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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मल्हार: देऊर मंदिर


प्राचीन नगर की सैर करते हुए सूरज सिर पर चढने लगा था। हमें अभी देऊर मंदिर देखना था। यहीं से एक रास्ता कसडोल एवँ गिरोदपुरी होते हुए रायपुर को जाता है। देऊर मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचने पर मन प्रसन्न हो गया। देऊर मंदिर की भग्न संरचना देखने से ही पता चलता है कि यह मंदिर विशाल रहा होगा।। इसका अधिष्ठान भूतल पर ही है। गर्भ गृह द्वार पर नदी देवियों की सुंदर प्रतिमाएँ हैं। अलंकृत द्वार की ऊंचाई लगभग 14 फ़ुट होगी। इसकी विशालता से ही मंदिर के महत्व का पता चलता है।
भव्य देऊर मंदिर (शिवालाय)
प्राचीन काल में मल्हार महत्वपूर्ण नगर रहा होगा। इस नगर को राजधानी का दर्जा प्राप्त था या न था। इस पर अध्येताओं के विभिन्न मत हैं। इस नगर का उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग सागर विश्वविद्यालय के के डी बाजपेयी एवँ एस के पाण्डे ने 1975 से 1978 के दौरान किया था। जिसमें प्रतिमाएँ, विभिन्न संरचनाएँ, सिक्के, पॉटरी, शिलालेख एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई थी। 
नदी देवियाँ (जमुना एवं गंगा)
इनके आधार पर आंकलन किया गया कि इस स्थान से पाँच ऐतिहासिक काल खंडों के प्रमाण मिलते है। आद्य ऐतिहासिक काल - 1000 से 350 ई पू, मौर्य, शुंग, सातवाहन काल - 300 से 350 ईसा पूर्व, शरभपुरीय एवं सोमवंशी काल - 300 से 650 ईस्वीं, सोमवंशी काल - 650 से 900 ईंस्वी, कलचुरी काल - 900 से 1300 ईस्वीं माना गया है।

भीमा - कीचक
इस अवधि तक यह नगर आबाद रहा। इसके पश्चात यह टीले रुप में प्राप्त हुआ, जिसके उत्खनन के पश्चात 7 वीं से 8 वीं सदी का यह मंदिर प्राप्त हुआ। इस शिवालय का निर्माण सोमवंशी शासकों ने कराया था। मंदिर के समीप ही प्रांगण में दो बड़ी प्रतिमाओं के शीर्ष भाग रखे हुए हैं। विशालता देखते हुए ग्रामीण जनों में महाभारत कालीन भीमा-कीचक के रुप में उनकी पहचान स्थापित हो गई।
शिव परिवार
मंदिर के द्वार पट पर शिव के गणों की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं, मुख्य द्वार शाखा पर परिचारिकाएँ स्थापित हैं। द्वार पर किए गए बेलबूटे के अलंकरण देख कर सिरपुर के तिवर देव विहार का स्मरण हो उठता है। मंदिर की भित्तियों में प्रतिमाएँ लगाई गई हैं तथा मंदिर के निर्माण में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया। द्वार के एक-एक पट का वजन ही कम से कम 10 टन होगा।
यज्ञ करते हुए ब्रह्मा
मंदिर की भित्तियों पर पशु, पक्षियों, यक्ष, यक्षिणी, गंधर्व, कीर्तीमुख, भारवाहक इत्यादि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। द्वार शाखा पर ब्रह्मा को यज्ञ करते हुए, उमा महेश्वर संग कार्तिकेय उत्कीर्ण किया है। द्वार पर स्थापित नदीं देवियों के वस्त्र अलंकरण मनमोहक हैं। शिल्पकार ने अपने कार्य को महीनता से अंजाम दिया है।
शिल्पकार द्वारा अधूरा छोड़ा गया महिषासुर मर्दनी का अंकन
शिवालय के द्वार पट पर एक अधूरी प्रतिमा का दागबेल दिखाई दिया। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दनी की बनाई जानी थी। शिल्पकार ने सुरमई से अंकन के बाद छेनी चलाकर उसे पक्का भी कर दिया था। इसके पश्चात प्रतिमा का अंकन होना था। पता नहीं क्या कारण था जो इतने बड़े एवं भव्य मंदिर में वह सिर्फ़ एक शिल्प अधूरा छोड़ कर चला गया।
कीर्तिमुख
शिवालयों के अलंकरण में कीर्ति मुख का स्थान अनिवार्य माना जाता है। भगवान शिव के इस गण को मंदिरों में आवश्यक रुप से बनाया जाता है। कीर्तिमुख को शिव ने वरदान दिया था। मंदिर की भव्यता देखने के पश्चात लगा कि यदि इस मंदिर का अवलोकन हम नहीं करते तो मल्हार के विषय में काफ़ी कुछ जानने से वंचित रह जाते। मंदिर दर्शन के पश्चात हम बिलासपुर की ओर चल पड़े। …… इति मल्हार यात्रा कथा।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

