शीतला माता |
किसी भी राज्य की पहचान उसकी भाषा, वेषभूषा एवं संस्कृति होती है। संस्कृति लोकपर्वों में दिखाई देती है। लोकपर्व संस्कृति का एक आयाम हैं। लोकपर्वों में अंतर्निहीत तत्व होते हैं, जिनके कारण लोकपर्व मनाए जाते हैं। संस्कृति की धारा अविरल बहती है परन्तु इसके पार्श्व में मनुष्य की दिमागी हलचल होती है। जो उसे उत्सवों की ओर अग्रसर करती है। लोकपर्वों में प्रमुख तत्व लोक होता है। विश्व में जहाँ भी मानवों की बस्ती है, उनके द्वारा मनाए जाते है। निर्धारित तिथि को बिना किसी शासकीय आदेश के सभी लोग सामुहिक रुप से इन पर्वों को मनाते हैं। मनुष्य रोजगार के उद्देश्य से भूगोल में किसी भी स्थान पर चला जाए, उसके साथ उसकी संस्कृति एवं लोकपर्व भी स्वत: चले आते हैं। इन पर्वों के माध्यम से वह अपनी संस्कृति से जुड़ा रहता है।
होली के बाद बसंत की चलाचली की वेला होती है और ग्रीष्म का प्रारंभ होता है। ॠतु परिवर्तन होने के कारण यह व्याधि के कीटाणुओं के संक्रमण का समय भी होता है। इस अवधि में चेचक का प्रकोप अधिक होता है, जिसे भारत में हम "माता" के नाम से जानते हैं। वर्तमान में यही समय विद्यार्थियों की परीक्षाओं का भी होता है, बड़ी संख्या में विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में इस संक्रमण से प्रभावित होते हैं। छोटी माता, बड़ी माता, सेंदरी माता इत्यादि नामों से इस व्याधि को जाना जाता है। इस व्याधि से बचने के लिए स्वचछता एवं आरोग्य की देवी शीतला माता की उपासना की जाती है।
मान्यता है कि जब माता उग्र हो जाती है तो इसका प्रकोप होता है तथा शीतला माता की उग्रता को शांत करने के लिए शीतला विग्रह पर जल चढाने की परम्परा है। जिससे सप्ताह भर की अवधि में माता का प्रकोप शांत हो जाता है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है, परन्तु चेचक होने पर मरीज को आज भी अस्पताल नहीं ले जाया जाता। उसे हवा पानी से बचा कर रखा जाता है तथा शीतला माता में नित्य सुबह शाम जल चढा कर उसके प्रकोप को शांत किया जाता है। मान्यता है कि डॉक्टरी इलाज कराने पर माता का प्रकोप और बढ जाता है और वह क्रोधित हो जाती है जिससे मरीज की व्याधि बढ जाती है।
शीतला माता नीम के वृक्ष के नीचे स्थापित होती है, स्कंध पुराण में इन्हें गर्दभ वाहिनी दिखाया गया है, ये हाथों में कलश, सूप, मार्जनी (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इनका प्रतीकात्मक महत्व है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। मान्यता है कि गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं।
शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है शीतला माता के संग ज्वरासुर - ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। मान्यता अनुसार पूजा करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और पूजक के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं
माता के प्रकोप से बचने के लिए होली के बाद "बासोड़ा" मनाया जाता है, जो मुख्यत: राजस्थान एवँ हरियाणा का लोकपर्व है। इसे होली के बाद शीतलाष्टमी तक के सप्ताह में मनाया जाता है। माता के मुख्यत: सप्ताह में सोमवार एवँ शुक्रवार 2 दिन माने जाते हैं। होली अगर सोमवार को होती है तो शुक्रवार को यह पर्व मना लिया जाता है, अगर होली शुक्रवार के बाद होती है तो सोमवार को यह पर्व मनाते हैं। कई स्थानों पर शीतला सप्तमी एवं अष्टमी को भी यह पर्व मनाया जाता है।
