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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

रेणुका के तट पर यादों की धुंध

तम्बू से बाहर निकला, रेणुका धुंध की चादर ओढ स्थिरता से बह रही थी, सूर्य की किरणें कोहरे की चादर को भेदने का प्रयास कर रही थी। कोहरा भी आज चादर लेकर नहीं, रजाई लेकर आया था और उसने भी ठान लिया था आज तो उसकी ही विजय होगी। बाहर से तम्बू ओस से भीगा हुआ था, पचकौड़ रात को कह रहा था " साहब यहाँ तम्बू मत लगाईए, रात को भालू आते हैं और जंगली सुअर भी।" मैने उसे टालते हुए कह दिया कि मुझे इनसे बचने का मंत्र मालूम है।वो तो अपने गाँव चला गया और मैं रह गया तम्बू में अकेला। अलाव में 3 मोटे लट्ठे लगा दिए थे, दो करदीप जला कर लटका दिए ताकि उनसे ऊष्मा बनी रही।

शीत लहर सी चल रही थी, नदी किनारे की रेत ठंडी हो चुकी थी, ऐसा लगता था कि इग्लू में सोया हूँ। ठंड का असर देख कर स्लीपिंग बैग के भीतर अपना सुलेमानी कोट पहनकर सोया। जब तुम नहीं होती तो कोट से निकली उष्मा तुम्हारे सानिध्य सी राहत देती है मुझे, सीने लगा कर सो जाता हूँ, सीना गर्म रहे तो शिराओं में रक्त जमने का खतरा कम हो जाता है, धमनियाँ उष्मा पाकर सुचारू रुप से कार्य करती हैं। तुम्हारी यादों के इलेक्ट्रोन, प्रोट्रोन, न्यूट्रोन, गॉड पार्टिकल्स जैसे लघु परमाणु  विस्फ़ोट करते रहते हैं। यही तो देह के विद्युत केन्द्र हैं, जो सतत उर्जा बनाए रखते हैं। 

हाँ! एक चीज तो भूल रहा हूँ, जो मय तुमने नयनों से पिलाई थी, सदियाँ बीत गई, उसका असर अभी तक है। महुआ तो बेवफ़ा है, चढता है और उतर जाता है। मगर तुम्हारी वफ़ा की मय जब से मुंह लगी है उतरती ही नहीं है। मय का सागर उमड़ता घुमड़ता है इन नयनों में। पता नहीं कौन सा जादू है, आँखें बंद करते ही भीतर उतर जाता हूँ, चलचित्र सा चलने लगता है। बाहर अंधेरा होते ही भीतर उजाले का विस्फ़ोट हो जाता है। चकाचौंध इतनी अधिक कि प्रकाशमय सतरंगी वलय आसमान में उड़ते दिखाई देते हैं। मन करता है उन वलयों को पकड़ कर तुम्हारे गले का हार बना दूँ। जब तुम आओ तो तुम्हारे साथ-साथ इन्द्रधनुष चले। मैं तो मय पीकर मत्त रहना चाहता हूँ। मुझे ऐसी तंद्रा चाहिए जिससे बाहर आना ही न हो।

नदी किनारे की रेत पर टहलते हुए सोचता हूँ कि पूर्व जन्म में भी कभी मेरा काफ़िला यहीं रुका होगा। आज भी कारवां यहीं ठहरा है, अलाव की राख में दबी चिंगारी को एक बार फ़िर हवा देकर मैने अग्नि प्रज्वलित की है। बनजारा एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर आगे बढ जाता है परन्तू कभी चूल्हे में या अलाव में पानी डाल कर अग्नि को शीतल नहीं करता। उसकी अग्नि सतत प्रज्वलित रहती है। यही अग्नि उसे अगले पड़ाव तैयार मिलती है, बनजारे की बाट देखते हुए। अग्नि जीवन से लेकर मृत्यू तक साथ निभाती है, इसी आशा में कि फ़िर वह स्वर्णकार आएगा और अपनी फ़ूंक से राख उड़ा कर अग्नि प्रज्जवलित करेगा। राख को राख कर देगा, धूंआ को धूंआ कर देगा, अग्नि को स्वर्णिम बना देगा।