मल्हार : जैन प्रतिमाएँ



रात होटल में सतीश जायसवाल जी से भेंट हुई थी, जब उन्हें हमारी मल्हार यात्रा का पता चला तो उन्होंने सहयोग की दृष्टि से मल्हार निवासी गुलाब सिंह को फ़ोन लगाया, वे घर पर नहीं मिले। फ़िर उन्होने उनका नम्बर द्वारिका प्रसाद जी को दे दिया। जिससे हम मल्हार पहुंचने के बाद उनसे सम्पर्क कर सकें। मल्हार पहुंचने पर उनका नम्बर "नाट रिचेबल" कहने लगा। मल्हार भ्रमण कराने के लिए अन्य सुत्र नहीं मिला तो हम खुदमुख्त्यार हो गए। डिड़नेश्वरी देवी दर्शन के पश्चात हमें पता चला कि बस्ती के भीतर कोई नंद महल नामक मंदिर है। हमने कार बाजार में ही वृक्ष के नीचे खड़ी कर दी और रास्ता पूछते हुए चल पड़े।
प्राचीन भवनों के पत्थरों का उपयोग
कदमों से चल  कर किसी बस्ती को नापना मुझे अच्छा  लगता है। मल्हार का बाजार छोटा सा है, पर आवश्यकता सभी वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध है। बड़ी खरीददारी के लिए इन्हें बिलासपुर जाना पड़ता है। नंद महल के रुप में मैने सोचा था कि कोई बड़ा भवन होगा। जिसमें कोई मंदिर होगा। पैदल चलते हुए बस्ती का निरीक्षण भी हो रहा था। प्राचीन नगरी के भग्नावशेषों पर गांव बसने के कारण पुराने घरों की नींव और दीवालों में पुरा सामग्री प्रयोग की हुई मिल जाती है। जैसे सिरपुर में मकान बनाने के लिए कहीं बाहर से पत्थर लाने की जरुरत नहीं होती थी। किसी भी स्थान को खोदने से प्राचीन दीवाल आदि मिल जाती थी उसके पत्थर ही भवन निर्माण के लिए पर्याप्त होते थे।
वैवाहिक जानकारी
गाँव में घरों की दीवाले होली-दीवाली पोती जाती हैं, अगर शादी का अवसर हो तो दीवालों पर चूना लगाना आवश्यक है। तभी शादी के घर की रौनक बनती है। आदमी अपनी आमदनी के हिसाब से विवाह में खर्च करता है। अगर आमदनी कम हो तो भी रौनक पूरी होनी चाहिए। तभी विवाह का आनंद आता है। ग्रामीण अंचल में विवाहादि अवसरों पर दीवालों पर वर-वधू का नाम लिखना आवश्यक समझा जाता है। ऐसा मैने कई प्रदेशों के गांवों में देखा है। यहाँ भी घर की दीवालों पर वर-वधु के रंग बिरंगे नाम लिखे हुए थे। कम्प्यूटर प्रिंटिंग के कारण पेंटरों का धंधा चौपट हो गया। पेंटरों से साईन बोर्ड या अन्य लेखन-चित्रण कार्य कराने की बजाए लोग फ़्लेक्स बनवाना उचित समझते हैं। दीवाल लेखन देखने के बाद थोड़ी प्रसन्नता तो मिली कि पेंटरों के लिए अभी गाँव में काम बचा है। जिससे रोजगार चल सके।
चूल्हा निर्माण
सुबह के समय गाँव में सभी व्यस्त रहते हैं, बहारी झाड़ू, पानी भरना, नहाना-धोना और मंदिर पाठ-पूजा नित्य का कार्य है। रास्ते में ही झोपड़ी के नीचे एक महिला चूल्हा बनाने के लिए धान के भूसे के साथ मिट्टी सान रही थी। शहरों से और कस्बों से तो लकड़ी का चूल्हा गायब ही हो गया है। गैस ने लकड़ी के परम्परागत चूल्हे को चलन से बाहर कर दिया। यह देख कर खुशी हुई कि गांवों आज भी चूल्हे का चलन है। गृह्स्थ का सारा जीवन इसी चूल्हे के चक्कर में खप जाता है। चूल्हे पर चर्चा चल रही थी तो मैने द्वारिका प्रसाद जी से कहा कि कुछ साल पहले मैने चूल्हे पर एक आलेख लिखा था। जो बहुत सारे अखबारों एवं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। चर्चा होने पर उन्होने कहा कि "मैं भी अब चूल्हे पर लिखुंगा। मेरे दिमाग में भी आईडिया आया है।"
गाँव की दुकान एवं दुकानदार
गाँव की छोटी सी दुकान में दैनिक उपयोग की सभी सामग्री मिल जाती है। बच्चों के लिए तो यह महत्वपूर्ण ठिकाना है। जहाँ कहीं से भी रुपया दो रुपया मिला, सीधे भाग कर दुकान में पहुंचते हैं। दुकानदार के पास भी बच्चों को लुभाने वाली सारी चीजें रहती हैं, जिन्हें दुकान के सामने प्रदर्शित करता है। चाकलेट, नड्डा, गोली, बिस्किट बच्चों को आकर्षित करने के लिए काफ़ी हैं। हमें भी जब बचपन में कहीं से आने दो आने मिल जाते थे तो सब्र ही नहीं होता था। सीधे पड़ोस की दुकान में पहुंच कर उन पैसों को ठिकाने लगा कर आते थे। दुकान की रौनक भी बच्चों से बनी रहती थी और दुकानदार भी व्यस्त रहता था। अब भी गांवों में वैसा ही माहौल है। नए जमाने का असर थोड़ा बहुत हुआ है। 
परम्परागत नौबेड़िया किवाड़
ग्रामीण अंचल में घरों के दरवाजे भी सुंदर और मोहक होते हैं, जिन्हें चटक रंगों से पेंट किया जाता है। जिसकी जितनी आमदनी होती है उसके घर के दरवाजे भी वैसे ही होते हैं। दरवाजों को देख कर पता चल जाता है कि कौन कितना मालदार है। वर्तमान में शहरों के घरों में इमारती लकड़ी के पेनल डोर, बटन डोर और फ़्लश डोर का चलन है। परन्तु गांवों में अभी भी खेत की लकड़ी से ही दरवाजा बनाए जाने की परम्परा है। देशी बमरी (बबूल) की लकड़ी के दरवाजे मजबूत होते हैं। अगर बमरी के सार की लकड़ी मिल गई तो ये दरवाजे कई पीढियों तक साथ निभाते हैं। बबूल की लकड़ी में गोंद होता है, जो सूखने पर लकड़ी को लोहे जैसे मजबूती देता है। इस लकड़ी से गाँवों के बढई नौबेड़िया और ग्यारह बेड़िया दरवाजे बनाते हैं। अधिकतर घरों में नौबेड़िया दरवाजे मिलते हैं। यहां पर भी मुझे यह दरवाजे देखने मिले।
जैन तीर्थंकर पट
बातचीत करते हम मंदिर तक पहुंच गए, मंदिर के बारे में पता करने पर एक लड़का दौड कर गया और मंदिर के ताले की चाबी ले आया। हम पहुंचे तो मंदिर में लगा लोहे का गेट बंद था।  मंदिर में प्रवेश करने पर जैन तीर्थकंरो की स्थापित प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। पता नहीं ग्रामीण कब से इन प्रतिमाओं की पूजा कर रहे हैं। इन्होने भी इन प्रतिमाओं को स्थानीय देवताओं के नाम दे दिए होगें तथा इन प्रतिमाओं में अपने किसी देवता को स्थापित कर मान्य कर लिया होगा। जैन तीर्थंकरों का काले ग्रेनाईट से बना हुआ एक तो नौ प्रतिमाओं का पूरा पैनल ही है। साथ में दो देवियों की प्रतिमाएं हैं एक स्थानक मुद्रा में तथा दूसरी ध्यान मुद्रा में। इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के लिए ग्रामीणों ने बड़ा मंदिर बना लिया है तथा नित्य पूजन हो रहा है। मंदिर दर्शन करने के पश्चात हम अपने वाहन तक लौट आए। 
  
