दोस्त थेदेखो, मुझको यही, नौलखा हार मिला थापिता मरे तो हमदर्दी का तार मिला थाआज बनी मैं किष्किन्धा की रानीसारे बन्दर, सारे भालू भरा करें अब पानीमुझे नहीं कुछ और चाहिए तरुणों से मनुहारजंगल में मंगल रचने का मुझ पर दारमदारजी,

 लड़ी...बूंदो की ... लड़ी...बूंदो की ... झड़ी ..सावन की ... घड़ी ....बिरहा की ... बात ..मनभावन की ... रात ...सुधि आवन की ..... सौगात ......... नीर बहावन की ......!! इंडिया टुडे की वेब साईट पर एक खबर पढ़ रहा था की ६००० वीसा जोकि MEA ने ब्रिटेन स्थित भारतीय दूतावास को कोरियर से भेजे थे, वे गायब हो गए ! सहज अंदाजा लगाया जा सकता है की कोई भी हमारे देश विरोधी ताक़त, खासकर आतंकवादी इनका उपयोग किस हद तक इस देश के खिलाफ कर सकते है! मगर अपना देश है की मस्त है जोड़-तोड़ के गणित में, सिर्फ वर्तमान में जी रहा है ! एक अपनी गोटी फिट करने में मस्त है, तो दूसरा यह सोचने में लगा है की इसे कहाँ फिट करूँ और तीसरा यही देखने में लगा है कि ये महानुभाव कैसे इस गोटी को फिट करता है ! वाह रे मेरे देश, मेरा भारत महान ! बड़े अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ कि हमारे इस लोकतांत... अधिक »काम के बोझ तले दबे हों तो इस तरह दबाव कम कीजिये -- इस सवाल का ज़वाब दीजिये .  एक मित्र की ई मेल ने न सिर्फ सोचने पर मज़बूर कर दिया बल्कि ज्ञान चक्षु भी खोल दिए . एक सवाल -- लीजिये आप भी पढ़िए और बढ़िया ज़वाब देने की कोशिश कीजिये : एक काली अँधेरी बरसाती रात में आप अपनी कार में कहीं जा रहे हैं . तूफ़ान जोरों पर है . अचानक एक बस स्टॉप पर आप देखते हैं -- वहां बस तीन लोग खड़े हैं . १. एक बूढी औरत जो इतनी बीमार दिख रही है जैसे अभी दम निकल जायेगा . २. एक पुराना दोस्त जिसने कभी एक हादसे में आपकी जान बचाई थी . ३. एक खूबसूरत लड़की --आपके ख्वाबों की मल्लिका , जिससे आप शादी करना चाहते हैं . ऐसे में आप किसे लिफ्ट देंगे ? आपकी गाड़ी में बस एक ही व्यक्ति बैठ सकता है ... अधिक »

प्यार एक सफ़र है, और सफ़र चलता रहता है...पार्क में बैठना कितना सुकून देता है, बस थोड़ी देर ही सही... मुझे भी अच्छा लगता है बस यूँ ही बैठे रहो और आस-पास देखते रहो... कई तरह के लोग... हर किसी की आखों से कुछ न कुछ झांकता रहता है... ढलती हुयी शाम है, हल्के हल्के बादल है... ठंडी हवा चल रही है... पास वाली बेंच पर कई बुज़ुर्ग आपस में कुछ बातें कर रहे हैं... ऊपर से तो वो मुस्कुरा रहे हैं लेकिन उनकी आखें सुनसान हैं... उस सन्नाटे को शायद शब्दों में उतारना मुमकिन न हो सके.... उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर सभी के जहन में "क्या खोया-क्या पाया...." जैसा कुछ ज़रूर चलता होगा... कितनों के चेहरे पर इक इंतज़ार सा दिखता है... इंतज़ार उस आखिरी मोड़ क... अधिक » अनोखी शब्दावली शब्दों का अकूत भंडार न जाने कहाँ तिरोहित हो गया नन्हें से अक्षत के शब्दों पर मेरा मन तो मोहित हो गया । बस को केवल " ब " बोलता साथ बोलता कूल कहना चाहता है जैसे बस से जाएगा स्कूल । मार्केट जाने को गर कह दो पाकेट - पाकेट कह शोर मचाता झट दौड़ कर कमरे से फिर अपनी सैंडिल ले आता . घोड़ा को वो घोआ कहता भालू को कहता है भाऊ भिण्डी को कहता है बिन्दी आलू को वो आऊ । बाबा की तो माला जपता हर पल कहता बाबा - बाबा खिल खिल कर जब हँसता है तो दिखता जैसे काशी - काबा । जूस को कहता है जूउउ पानी को कहता है पायी दादी नहीं कहा जाता है कहता काक्की आई । छुक - छुक को वो तुक- ... अधिक »

उनकी आँखों में सपने से अधिक तनाव तैरते हैं...... आज युवाओं की जिंदगी स्पीड से चलती मोटरबाइक जैसी हो गई है। जिसमें केवल गति है। इस गति को बनाए रखने के लिए युवा कुछ भी करने को तैयार हैं। हर काम का शार्ट कट उन्हें पता है। ले ही बाद में उन्हं पछताना पड़े, पर सच तो यह है कि उनके पास अभी तो पछताने का भी वक्त नहीं है। हर काम को तेजी के साथ कर लेने की प्रवृत्ति उन्हें कहाँ ले जा रही है, इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं है। प्रतिस्पर्धा का दौर बचपन से ही शुरू हो जाता है। प्ले ग्रुप में पढ़ते बालक को नए स्कूल में एडमिशन के लिए होने वाले इंटरव्यू की चिंता सताती है। जूनियर के.जी. में आते ही वह होमवर्क की चक्की पीसना शुरू कर देता है। कक्षाएँ बढ़ती जाती... अधिक » ऋदम-ए-व्योमगणपति सबको प्यारे सबसे न्यारे I LIKE U मैं कहता तुमको BRAIN तुम्हारा सब पर भारी HELP करना EXAM मे मुझको FACEBOOK पर PROFILE बनाकर रखना CONNECTED इस जगको PROBLEM आती जब भी भारी INSTANT HELP करते हो हमको CELLPHONE भी लेकर जाना तुम रोज़ भेजना SMS हमको TWEETER पर TWEET तुम्हारी FOLLOW करेंगे हम सब तुमको अगले बरस फिर जल्दी आना मोदक LOVELY लगते हमको

