बुधवार, 17 जुलाई 2013

दिल्ली की कार वाली बाई और ठगों की जमात

नागपुर में डायमंड क्रासिंग 
दिल्ली में कार वाली बाई ने टक्कर क्या मारी सारा नक्शा ही बदल गया। छठी इंद्री जागृत हो गई, जैसे जापानी झेन गुरु अपने शिष्य के सिर पर डंडा मार उसे चेतन करते हैं वैसे ही सराय रोहिल्ला थाने के सामने मुझे कार से टक्कर मार कर बाई ने चेतावनी दे दी। घुटना चोटिल हो गया, हाथ में मोच आ गई। डेढ महीने के हिमाचल ट्रेकिंग के मंसूबों पर पानी फ़िर गया। धूल धुसरित सड़क से उठा, पीठ पर पिट्ठू का बोझ भी लदा था। घर पहुंचते ही मैने हिमाचल यात्रा स्थगित करने का पहला काम किया। घोषणा हो गई कि आज रात की बस से हिमाचल नहीं जाएगें। टिकिट बुकिंग एजेंट को फ़ोन लगा कर बताया कि यात्रा स्थगित हो गई है। फ़ोन वाली बाई ने कहा कि आपकी टिकिट के रुपए वापस नहीं होगें। हमारे साईट पर बुक कराने के नियमावली में लिखा है कि 12 घंटे से पहले यात्रा टिकिल कैंसिल कराने पर पैसे वापस नहीं होगें। छोड़ो जाने दो, जो होगा सो देखा जाएगा।

कांस्टिट्युशन क्लब का मुख्यद्वार 
दोपहर तनि आराम करने के बाद शाम के कार्यक्रम के लिए कांस्टिट्युशन क्लब चल पड़े। वहाँ का झमाझम कार्यक्रम निपटाने के बाद रात हो गई थी। रात गई बात गई, सुबह हिमाचल के राज्यपाल के निजी सचिव का फ़ोन आ गया। उन्होने पूछा कि आप अभी कहाँ पहुंचे हैं? महामहिम ने पूछा है। मैने अपने कार्यक्रम के स्थगन की सूचना दे दी और बता दिया कि दुर्घटना में डेमेज होने के कारण मुझे यात्रा स्थगित करनी पड़ी। मेरी यात्रा का कार्यक्रम हिमाचल राज्यपाल के यहां से तय हो गया था। 19 तारीख की सुबह मुझे शिमला पहुंचकर अपनी यात्रा प्रारंभ करनी थी तथा लाहौल स्पीति पहले जाना था। वहाँ मैने अजय लाहूली जी को फ़ोन करके भी बता दिया। घुटने की चोट के कारण हिमाचल में ट्रेकिंग संभव नहीं थी। इसलिए मैने अपना कार्यक्रम स्थगित किया था। अब दिल्ली से घर वापसी का मन बना लिया। परन्तु ट्रेन में सीट खाली नहीं थी। दुर्भाग्य ऐसा कि केंद्रीय मंत्री की पैरवी के बाद भी टिकिट कन्फ़र्म नहीं हुई तो देहरादून की टिकिट बुक करवा ली। 

पद्म सिंह, पवन जी, सुनीता जी 
एक दिन और व्यतीत हो गया। आज रविवार था, कुछ मित्रों से मिलने का कार्यक्रम बनाया। पद्मसिंह को फ़ोन लगाया, कई बरस हो गए थे मुलाकात हुए। मन खूब कर रहा था मिलने का। रतन सिंह जी कहीं फ़ंस गए दिल्ली आने के बाद। वैसे दिल्ली आने के बाद फ़ंसना ही पड़ता है। जो दिल्ली में न फ़ंसे वे कहीं नहीं फ़ंसेगें। शाम कनाट प्लेस के काफ़ी हाऊस में मिलन तय हुआ। पवन जी, सुनीता और मैं याने हम तीन प्राणी कनाट प्लेस पहुंच गए। पद्म सिंह को आने में थोड़ा विलंब था। काफ़ी हाऊस में मौजूद लोगों की गतिविधियाँ देखते हुए आनंद ले रहे थे। तभी पद्म सिंह भी पहुंच गए। इतने दिनों में काफ़ी चर्बी घट गई लगा मुझे। काफ़ी हाऊस में सूचना लिखी थी कि आज रात 8 बजे के बाद अनिश्चितकाल के लिए काफ़ी हाऊस बंद किया जा रहा है। मुझे समझ नहीं आया दिल्ली प्रशासन के साथ मेरी क्या दुश्मनी है। जब भी दिल्ली आता हूँ कुछ न कुछ बंद हो जाता। एक बार तो बिजली ने पसीने निकाले थे। खैर छोड़ो, मुझे यहाँ क्या बसना है। हम पंछी तो दो दिन के मेहमान। खाए-पीए और खिसके।