आगे पढें…… जारी है।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

मल्हार: आस्था का केन्द्र डिड़नेश्वरी माई



डिडनेश्वरी माई का प्रसिद्ध मंदिर मल्हार ग्राम की पुर्व दिशा में लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर है। इसके दांए तरफ़ एक बड़ा तालाब है तथा मंदिर के सामने भी एक पक्का तालब है। जिसमें ग्रामीण निस्तारी करते हैं। मंदिर के द्वार पर पहुंचने पर एक सिपाही खड़ा दिखाई दिया। शायद इसे मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था में तैनात किया गया है। मंदिर के गर्भ गृह को लोहे के दरवाजों से बंद किया गया है, दर्शनार्थी बाहर से ही दर्शन करके जा रहे थे। मंदिर में नवीन निर्माण कार्य प्रारंभ है। गर्भ गृह के सामने बड़े मंडप का निर्माण हो रहा है।
डिड़नेश्वरी मंदिर परिसर
मल्हार में सागर विश्वविद्यालय द्वारा उत्खनन कार्य करवाया गया। विद्वानों ने इस नगर को ईसा पूर्व 4 भी शताब्दी का माना है। यहाँ ईसा पूर्व 2 शताब्दी की विष्णु प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे आंकलन किया जा सकता है कि पूर्ववर्ती राजा वैष्णव धर्मानुयायी होगें। इसके पश्चात शैवों धर्म का प्रचलन हुआ होगा। मौर्यकाल से लेकर 13-14 वीं शताब्दी तक यह नगर उन्नत एवं विकसित रहा होगा। शैवों के साथ तंत्र उपासना भी प्रारंभ हुई। शाक्तों का भी मल्हार में प्रभाव रहा है। स्कंद माता, दूर्गा, पार्वती, महिषासुर मर्दनी, लक्ष्मी, गौरी, कंकाली, तारादेवी इत्यादि देवियों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। परन्तु डिड़नेश्वरी देवी की काले ग्रेनाईट की अद्भुत प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। 
निर्माणाधीन मंडप
डिड़नेश्वरी नाम के विषय में राहुल सिंह कहते हैं -  "डिड़िन दाई से तो जैसे पूरे मल्हार की धर्म-भावना अनुप्राणित हुई है। काले चमकदार पत्थर से बनी देवी। डिड़वा यानि अविवाहित वयस्क पुरुष और डिड़िन अर्थात्‌ कुंवारी लड़की। माना जाता है कि मल्हार के शैव क्षेत्र में डिडिनेश्वरी शक्ति अथवा पार्वती का रूप है, जब वे गौरी थीं, शिव-वर पाने को आराधनारत थीं। डिड़िन दाई का मंदिर पूरे मल्हार और आसपास के जन-जन की आस्था का केन्द्र है।" डिड़नेश्वरी देवी प्रतिमा को कई बार चोरी करने का प्रयास किया पर चोर एक बार कामयाब हो गए। इस दौरान अखबारों में इस प्रतिमा चोरी के समाचार छपने से यह प्रतिमा विश्व प्रसिद्ध हो गई। फ़िर अचानक यह प्रतिमा बरामद भी हो गई। 
डिड़नेश्वरी माई
मान्यता है कि यह कलचुरियों की कुलदेवी है, देवार गीतों में इसे राजा वेणू की इष्ट देवी भी बताया गया है। डिड़नेश्वरी की प्रतिमा को कलचुरी काल ग्याहरवी सदी की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति माना गया है। काले ग्रेनाईट की यह प्रतिमा 4 फ़ुट ऊंची है। आभामंडल के साथ छत्र को महीनता से लघु घंटिकाओं द्वारा अलंकृत किया गया है। मुक्ताहार, भुजबंध, कर्णफ़ूल, कमरबंध, पायल इत्यादि अलंकरण प्रतिमा को गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिमा के फ़लक पर नौ देवियाँ उत्कीर्ण हैं, कहते हैं जब देव गण युद्ध में असुरों से हार गए तो वे पार्वती की शरण में आए। पार्वती ने पद्मासन में बैठ कर ध्यान किया जिससे नौ देवियों ने प्रकट होकर असुरों का संहार किया।
राजपुरुष: डिड़नेश्वरी मंदिर मल्हार
प्राचीन मंदिर के अधिष्ठान पर नवीन निर्माण किया गया है। मल्हार में मल्लाहों (निषाद) की अच्छी आबादी है। वे डिड़नेश्वरी को अपनी आराध्य देवी मानते हैं। डिड़नेश्वरी माई की कर बद्ध ध्यानावस्थित प्रतिमा मोहित करने वाली है। जिस शिल्पकार ने इसका निर्माण किया होगा उसे नमन है। ऐसे खुबसूरत प्रतिमा मैने आज तक देखी नहीं। गर्भगृह के द्वार के बांई तरफ़ एक राजपुरुष की प्रतिमा भी स्थापित है। अब यह प्रतिमा किस राजा की है यह बताना कठिन है। हमने मंदिर की एक परिक्रमा लगा कर पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया और मल्हार नगरी भ्रमण करने आगे चल पड़े।