उन बेवफाओं के किए क्या दिल लगाना छोड़ दे ?जो छोड़कर जाते हैं अपने इश्क को मझधार में उन बेवफाओं के किए क्या दिल लगाना छोड़ दे ? जिन रास्तों ने ज़ख्म देकर पैरों को घायल किया जब वो ना फितरत छोड़े अपनी तो हम क्यों उन रास्तों पर जाना छोड़ दे ? हे इश्क वो दाता जिसने भटकती रूह सा जीवन दिया और वो कहते हैं की हम इश्क से खौफ खाना छोड़ दे वो कहते हैं हमसे सरेराह यूँ नशे में चलना बंद करो हमें डर हैं मोहब्बत की खुमारी के उतर जाने का गर साथ वो अपने हैं तो फिर हमारी नज़रों का काम क्या कैसे दुनियादारी की ख़ातिर उनका सहारा छोड़ दे ? जाने वाले ऐसे गए ज्यो शाख से पत्ते गए वो ना आएं लौटकर तो आस भी लगाना ... अधिक » जिसने पूजा गऊ माता को उसका जीवन धन्य हुआ !!,,,,,,,, मुझे मालूम हुआ कि हमारे देश में १९४७ में गऊ माता की गिनती १२० करोड़ थी आज सिर्फ १२ करोड़ हैं वो इस लिए कि हमारा देश गऊ माता को बाहर के मुल्कों में निर्यात करता है यहाँ उनका वध करके उनको मार के खाया जाता है हम सनातनी हिन्दू हैं हमारे धर्म में गऊ माता को पूजा जाता है तो ये जानके मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कृष्ण भगवान जी ने गऊ माता को माता के रूप में स्वीकार किया तो हम आज चुपचाप बैठे अपनी माता के ऊपर हो रहे अत्याचार को क्यूँ सहन कर रहे हैं?????????? इस के लिए मैंने एक कविता लिखी है जो आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर रही हूँ अमृत जैसा ढूध पिलाकर गऊ माता ने बड़ा किया !! तुमने केवल धन क... अधिक »


चित्रशिला घाटमृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो भी प्राणी जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है. हमारे सनातन धर्म में श्रीमद्भागवत पुराण को मृत्यु-ग्रन्थ भी कहा गया है जिसमें इस सत्य से अनेक आख्यानों द्वारा साक्षात्कार कराया गया है. सँसार में अनेक धर्म हैं, जिनके अपने अपने अन्तिम संस्कार के तौर तरीके हैं. हमारे धर्म में शव को जलाने का प्रावधान है. जलाने के लिए तालाब, नदी या नदियों का संगम स्थल शमशान के रूप में कुछ खास जगहों पर चिन्हित होते हैं. नियम-विधान तो यह भी है कि छोटे बालक-बालिकाओं के शवों को दफनाया जाता है. इसके अलावा कोढ़ी, सन्यासी या जोगी वंश-जाति के लोगों को मृत्योपरांत दफनाया जाता है. दक... अधिक » सुपर फूड कूट्टू (Buckwheat)*सुपर फूड कूट्टू *(Buckwheat) *एक उत्कृष्ट बीज, अन्न और शक्ति का भण्डार** * कूटू का हालांकि कुट्टू को अनाज की तरह प्रयोग में लिया जाता है परन्तु यह बड़ी पत्तियों वाली रूबार्ब प्रजाति के एक पौधे का बीज है। इसका वानस्पतिक नाम फेगोपाइरम एस्कुलेन्टम (Fagopyrum esculentum) है। हालांकि यह अनाज नहीं है, लेकिन यह अनाज की तरह ही प्रयोग किया जाता है। पोष्टिकता के हर मापदंड में यह गेहूं, चावल, मक्का आदि से उत्कृष्ट है। इसका शर्करा-सूचकांक (Glycemic Index) गेहूं, चावल, मक्का आदि से काफी कम हाता है। उत्तर भारत में नवरात्रि में हिन्दू अनुयायी अक्सर कूटू के आटे की बनी चीज़ें खाते हैं, जैसे की कूटू... अधिक »

मनाओ जश्न कि...चूर होना है...जीवन क्या है पानी का बुलबुला क्षण भंगुर... आँखों की नमी धुंधला देती सब हँसना होगा... लड़ना होगा खुद को ही खुद से खुद के लिए... बढ़ना होगा निड़रता से फ़िर बेखौफ़ होके... धीरज रखो दुख में भी अपने मुस्कान लिए... औरों के लिए भूल कर खुद को मनाओ जश्न.... मनाओ जश्न कि थकना है हमे चूर हों हम... -अर्चना बंद और सरकार सरकार की कथित जनविरोधी नीतियों के विरोध में जिस तरह से देश के अधिकांश दल कल के भारत बंद में शामिल हुए और उसके बाद इस बंद के समर्थकों को सरकार ने भी जिस तरह से शाम तक विदेशी पूँजी निवेश पर अधिसूचना जारी कर अपनी मंशा बता दी उससे यही लगता है कि अब शायद सरकार ने आर्थिक सुधार के मुद्दे पर किसी भी दल के सामने अनावश्यक रूप से न झुकने की नीति अपना ली है. यह सही है कि पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा लिए गए फैसलों से लम्बे समय में देश को क्या लाभ या हानि होगी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है पर जिस तरह से केवल विरोध के लिए ही विरोध करने को एक साधन बनाया जा रहा है उसका को... अधिक »

झीलें है कि गाती- मुस्कुराती स्त्रियाँ .....   सिक्के के दो पहलूओं की ही तरह एक ही झील एक साथ अनगिनत विचार स्फुरित करती है . कभी स्वयं परेशान हैरान त्रासदी तो कभी झिलमिलाती खुशनुमा आईने सी , जैसे दृष्टि वैसे सृष्टि- सी ... जिस दृष्टि ने निहारा झील को या कभी ठहरी तो कभी लहरदार झील की आकृतियों के बीच अपने प्रतिबिम्ब को, अपनी स्वयं की दृष्टि-सा ही दृश्यमान हो उठता है दृश्य . *झील जैसे स्त्री की आँख है * * * झील जैसे स्त्री की आँख है कंचे -सी पारदर्शी पनियाई आँखों के ठहरे जल में झाँक कर देखते अपना प्रतिबिम्ब हूबहू कंकड़ फेंका हौले से छोटे भंवर में टूट कर चित्र बिखरना ही था ... झीलों के ठहरे पानी में कुछ भी नष्ट नहीं होता ... अधिक »


वार्ता को देते हैं विराम, मिलते हैं ब्रेक के बाद, राम राम

सोमवार, 17 सितंबर 2012

विश्वकर्मा पूजा विशेष: भारत के परम्परागत शिल्पकार--------- ललित शर्मा

हाँ पर मानव सभ्यता के विकास का वर्णन होता है वहां स्वत: ही तकनीकि रुप से दक्ष परम्परागत शिल्पकारों के काम का उल्लेख होता है। क्योंकि परम्परागत शिल्पकार के बिना मानव सभ्यता, संस्कृति तथा विकास की बातें एक कल्पना ही लगती हैं। शिल्पकारों ने प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न स्वरुपों में (लोहकार, रथकार, सोनार, ताम्रकार, शिल्पकार-वास्तुविद) अपने कौशल से शस्य श्यामला धरती को सजाने में कोई भी कसर बाकी नहीं रखी। समस्त एषणाओं से परे एक साधक की तरह परम्परागत शिल्पकार अपने औजारों के प्रयोग से मानव जीवन को सरल-सहज एवं सुंदर बनाने का उद्यम कर रहे हैं। आज समस्त सृष्टि जिस सुवर्ण रुप में दृष्टिगोचर हो रही है वह हमारे परम्परागत शिल्पकारों के खून पसीने एवं श्रम की ही देन है। इससे हम इंकार नहीं कर सकते। यह बात हम गर्व से कह सकते हैं।