इस दिन महिलाएं भोर में नए वस्त्र धारण कर कथा करती हैं तथा रात में बनाए गए व्यंजनों का भोग माता को लगाती हैं। ठंडा प्रसाद अर्पित कर मान्यतानुसार भोर में ही उसकी पूजा की जाती है। इस दिन राबड़ी, बाजरा की रोटी, मीठा भात, गुलगुला और अन्य पकवानो के साथ दही, मूंग की दाल, बाजरा की मोई, पात की आँख, बड़कुल्ला की जेल, भीगा हुआ मोठ-बाजरी इत्यादि के साथ कलश में माता को जल चढाया जाता है। शीतला माता का भजन गाया जाता है। साथ ही कच्चे सूत के धागे की मेखला (करधन) बना कर बच्चों बड़ों को पहनाई जाती है। मटकी की पूजा की जाती है, इस दिन से ठंडा पानी पीना प्रारंभ हो जाता है। पूजा किया हुआ जल सभी आँखों में लगाते हैं। जिससे शीतलता के संग आखों की ज्योति सदा बनी रहे।
बासेड़ा मनाने के पीछे एक लोककथा भी प्रचलित है। एक गाँव में एक बुढिया रहती थी, जो बासेड़ा के दिन शीतला माई की पूजा करती एवं ठंडा भोजन खाती थी। गाँव में अन्य कोई भी शीतला माता की पूजा नहीं करता था, एक बार गाँव में आग लग गई, पूरा गाँव जल गया लेकिन उस बुढिया की झोंपड़ी नहीं जली। जब गाँव वालों ने उसकी झोपड़ी न जलने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वह शीतला माता की पूजा करती और ठंडा खाती है, इसलिए उसकी झोपड़ी नहीं जली। तब से सारे गाँव में डौंडी पिटवा दी गई कि बासेड़ा के दिन सभी को ठंडी रोटी खानी है और शीतला माता को धोक देनी है। इस घटना के बाद यह परम्परा लोकपर्व में परिवर्तित हो गई।
बिहार, उत्तर प्रदेश में इसे बसियोरा के रुप में मनाया जाता है, गुजरात तथा अन्य प्रातों में शीतला अष्टमी को पूजा उपरांत ठंडा भोजन करने की परम्परा है। सिंध प्रांत के लोग भी इसे थदड़ी त्यौहार के रुप में मनाते हैं। इस दिन शीतला माता की पूजा करने की परंपरा है। परिवार की सुख शान्ति तथा बच्चों को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए माता शीतला की पूजा-अर्चना की जाती है। बासी पकवान खाने की परम्परा का निर्वाह करने के लिए महिलाएँ धदड़ी मनाती हैं। महिलाएँ प्रात: उठकर शीतला माता की पूजा कर तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाती हैं। विभिन्न पकवानों में मिठी मानी, खटो्भात, खोराक, पकवान, नान खटाई, सतपुड़ा, चौथा, टिक्की प्रमुख रुप से बनाने की परम्परा है।
शीतला माता स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं, अगर हम अपने आस पास को साफ़ सुथरा रखेगें तो रोगों के कीटाणू व्यक्ति के सम्पर्क में आकर उसे रोगी नहीं बनाएगें। ज्यादातर बीमारियां खराब खाना खाने से होती हैं। रसोईघर की स्वच्छता बहुत जरूरी है। शीतला मां के हाथ में जल से भरा कलश होना, हमें जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए जागरूक बनाता है। आज स्वच्छ पानी का मिलना दुर्लभ हो गया है, क्योंकि हमने अपनी नदियों, सरोवरों और जलाशयों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि इनका पानी पीना तो क्या, उससे आचमन तक करने में पीछे हट जाते हैं। जल को कलश में सुरक्षित रखकर माता शीतला हमें जल-संरक्षण के लिए सचेत कर रही हैं। संसार के सबसे उपेक्षित पशु गधे की सवारी करके माता शीतला हमें पशु-पक्षियों की सुरक्षा के प्रति संकल्प लेने का आवाहन कर रही है। पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में पशु-पक्षियों की भी अहम भूमिका है। यह पर्व पर्यावरण के प्रति जागरूकता का पर्व है। इस तरह माना जाए तो बासेड़ा पर्यावरण से जुड़ा हुआ पर्व है।