शनिवार, 26 अप्रैल 2014

मल्हार : प्राचीन प्रतिमाएँ


ल्हार पर प्राण चड्ढा जी से चर्चा हो रही थी। उन्होनें बताया कि 25-30 वर्ष पूर्व मल्हार में प्राचीन मूतियाँ इतनी अधिक बिखरी हुई थी कि महाशिवरात्रि के मेले में आने वाले गाड़ीवान मूर्तियों का चूल्हा बना कर खाना बनाते थे। इसके वे साक्षी हैं। मल्हार पुरा सम्पदा से भरपूर नगर था। वर्तमान मल्हार गाँव मल्लारपत्तन नगर के अवशेषों पर बसा हुआ है। हर घर में किसी न किसी पुराने पत्थर या प्रतिमावशेष का उपयोग दैनिक कार्यों में होता है। कलचुरियों के समय यह नगर अपनी प्रसिद्धी की बुलंदी पर था। पर न जाने ऐसा क्या हुआ जो इसे पतनोन्मुख होना पड़ा। यही सोचते हुए मैं संग्रहालय (संग्रहालय तो नहीं कहना चाहिए, वरन एक बड़ा कमरा जरुर है, जहाँ बेतरतीब प्रतिमाएं पड़ी हैं) की ओर बढा।
संग्रहालय
आस-पास कुछ लोग नल के पानी से स्नान कर रहे थे। प्रांगण में प्रतिमाएं बिखरी हुई हैं। संग्रहालय के द्वार पर चौकीदार से भेंट हुई, हमें देख कर चौकीदार ने भवन के द्वार उन्मुक्त किए एवं भीतर के हॉल में रोशनी की। सिर्फ़ एक ही ट्यूब लाईट का प्रकाश दिखाई दिया। अन्य ट्यूब लाईटें झपकी भी नहीं, मौन रह गई। भगवान जाने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी शासन द्वारा भरपूर बजट मिलने के बाद भी प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ती करने में भी क्यों कोताही बरतते हैं। मद्धम मद्धम रोशनी में प्रतिमाओं का अवलोकन प्रारंभ हुआ। अवलोकन करने के लिए एक सिरा ही पकड़ना ठीक था।
शेष नारायण
दरवाजे के सामने ही शेषशायी विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा दिखाई देती है। अपने आयुधों के साथ बांया पैर दाएं जंघा पर रखा हुआ है, नाभी से निकले हुए कमल पर ब्रह्मा विराजे हैं। चरणों की तरफ़ लक्ष्मी विराजमान हैं। प्रतिमा थोड़ी घिसी हुई है, आँखे और नाक स्पष्ट नहीं है। 
कुबेर
आगे बढने पर कुबेर की एक प्रतिमा दिखाई देते हैं। किरीट मुकुटधारी कुबेर ने दांए हाथ में गोला(पृथ्वी) थाम रखा है और बांए हाथ में धन की थैली। अगर धन न हो तो फ़िर कैसा कुबेर? इसलिए शिल्पकार कुबेर का पेट गणेश सदृश्य बड़ा बनाते हैं और हाथ में धन की थैली थमाते हैं।
वीरभद्र
वीरभद्र की सुंदर प्रतिमा भी संग्रह में रखी हुई है। शिवालयों में वीरभ्रद की प्रतिमा भी अनिवार्य रुप से बनाई जाती थी। वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया. देवसंहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया। 
विष्णु
पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया। वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया।
स्कंद माता
स्कंधमाता की भी स्थानक प्रतिमा हैं। पौराणिक गाथाओं में भगवान शंकर के एक पुत्र कार्तिकेय भी हैं, वे भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
शिव पार्वती
एक प्रतिमा नंदी आरुढ शिव पार्वती की है, जिसमें नंदी वेग से आगे बढे जा रहे हैं, उनके दोनो अगले पैर हवा में दिखाए गए हैं। नंदी की लगाम पार्वती ने अपने हाथ से थाम रखी है। इस प्रतिमा में शिव का चेहरा भग्न है, किसी ने प्रतिमा को खंडित कर दिया है। 
विष्णू 
इसके साथ ही एक अद्भुत प्रतिमा भी इस संग्रह में है। जिसे अध्येता विष्णु की प्रतिमा बताते हैं। जिसके एक हाथ से सीधी तलवार दबाई हुई है, शीष पर टोपी और कानों में कुंडल के शीष के बगल में चक्र दिखाई देता है। पोषाक बख्तरबंद जैसी है तथा पैरों में लम्बे जूते हैं।  इस प्रतिमा के नाम निर्धारण पर गत संगोष्ठी में विवाद की स्थिति उत्पन्न थी, कुछ इसे विष्णु प्रतिमा मानते हैं , कुछ नहीं। यह प्रतिमा किसी युनानी योद्धा जैसे दिखाई देती है। 
संभवत: तीर्थंकर आदिनाथ
संग्रहालय में अन्य भी बहुत सारी प्रतिमाएं है, जिनमें जैन-बौद्ध प्रतिमाएं भी दिखाई देती हैं। हमें अन्य स्थानों का भी भ्रमण करना था इसलिए यहाँ से जल्दी ही निकलना चाहते थे। पातालेश्वर मंदिर के दर्शनोपरांत हम डिडनेश्वरी मंदिर की ओर चल पड़े।