मानव के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का प्रथम चरण वैदिक काल से प्रारंभ होता है। इस काल में अग्नि का अविष्कार एक ऐसा अविष्कार था जिसने मानव के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किया। उसे जानवर से मनुष्य बनाया। यह अविष्कार मानव का सभ्यता की ओर बढता हुआ क्रांतिकारी कदम था। आज हम इस महान अविष्कार के महत्व को नहीं समझ सकते। जब जंगल की आग दानव की तरह सब कुछ निगल जाती थी, उसे काबू में करके प्रतिकूल से अनुकूल बनाने का कार्य मानव सभ्यता के लिए क्रांतिकारी अविष्कार था। आश्वलायन संहिता में इस कार्य का श्रेय महर्षि अंगिरा को दिया गया है। सभी मनुष्यों के लिए उपस्करों एवं उपकरणों का निर्माण विकास का दूसरा चरण था। परम्परागत शिल्पकारों ने एक चक्रवर्ती राजा से लेकर साधारण मजदूर किसान तक के लिए उपकरणों का विकास किया गया। यज्ञों के लिए यज्ञपात्रों ( जो मिट्टी, काष्ठ, तांबा, कांसा, सोना एवं चांदी के हुआ करते थे) से लेकर यज्ञ मंडप का निर्माण, राजाओं के लिए अस्त्र-शस्त्र, शकट, रथों का निर्माण, किसान मजदूरों के लिए हल, फ़ाल, कुदाल, कुटने, पीसने, काटने के उपकरण बनाए गए।

जिसे हम आज इंडस्ट्री कहते हैं किसी जमाने उसे शिल्पशास्त्र कहा जाता था। वायुयान, महल, किले, वायु देने वाले पंखे, थर्मामीटर, बैरोमीटर, चुम्बकीय सुई(कम्पास) बारुद, शतघ्नी (तोप) भुसुंडि (बंदुक) एवं एश्वर्य की अन्य भौतिक वस्तुओं का वर्णन संक्षेप में न करुं तो पुन: कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। परम्परागत शिल्पकारों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इतिहास की छाती पर अपने खून पसीने से जो कालजयी इबारतें लिखी हैं वे वर्तमान में भी अमिट हैं। काल का प्रहार भी उन्हे धराशायी नहीं कर पाया। परम्परागत शिल्पकारों की रचनाओ एवं कृतियों के वर्णन से वैदिक एवं पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं तथा वर्तमान में भी परम्परागत शिल्पकारों द्वारा रची गयी आर्यावर्त के कोने कोने में गर्व से भाल उन्नत किए आसमान से होड़ लगा रही हैं। जिसे देख कर आज का मानव स्मृति खो देता है, उन कृतियों को बनाने वाले शिल्पकारों के प्रति नतमस्तक होकर सोचता है कि हजारों साल पूर्व मानव ने मशीनों के बगैर अद्भुत निर्माण कैसे किए होगें?

भारत में समस्त तकनीकि ज्ञान एवं शिल्पज्ञान का प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा को माना गया है। भगवान विश्वकर्मा के अविष्कारों का बखान करते हुए वेद एवं पुराण नहीं थकते। ॠग्वेद के मंत्र दृष्टा ॠषि भगवान विश्वकर्मा भी हैं। कहते हैं - यो विश्वजगतं करोत्य: स: विश्वकर्मा अर्थात वह समस्त जड़ चेतन, पशु पक्षी, सभी के परमपिता है, रचनाकार हैं। महर्षि दयानंद कहते हैं - विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स: विश्वकर्मा सम्यक सृष्टि का सृजन कर्म जिसकी क्रिया है, वह विश्वकर्मा है। प्राचीन काल से ही सृष्टि के रचियिता भगवान विश्वकर्मा के अनुयायी विश्वकर्मावंशी अपने तकनीकि कौशल से के बल पर सम्पूर्ण सृष्टि को रचाने-बसाने में लगे हैं। मानव सभ्यता को नया आयाम देने का कार्य परम्परागत शिल्पकारों ने ही किया, इसमें कोई संदेह नहीं है। स्थानीय राजाओं के साथ-साथ हजारों वर्षों तक भारत में शासन करने वाले विदेशियों ने भी शिल्पकार्य को बढावा दिया। परन्तु अंग्रेजों के शासन काल में औद्यौगिकरण के नाम पर कुटीर उद्योगों की बलि चढा दी गयी। अंग्रेजों ने देखा कि भारत में शिल्पकला का स्तर बहुत ही ऊंचा है और यहाँ के शिल्पकार उन्नत शिल्प गढते हैं। तकनीकि ज्ञान से दक्ष शिल्पकार अगर विरोधी हो गए तो उनके शासन को खतरा हो जाएगा क्योंकि विश्व में जितने भी सत्ता परिवर्तन हुए वे श्रमिकों एवं शिल्पकारों के आन्दोलनों के द्वारा ही हुए। इसलिए षड़यंत्र करके अंग्रेजों ने मशीनीकरण किया और परम्परागत शिल्पकारों के हाथ से उनका पैतृक व्यवसाय छीन कर कमर तोड़ने का कार्य किया।

अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बना रखा था, तब प्रत्येक नागरिक की किस्मत का फ़ैसला उनकी सरकार ही करती थी। उनके जोर जुल्म को नियति समझ कर शिल्पकारों ने आजादी के आन्दोलनों में सक्रीय भागीदारी निभाई। समय बदला, आजादी मिली, पर शिल्पकारों की किस्मत नहीं बदली। आजादी के बाद गद्दी पर बैठने वाली सरकार ने प्रथम पंचवर्षीय योजना में शिल्पकारों को कोई स्थान नहीं दिया। उनके विकास के लिए कोई योजना नहीं बनाई। शिल्पकारों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया। आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी परम्परागत शिल्पकारों को वही पीड़ा झेलनी पड़ रही है जो अंग्रेजों के जमाने में झेलनी पड़ी थी। फ़र्क तो सिर्फ़ इतना था कि मुखौटा बदल गया, हाकिम नहीं बदले। आजादी के 65 सालों के बाद भी परम्परागत शिल्पकार आजाद नहीं हुआ है। क्योंकि जब तक आर्थिक आजादी नहीं, बाकी आजादी झूठी है। लोकतंत्र का अर्थ यही है कि जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन। लोकतंत्र में सभी जातियों, पंथों, फ़िरकों को समान विकास का अवसर मिलना चाहिए। लेकिन वोटों की राजनीति ने शिल्पकारों के हाथ-पैर बांध कर विकास की दौड़ में खुला छोड़ दिया। फ़लस्वरुप दोगली राजनीति का दंश झेलने के लिए मजबूर होना पड़ा। आज परम्परागत शिल्पकार राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक रुप से अत्यंत ही पिछड़ गया।

