मंगलवार, 22 जुलाई 2014

आत्मकथा कहना, खांडे की धार पर चलना....

त्मकथा कहना "खांडे की धार" पर चलना है। सच है आत्मकथा लिखना किसी "बिगबैंग" से कम नहीं है।अगर विस्फ़ोट कन्ट्रोल्ड हो तो गॉड पार्टिकल मिल जाता है और विस्फ़ोट अनकंट्रोल्ड हो तो समाज के समक्ष जीवन भर का बना हुआ प्रभामंडल छिन्न-भिन्न हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दो पहलू होते हैं, पहला वह जिसे प्रकाश में लाना चाहता है और दूसरा वह जिससे प्रकाश में न लाकर प्रकाश में रहना चाहता है। बिरला ही कोई आत्मकथा लिखने का साहस कर पाता है और उसके साथ न्याय भी। "कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" का नायक एक संयुक्त परिवार हिस्सा है, संयुक्त परिवार के फ़ायदे भी है तो नुकसान भी। आत्मकथा लेखन के दुस्साहस को रेखांकित करते हुए नायक कहता है कि -" आत्मकथा नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक कार्य है।" लोग बड़े-बड़े लेखकों, विचारकों, नेताओं, अभिनेताओं की आत्मकथा पढ़ते हैं। उन्होने कभी सोचा भी नहीं होगा कि किसी आम आदमी की आत्मकथा भी हो सकती है। इस आत्मकथा का नायक लॉ ग्रेजुएट होने के बाद भी स्वयं को पेशे से हलवाई कहता है। क्योंकि उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी उसे पुस्तैनी पेशे को ही अपनाना पड़ा। वह कुछ प्रश्न भी छोड़ता है जिसके उत्तर कहीं पर खुद देता है, कहीँ पर जिज्ञासा प्रकट करता है। 

    आत्मकथा के प्रारंभ में वह कहता है - " किसने भेजा मुझे इस नक्षत्र में … नहीं मालूम!" यहाँ से कथा आगे बढ़ाते हुए वह स्वयं से प्रश्न करता है- "तीन दंडाधिकारियों के तले मेरा बचपन अक्सर सिसकता रहता था, 'इस दुनिया में क्यों आया मैं?" इसका उत्तर आगे चलकर आत्मकथा में ही मिलता है - "समय ने पासा फ़ेंका और मैं उसका मोहरा था।" कथा का नायक फ़िल्मों का बेहद शौकीन है, कथानक कि माँग के अनुसार फ़िल्मों का भी वर्णन करता है। आज भी बच्चों के द्वारा फ़िल्में देखने को माँ-बाप अच्छा नहीं मानते, उनका मानना है कि फ़िल्मों से बच्चे बिगड़ते हैं। परन्तु कथा का नायक फ़िल्मों को अपनी जीवन-यात्रा में महत्वपूर्ण स्थान देते हुए कहता है - "मेरा मानना है कि मेरा व्यक्तित्व गढ़ने में  जितना हाथ परिवार का रहा होगा, उतना उन फ़िल्मों का भी था, जिन्हें मैने अपने अल्हड़पन में देखा था। उन फ़िल्मों ने मुझे प्रारंभिक तौर पर समझाया कि मुझे कैसा होना चाहिए और वैसा कैसे बनना चाहिए?"

    कथा का नायक जीवन यात्रा का साक्षी भी और कर्ता भी। वह साक्षी बनकर दुनिया को देखता है कि उसमें क्या घट रहा है, क्या परिवर्तन हो रहा है तथा दुनिया की एक इकाई होने के नाते कर्म भी करता है, सिर्फ़ साक्षी ही नहीं रहता। आजादी के 125 दिनों के बाद दुनिया में आकर वह होश संभालने के बाद वह समाज का एक अटूट हिस्सा रहा है। 1962 के चीन युद्द पर टिप्पणी करते हुए कहता है - "सदियों से रक्षा करने वाला हिमालय आधुनिक विज्ञान की आयुध तकनीक के समक्ष नतमस्तक होकर लहुलुहान हो गया। उस घटना से पूरा देश दहल गया, 'पंचशील के सिद्धांत भसक गए।" पाकिस्तान के साथ पैंसठ साला बैर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वह गंभीर बात कहता है - "मैं शिशु से वृद्ध हो गया, दोनो राष्ट्र अभी तक वयस्क नहीं हुए?" दोनों देशों के हुक्मरानों को एक आम आदमी से सीख लेनी चाहिए। 