आगे पढें…… जारी है।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

मल्हार : पातालेश्वर मंदिर

ल्हार जाने के लिए सुबह का 6 बजे का वक्त तय हुआ। सुबह की शीतलता के साथ मल्हार दर्शन हो जाएगें वरना इस मौसम में सूरज दादा इतने भन्ना जाते हैं कि झुलसा कर ही छोड़ते हैं। द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी सपत्नी (माधुरी जी) के साथ मुकर्रर वक्त पर होटल पहुंच गए। मैं भी अपने औजार (कैमरा, टोपी, पानी की बोतल इत्यादि) लेकर तैयार था। हम मल्हार की ओर चल पड़े। 
बिलासपुर की सुबह
मल्हार नगर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में अक्षांक्ष 21 90 उत्तर तथा देशांतर 82 20 पूर्व में 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिलासपुर से रायगढ़ जाने वाली सड़क पर 18 किलोमिटर दूर मस्तूरी है। वहां से मल्हार, 14 कि. मी. दूर है। मस्तुरी पहुंचने पर मल्हार जाने वाले मार्ग पर एक बड़ा द्वार बना हुआ है और यहीं से तारकोल की इकहरी सड़क मल्हार की ओर जाती है।
मल्हार का मड फ़ोर्ट
पुरातात्विक दृष्टि से मल्हार महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कई एकड़ में फ़ैला हुआ मृदा भित्ति दुर्ग भी है। मल्हार के मृदा भित्ती दुर्ग  (मड फ़ोर्ट) सर्वप्रथम जिक्र जे. डी. बेगलर ने 1873-74 के अपने भ्रमण के दौरान किया। परन्तु उन्होने इस मड फ़ोर्ट में विशेष रुचि नहीं दिखाई। उन्होने इस शहर में मंदिरों के 2 खंडहरों का जिक्र किया।
पंचमुखी गणेश
के. डी. बाजपेयी मानते हैं कि पुराणों में वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने किया था। इसके कारण उनका नाम मलारि, मल्लाल प्रचलित हुआ। यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है। मल्हार से प्राप्त कलचुरीकालीन 1164 ईं के शिलालेख में इन नगर को मल्लाल पत्त्न कहा गया है। विशेष तौर पर इस नगर का प्रचार तब अधिक हुआ जब यहाँ से डिडनेश्वरी देवी की प्राचीन प्रतिमा चोरी हो गई थी। तब समाचार पत्रों में इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता रहा। मैने भी तभी इसका नाम सुना था, पर इस स्थान पर जाना कभी न हो सका था।
पातालेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार एवं स्थानक विष्णु लक्ष्मी :)
चर्चा के दौरान द्वारिका प्रसाद जी ने भी कहा था कि सारी उम्र बिलासपुर में गुजारने के बाद भी वे मल्हार नहीं जा सके। आज आपके साथ जाना हो जाएगा। अब हम मल्हार से अनजान तीन लोग इस नगर की ओर बढ रहे थे। धीमी रफ़्तार से चलते हुए हम लगभग 7 बजे मल्हार पहुंच गए। सूर्य देवता भी अपना हल्का प्रभाव दिखाने लगे थे। मल्हार में प्रवेश करते समय छत्तीसगढ़ पर्यटन के सूचना पट पर पातालेश्वर मंदिर का रास्ता दिखाया गया था। हम भी इसी मंदिर में जाकर रुके। 
नदी देवियाँ एवं अनुचर
मंदिर परिसर की सुरक्षा चार दिवारी बना कर की गई है। लोहे का गेट खुला मिला और हम प्रवेश कर गए। यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है, गेट से प्रवेश करते समय 18 अप्रेल विश्व धरोहर दिवस का बैनर टंगा हुआ दिखाई दिया। वैसे तो उदयपुर वाले श्री कृष्ण जुगनु जी ने फ़ेसबुक पर पूछ ही लिया था कि आज आप क्या करने वाले हैं। हमने उन्हें बताया कि मल्हार जाने वाले हैं।
जय भोले शंकर-कांटा गड़े न कंकर
द्वार से प्रवेश करने पर बांई ओर टीन के छत से ढकी मंदिर की विशाल संरचना दिखाई दे रही थी। इसे देखते ही अपुन समझ गए कि यही पातालेश्वर मंदिर है। पालेश्वर मंदिर का मंडप अधिष्ठान ऊंचा है पर गर्भ गृह में जाने के लिए 5-6 पैड़ियाँ उतरना पड़ता है अर्थात गर्भगृह धरातल पर ही है। द्वार के बांई तरफ़ कच्छप वाहिनी यमुना एवं दांई तरफ़ मकर वाहिनी गंगा देवी की स्थानक मुद्रा में आदमकद प्रतिमा है। इनके साथ ही शिव के अन्य अनुचर भी स्थापित हैं। 
गौमुखी पातालेश्वर शिव
गर्भ गृह में जाने के लिए पैड़ियों का प्रयोग होने के कारण इस मंदिर का नाम पातालेश्वर प्रचलन में आया तथा शिवलिंग का गौमुखी होना भी इसे विशेष मान्यता देता है। जब हम लोग मंदिर में पहुंचे तो कुछ लोग पूजा पाठ कर रहे थे। माधुरी जी ध्यान करती हैं, उन्होने शिवलिंग के दर्शन करने के पश्चात बताया कि इस स्थान पर उर्जा का स्तर काफ़ी ऊंचा है।
ई हमार कौनो जनम के भाई बंधू हैं मूंछधारी
द्वार पर स्थापित प्रतिमाओं को देखने के बाद मन प्रसन्न हो गया। शिल्पकार ने इन्हें सुडौल बनाया। प्रतिमा निहारने पर कहीं पर भी निगाहें अटकती नहीं हैं। कहा जाए तो सब कुछ "सूत" में निर्मित किया है सूत्रधार ने। इस मंदिर का निर्माण कलचुरी राजा पृथ्वीदेव के पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय के समय में सोमराज नामक ब्राह्मण ने कराया, जिसे केदारेश्वर नाम दिया जो वर्तमान में पातालेश्वर प्रसिद्ध है। 
राम जी की सेना चली - हस्तिदल
मंदिर की भित्तियों में हस्ति दल, सिंह संघाट प्रतिमा, गणेश, पुष्प वल्लरियों का सुंदर अंकन है। मंदिर की दाईं भित्ति पर मूंछधारी सिंह का अंकन भी मनोहारी दिखाई देता है। मंदिर के सामने ऊंचे अधिष्ठान पर नंदी सजग मुद्रा में विराजमान हैं। कान खड़े हुए और आँखे शिव की ओर एक टक लगी हुई। जैसे आदेश होते ही त्वरित कार्यवाही करने को तत्पर दिखाई देते हैं।
नंदी बाबा तैयार हैं कार्यवाही के लिए- आदेश की प्रतीक्षा
मंदिर के समक्ष ही हनुमान जी की आदमकद प्रतिमा विराजमान है। स्थानक मुद्रा में हनुमान जी ने एक स्त्री पर बांया पैर धर रखा है। एक हाथ सिर पर है तथा दूसरा हाथ अभय मुद्रा में दिखाई देता है। यह प्रतिमा किस पौराणिक आख्यान पर आधारित है, स्मरण नहीं हो पा रहा। मंदिर के आस पास कई आमलक बिखरे पड़े हैं।  इसके साथ ही मडफ़ोर्ट की परिखा के तरफ़ पंचमुखी गणेश की आदमकद प्रतिमा भी रखी हुई है। 
भग्न मंदिरों के खंडहर
मंदिर परिसर में उत्खनन में प्राप्त कई मंदिरों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं इससे जाहिर होता है कि इस स्थान  पर मंदिरों का समूह रहा होगा। मंदिर के सामने ही कई जैन प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। सामने ही संग्रहालय भी बना हुआ है। परन्तु इस संग्रहालय में इतनी जगह नहीं है कि सभी प्रतिमाएं रखी जा सकें। संग्रहालय में मौजूद प्रतिमाओं का अवलोकन करने लिए हमने संग्रहालय में प्रवेश किया। 