पूर्वजों ने वसुधैव कुटुम्बकं की अवधारणा को जन्म दिया, जिसे हम आज ग्लोबलाईजेशन का नाम दे रहे हैं। परन्तु ग्लोबलाईजेशन के गलत स्वरुप के कारण इसका प्रतिकूल असर परम्परागत शिल्पकारों पर पड़ रहा है। जिन वस्तुओं का निर्माण हमारे शिल्पकार कुशलता पूर्वक करते है उन वस्तुओं के साथ अन्य छोटी-छोटी वस्तुओं का भी विदेशों से आयात हो रहा है। वर्तमान में विश्व वृहद बाजार का रुप ले रहा है, जिससे उत्पादन की चुनौतियाँ सीधे-सीधे ही परम्परागत शिल्पकारों के जीवन को प्रभावित कर रही हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोहकारों, सोनारों, ताम्रकारों के धातु संवर्धन एवं गलाई के कारखानों का बंद हो जान है। बड़ी-बड़ी सुरसा मुख विदेशी एवं देशी कम्पनियों ने इनके कार्यक्षेत्र पर कब्जा जमा लिया है। वनों से ईमारती लकड़ियों का निकास लगभग न्यून ही हो गया है जिससे लकड़ी के निर्माण के कच्चे माल में बेतहाशा मूल्य वृद्धि हुई है। बढईयों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी है वे आर्थिक विपन्नता से जूझ रहे हैं। सरकार बड़े उद्योगों के लिए सब्सिडी एवं टैक्सों में छूट देकर इनकी वकालत कर रही है। वहीं दुसरी ओर परम्पराग्त शिल्पकार कच्चे माल की कमी से जुझते हुए मंदी की मार झेल रहे हैं। यह विसंगति चिंतनीय है।

परम्परागत शिल्पकारों में शिक्षा की कमी है, राजनैतिक हस्तक्षेप भी नहीं के बराबर है। मुझे ज्ञात नहीं कि कभी परम्परागत शिल्पकार समुदाय से कोई व्यक्ति राजनैतिक उच्च पदों पर आसीन रहा हो। कोई अपवाद भी हो सकता है। 1931 में अंग्रेजों ने जातिगत आधार पर जनगणना कराई थी, उसमें परम्परागत शिल्पकारों की जनसंख्या 10% बताई गयी थी।31 मार्च 2011 की जनगणना के अस्थायी आंकड़ों के अनुसार भारत की जनसंख्या 122 करोड़ है। इस हिसाब से भारत में परम्परागत शिल्पकारों की कुल जनसंख्या 12 करोड़ 20 लाख होती है। इतनी बड़ी जनसंख्या में होने के बाद भी वर्तमान में परम्परागत शिल्पकारों का राज्य सभा, लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं एवं सरकारी उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर ही है। परम्परागत शिल्पकार आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से अपना कोई मुकाम नहीं बना पाए। सत्ता के गलियारों में इनकी आवाज उठाने वाला कोई प्रतिनिधि नहीं है। भारत की लगभग 12 करोड़ 20 लाख जनसंख्या उपेक्षित हो रही है, जिसके कारण एक बड़ा समुदाय भारत में विनाश के कगार पर खड़ा है। यह एक चिंतनीय स्थिति है जिस पर सभी को चिंतन करना चाहिए।

जब भारत की पहली पंचवर्षी योजना तैयार की गयी तो उसमें बड़े कल-कारखाने लगा कर उनसे अधिक उत्पादन पर बल दिया गया। यह असर इंग्लैंड की औद्यौगिक क्रांति का था। किसानों के लिए योजना बना कर उन्हे लाभ पहुंचाने के लिए "हरित क्रांति" की शुरुवात की गयी तथा उसके कुछ वर्षों पश्चात श्वेत क्रांति प्रारंभ हुई। ये योजनाएं अभी चल रही हैं। अब सरकार ने मल्टीनेशनल कम्पनियों के सामने घुटने टेक दिए। अर्थव्यवस्था रसातल की ओर जा रही है। देश को विदेशियों के हाथों में गिरवी रखने की नौबत आ रही है। इन योजनाओं में जितना बजट लगाया है उसका 5% भी परम्परागत शिल्पकारों के दशा सुधारने में लगाया होता तो आज भारत विकसित राष्ट्रों की कतार में महाशक्ति बनकर खड़ा होता। परम्परागत शिल्पकारों के संरक्षण का सीधा लाभ भारत की अर्थ व्यवस्था को होगा क्योंकि यंत्रों एवं उपरकणों के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा से मुद्रा भंडार समृद्ध होगा। भारत के विकास के लिए सरकार को अब "शिल्प क्रांति" की ओर उन्मुख होना चाहिए। परम्परागत शिल्पकारों को वे समस्त सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए जो मल्टीनेशनल कम्पनियों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। उससे लाभ यह होगा कि भारत अपने उत्पादों के द्वारा सारे विश्व में छा सकता है। हमारे पास तकनीकि ज्ञान की कोई कमी नहीं है।

जब चीन से बना सामान भारत के बाजारों पर कब्जा जमा चुका है। हमें भी कुटीर उद्योगों की ओर वापस जाना होगा। जिससे परम्परागत शिल्प समृद्ध होगा और शिल्पकारों को काम मिलेगा। ऐसी स्थिति में परम्परागत शिल्पकारों को शासकीय संरक्षण की महती आवश्यकता है। जिस तरह अमेरिका की एजेंसी नासा निरंतर तरह-तरह के अनुसंधानों में लगी रहती है। उसी तरह संरक्षण मिलने पर परम्परागत शिल्पकार भी नित नए अविष्कार कर सकते हैं। जिससे प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग मशीनरी, विद्युत उत्पादन, उच्च शिक्षा, कृषि आदि क्षेत्रों में उन्नति का मार्ग खुलेगा। नयी तकनीकों के विकास से बेरोजगारी दूर करने में मदद मिलेगी तथा हर हाथ को काम मिलेगा। भारत को आर्थिक रुप से शक्तिशाली राष्ट्र बनाने में परम्परागत शिल्पकारों की भूमिका उल्लेखनीय होगी। क्योंकि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक हम अपने तकनीकि ज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को लोहा मनवा चुके हैं। आज भी तकनीकि ज्ञान के विकास की आवश्यकता है। इसलिए श्रम दिवस (विश्वकर्मा पूजा) के अवसर पर हमें भारत की  शिल्पकला की उन्नति एवं परम्परागत शिल्पकारों के अधिकारों की ओर ध्यान देना चाहिए। 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिन्दी दिवस: लो भई हम भी सम्मानित हो गए -------------- ललित शर्मा

दो दिन से इंटरनेट सता रहा था, थक हार कर शिकायत करने मुझे बी एस एन एल (bsnl) के दफ़्तर में जाना पड़ा, वहाँ एक बैनर लगा था। जिसमें लिखा हुआ था "हिन्दी पखवाड़ा"। बैनर देख कर मुझे लगा कि अब सरकारी तौर हिन्दी को याद करने का मौसम आ गया। इसके लिए विभागों ने अलग से बजट जारी किया होगा और हिन्दी दिवस पर कोई कार्यक्रम करके हाई टी या महाभोज द्वारा खर्च किया जाएगा। दो-चार विभागीय तुक्कड़ों को सम्मान-पत्र एवं शाल श्रीफ़ल देकर सम्मानित किया जाएगा। फ़िर हिन्दी पखवाड़े की इति श्री हो जाएगी। कमोबेश सभी सरकारी आयोजन इसी तरह होगें। पान चबा कर पीक से मुंह और कुरते को रंगने वाले कुछ घिसे-पिटे झोला छाप तथाकथित साहित्यकारों की जै-जै हो जाएगी। अगले दिन से सरकारी काम काज फ़िर राज महिषी अंग्रेजी की छत्र छाया में प्रारंभ हो जाएगा। अरे! कोई हमारी जै जै करे तो बात बने। बरसों हो गए कीबोर्ड तोड़ते हुए।