    1975 का आपातकाल वास्तव में भारत के इतिहास का काला अध्याय है। जिसे पलट कर देखने में अब उनको भी शर्म आती होगी, जो इसका हिस्सा रहे हैं। इस पर बेबाक टिप्प्णी उन दिनों की भयावहता को दर्शाती है - "सम्पूर्ण भारत एक बड़ी जेल में तब्दील हो गया, कुछ देशद्रोही (?) सीखचों के भीतर थे, शेष खुली जेल में।" आगे टिप्पणी है - "आपातकाल में एक खास बात उभरी, जिसने देश के राजनैतिक प्रशासन को नया मोड़ दे दिया। उन इक्कीस महीनों में नौकरशाह अपनी शक्ति पहचान गए, इसलिए उन्होने अपनी भूमिका बदल ली, वे 'जन सेवक' से 'जन अधिकारी' में शिफ़्ट हो गए। परिणामत: जन प्रतिनिधि कमजोर पड़ गए और जनतंत्र की मूल भावना क्षीण होते गई।"

    आत्मकथा का नायक कहीं से भी कृपण नहीं है और अंतर्मुखी भी नहीं - "बहिर्मुखी लोग अन्तर्मुखियों के मुकाबले अधिक पारदर्शी होते हैं, उनका जीवन खुली किताब की तरह होता है, जैसे चिता- उनका जीवन, चिता पर बिछी लकड़ियाँ- उनके जीवन की घटनाएँ और उठती हुई लपटें- उनके जीवन का खुलापन। वह शब्दों के माध्यम से तारीफ़ भी भरपूर करता है तो व्यवस्था को लानत-मलानत देने में भी कसर नहीं छोड़ता। दोनो पहलु प्रबल प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। महाविद्यालय के दिनों की सहपाठिका के प्रति वह कृतज्ञता अर्पित करते हुए कहता है - " माय एंजिल सफ़िया, तुम जहाँ कहीं हो … मेरा सलाम कबूल करो, तुम्हें लम्बी उम्र मिले।"

    आत्मकथा का नायक पाठक को स्वयं के जीवन में झाँकने का अधिकार देता है। जीवन के वह ऐसे पहलु खोलता है जिसमें रहस्य, रोमांच, करुणा, यंत्रणा, प्रेम, शृंगार, यथार्थ तथा एक जिज्ञासा भी है। यह सत्यता है कि जीवन में उसे कल का पता नहीं रहता, क्या घटने वाला है। इसी जीजिविषा से जुझते हुए एक जीवन बीत जाता है। एक मंजे हुए लेखक की भांति प्रवाहमय शब्दों में अपनी बातें कहते हुए चलता है। यही प्रवाह आत्मकथा रोचक बनाता है। अगर इस आत्मकथा पर धारावाहिक बनाया जाए तो यह दशक का सबसे अधिक मनोरंजक, प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक एवं लोकप्रिय पारिवारिक धारावाहिक हो सकता है।