अगले कार्यक्रम की रुपरेखा बनाते पवन जी 
कैमरे के लिए मोनो पैड लेना था। पद्मसिंह ने बताया कि यहीं मिल जाएगा कनाट प्लेस में। देखा तो कनाट प्लेस की मार्केट की आज छूट्टी थी तो हम पालिका बाजार की तरफ़ बढ लिए। पालिका बाजार भी बंद होने वाला था, वहाँ मौजूद गार्ड किसी को भीतर नहीं जाने दे रहे थे। अगर उन्हे पता चलता कि 4 बंदों में से 3 कविताकार हैं तो गेट छोड़ के ही भाग खड़े होते। पद्म सिंह का रौब दाब काम आया और हमें प्रवेश मिल गया। लगभग सारी दुकाने बंद होने की कगार पर थी, कुछ के शटर गिर गए थे, कुछ तैयारी में थे। एक दुकान में मिल गया मोनो पैड। लेकिन उसने फ़्लिप कार्ट से भी 500 रुपए अधिक मूल्य बताया। मैने कुछ मोल भाव किया पर वह उस मूल्य में देने को तैयार नहीं हुआ। मैने मोनो पैड लेना स्थगित कर दिया और सोचा कि ओनलाईन ही मंगवा लेगें। घर पहुंचने पर भोजनोपरांत देहरादून की बस पकड़ ली।

पहचान लो, यही थी वह घटिया बस 
गर्मी का मौसम था इसलिए वातानुकूलित बस से देहरादून की यात्रा करना ठीक समझा। बुकिंग नेट से करवाई थी इसलिए पता नहीं था कि बस किस तरह की मिलेगी। 9 बजे का समय देने के बाद बस एक घंटे विलंब से आई। मेरी तरह की और सवारियां भी बस के इंतजार में दुबली हो रही थी। मौज में सिर्फ़ एक कच्छाधारी अंग्रेज था। गांजे की सिगरेट लगाने के बाद वह फ़ुटपाथ पर ही बैठ कर गिटार बजाने लग गया। कुछ गुनगुनाने के साथ रिक्शा वाले से अंग्रेजी में बात कर रहा था। रिक्शा वाला भी दिल्ली वाली अंग्रेजी बोल रहा था। बस के आते तक मैने दोनों के खूब मजे लिए। वैसे भी कभी रात 9 बजे के बाद मैं भी अंग्रेजी बोलने समझने के लायक हो जाता थ। जब मुंह लगी छूटी तब से अंग्रेजी समझ ही नहीं आती है। लगता है जैसे कोई करीबी रिश्तेदारी छूट गई हो। 