दफ़्तर से बाहर आते समय एक जबरिया साहित्यकार जी से मुलाकात हो गयी, उन्होने अपने झोले से एक निमंत्रण पत्र निकाला और लिफ़ाफ़े पर बिना नाम लिखे ही मुझे सादर समर्पित किया। साथ करबद्ध कुटिल मुस्कान के साथ सरकारी सहयोग से उनके द्वारा आयोजित कार्यक्रम का निमंत्रण दिया। मैने उन्हे धन्यवाद दिया और कहा कि समय मिलने पर आपके कार्यक्रम में अवश्य ही पहुंचने का प्रयास करुंगा। क्योंकि हिंदी दिवस ही वर्ष में एक दिन ऐसा आता है जिस दिन कहीं से जुगाड़ कर दो चार सम्मान पत्र कबाड़ लिए जाते हैं। कम से कम साहित्य जगत के मित्रों पर रौब जमाने के काम आते हैं। ऐसे महत्वपूर्ण दिन किसी फ़ोकटिया कार्यक्रम में जाकर समय खराब करना बुद्धिमानी नहीं है। अगर आपकी संस्था द्वारा सम्मान करवाएं तो मैं अवश्य आ सकता हूँ।

उन्होने कुटिल मुस्कान के साथ पान की पीक के साथ थूक छलकाते हुए कहा - भैया इस साल के तो सब सम्मान बुक हो गए हैं, कहें तो अगले वर्ष की बुकिंग अभी से कर देता हूँ। मैने हामी भर ली - अरे भाई हजार-दू हजार की जरुरत पड़े तो वह भी बता दीजिएगा, संकोच न कीजिएगा, समझे कि नहीं। उन्होने कहा - हाँ भैया, बगैर मुद्रा के मुख मुद्रा ही नहीं बनती। देखिए न कितने सारे मुद्रा राक्षस फ़िर रहे हैं, मुद्रा की थैली धर के कहीं सम्मान हो जाए तो बात बने। पर आप किंचित भी संशय न रखें। आगामी वर्ष के लिए आपका सम्मान तय समझिए। सम्मान पत्र के साथ में साथ शाल और श्रीफ़ल भी बुक रहा। मैने प्रसन्न मुद्रा में उनकी जय-जय कार की और आगे बढ लिया।

रास्ते में सम्मान के थोक व्यापारी चचा मिल गए, गालिबन वे भी पान चबाते हुए सायकिल ओंटते चले जा रहे थे। मुझे देखते ही रोक ली सायकिल और सामने के जंग खाकर टूटे हुए दांतो के बीच से एक लम्बी पीक मारी। थोड़ी ही दूरी बच गयी वरना हमारा एक्शन का चकाचक जूता शर्म से लाल हो जाता। कहाँ से आ रहे हो मियां?- पीक मारते ही सवाल की तोप दाग दी। राम राम चचा, हम तनि ई ऑफ़िस से आ रहे हैं। अच्छा अच्छा, हिन्दी दिवस का कौनो कार्यक्रम का निमंत्रण है का हिंया का? नहीं चचा, हमारा इंटरनेट खराब हो गया है, वह उसका बी पी उपर नीचे होते रहता है। कहीं रात को हृदयाघात न हो जाए यही सोच कर चले आए थे। फ़िर कल हिन्दी दिवस है। अगर एक लेख हिन्दी पर नहीं लिखेगें तो लोग बाग सोचेगें कि साल भर हिन्दी को घोरते रहते है और जब मौका आए तो लिखना ही भूल गए। बस यही सोच कर साहब से मिलने चले आए थे।

चचा कहने लगे कि - का बताएं भतीजे, बड़ा खराब जमाना आ गया है। हमने प्रतिवर्षानुसार हिन्दी दिवस पर सम्मान समारोह आयोजित किया है इस बार कोई दिख ही नहीं रहा किसका सम्मान किया जाए। जिसके पास जाते हैं वही बुक मिलता है। कहता है कि चचा विलंब से आए हम तो फ़लां-फ़लां के कार्यक्रम में बुक हो गए हैं। अब बताओ भतीजे हम इतने बरसों से सम्मान बांट रहे हैं अगर इस दिन सम्मान नहीं बांट पाए तो हमारी अंतर्रात्मा हमें धिक्कारेगी कि हिन्दी के लिए कुछ किए नहीं। सोचो जरा हिन्दी लेखन करने वाले साहित्यकार का हिन्दी दिवस के दिन शाल श्रीफ़ल से कहीं सम्मान न हो तो कितनी अपमान की बात है। वो दिन भी क्या दिन थे जब लोग सम्मान करवाने के लिए बरसों पहले सम्पर्क करके बुकिंग करवाते थे। तब कहीं जाकर उनका नम्बर आता था। हमें मालूम नहीं था कि इतने बुरे दिन भी आएगें। संकट के समय अपना ही काम आता है तो तुम्हें रोक लिए।

निराश न होईए चचा, आदेश कीजिए मैं आपका क्या प्रिय कर सकता हूँ, चचा की आँखों में झांकते हुए मैने कहा। मुझे तुमसे यही आशा थी, मुझे मालूम था कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे। कुछ खर्चा वर्चा दो तो कोई पुराना सभागृह बुक करवा लेता हूँ एक दो अतिथि और मुख्यातिथि तय करने पड़ने पड़ेगें। बहुत काम है, अब जल्दी से कुछ नगदऊ दर्शन कराए दो- चचा जीभ से लार ट्पकाते हुए बोले। मैने कहा - का बताएं चचा, इतने बुरे दिन आ गए हैं कि गाहे-बगाहे लोग हिन्दी को गरियाते रहते हैं कि हिन्दी रोजगार देने वाली भाषा नहीं है। क्या करेगें हिन्दी सीख कर, हिन्दी बोल कर। जब रोजगार ही नहीं मिलेगा तो पेट कहाँ से भरेगा। बड़े-बड़े नामवर लोगों का हिन्दी लिख बोल कर पेट नहीं भरा, वे दिन भर पानी पीकर डकारते रहते हैं झेंप मिटाने के लिए, ताकि लोगों को अहसास हो, भर पेट खाकर आए हैं। आप कौन सा तीर मार लोगे हिन्दी की हिमायत करके ?