इस वीराने में सिर्फ़ मैं हूँ और तुम हो, साथ है नदी का बहता हुआ जल, किनारे पर सदियों से खड़े वृक्ष मेरी ओर ताक रहे हैं, शायद सोच रहे हैं, आज फ़िर यह मुसाफ़िर अकेला है। कैसा पागल है, घूम फ़िर कर फ़िर यहीं डेरा लगा लेता है। शायद कुछ गाड़ कर गया है यहाँ। उसे ही पुन: पाने की अभिलाषा इसे बारम्बार यहाँ खींच लाती है। हाँ! गाड़ा है मैने, यहाँ जीवन की सुनहरी यादों को। उसकी पैरी की खनखनाहट आज भी मेरे कानों में सुनाई देती है। बस उसी खनखनाहट सुनने चले आता हूँ मैं। कांसे की लघु घंटिकाओं की मघुर ध्वनि मुझे रोमाचिंत कर देती है। उसके स्वागत में रोम-रोम उर्जा से भर जाता है। लगता है कि उन्मुक्त आकाश में विचरण कर रहा हूँ। नर से नारायण हो गया हूँ।

पैरों तले का रेत कसमसाकर मुझे वास्तविकता का बोध कराता है, रेत के कसमसाने की ध्वनि मुझे सुनाई दे रही है। परन्तु मधुर लघु घंटिकाओं की ध्वनि के बीच यह ध्वनि मंद हो गई। कदम आगे बढाते ही जूते रेत में धंस कर उसे रौंद रहे हैं। जूतों के तले  से होता हुआ अहसास मस्तिष्क की शिराओं तक पहुंच कर झनझना रहा है।  रेत के नीचे बहती हुई नदी इशारा कर रही है कि जम कर कदम रखो वरना बह जाओगे। न जाने तुम्हारे जैसे कितने बह गए इस बहते हुए जल में। मुझे डर नहीं है बह जाने का। अगर बह जाऊंगा तो कहीं न कहीं किनारा मिल गया जाएगा। फ़िर जीवन की डोर भी इतनी कमजोर नहीं होती। नदी के साथ साथ चलती है। पकड़ ही लूंगा उसे किसी घाट पर।

चिड़ियाँ चहचहाने लगी, धुंध और भी गहरी होती जा रही थी। सूरज की किरणें जितनी ताकत लगा रही थीं, उससे अधिक धुंध पसरती जा रही थी। चिड़ियों की चहचहाट का मधुर संगीत मुझे प्रकृति के साथ जोड़ रहा है। बीच-बीच कौंवे की कर्कश कांव कांव मधुर वीणा के संगीत के बीच ड्रमर द्वारा ड्रम ठोकने का अहसास करा रही हैं। दोनों की जुगलबंदी चल रही है। चिड़ियों की चहचहाट के साथ कौंवे की काँव काँव बढते जाती है। लगता है आज संगीत का मुकाबला ये जीत ही लेगें। हठधर्मिता है इनकी। कहाँ चिड़ियों का मधुर गान और कहाँ कौंवों की कर्कश ध्वनि। चलना चाहिए अब मुझे यहाँ से, जुगलबंदी छोड़ कर नदी किनारे से तम्बू की ओर लौट आता हूँ।

अलाव की बिखरी हुई लकड़ियों को समेट कर उन्हें थोड़ी सी हवा देता हूँ, हवा मिलते ही भभक कर ज्वाला आसमान की तरफ़ लपकती है। आज इन ज्वालाओं को भी आसमान से निपटने दिया जाए। उसे अपने आसमान होने पर बहुत घमंड है। ये ज्वालाएं उसके घमंड की जमी हुई बर्फ़ को भी पिघलाने की ताकत रखती हैं। अलाव के पास रखी शिला पर बैठ जाता हूँ। जैसे यह विक्रमादित्य का बत्तीस पुतलियों वाला सिंहासन हो। सिहांसनारुढ आसमान से टक्कर लेती ज्वालाओं का खेल देखने वाले सिर्फ़ तीन ही हैं, मैं हूँ, तुम हो और सामने वृक्ष पर बैठी काली चिड़िया है और सदियों पुरानी वही कहानी है जो बनजारे छोड़ चले।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