धोखा धडी करने वाले का पूरा पता 
बस आ गई और हम सवार हो गए। वेब साईट पर तो बस की सींटें भरी हुई दिख रही थी जैसे की राशन कार्ड पर ही मिलेगी। यहाँ बस खाली पड़ी थी। आनंद विहार से गाजियाबाद पहुंचने तक बस की सीटें भरी नहीं थी। कंडेक्टर रास्ते की चलती सवारियां उठा रहा था। गाजियाबाद बार्डर से बस आगे बढी तो नींद आने लगी। सीट पर बैठे-बैठे झपकी लेना मुझे भारी पड़ता है। नींद तो तब ही आती है जब लातें लम्बी हो जाएं। किसी तरह आँख बंद किए पड़ा रहा। बिजली के लूज कनेक्शन की तरह नींद आती रही और जाती रही। रास्ते में एक होटल में बस रुकी। लगभग 1 बज रहे थे यहां ड्रायवर कंडेक्टर का खाना होना था। मैने पानी की बोतल ली और एक आईसक्रीम का कोन लेकर मन बहलाया। आधे घंटे के बाद बस आगे बढी। फ़िर हिचकोलों के साथ नींद का उनींदा सफ़र शुरु हो गया। सुबह पौ फ़टने के करीब आँखे खुली। लगभग 6 बजे हम हरिद्वार पहुच चुके थे। 

देहरादून रेलवई टेसन 
कनखल वाले चौक पर ड्रायवर ने गाड़ी खड़ी कर दी और कहने लगा कि इससे आगे गाड़ी नहीं जाएगी। देहरादून की सिर्फ़ 4 सवारियाँ थी। बाकी सवारियाँ हरिद्वार की ही थी। अब वह 4 सवारियाँ लेकर देहरादून जाने को तैयार नहीं था। सवारियां झगड़ने लगी। जब बस देहरादून तक नहीं जानी तो सवारियां क्यों बुक की? सौ रुपए में दिल्ली से हरिद्वार तक पहुंचा जा सकता है, लेकिन सुविधा के कारण 500 रुपए दिए। जब वह नहीं माना तो मैने उसे धमकाया और पुलिस में रिपोर्ट लगाने की बात कही तो ड्रायवर बस लेकर आगे बढा। उसने ॠषिकेश में स्टैंड पर बस लगा दी और आगे जाने को तैयार नहीं हुआ। फ़िर उसके कंडेक्टर ने हमें सरकारी बस में बिठाया और 45 रुपए की टिकिट लाकर दी। इसलिए ओन लाईन टिकिट करवाने वालों से यही सलाह है कि दिल्ली के ठगों से बच कर रहो। सुबह 6 बजे देहरादून पहुंचने वाले हम साढे नौ बजे पहुंचे।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

एड्स पसरता गाँव गाँव, धीरे धीरे पाँव पाँव

क्यों राम प्रसाद! जब भी तुम्हें देखता हूँ, हमेशा खांसते-खखारते ही रहते हो। डॉक्टर को दिखाओ, नहीं तो टीबी हो जाएगी… मैने उसे लगातार खांसते हुए देखकर कहा। हाँ भैया! कल अस्पताल जाकर डॉक्टर को दिखाऊंगा - कह कर राम प्रसाद ने मुझसे पीछा छुड़ाया। मैं लगभग 3 माह से उसे लगातार खांसते हुए देख रहा था। वह दिनों-दिन कमजोर भी होता जा रहा था। जब भी कहीं जाने के लिए मैं घर से निकलता तो वह नीम की छाया में खांसते हुए बैठा रहता और मैं उसे हमेशा टोकता। लेकिन वह अस्पताल नहीं जाता था। एक दिन गुस्से में आकर उसे अस्पताल ले जाने के लिए तैयार हो गया तो वह आना कानी करने लगा। मैं नहीं माना और उसे जबरदस्ती बाईक पर बैठा कर अस्पताल ले गया। उसे देखते ही डॉक्टर साहब ने पहचान लिया। बोले- इसका नाम तो हमारे यहाँ एच आई वी पॉजिटिव की लिस्ट में दर्ज है। तीन महीने पहले इसने खून जांच करवाया था तब से फ़रार है।  