मेरे पास भी इतनी रकम नहीं है कि आपको देकर सम्मानित हो जाऊं, यहाँ फ़ोकट में सम्मानित करने वालों के लगातार चलभाष पर फ़ोन आ रहे हैं अब बताओ घाटे का सौदा मैं कैसे करुं? यदि आप चाहें तो मै आपकी एक सहायता कर सकता हूँ। जिससे आपका नाम भी कायम रहेगा और सम्मान भी कायम रहेगा। चचा ने अचरज भरी निगाहों से देखते हुए कहा - बताओ, क्या करना होगा। मैने कोरा सम्मान पत्र उनके थैले में देख लिया था। उनसे कहा - आपके थैले में जो सम्मान पत्र है उसमें मेरा नाम भर दीजिए और सामने जो हिन्दी पखवाड़ा का बैनर लगा है उसके सामने मुझे दे दीजिए। वहाँ उपस्थित गार्ड और चपरासी को भी बुला लेगें, चार छ: लोग साथ में दिखेगें भी और फ़ोटो भी हो जाएगी सम्मान करते हुए, आपकी इज्जत भी कायम रहेगी और बिना खर्चे के हम भी सम्मानित हो जाएगें। अखबार में भी आपकी संस्था के द्वारा किए गए सम्मान चित्र भी छप जाएगा।

चचा बोले - मान गए भतीजे, तुम्हारी खोपड़ी को, गाल पर चुम्मा लेने का दिल कर रहा है। हम ही भकवाए हुए थे कि कैसे होगा सम्मान समारोह का आयोजन। सम्मान करके भले ही हम तीर-तलवार नहीं मार लेगें पर साल भर यह बात कचोटते रहती कि किसी साहित्यकार का सम्मान नहीं कर पाए। अगर सम्मान नहीं होगा तो न जाने कितने उदयीमान कवि साहित्यकारों की भ्रूण हत्या हो जाएगी। तुमने मुझे इस कलंक से बचा लिया। अगर हिन्दी लेखन बंद कर देगें तो हिन्दी के सम्मान का दम भरने वाली इतनी सारी संस्थाओं का क्या होगा? उन्हे आयोजन करके हिन्दी के प्रति शहीद होने का भाव प्रकट करने का अवसर कैसे मिलेगा? चलो जल्दी से तुम्हारा सम्मान कर दें, फ़िर किसी और को तलाशें, जो सम्मान के तलबगार हैं। हिन्दी पखवाड़ा के बैनर के नीचे चचा ने हमें सम्मान-पत्र देकर सम्मानित किया। गार्ड ने मेरे मोबाईल फ़ोन से यादगार चित्र लिया और हम निहाल हो गए और चचा भी।

वह साहित्यकार ही क्या जिसका सम्मान नहीं। अगर कभी हमें किताब भी छपानी पड़ी घर दुआर बेचकर, अपने खर्चे से, बिना सम्मान के हम क्या लिखेगें अपनी उपलब्धि के तौर पर। वर्तमान में काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, व्यंग्य संग्रह आदि में आवरण के अंतिम पृष्ठ पर साहित्यकार को मिले हुए सम्मानों की सूची प्रकाशित करना परम्परा हो गयी है। जिसकी सम्मान  सुची जितनी बड़ी वह उतना बड़ा लेखक-साहित्यकार कहलाता है। पद्म श्री इत्यादि के लिए भी अर्जी लगाते समय उसमें भी सम्मानों की सुची मय सम्मान के प्रमाण के संलग्न करनी पड़ती है। सम्मान पाकर मैं मुदित होकर चचा को धन्यवाद दे रहा था कि यदि इसी तरह बिना खर्चे के सम्मान करते रहें तो एक दिन हिन्दी अवश्य अपने उच्च स्थान को प्राप्त करेगी। अगर यही सम्मान करने का जज्बा चचा जैसे लोगों में रहा तो हिन्दी को सम्मानित होने और हमें पद्म श्री पाने से से कौन रोक सकता है। चलते चलते मेरे होंठों से नगमा फ़ूट पड़ा, हम होगें कामयाब, हम होगें कामयाब एक दिन, मन में है विश्वास………। 

बुधवार, 12 सितंबर 2012

काश!............


भिनसारे भिनसारे ही
कोयलिया की कूक
सुनाई देने लगी
सोचने लगा, अभी कौन से आम बौराए हैं
जो कोयलिया कूक रही है
विहंग को कौन बांध पाया है?
वे कोई मानव नहीं?
किसी प्रांत के एपीएल,
बीपीएल कार्डधारी लाभार्थी नागरिक नहीं
जो किसी के बंधन में बंध कर परतंत्र हो जाएगें
जीवन स्वतंत्र है
स्वतंत्र जन्मे और स्वतंत्र मरें
परतंत्रता तो इन्हे पल की नहीं सुहाती
न ही सीमा पार करने के लिए
किसी सरकार के अनुज्ञा-पत्र की दरकार होती
जब चाहें तब पंख फ़ड़फ़ड़ाए और उड़ जाते हैं
जब मन में आए तो गाने लगते हैं
काश! विहंग सा जीवन ही क्षण भर को मिल जाए
तो मन करता है
पूरा एक जीवन ही जी लूं

सोमवार, 3 सितंबर 2012

बरसात में जहरीले सांप-बिच्छू बचाव ---- ललित शर्मा

रसात होते ही जहरीले कीड़ों और सांप के दंश के खतरे बढ जाते हैं। बिलों में पानी भरते ही ये बाहर निकल आते हैं सुरक्षित जगह की तलाश में शिकार हो जाते हैं मनुष्य के हाथों या फ़िर मनुष्य और मवेशी को डस लें तो उनकी मौत हो जाती है। बरसात के मौसम में सर्प के दंश की शिकायतें बढ जाती है। प्रतिदिन ही समाचार मिल जाते हैं सर्प दंश के शिकार होने के। असावधान होकर लोग अनजाने में ही काल का ग्रास बन जाते हैं। किसी स्थान पर मनुष्य का बसेरा करने से पहले वहाँ पर सांप या जहरीले जीव जंतुओं का ही वास रहता है। उनके निवास स्थान पर मनुष्य अपना निवास स्थान बना लेता है तो ये भी अपने निवास की खोज में मनुष्य के घर, बाड़ी, मवेशियों के कोठे में घुस जाते हैं। मनुष्य द्वारा थोड़ी सी असावधानी हुई या अनजाने में इन पर पैर या हाथ पड़ा तो वह शिकार बन जाता है। मनुष्य और सांप दोनो एक दूसरे से भय खाते हैं और अपने प्राण बचाने के प्रयास में एक दूसरे पर हमला कर बैठते हैं।

सर्प का नाम सुनते ही आदमी को पसीना आ जाता है। सामने मिलने पर भय से कांपने लगता है। क्योंकि इसके विष की एक बूंद ही आदमी को मृत्यू के मार्ग तक पहुंचा देती है। ऐसा नहीं है कि सभी सांप जहरीले होते हैं पर भय अधिक असर करता है और उसके कारण भी हृदयाघात से जान चली जाती है। आम आदमी नाग (कोबरा) की सभी प्रजातियों को उसके फ़न होने के कारण पहचान लेता है, लेकिन अन्य जहरीले सर्प करैत, घोड़ा करैत, रस्सेल वायपर इत्यादि को नहीं पहचान पाता। सावन मास के प्रारंभ होने वाले चौमासे को नाग जाति के प्रजनन का समय माना गया है। इस समय संकोची और संवेदनशील माने जाने वाले सर्प मनुष्य से टकरा ही जाते हैं। समाज में सांपों को लेकर तरह-तरह की किंवदंतियाँ और कहानियाँ प्रचलित हैं। जो कि इनके प्रति भय का वातावरण बनाने के लिए काफ़ी होती हैं। जबकि सर्प चूहों और मेंढकों को खाकर पर्यावरण के साथ अनाज की रक्षा भी करते हैं।