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

भारतीय रेल : चित्र प्रदर्शनी बिलासपुर

चुनावी सरगर्मी के साथ शादियों का माहौल भी गर्म है। आम चुनाव और शादियों के मुहूर्त एक साथ आते हैं। जिससे दोनों ही प्रभावित होते हैं। 18 अप्रेल को एक शादी के सिलसिले में बिलासपुर जाना था तथा 19 को भी एक शादी में सम्मिलित होना था। इस तरह 2 दिनी बिलासपुर प्रवास तय हो गया। बिलासपुर रेल्वे जोन ने रेल्वे पर आधारित एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था। इस प्रदर्शनी को देखने की भी ललक थी। "कहाँ शुरु कहाँ खत्म" आत्मकथा के लेखक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी को फ़ोन करने पर उन्होने कहा कि "बिलासपुर में आप मेरे मेहमान रहेगें।" मेरा इरादा था कि एक रात बिल्हा रुका जाए और अगली सुबह फ़िर बिलासपुर पहुंच जाऊंगा। पर द्वारिका प्रसाद जी के स्नेहिल आग्रह को टाल न सका। 
आत्मकथा लेखक श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी
प्रदर्शनी की अंतिम तिथि 18 तारीख बताई गई थी। मैने सोचा कि शाम 5 बजे तक प्रदर्शनी का समापन हो जाएगा तो देख नहीं पाऊंगा। इसलिए दोपहर को ही बिलासपुर के चल पड़ा। शाम को 4 बजे तक पहुंच कर भी एक घंटे का समय प्रदर्शनी के लिए मिल जाएगा। बिलासपुर पहुंचने पर द्वारिका प्रसाद जी स्टेशन पर ही मिल गए। हम प्रदर्शनी स्थल ढूंढते हुए डी आर एम ऑफ़िस के आगे तक पहुंच गए। आसमान में बादल होने के कारण गर्मी का असर कम ही था। एक तरह से मौसम सुहाना ही बन गया था। आखिर ढूंढते हुए प्रदर्शनी तक पहुंच गए। तो हॉल के सभी दरवाजे बंद थे। मैने सोचा कि समापन हो गया लगता है। परन्तु हॉल में कूलर चलने का संकेत मिलने पर समझ आ गया कि भीतर कोई तो है। आवाज देने पर दरवाजा खुल गया। दरवाजा खोलने वाले ने बताया कि प्रदर्शनी की तारीख बढ़ा कर 20 कर दी गई है।
भिलाई स्टील प्लांट का पावर इंजन
हॉल में थोड़ी सी ही जगह में फ़ोटो प्रदर्शनी लगाई गई थी। अगर सरसरी तौर भी निगाह डालें तो 5 मिनट में मामला रफ़ा-दफ़ा हो सकता था। लगभग 30 पुराने चित्र लगाए गए थे। जिनमें रेल्वे संचालन से संबंधित जानकारियाँ दिखाई गई थी। अगर पार्श्वालोकन करें तो 1887 में बंगाल नागपुर रेल्वे के अंतर्गत बिलासपुर में रेल लाइन बिछी और 1890 में बिलासपुर स्टेशन बना तथा 1891 में बिलासपुर जंक्शन। बिलासपुर में सुंदर रेल्वे कालोनी बसाई गई, जो शहर से काफ़ी दूर थी। प्रारंभिक काल में स्टीम इंजन चलते थे। प्रदर्शनी में स्टीम इंजन के चित्र भी दिखाई दिए, जो सवारी गाड़ी एवं माल गाड़ी को खींचते थे।
रायपुर धमतरी नैरोगेज लाईन का भाप इंजन
एक चित्र रायपुर धमतरी रेल लाईन के स्टीम इंजन का था। जिसे देखकर मेरी पुरानी यादें ताजा हो गई। मेरे निवास के एक कोने पर इस नेरोगेज लाईन का आउटर सिगनल है। गर्मी के दिनों में जब भी यह स्टीम इंजन इधर से गुजरता था तो ड्रायवर भाप का प्रेसर बढा कर धुंए के साथ कोयले भी उड़ाता था। इन जलते हुए कोयलों से सूखी घास में आग लग जाती थी। शाम को वक्त तो हमें पानी की बाल्टी भरकर तैयार रहना पड़ता था। घास में आग लगते ही बुझाया करते थे। अब भाप के इंजन की छुक छुक की आवाज एवं मधूर सीटी गुजरे हुए जमाने की बात हो गई। इस स्टीम के इंजन को डी आर एम ऑफ़िस रायपुर के बाहर ट्राफ़ी बना कर रखा गया है।
पुल निर्माण - हैट वाले इंजीनियर के साथ कुत्ता भी दिखाई दे रहा है।