डॉक्टर की बात सुनकर मैं भौंचक्का रह गया। जिस बीमारी को मैं टीबी समझ रहा था वह एडस निकली। राम प्रसाद उसे इतने दिनों से छिपा रहा था। कभी बैगा गुनिया से झाड़ा फ़ूंकी करवाता तो कभी मंदिर दरगाह के सामने माथा टेकता, लेकिन अस्पताल से ईलाज नहीं करवाया। एड्स का भय उसके मन में व्याप गया था। वह दूबारा अस्पताल जाकर समाज के सामने एडस का रोगी बन कर शर्मिन्दा नहीं होना चाहता था। डॉक्टर से दवाईयाँ दिला कर उसे अपने साथ ले आया। रास्ते में कहने लगा कि - किसी को मत बताना भैया। नहीं तो मैं जीते जी तबाह हो जाऊंगा। गोली दवाई आपके कहने से नित्य ले लिया करुंगा। उसे दवाईयाँ दिलाकर मैं कुछ दिनों के लिए अपने व्यावसायिक दौरे पर चला गया। जब लौट कर आया तो राम प्रसाद के मरने की खबर मिली। अपने पीछे पत्नी और एक बेटा छोड़ गया। साथ ही अपनी बीमारी भी पत्नी को दे गया। कुछ महीनों के तड़पने के बाद उसकी पत्नी भी गोलोकवासी हो गई।

तपास करने पर भीतरी समाचार मालुम हुआ कि विवाह पूर्व रामप्रसाद के अंतरंग संबंध अपनी भाभी के साथ थे। उसका भाई ट्रक ड्रायवरी करता था। तब मुझे रामप्रसाद तक एड्स पहुंचने के कारणों का पता चला। असुरक्षित यौन संबंधों के कारण ड्रायवर एड्स के वाहक के साथ परलोक वाहक भी बन जाते हैं। उन्हें बीमारी का पता चल जाता है, जब स्वास्थ्य खराब रहने लगता है। वर्तमान में थोड़ा सा भी संशय होने पर डॉक्टर पहले एच आई वी टेस्ट के लिए लिख देते हैं, जबकि सरकारी अस्पतालों में यह टेस्ट मुफ़्त होता है। डॉक्टर का कहना है कि - एच आई वी पॉजिटिव निकलने के बाद रोगी को पता चलते ही वे गायब हो जाते हैं। इसलिए कि एड्स की बीमारी पता चलने से उनकी बदनामी न हो और इसी बदनामी को छुपाते हुए इस रोग को अन्य लोगों को बांटते हुए मर जाते हैं।

पास के ही गाँव में रहने वाली बिसाहिन के विषय में एकाएक पता चला कि वह मर गई। साथ ही पता चला कि बहुत तड़प कर मरी है। गाँव वालों को सिर्फ़ इतन पता था कि उसे बुखार आता था और हाथ पैर में फ़ोड़े फ़ुंसी हो गए थे। जिसका खूब ईलाज करवाया पर बीमारी ठीक नहीं हुई और एक दिन वह मर गई। सुन कर मुझे धक्का लगा, जब से वह चूड़ी पहन कर गाँव में आई थी तब से उसे जानता था। कभी कभार बाजार जाते वक्त उसे बाहर गाँव से आकर बसे एक मालदार किसान बसेसर से बातें करते हुए देखता था। गाँव में किसी से बातें करना साधारण बात है, अन्य प्रदेशों की तरह हमारे यहाँ इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। लेकिन कुछ दिनों से मुलाकात का असर दिखने लगा। कानों में सोने के बुंदे, गले में सोने की चैन, पैरों में भारी भारी पायजेब देख कर गाँव में खुसर फ़ुसर होने लगी थी। अनायास ही किसी के पास धन दिखाई देने लगे तो गाँव में चर्चा का विषय बन ही जाता है। बात आई गई हो गई।

दीवाली आगमन की तैयारियाँ शुरु हो गई थी। ग्रामीण अपने घर-बार लीप-पोत कर संवार रहे थे। रंग-रोगन, चूना-वार्निश पुताई का काम घर-घर में शुरु था। अरसे के बाद शाम को बाजार से वार्निश लाने गया तो पता चला कि बसेसर की मौत हो गई है। लगभग 35 साल का गबरु जवान लड़का था। उसकी एकाएक मौत की खबर ने मुझे चौंका दिया। कारण पूछने पर पता चला कि 6 महीने से उसे कोई बीमारी हो गई थी तथा डेढ महीने से वह बिस्तर पर पड़ा था। अड़ोसी पड़ोसियों को भी पता नहीं था कि उसे कौन सी बीमारी थी। मेरी आँखों के सामने बिसाहिन का चेहरा घूम गया। गाँव में इनके संबंधों को लेकर चर्चा आम हो चुकी थी। दोनो की ही बीमारी से मौत होना संदेह को जन्म दे रहा था कि अवश्य ही इन्हें एड्स ने ग्रास बना लिया। अब यह बीमारी इन्हें कहाँ से लगी यह तो भगवान ही जानता है पर मौत का संदेह एड्स पर ही जाता है। 