विशेषकर छत्तीसगढ अंचल में तीन तरह के जहरीले सर्पों की प्रजातियाँ मिलती हैं। इनमें नाग (कोबरा) की कई प्रजातियाँ हैं, काला नाग, गेंहूआ नाग, एवं किंग कोबरा, घोड़ा करैत वायपर (यह दो से तीन फ़ीट तक की लम्बाई का होता है और काले रंग पर सफ़ेद पट्टियाँ होती है) करैत ( यह घोड़ा करैत से लम्बा होता है और धूवें के रंग पर सफ़ेद पट्टियां होती हैं।) अहिराज ( यह लम्बा होता है और काले रंग पर पीली पट्टियाँ होती हैं) इन्हे जहरीला माना गया है। कोबरा सांप के दंश से व्यक्ति की आँखों की पलकें स्वत: ही बंद होने लगती हैं तथा व्यक्ति को दो-दो दिखने लगता है। सांस लेने में तकलीफ़ होती है तो वह लम्बी सांसे लेता है। करैत के काटने से दंश वाले स्थान पर कोई दर्द नहीं पर व्यक्ति को नशा छाने लगता है और बेहोश होने लगता है। गर्मी लगती है। वाईपर का विष सबसे अधिक खतरनाक होता है और थोड़ी ही देर में अपना असर दिखाने लग जाता है। व्यक्ति की नाक से खून निकलने लगता है, शरीर पर नीले धब्बे पड़ने के साथ मूत्र में खून आने लगता है, विष के कारण गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं, जिससे पांव में सूजन आने लगता है। ग्रामीण अंचल में सर्प दंश के शिकार को नीम की पत्तियाँ खिलाई जाती हैं। अगर नीम की पत्तियाँ कड़वी न लगें तो समझा जाता है कि किसी जहरीले सर्प ने डसा है और फ़िर उसका इलाज किया जाता है।

सर्प दंश होने पर ग्रामीण अंचल में बैगा-गुनिया से झाड़ फ़ूंक करवाने पर अधिक विश्वास किया जाता है। अगर सर्प जहरीला न हो तो वह दंश का शिकार व्यक्ति बच जाता है, यदि जहरीला सर्प हुआ तो झाड़ फ़ूंक के बाद भी व्यक्ति की मौत तय है। इसलिए सर्प दंश का पता चलने पर व्यक्ति की दंश की जगह को रस्सी से बांध कर तत्काल अस्पताल तक ले जाने की व्यवस्था करने में ही भलाई है। जहर का असर होने के विषय में सीधा सा फ़ार्मुला है, जितनी देर में दारु का नशा होता है उतनी ही देर में जहर दंश के शिकार की नसों में फ़ैल जाता है और शरीर की जीवन प्रणाली को ध्वस्त करने करने लग जाता है। यदि व्यक्ति समय रहते अस्पताल पहुंच जाता है तो बचने की संभावना अधिक रहती है। सर्प दंश की स्थिति में व्यक्ति को सोने नहीं देना चाहिए, अस्पताल पहुंचते तक उससे बातें करके ध्यान बंटाए रखना चाहिए। बरसात के मौसम में अस्पतालों में एंटी स्नेक वेनम तैय्रार रखा जाता है। जिसके इस्तेमाल से सांप का जहर उतर जाता है और व्यक्ति बच जाता है।

कुछ दिनों पूर्व छत्तीसगढ के लवन तहसील के ग्राम सरखोर की 55 वर्षिया महिला तिरिथ बाई वल्द बाबूलाल पटेल सर्पदंश का शिकार हो गयी। वह बारिश होने पर कंडों (उपलों) को देखने गयी थी कि कहीं बरसात में भीग तो नहीं रहे हैं। तभी उसके पैर के अंगूठे को सांप ने डस लिया। अस्पताल पहुचते-पहुचते उसकी मौत हो गयी। दमोह के जमुनिया गाँव की 14 वर्षिया कविता लोधी चूल्हा जलाने के लिए कंडे निकाल रही थी तभी उसमें छिपे बैठे तीन सांपों ने उस पर एक साथ हमला कर दिया। उसे कई जगह डसा और शरीर से जोंक की तरह चिपक गए। चीखने-चिल्लाने पर उसकी दादी ने एक सांप को पटक कर मार डाला तथा दो अन्य सांपों को अलग कर बर्तन से ढका, तक कविता का शरीर नीला पड़ गया था। अस्पताल ले जाने पर उसने एक दिन बाद दम तोड़ दिया। अभनपुर के पास खरखराडीह गाँव की स्कूली छात्रा छुट्टी होने पर एक पेड़ के नीचे पेशाब करने बैठी तो उसे सांप ने डस लिया। अभनपुर अस्पताल में लाने पर उसकी मौत हो गयी।

गाँव में खपरैल के कच्चे घरों में सांपों का अधिक खतरा रहता है। चूहों के पीछे खपरैल की छत में सांप घूमते रहते हैं, फ़िर नीचे उतर जाते हैं और सोए हुए आदमी को डस लेते हैं। जंगली कोरवा सर्प दंश के अधिक शिकार होते हैं। क्योंकि वे अपनी कबीले की मान्यतानुसार खाट पर नहीं सोते। कुछ वर्षों पूर्व मैने एक समाचार पढा था, जिसमें एक परिवार के 5 लोगों की मृत्यू सर्प दंश से हो गयी। मनुष्य के जमीन में सोने के कारण सर्प उसके ईर्द-गिर्द पहुंच जाते हैं और व्यक्ति के करवट लेने पर दबने के कारण उसे डस लेते हैं। आदिवासी अंचल से सर्पदंश की शिकायतें शहरों की अपेक्षा अधिक आती हैं। इस इलाके में असावधानी के कारण प्रतिवर्ष सर्प दंश से सैकड़ों व्यक्ति अकाल मृत्यू को प्राप्त होते है। बरसात में सर्प दंश की घटनाएं अत्यधिक मात्रा में सामने आती हैं। सर्प दंश से मृत्यू के पीछे शिकार व्यक्ति का समय पर अस्पताल तक न पहुंचना ही है। क्योंकि ग्रामीण बैगा को बुला कर झाड़-फ़ूक में लग जाते हैं तब तक देर हो जाती और सर्प के जहर का असर सारे शरीर में हो जाता है।