रेल्वे के शुरुवाती दिनों में पहाड़ों को काटकर बोग्दे बनाकर एवं नदियों पर पुल बना कर यातायात सुगम किया गया। इस निर्माण से संबंधित चित्र भी प्रदर्शनी में रखे गए। उस समय सभी व्यक्ति सिर पर पगड़ी पहनते थे। इस चित्र में नंगे सिर कोई नहीं दिखाई दे रहा। इंजीनियर के निर्देशन में पुल के निर्माण का कार्य चल रहा है। जिसमें गार्डर लगाने के लिए रस्सी एवं चैन पुल्ली जैसा यंत्र भी दिखाई दे रहा है। इस चित्र में महत्वपूर्ण बात तो यह दिखाई दी कि इंजीनियर का पालतू कुत्ता भी उसके साथ पुल निर्माण की कार्यवाही तल्लीनता से देख रहा है। यह उनके पशुप्रेम को प्रकट करता है।
गोंदियां रेल्वे स्टेशन का हिन्दू टी स्टाल
1932 के एक चित्र से तत्कालीन सामाजिक स्थिति का पता चलता है। यह चित्र "हिन्दू-चाय" की दुकान का है। उस जमाने में मुस्लिम और हिन्दूओं में इतना अधिक विभाजन था कि हिन्दू मुसलमान के हाथों का भोजन ग्रहण नहीं करते थे। इसलिए रेल्वे ने हिन्दू टी स्टाल का अलग से निर्माण कराया। इनके लिए पानी के नलके भी अलग रहते थे। उस समय लम्बी दूरी का मुसाफ़िर पीने का पानी अपने साथ लेकर चलता था। ज्ञात हो कि जयपुर के महाराज सवाई मान सिंह द्वितीय 1902 में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में सम्मिलित होने इंग्लैंड गए थे तो चांदी के कलशों में लगभग 8000 लीटर गंगाजल अपने साथ ले गए थे।
शंटिग के लिए हाथी का सहारा
उस समय रेल्वे डिब्बों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए हाथियों का सहारा लेती थी। स्टीम इंजन को चलाने के लिए कोयले के भंडार के साथ पानी भी भरपूर व्यवस्था की जाती थी। इंजन में कोयले भरने के बाद उसमें पानी डाला जाता था, जिससे कि कोयला सूखने पर उसमें आग न लग जाए। इंजनों के दिशा परिवर्तन के लिए गोल घर बनाए जाते थे। जिस पर इंजन को चढाकार लेबर धक्का मार कर उसका दिशा परिवर्तन करते थे। यह व्यवस्था राजस्थान के फ़ूलेरा, जोधपुर जैसे स्टेशनों पर मैने देखी है।
बोग्दा
जनशक्ति के आवागमन के लिए रेल्वे उपयोगी साधन बन गया। आजादी के पहले रेल संचालन खंड-खंड में निजी कम्पनियों द्वारा किया जाता था। जिनके अलग-अलग प्रतीक चिन्ह हुआ करते थे। इस प्रदर्शनी में इन निजी कम्पनियों के प्रतीक चिन्हों को भी प्रमुखता से दर्शाया गया। रेल्वे के एकीकरण के पश्चात इसका प्रतीक चिन्ह बदल गया। इन प्रतीक चिन्हों को देखने के पश्चात पता चलता है कि किन कम्पनियों द्वारा रेल परिवहन का संचालन हो रहा था। 
निर्माण के दौरान क्रेन का उपयोग
ऐसी एक रेल मारवाड़ जंक्शन से उदयपुर के लिए खामली घाट होते हुए चला करती थी। जो जोधपुर रियासत की निजी रेल थी। इस रेल से मुझे यात्रा करने का सौभाग्य 1990 में मिला था। शायद अब यहाँ अमान परिवर्तन के कारण यह रेल नहीं चलती हो। रेल चित्र प्रदर्शनी से लौट कर हम श्री जगदीश होटल पहुंचे। कुछ देर विश्राम करने के पश्चात आशीर्वाद समारोह में सम्मिलित हुए। अगला दिन हमने मल्हार दर्शन के लिए तय किया। 

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

तुम बहुत याद आओगे …………

जैसा नाम था वो वैसा ही अलबेला था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि वो अलबेला कवि हमारे बीच नहीं रहा। दो तीन पहले ही उसके अस्वस्थ होने की सूचना मिली थी और मैने ईश्वर से प्रार्थना की थी। मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं हुई और अलबेला कवि हमें छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल पड़ा। सृष्टि का नियम है जिसे आना है उसे जाना ही पड़ेगा। परन्तु इतनी कम उम्र में जाना होगा ये सोचा भी नहीं था। मेरा और अलबेला कवि का परिचय अधिक दिनों का नहीं, बस कुछ वर्षों का ही था। परन्तु जब भी हम मिले तो ये नहीं लगा कि किसी औपरे आदमी से मिल रहा हूँ। वही आत्मीयता और वही अपनापन। 
रायपुर प्रेस क्लब में - गिरीश पंकज, अनिल पुसदकर, बी एस पाबला, अलबेला खत्री, ललित शर्मा, राजकुमार ग्वालानी, शरद कोकास