इन घटनाओं के अलावा आस-पास के गाँवों से एड्स जैसी बीमारी से मृत्यू होने के संदेहास्पद समाचार प्राप्त होते रहते हैं। मेरी जानकारी कई लोग हैं जिनकी मृत्यू एड्स से होने का संदेह है। लेकिन तकनीकि जाँच के अभाव में पुष्टि करना संभव नहीं है। गाँवों में भी एड्स जैसी बीमारी शनै-शनै अपने पैर फ़ैला रही है। जागरुकता के अभाव में लोग काल का ग्रास बनते जा रहे हैं और जाने-अनजाने में अपने साथी को भी एड्स जैसी हत्यारी बीमारी भेंट दे रहे हैं। अब तो हाल यह हो गया है कि डॉक्टर से इंजेक्शन लगवाने में भी डर लगने लगा है। नाई से शेविंग कराना भी असुरक्षित हो गया है, कब दाढी को उस्तरे ने थोड़ा सा छीला और कब व्यक्ति एड्स से ग्रसित हुआ पता ही नहीं चलेगा। कागजों में एड्स जागरुकता अभियान चलाने वाले स्वास्थ्य विभाग को इस ओर ध्यान देना चाहिए। ग्रामीण अंचल में एड्स के प्रति नागरिकों को जागरुक करना चाहिए तभी इस बीमारी से ग्रसित होने से लोग बच सकते हैं।

(सत्य घटना पर आधारित इस लेख में पात्रों के नाम एवं स्थान बदल दिए गए हैं।)

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

बहुत कठिन है डगर इंटरनेट की …………

इंटरनेट का जन्म हुए लगभग 43 वर्ष हो चुके हैं, इंटरनेट ने सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करते हुए विश्व को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया। सारे विश्व ने एक ग्राम का रुप ले लिया। पलक झपकते ही सूचनाओं का आदान-प्रदान होने के साथ विश्व व्यापी प्रसार एवं प्रचार भी हो जाता है। 

इंटरनेट के प्रचार के साथ आम अभिव्यक्ति के रास्ते सोशल वेब स्थानों के माध्यम से खुले तथा इंटरनेटधारी अधिक से अधिक इन साईटों का प्रयोग कर रहे हैं। इन अभिव्यक्तियों के माध्यमों ने संसार की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी है। आम आदमी को अपनी बात कहने का माध्यम मिल गया जो कि सकारात्मक पहलू है।

सकारात्मक पहलू के साथ इंटरनेट के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं, जिससे सामाजिक ताना-बाना बिखरने के कगार पर दिखाई दे रहा है। पुरुषों के साथ स्त्रियों ने भी इंटरनेट पर अपनी सजग उपस्थिति दर्शाई। अनजान लोगों से इंटरनेटिया मित्रता होने लगी। विचारों के आदान प्रदान के साथ विपरित लिंगी आकर्षण भी बढा और सोशल नेटवर्किंग साईटों के चैट रुम से निकल कर पी वी आर, पार्कों एवं नई संस्कृति के बाजारों में गुलजार होने लगी हैं जो आगे चल कर अंतरंग संबंधों में भी बदल रही हैं। वर्जनाएं टूटने से वैवाहिक संबंधों पर असर पड़ने लगा है और परिवार टूटने लगे हैं। सोशल वेबसाईटों के सबूतों के आधार पर तलाक बढ रहे हैं क्योंकि इलेक्ट्रानिक सबूत स्थाई होते हैं तथा उन्हे नष्ट नहीं किया जा सकता।