बरसात के समय जहरीले कीड़ों और सर्प से बचाव करने के लिए सबसे पहले सावधानी जरुरी है। अक्सर ये सांझ के समय ही निकलते हैं अपने शिकार पर, इसलिए कहीं भी जाते वक्त प्रकाश का साधन अवश्य साथ रखें। पक्के घरों में सोते वक्त दरवाजे की नीचे कपड़ा लगाकर सोएं जिससे सर्प को भीतर आने की जगह न मिले। गाँव में अक्सर सर्प लकड़ी एवं कंडे रखने की जगह, गौठान इत्यादि में अधिकतर दिखाई देते हैं। यहाँ काम करते वक्त सावधानी बरतें। अगर सर्प या बिच्छू डस ले तो घबराएं नहीं। काटे हुए स्थान को एन्टीसेप्टिक से धोकर उसके उपर की तरफ़ रस्सी बांध ले, जिससे विष का प्रभाव रक्त में धीमी गति से होगा और जान बचने की संभावना अधिक रहेगी।सर्प दंश से प्रभावित को स्थिर कर दें, अधिक हिलने डुलने से रक्त का संचार तीव्रता से होता है तथा भय उत्त्पन्न करने वाली कोई बात उससे न करें। बैगा-गुनियों के चक्कर में पड़ कर समय खराब करने से अच्छा समीप के किसी सरकारी अस्पताल में शीघ्रता से पहुंचे। जिससे समय पर चिकित्सा मिल सके। बरसात के समय सर्प दंश से बचने के लिए सावधानी आवश्यक है, इस बात का हमेशा ध्यान रखे एवं लापरवाही न करें। तभी बचाव संभव है।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

इति श्री रतनपुर यात्रा ----------- ललित शर्मा

किरारी गोढी शिव मंदिर की चामुंडा प्रतिमा
पाली पहुंचते पहुंचते बरसात होने लगी थी। पंकज सुबह से बरसात के बालहठ में लगा था आखिर उपरवाले ने अर्जी स्वीकार ही कर ली। रतनपुर से दो चार किलोमीटर आगे निकलने पर लैपटॉप के नेट ने नेटवर्क पकड़ लिया। बस बात बन गयी, दिन भर का अपडेट देखने का काम चलता रहा, साथ ही वेरना भी। चलती गाड़ी में जब फ़ेसबुक खोला जाए तो कमेंट करने में समस्या होती है, इसलिए माकूल कमेंट ढूंढ कर कापी पेस्ट करना पड़ता है। कभी-कभी चूक भी हो जाती है, कहीं का सामान कहीं और पहुंच जाता है। दिन भर की हाहाकार मेहनत के बाद अब एक नींद सुकून की चाहिए। अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी, दाढ के मसूडे में दर्द शुरु हो गया। लगा कि फ़िर वहीं कसाई के पास जाना पड़ेगा, जिसने एक बार पहले भी 1500 का फ़टका लगाया था। बिलासपुर पहुंच कर पहला काम एक  दर्द  निवारक टेबलेट लेने का किया। फ़ौरी तौर पर उससे कुछ राहत मिल गयी।

शिवमंदिर का पार्श्व भाग
हमारे घर पहुंचने तक खाना बन चुका था। खाना खाकर पंकज तो चले गया अपने दौलतखाने और हम अरविंद झा जी के गपियाते रहे। सुबह जाने की प्लागिंग करने लगे। बिलासपुर से सुबह साढे छ: बजे लोकल गाड़ी रायपुर को जाती है। उसी से जाने का मन बनाया। रात को मच्छरों के हमले से बचने के लिए पूरी व्यवस्था की गयी थी। पलंग के चारों तरफ़ कछूवा चल रहा था। तब भी मच्छरों का आतंक जारी था। उलटते-पलटते आँख लग गयी, सुबह छ: बजे का अलार्म सुनकर आँख खुली। हाथ मुंह धोकर हम स्टेशन पहुंच गए। वहाँ पहुच कर सोचा कि बिल्हा के पास का देवकिरारी का भग्न मंदिर भी देख लिया जाए। इसलिए सिर्फ़ बिल्हा तक की ही 3 रुपए की टिकिट ली। मुसाफ़िरी की दृष्टि से रेल्वे ही सबसे सस्ता साधन है। इससे सस्ता साधन भारत में और कोई दूसरा नहीं अधिक सस्ता चाहिए तो फ़िर 11 नम्बर की सवारी करनी पड़ेगी।

सप्तरथी सूर्य
ट्रेन में बैठते ही बरसात शुरु हो गयी। मुसलाधार बरसात होने लगी, अब बिना छतरी और रेनकोट के समस्या होने वाली थी। हमने बिल्हा में भाई साहब को बता दिया कि पुशपुल से आ रहे हैं, उनको भी उसी ट्रेन से रायपुर जाना था। बिल्हा स्टेशन पर वे रेनकोट धारण किए हुए मिले, लेकिन स्टेशन तक बाईक लेकर नहीं आए। गजब कर दिया, क्या करें अब बरसते पानी में घर तक पैदल ही जाना पड़ा। बिल्हा के पास के गाँव मोहभट्ठा में आज सावन सोमवारी का भंडारा था। भाभी जिद करने लगी कि मोहभट्ठा प्रसाद लेने जाना है। पर भगवान को मंजूर हो तब न, एक बार घर से निकले तो बरसात होने लगी, वापस आना पड़ा। अब जाने का मन नहीं हुआ। दोपहर बाद बरसात थमी तो बिल्हा से लगभग 5-6 किलोमीटर पर किरारी गोढी नामक गाँव गए। वहीं पर प्राचीन शिव मंदिर है।

गर्भ गृह
यह शिव मंदिर 12 शताब्दी में रतनपुर के कलचुरी राजाओं द्वारा निर्मित है। प्रस्तर निर्मित इस मंदिर का गर्भगृह एवं जंघा का कुछ भाग ही बचा है, बाकी काल की मार से बच न सका। पश्चिमाभिमुख इस मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है। जिसमें मूल जलहरी स्थापित है पर मंडप पूर्णत: नष्ट हो गया है। मूल संरचना के तल विन्यास में मंडप, अंतराल तथा गर्भगृह मुख्य अंग रहे हैं। उर्ध्व विन्यास पंचरथ प्रकार का है, अधिष्ठान भाग पर खुर, कुंभ, कलश संयोजित हैं। अवशिष्ट जंघा पर उर्ध्वक्रम में द्विस्तरीय देव प्रतिमाएं सयोजित हैं। अवशिष्ट जंघा पर शिव के विभिन्न स्वरुप, दिग्पाल, सुर-सुंदरियाँ, मिथुन युगल तथा अन्य अलंकार दिखाई देते हैं। य मंदिर कलचुरी कालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट एवं अनुपम उदाहरण है। इस मंदिर की पूर्व दिशा का दीवाल ही बची है।

यायावर
मंदिर के अवशेष रखे हुए हैं। जिनमें विभिन्न मूर्तियां भी हैं। यह मंदिर केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। घनघोर बादल छाने के कारण बरसात होने के आसार बने हुए थे। मैने जल्दबाजी में ही कुछ चित्र लिए और बि्ल्हा आ गया। अब मेरी ट्रेन रायपुर के लिए 5 बजे थी। बिल्हा से रायपुर 18 रुपए की टिकिट ली। 5 बजे शाम को भी बिलासपुर से रायपुर पुशपुल जाती है। लोकल होने के कारण एक्सप्रेस और मेल गाड़ियों से भी जल्दी रायपुर पहुंचा देती है। रास्ते में शिवनाथ नदी जल से लबालब भरी उफ़नते हुए बह रही थी। एक दो चित्र लेते हुए आगे बढे। लोकल गाड़ी ने शाम को 7 बजे रायपुर पहुंचा दिया। घर पहुंचते तक नौ बज चुके थे। इस तरह एक और पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक धरोहरों की यात्रा निर्विघन सम्पन्न हो गयी।