न तो कारवां की तलाश है, न तो हमसफ़र की तलाश है

नुष्य सब कुछ साध लेता है पर प्रकृति को नहीं साध पाया। वह अपनी मन मर्जी से चलती है, कहीं धूप कहीं छाया, कहीं बारिश कहीं सर्दी। सफ़र पर निकलने से पहले सोचता हूँ कि सामान कम हो, क्योंकि सामान का बोझ मुझे ही उठाना है। पीठ पर जितना सामान कम होगा, सफ़र उतनी आसानी से तय होगा। यदि 2 कपड़ों  में काम चल जाए तो एक ही रखना पसंद करुंगा। नवम्बर-दिसम्बर में उत्तर भारत में कड़ाके ठंड पड़ने लगती है। रेगिस्तानी इलाके में रात ठंडी होने से रेत ठंडा हो जाता है और ठंड बढ जाती है। गुलाबी होती हुई ठंड लाल होकर जला देने की क्षमता प्राप्त कर लेती है। जब ढेर सारे गर्म कपड़े लेकर जाता हूँ तो उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती और जब ठंड के कपड़े कम रखता हूँ तो जान लेवा ठंड का सामना करना पड़ता है। इस तरह के मौसम घुमक्कड़ी में आड़े आते हैं। अबकि बार गर्म ओव्हर कोट रख लिया, जो किसी रजाई से कम नहीं है। पहनकर सोने पर ओढने की जरुरत नहीं पड़गी।
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डिस्पले पर गाड़ी का नम्बर और कोच नम्बर दिखाई देने लगा, वरना आधे घंटे से मरणासन्न पड़ा हूआ था। अपना सामान उठा कर निर्धारित स्थान पर ले आया और स्तम्भ के सहारे टिक कर बैठ गया। साथ ही एक अधेड़ महिला पुरुष का जोड़ा भी बैठा हुआ था। तभी करीना कपूर जैसी जीरो साईज वाला लड़का आ पहुंचा, उसने महिला और पुरुष का चरण स्पर्श किया तथा भृकूटी एवं हाथ संचालित करते हुए उनसे बात करने लगा। हर शब्द पर उसकी भाव भंगिमा बदल जाती थी। होठों से अधिक सैन से बातें कर रहा था। गजब के संकेत दिखाई दे रहे थे उसके चेहरे पर मुख मुद्रा के साथ। लगा कि उसमें स्त्री आत्मा का प्रतिशत कुछ अधिक है, हारमोनल बैलेंस बिगड़ गया। उसकी मम्मी ध्यान से सुन कर उसे घर जाने की हिदायत दे रही थी। वो भी बेचारी क्या करे, बेटी जैसा बेटा जनने की तकलीफ़ तो उठानी पड़ेगी। बाप सिर झुकाए शायद सोच रहा था कि वह कौन सी घड़ी थी, जब दुर्घटनावश गर्भाधान हुआ होगा।
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प्लेटफ़ार्म का डिस्पले नम्बर बदल गया। जहाँ बैठे थे वहाँ से एक फ़र्लांग दूर हमारा डिब्बा लगेगा। क्या करते हम? अपना सामान लादे पहुंच गए नियत डिसप्ले के समीप। रेल्वे वालों को किराया बढाने से सरोकार है, यात्रियों सुविधाओं की ओर कोई ध्यान नहीं है। ट्रेन आने के समय पर प्लेटफ़ार्म बदल देते हैं। उस वक्त सवारियों को कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। सवारियों में कई व्याधिग्रस्त भी होते हैं जो सहजता से प्लेटफ़ार्म नहीं बदल सकते। वे रिजर्वेशन टिकिट होने के बाद भी ट्रेन नहीं पकड़ पाते। उनका हर्जाना कौन देगा? भारतीय रेल भी भगवान भरोसे चल रही है। करोड़ों मुसाफ़िर अपनी जान जोखिम में डाल कर यात्रा करते हैं। थोड़ी देर के लिए प्लेटफ़ार्म पर हल-चल मच जाती है। जैसे कोई तूफ़ान आ गया हो। सवारियाँ भी अपने साथ अतिरिक्त सामान लेकर यात्रा करती हैं, जिसका खामियाजा ऐसे वक्त ही उठाना पड़ता है। ट्रेन आ गई। मैने अपने लिए 30 नम्बर की बर्थ ली थी। उपर की बर्थ पर आराम से सो कर सफ़र काटा जा सकता है। न किसी की किच-किच न किसी की झिक-झिक।
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ट्रेन ने सरकना शुरु किया। सांझ ने साथ छोड़ दिया और निशा ने अपनी ड्यूटी संभाल ली। बैग सिरहाने लगाया और लेट गया। अब बर्थ पर आने के बाद निशा से मिलन होने पर निद्रा रानी का आना भी तय था। वह प्यार से मेरे बाल सहलाती रही। कभी कान में फ़ुसफ़ुसाती, कभी वन, टू, थ्री, फ़ोर का गाना सुनाती। उसका मधूर स्वर मादक होकर कानों में रस घोल रहा था। मैं उसकी चूड़ियों से खेलने लगा। जैसे पहली कक्षा में पढ़ते वक्त मनके वाली स्लेट से गिनती करता था। सावधानी इतनी थी कि चूड़ियाँ आपस में टकरा कर कहीं खनक न जाएं। यहाँ प्यार की पाठशाला में पढाई शुरु थी कि निद्रा रानी ने अब अपने बाहूपाश में बांध लिया। न कुछ सुनाई दे रहा था न कुछ दिखाई। कभी-कभी कानों में ट्रेन की पहियों की आवाज सुनाई दे जाती। सफ़र जारी था, ट्रेन के पहियों की आवाज कब दूर चली गई पता न चला। निद्रा रानी ने स्वप्न द्वार उनमुक्त कर दिया। 