राज भाटिया जी ने जब तिलियार (रोहतक हरियाणा) में ब्लॉगर मीट का आयोजन किया तो मैं पानीपत से भाई यौगेन्द्र मौद्गिल के साथ रोहतक पहुंचा। अगले दिन ब्लॉगर मीट में सम्मिलित होने अलबेला खत्री विशेष रुप से रोहतक पहुंचे। ब्लॉगर मीट के पश्चात राज भाटिया जी के घर में हमारी महफ़िल जमी। जिसमें नीरज जाट, केवल राम, अंतर सोहिल थे। यौगेन्द्र मौदगिल जी तो रात को पानीपत लौट गए थे। मुझे सर्द गर्म हो गई थी तो इन्होने मुझे अपने बैग से अजवाईन निकाल कर दी और गर्म पानी के साथ लेने कहा। सुबह उठने पर सर्दी गायब हो गई थी। रात भर कविताओं का दौर चलता रहा और मैने अपने ब्लॉग से छांट-छांट कर कविताएँ पढी। 4 बजे तक कवि गोष्ठी चलती रही। इधर नीरज जाट और केवल राम खर्राटे भरते रहे। 
रोहतक में - अलबेला खत्री, संगीता पुरी, ललित शर्मा, राजीव तनेजा योगेन्द्र मौद्गिल

एक ब्लॉग़र के रुप में अलबेला खत्री की अलग ही पहचान थी। शब्दों के खिलाड़ी थे वह। जब भी मंच पर पहुंचते रौनक जमा देते। मेरा जब भी मौज लेने का मन होता तो रात 12 बजे भी फ़ोन लगा लेता था और फ़िर ठहाके गुंजते थे बियाबान में भी। एक दिन मुझे फ़ोन लगा कर कहा कि पिथौरा के कवि सम्मेलन में आ रहा हूँ और वापसी में मुलाकात होगी। उस दिन मैं विशेष तौर पर सिर्फ़ उनसे मिलने के लिए रायपुर पहुंचा। पिथौरा से बस आयी और अम्बेडकर चौक से मैने अलबेला को अपने साथ लिया। एक सूटकेस था उसके हाथों में और सांस फ़ूली हुई थी। मतलब दो कदम भी चलना मुस्किल था। सूटकेस मैने उठा लिया और हम पैदल-पैदल चल कर संस्कृति विभाग में राहुल भैया के दफ़्तर में पहुंचे। उस दिन मुझे लगा कि इन्हें अस्थमा है। वहाँ से हम अनिल पुसदकर जी के आफ़िस पहुंचे और कुछ देर रुक कर अनिल भाई के साथ हम उन्हे स्टेशन छोड़ने गए। उन्हें हावड़ा अहमदाबाद की ट्रेन से सूरत जाना था।
रायगढ़ मे- अलबेला खत्री, ललित शर्मा, प्रताप फ़ौजदार, वी पी सिंह, यौगेन्द्र मौद्गिल

अक्टुबर माह में रायगढ़ स्थित नलवा प्लांट में आफ़िसर्स क्लब द्वारा कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। अलबेला भाई एवं प्रकाश यादव जी के विशेष आग्रह पर मुझे भी 19 अक्टुबर के इस कार्यक्रम में सम्मिलित होना था। सुबह एयरपोर्ट से प्रताप फ़ौजदार एवं यौगेन्द्र मौद्गिल जी को साथ लेकर बिलासपुर पहुंचे और वहाँ से प्रदीप चौबे जी को लेकर शाम होते तक रायगढ़ पहुंचे। इसी में सारा दिन चला गया। रायगढ़ पहुंचने पर कर्नल वीपी सिंग और अलबेला खत्री जी से भेंट हुई। मंच पर पहुंचने की तैयारी करते हुए अलबेला भाई ने हुक्का जैसा इन्हेलर निकाला और दवाई डाल कर दो-तीन सुट्टे मारे। अस्थमा का जोर दिखाई दे रहा था और उनकी सांस फ़ूल रही थी। थोड़ी देर में सांस स्थिर हुई तो हम मंच पर पहुचे। एतिहासिक कवि सम्मेलन था। उसके बाद हम साथ ही रायपुर लौटे।
रोहतक में सुबह की चाय - अलबेला खत्री और राजभाटिया जी

अलबेला खत्री का पूरा नाम टिकमचंद खत्री था। पर काव्य मंचों पर अलबेला खत्री के नाम से ही प्रसिद्धि मिली। रायगढ़ कवि सम्मेलन के बाद हमारी मुलाकात नहीं हुई। परन्तु फ़ोन पर चर्चा होते रहती थी। विगत एक माह से कोई फ़ोन पर कोई चर्चा नहीं हुई थी सिर्फ़ फ़ेसबुक की राम राम चल रही थी। अपडेट से पता चला था कि 8 अप्रेल को सोनीपत में कवि सम्मेलन है जिसमें सुनीता शानु भी उपस्थित रहेगी। इससे पहले ही उनकी अस्वस्थता का समाचार आ गया और 8 अप्रेल को कवि सम्मेलन में उपस्थित होने से पूर्व ही अलबेला भाई हमें छोड़ कर चले गए। कहा जाए तो उनके जाने से साहित्य जगत, ब्लॉग मंच एवं कवि सम्मेलन के मंच के साथ मेरी भी व्यक्तिगत क्षति हुई है। अब वो ठहाके सिर्फ़ यादों में ही रह गए। रह रह कर अभी गूंजते हैं मन की गहराईयों में। चलो संयोग हुआ तो फ़िर कभी मुलाकात होगी………