शासकीय एवं निजी नौकरियों पर भी इंटरनेट के खतरे मंडरा रहे हैं,सोशल वेबसाईटों पर की गई टिप्पणियों के आधार पर कईयों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। कार्यावधि में सोशल नेटवर्किंग साईटों का प्रयोग पकड़ में आ जाता है जिसे नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि इंटरनेट का उपयोग करते वक्त दिन-वार एवं समय भी अंकित हो जाता है। 

हाल ही में वायुसेना के एक अफ़सर को अपने सीनियर अफ़सर की पत्नी के साथ अवैध संबंधों के आधार पर नौकरी से हाथ धोना पड़ा। सीनियर अफ़सर ने सोशल नेटवर्किंग साईट पर फ़्लाईट लेफ़्टिनेंट एवं अपनी पत्नी के बीच हुई चैट को पकड़ा था तथा अपनी पत्नी को काफ़ी खरी खोटी सुनाई थी। झगड़ा इतना बढा कि 29 वर्षीय महिला ने अपने घर में फ़ांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। इसके आधार पर फ़्लाईट लेफ़्टिनेंट को वायु सेना की नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

वर्तमान में योग्य वर-वधु की तलाश में इंटरनेट पर विज्ञापनों का चलन बढ गया है। लोग अपनी वैवाहिक आवश्यक्ताएं इंटरनेट पर साझा करते हैं। अखबारों एवं पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से भी योग्य संबंधों की तलाश की जाती है। इन विज्ञापनों में अब लिखा जाने लगा है कि "सोशल वेब साईटों में शामिल सम्पर्क न करें।" इससे लगता है कि सोशल वेब साईटों से जुड़े लड़के-लड़कियाँ अब वैवाहिक संबंधों के लिए विश्वसनीय नहीं रह गए। 

वैवाहिक संबंधों की जानकारी लेने के लिए अब जासूसी एजेंसियों का सहारा लेना आम बात हो गई है। ये जासूसी एजेंसियाँ इंटरनेट के माध्यम से खोज कर वांछित की प्रोफ़ाईल हैक करके चैट का इतिहास खंगालकर अपने क्लाईंट को सारी जानकारी मुहैया कराती हैं।

इंटरनेट पर अश्लील चित्र अपलोड करके भयादोहन का कारोबार भी चल पड़ा है। लोगों के अनैतिक कार्यों के गुप्त रुप से चित्र खींच कर या वीडियो बनाकर इंटरनेट पर अपलोड कर दिए जाते हैं। जिससे संबंधित को बदनामी सहना पड़ता है तथा कई तो सामाजिक बदनामी न झेल पाने की स्थिति में आत्महत्या भी कर लेते हैं। 

ऐसा नहीं है कि इंटरनेट के उपयोग के दुष्प्रभाव ही हैं। इसके सकारात्मक उपयोग भी हैं। आपको वांछित जानकारियाँ सर्च इंजनों द्वारा सहज ही प्राप्त हो जाती है। ज्ञान वर्धन के साथ सूचनाओं का सरलता से कम समय में प्रेषण हो जाता है। परन्तु ध्यान रहे कि इंटरनेट का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, अन्यथा इसके भयानक दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

रेल तू महाठगनी जग जानी

शिया का सबसे बड़ा एवं 150 वर्ष पुराना रेल संगठन कहलाने वाला भारतीय रेल उपक्रम कहने को तो यात्री सुविधाएं देने के नित नए दावे करता है परन्तु यहाँ सुविधाओं से अधिक अव्यवस्थाएं दिखाई देती है और अव्यवस्थाएँ भी इतनी घातक हैं कि यात्रियों का प्राण हरण कर लेती हैं। सुविधाओं के नाम से यात्रियों से धन की भरपूर वसूली की जाती है, जब सुविधा देने की बारी आती है तो सारी व्यवस्था ही वेंटिलेटर पर चली जाती है। नित नई योजनाएँ बनाकर भिन्न भिन्न शुल्क लाद कर यात्रियों की जेब डाका डाला जा रहा है। रेल यात्रियों की सलाहकार समितियाँ बनाई हुई हैं लेकिन उनकी सलाहों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाता है। ये मानकर चलिए कि यात्री स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही लूट का शिकार होने लगता है तथा यह लूट एक मुश्त न होकर किश्तों में होती है। जिसका सामना प्रत्येक रेलयात्री को करना पड़ता है।