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मर्द के सपने में औरतें दिखाई देती हैं या फ़िर वे जो उसके कभी अत्यधिक करीबी थे और इस दुनिया में नहीं रहे। कइयों से सुना कि सपने में फ़िल्मी अभिनेत्रियाँ आती हैं। मेरे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ कि कैटरीना कैफ़ या करीना कपूर आकर गले में बाँहे डाल कर लटक गई हों। कभी सपनों में स्त्री की जगह भैंस क्यों नहीं दिखाई देती। आखिर वो भी स्त्रीलिंग है। लेकिन ऐसा नहीं होता। दिन में जो घटता है वह चेतन मन से होकर अवचेतन की ओर सफ़र करता दिखाई दे जाता है। सपने भी बड़े अजीब होते हैं, फ़िल्म की तरह चलते हैं। लेकिन सपनों की फ़िल्म चलाने वाला प्रोजेक्टर मिस्त्री बड़ी गड़बड़ करता है। कहीं की रील कहीं जोड़ देता है। मैं देख रहा हूँ कि स्कूल की क्लास लगी हुई है, टीचर पढा रहे हैं, तत्कालीन सारे सहपाठी दिखाई दे रहे हैं। मैं  हांफ़ते हुए कक्षा में पहुंचता हूँ, टीचर कहते हैं - इतने लेट क्यों आए हो? क्या बताऊँ सर! ये श्रेया-श्रुति (दोनो बेटियाँ) रोज बदमाशी करती हैं, कभी जूता-मोजा तो कभी किताबें छिपा देती हैं। इसलिए विलंब हो जाता है। अब इस स्वप्न में तीनों काल जुड़ जाते हैं। कहीं की रील कट कर कहीं जुड़ जाती है। सपने जारी रहते हैं…………
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रंग बदलते सपने तो सपने बदलते रंग होते हैं। सूर्य सी चमकीली रोशनी नीले, पीले, हरे, लाल, नारंगी, बैगनी रंगों में बदलती हैं। कभी बादलों में उड़ते हुए नीचे झांकने पर समंदर दिखाई देता है तो थरथरी आ जाती है। कहीं पहाड़ की ऊंचाई से खाई की तरफ़ देखने से पिंडलियों में सनसनी भर जाती है। अभी पैर फ़िसला और गिर जाऊंगा अंतहीन गहराई में। कभी ब्लेक होल में घुस कर कहीं से कहीं निकल जाता हूँ ,यह सपनों की दुनिया भी अजीब है। जहाँ शरीर नहीं पहुंच पाता वहाँ रुह पहुंच जाती है। अनंत का सफ़र भी कर आती है। करवट बदलते चोभा मीची में रात गुजर जाती है। चे गरम, चे गरम, पेप्योर, पेप्योर की कर्कश पुकार से दिन की शुरुवात होती है। आवाज सुनकर आँखें मलता हुआ अपनी हथेलियों को देखता हूँ, कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती, कर मूले गोविंदम्, प्रभाते कर दर्शनम्। किसी अन्य का मुंह देखने से पहले अपनी भाग्य रेखा, हृदय रेखा पर नजर दौड़ा लेता हूँ। ये दोनो रेखाएं सही रही तो जीवन रेखा तो स्वमेव ही सही चलते रहेगी। 
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ए चाय, एक इधर भी देना। कितने पैसे हुए? 7 रुपए, इलायची वाली चाय है। पैसे देते हुए सोचता हूँ साले इलायची का सत डालकर चाय पिला रहा है पावडर दूध की और बखान ऐसे कर रहा है जैसे शिलाजीत डाल रखा हो। पेप्योर पेप्योर, पेपर भी दे देना। कौन सा? जिसमें कम पैसे अधिक पन्ने हों। वह 2 रुपए में भारी सा अंग्रेजी अखबार टिका देता है। चाय की चुस्कियों के साथ अंग्रेजी खाने का प्रयास करता हूँ, अंग्रेज जब हिन्दूस्तान को खा गए तो क्या मैं अंग्रेजी नहीं खा सकता है। लेकिन भाषाएं अजीब बला होती हैं। जितना खाओ, उतना ही विस्तृत होती जाती हैं। समझ आता है, खाने से अंग्रेजी खत्म नहीं होने वाली। जब तक अंग्रेजी राज-काज की भाषा बनी रहेगी, अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर फ़लते फ़ूलते रहेगें और गुलामी लदी रहेगी। बिग बॉस के घर जैसे रेल में सुबह किसी अच्छे गाने से होनी चाहिए। चे गरम और पेप्योर की कर्कश ध्वनि से नहीं। सुबह अच्छी हो तो सफ़र में दिन तो रुमानी बना रहेगा। चाय की उड़ती हुई भाप से सुनाई दे रहा था … न तो कारवां की तलाश है, न तो हमसफ़र की तलाश है, आगे पड़ाव आ रहा है, मंजिल का पता नहीं………

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

करंज का बोधिवृक्ष: सोधी खोकर बोधि की ओर …………

रात तो गुजर गई, आँख खूली तब हिरण्यगर्भ के स्वर्णिम प्रकाश से शयनकक्ष परिपूरित था। घड़ी की ओर निगाहें फ़ेरी तो उसने 8 बजने के संकेत दिए। आज तो इन्तिहा हो गई, काफ़ी देर के बाद जागा। बिस्तर से उठने का मन नहीं, लग रहा था जैसे कंधों का भारी बोझ उठने नहीं दे रहा। कंधे ही क्यों रोम-रोम बोझिल था। बोझ ही नहीं, रग-रग दर्द से टूट रही थी। दर्द अहसास दिला रहा था कि अर्थी का बोझ उठाना देह के लिए बहुत पीड़ादेयक होता है। जब अर्थी अरमानों की हो तो पीड़ा का बोध नहीं हो पाता देह को। संज्ञाहीन देह को हिरण्यमय स्वर्णिम किरणों ने सींच कर पुष्ट किया, देह में रक्त संचार होने से बिस्तर छोड़ने का मन हुआ। बिछौना बनी देह जागृत हो गई।

अबीदा परवीन को सुनने का मन हुआ, जब वो "इक नुक्ते विच गल मुकदीए" … गहरे उतर कर गाती है तो लगता है कि सुर और साज एक हो गए। इश्क-ए-हकीकी सुनकर चेतना जागृत हो सातवें आसमान पे होती है और अवचेतन के पट भी खुल जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी कबीर, दादू, बुल्लेशाह के सहज ही खुल गए होगें। वरना सारी जिन्दगी साज ठोक-पीट कर सुर मिलाने में ही निकल जाती है। बार-बार गला खखारने के बाद भी सुर और साज कहाँ मिल पाते हैं मेरे से। कभी बहर छोटी पड़ जाती है तो कभी काफ़िया नहीं मिल पाता। कभी नुक्ते का झोल, क्या जिंदगी है। जब जिंदगी एक नुक्ते का ही खेल है तो इस काली बिंदी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है…… इक नुक्ते विच गल मुकदीए…… शायद तभी कहा गया है "इक नुक्ते से खुदा, ज़ुदा होता है। बड़ा झोल है जीवन में, मीत मिताई मिलाई का।