सबसे अधिक लूट खान-पान सेवा द्वारा की जाती है। घटिया खाद्य सामग्री को मनमाने मूल्य पर बेचा जाता है और यह सब जिम्मेदार अधिकारियों की नाक के नीचे बदस्तुर जारी है। कुछ दिनों पूर्व मैने रेल्वे स्टेशन के पार्किंग स्टैंड पर अपनी बाईक खड़ी की और मुझे 5 रुपए की पर्ची दी गई। जिसमें लिखा था "पहले 12 घंटे के 5 रुपए, 12 घंटे से 24 घंटे के 10 रुपए अतिरिक्त, 24 घंटे के से आगे 15 रुपए अतिरिक्त"। 24 घंटे के बाद आने पर मुझसे 30 रुपए लिए गए। स्टेशन पर पानी की बोतलें लोकल कम्पनियों की रखी जाती है, जिन्हें ब्रांडेड कम्पनियों के दाम से भी 5 रुपए अधिक पर बेचा जाता है। खाद्य सामग्री का कोई माई बाप नहीं है, बाजार मूल्य से दुगने भाव में बेची जाती हैं और यात्रियों को मजबूरी में खरीदना पड़ता है।

लम्बी दूरी की गाड़ियों के साथ चलने वाली पैंट्री कार के भीतर का हाल अगर कोई देख लेगा तो वहाँ का भोजन कभी नहीं करेगा। पैंट्री कार में गंदगी चारों तरफ़ पसरी रहती है। पैंट्री कार से सामान की बिक्री भी रेल्वे द्वारा तय मूल्यों से अधिक पर की जाती है साथ ही तय मात्रा से कम ही खाद्य सामग्री दी जाती है। गर्मी के दिनों में शीतल पेय एवं बोतल बंद पानी को ठंडा करने की कीमत भी अलग से वसूली जाती है। अगर रायपुर से दिल्ली तक का सफ़र कोई व्यक्ति करता है तो उसे कम से कम 200 रुपए तो सिर्फ़ पानी पर ही खर्च करने पड़ते हैं। स्टेशन पर मिलने वाली खाद्य सामग्री भी मानकों पर खरी नहीं उतरती। वेंडरों का यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार आम बात है। 

ये तो स्टेशन तक का मामला था। चलती हुई गाड़ियों में अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करने के बाद भी सामान चोरी हो जाते हैं। हिजड़ों के दल के दल यात्रियों का भयादोहन कर खुले आम वसूली करते दिखाई देते हैं, रुपए नहीं देने पर धमकी पर उतर आते हैं, शिकायत करने पर सुरक्षा बल एवं टी टी कन्नी काट लेते हैं। जबकि इन्हें मालूम रहता है कि कौन से स्टेशन से हिजड़े चढ कर यात्रियों को परेशान करते हैं। इन हिजड़ों के पास टिकिट भी नहीं होती। आर पी एफ़ से शिकायत करने पर कहा कि - "इन हिजड़ों के कौन मुंह लगे?" इन्हे तो वीरता पुरस्कार देना चाहिए क्योंकि ये मर्दों के मुंह लग लेते हैं लेकिन हिजड़ों के नहीं। टी टी और सुरक्षा बलों की ड्युटी यात्रियों की सहायता के लिए की जाती है, टीटी टिकिट चेक करने पर अन्य किसी बोगी में मुंह छिपा कर बैठ जाते हैं फ़िर दुबारा दिखाई नहीं देते, सुरक्षा बल सिर्फ़ वसूली करते दिखाई देते हैं। 