उम्दा कलाम के नशे की गिरफ़्त में सरकते हुए करंज के पेड़ की घनी छांव में कुर्सी पर पसर जाता हूँ, उत्तमार्ध चाय बनाकर ले आती है, मुझे जागे हुए देख कर। चाय का कप हाथ में लेते ही लगता है कि चारों धाम की परिक्रमा पूरी हो गई। प्रेम का रस चाय में मीठे का काम करता है, वरना मेरी चाय भी बेस्वाद हो गई। तुलसी की पवित्र पत्तियों से युक्त भाप सर्दी से बंद नथूने खोल देती है, गंगा-नर्मदा का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है, लगा अंतर से झरना फ़ूट पड़ा, जहाँ प्रेम का सोता फ़ूट पड़े समझो रब वहीं मिल गया। बुद्धत्व की प्राप्ति हो गई। करंज का वृक्ष मेरे लिए बोधिवृक्ष हो गया। सोधी खोकर बोधि को प्राप्त करना प्रचंड उपलब्धि हो सकती है, बस बात एक नुक्ते ही है। 

नुक्ता ही जीवन में कसौटी पर कसा जाता है। नुक्ता ही क्यों जूते भी मुझे सहन शक्ति की कसौटी पर कस रहे हैं। पहाड़ियों की पथरीली चढ़ाई को ध्यान में रख कर मोटे तले के खरीद लिए थे। उन्होने 2-3 सफ़र में ही मुझे तले से लगा दिया। कल रात जब से उन्हे पैरों से जुदा किया तब से तलवे भड़ककर आग बबूले हो रहे हैं। अगर मोचड़ी होती या भंदई होती तो छाछ में डूबा कर तेल पिला देता है। कम से कम तलवों को ठंडक मिलती और जूतों की सद्गति हो जाती। मशीनी जूतों में ये संभव नहीं है। अगर पाँव सलामत रहे तो जूते जीवन पर्यंत साथ निभाते हैं। जब मानव संतान धरती पर लड़खड़ाते कदमों से चलने लगती है तो जूते ही उसके चरणों के रक्षक बन प्रथम सहचर होते हैं फ़िर ताउम्र सांस छूटते तक साथ निभाते हैं, बिना वादा किए ही। किए गए वादे थोड़ी सी धूप पड़ने पर कुम्हलाकर फ़ना हो जाते हैं। 

क्या सोच रहे हो? कुछ नहीं। चाय ठंडी हो रही है? हाँ! हो तो गई है। सोच रहा हूँ कुछ दिन आराम करुं गालिब की तरह…… रहिए अब ऐसी जगह, चलकर जहाँ कोई न हो। हम सुखन कोई न हो और जुंबा कोई न हो। दिमाग भी खाली हो और मन भी स्थिर, चित्त विश्राम में। नींद ऐसी आ जाए कि सुबह होने पर तरोताजा हो जाऊं, हिरणों के छौने की तरह कुलाचें मारता फ़िरूँ। 10 मील बिना रुके लगातार दौड़ता जाऊं। किसी को यह बताने की जरुरत न पड़े कि फ़लां फ़लाँ तेल की चम्पी से एकदम तरोतजा हो सकते हैं। जैसमीन की खुश्बू वातावरण में फ़ैल रही है। सारे वजूद पर छाते जा रही है। लम्बी सांस लेकर उसे फ़ेफ़ड़ों में भर लेना चाहता हूँ जिससे वो मेरी रगों में दौड़ने लगे ताजगी बन कर।

कहाँ आराम है जिन्दगी में? बस चलते ही जाना और चलते ही जाना। पता नहीं कितने जन्मों तक निरंतर-अनवरत। गौरेया की चहचहाट के बीच करंज के पेड़ पर बैठे कौंवे भी सुर मिलाने के पुरजोर प्रयास में लगे हैं। सुर मिल जाए तो सद्गति हो जाए। कौंवे आदत से, प्रवृत्ति से मजबूर हैं। सोधी खोए हुए बोधि प्राप्ताकांक्षी पर भिष्ठा और बींठ डाल कर भाग जाते हैं। यही परीक्षा की घड़ी होती है यायावर के लिए। वह कौवों की कारस्तानी को ध्यान दिए बगैर सोधी से बोधि की ओर चलता रहे। जिस दिन बोधि की उपसम्पदा मिल गई, उस दिन के बाद आराम करने की जरुरत ही नहीं  होगी। काफ़िया मिल जाएगा, बहर सूत में होगी। नुक्ता सही जगह लगेगा। जिन्दगी गजल हो जाएगी। इक नुक्ते से गल मुक जाएगी……… देह तरोताजा हो जाएगी, आगे के सफ़र के लिए………।