मध्य प्रदेश कटनी के पास 17 अप्रेल गुरुवार की रात छपरा-वाराणसी-दुर्ग सारनाथ एक्सप्रेस में लूटपाट की घटना हुई। समाचार है कि डकैती के वक्त आर पी एफ़ के जवान गाड़ी में थे और उन्होने ने लुटेरों पर कोई कार्यवाही नहीं की सिर्फ़ वाकी टाकी पर बात करते रहे। घटना को लेकर डी आर एम का कहना है कि " यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जी आर पी की है। आर पी एफ़ सिर्फ़ रेल्वे की संपत्ति की रक्षा करता है।" 20 अप्रेल रविवार को दतिया-झांसी के बीच करारी स्टेशन के पास छत्तीसगढ़ सम्पर्क क्रांति में लूट-पाट हुई और यात्री लूट का शिकार हो गए। जब चोर डकैत ट्रेन पर हमला करते हैं तो आर पी एफ़ की बहादुरी धरी की धरी रह जाती है। घटना होने पर आर पी एफ़ एवं जी आर पी एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल कर अपनी खाल बचाते हुए दिखाई देते हैं। जब यात्रियों से तीन महीने पहले अग्रिम टिकिट की पूरी राशि वसूल कर ली जाती है उनकी सुरक्षा भी मुस्तैदी से करनी चाहिए।

गत वर्ष गुवाहाटी से आते वक्त देखा कि ट्रेन के स्लीपर की किसी बोगी में पानी नहीं था। टीटी से शिकायत करने पर उसने कहा कि मैने पिछले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को पानी न होने की शिकायत लिखित में दे दी है। गोवाहाटी से चल कर बोंगाई गाँव पहुंचने टी टी ने कहा कि जब तक आप लोग ट्रेन नहीं रोकोगे इसमें पानी नहीं डाला जाएगा। यात्रियों द्वारा बोंगाई गांव में चैन पुलिंग करके गाड़ी आधा घंटा रोकने के बाद भी पानी नहीं भरा गया। रात 12 बजे न्यु जलपाई गुड़ी स्टेशन पर पहुंचने के बाद यात्रियों ने गाड़ी में पानी भरने के लिए एक बार फ़िर हंगामा किया। एक घंटा गाड़ी खड़ी रही लेकिन पानी नहीं भरा। स्टेशन पर मौजूद अधिकारियों ने कहा कि गाड़ियों में पानी भरने की व्यवस्था ठेके पर दी गई है और ठेकेदार के आदमी कह रहे हैं कि टंकी में पानी नहीं है, इससे आगे चलने वाली गाड़ी को पानी दे दिया गया। बिना पानी के ही यात्रियों को लम्बा सफ़र करना पड़ा।

अगर लम्बी दूरी की चलती हुई गाड़ी में किसी यात्री की अचानक तबियत खराब हो जाए तो उसे चिकित्सा सहायता नहीं मिल पाती। आपातकालीन चिकित्सा सुविधा न मिलने से यात्रियों की जान चली जाती है। 1 जुलाई सोमवार को मुंबई हावड़ा मेल में रेल्वे की लापरवाही के चलते 35 वर्षीय संतोष दास की जान चली गई। बताया जाता है कि संतोष दास नागपुर से तड़पता हुआ 6 घंटे का सफ़र तय करके रायपुर पहुंच गया। रेल्वे के अधिकारियों को जानकारी देने के बाद भी इन 6 घंटों में किसी भी स्टेशन पर उसे चिकित्सा सहायता उपलब्ध नहीं हो पाई, जिससे रायपुर स्टेशन पर बीमार यात्री ने प्राण त्याग दिया। यह अमानवीयत और लापरवाही की पराकाष्ठा है। इन लापरवाहियों और लूट पाट को देखते हुए तो यही लगता है कि यात्री भगवान भरोसे अपनी यात्रा सम्पन्न करके घर लौट आए तो ईश्वर की विशेष अनुकम्पा समझना चाहिए। एशिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क कही जाने वाली भारतीय रेल के लिए तो अब यही कहा जा सकता है - रेल तू महाठगनी जग जानी।