    "कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" आत्मकथा के नायक बिलासपुर निवासी श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल दुनिया को अपनी खुली आँखों से देखते हुए जीवन का सफ़र तय कर रहे हैं। वर्तमान कानूनों पर वे कहते हैं - "अब नए कानून और भी घातक हो गए हैं, जैसे - आपकी बहू रुष्ट हो जाए तो सम्पूर्ण परिवार  जेल में या अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति आपसे नाराज हो जाए तो आप जेल में। अब, ये तो हद हो गई, किसी लड़की को आपने घूरकर देख लिया या देखकर मुस्कुरा दिए और वह कहीं खफ़ा हो  गई तो भी जेल! बाप रे …… भारत में रहना अब कितना 'रिस्की' हो गया है।" आत्मकथा का लेखक किसी की लेखन शैली का मोहताज नहीं है, न ही इस पर किसी की छाप और छाया है, उसकी अपनी ही शैली है, लेखन की बुनावट का इंद्रधनुषी सम्मोहन पाठक को बांधे रखता है। कथा के 66 साल के नायक ने आत्मकथा के माध्यम से अपने जीवन के तैंतीस वर्षों के अनुभव खोल कर समाज के सामने रख दिए, यही अनुभव इसे पठनीय बनाते हैं। क्या खोया? क्या पाया … मूल्यांकन पाठकों को करना है।

लेखक- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
प्रकाशक - डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा) लि
X-30 ओखला, इंडस्ट्रियल एरिया, फ़ेज -2
नई दिल्ली- फ़ोन - 011-40712100
मूल्य - 125/- रुपए

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

टप्पा रामपुर महरी जमीदारी में एक दिन

पृथ्वी पर सुरम्य सरगुजा अंचल निर्मित कर प्रकृति ने मानव को अनुपम उपहार दिया है यहाँ कोयल की कूक से लेकर इन्द्र के एरावत की चिंघाड़ आज भी सुनाई देती है। अपने मनभावन आवास सरगुजा के सघन वनों में हाथी आज भी स्वच्छंद विचरण करते हैं। मेहनतकश सरल एवं सहज निवासियों की धरती सरगुजा रियासत के अंतर्गत टप्पा रामपुर महरी जमीदारी थी, जिसका मुख्यालय गढ़ लखनपुर नामक स्थान था। रियासतें खत्म हो गई पर उनके अवशेष और रियासतकालीन परम्पराएं आज भी कायम हैं। गढ़ लखनपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 111 पर 23अंश 00’46.93” उत्तरी अक्षांश एवं 83अंश03’94.32” पूर्वी देशांश पर स्थित है। 
लखनपुर पैलेस
रामपुर के 170 एवं महरी 80 गाँव मिलाकर कुल 250 गाँव लखनपुर जमींदारी द्वारा शासित होते थे। संयोग से इस जमीदारी में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर नामक गाँव भी हैं जो राजस्थान की रियासतों की याद दिलाते हैं। रामगढ़ की शोध यात्रा के दौरान मेरा गढ़ लखनपुर जाना हुआ। कभी रामगढ़ भी लखनपुर जमीदारी का एक हिस्सा था। हम राष्ट्रीय राजमार्ग से बांए तरफ़ पैलेस मार्ग पर चलकर गढ़ लखनपुर पहुंचते हैं। सुबह की गुनगुनी धूप में वर्तमान अर्कसेल राजवंश के जमींदार लाल बहादुर अजीत सिंह बगीचे में कुर्सी डाले बैठे थे ( इन्हे स्थानीय लोग लाल जी बाबा के नाम से संबोधित करते हैं) । आस-पास के गांवों से 8-10 ग्रामीण उनके समक्ष अपनी समस्या लेकर आए हुए थे। वे उनकी समस्या सुनकर समाधान के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमार अमित सिंह देव को आवश्यक निर्देश दे रहे थे। इससे जाहिर है कि आज भी वे अपनी रियाया के दु:ख दर्द को बांटते हैं और हर संभव सहायता करते हैं।
पुराने कारागार के खंडहर - स्टेट लखनपुर
उनसे अभिवादन के बाद मैं समीप में रखी हुई कुर्सी पर बैठ जाता हूँ और उनसे चर्चा प्रारंभ होती है। उन्होने कहा - "मैं आपके लेख पढता रहता हूँ, अच्छा लिखते हैं आप।" तभी मुझे याद आता है कि " सिरपुर एक सैलानी की नजर से" मेरी नई पुस्तक मेरे बैग मे हैं, वह पुस्तक उन्हें भेंट करता हूँ। उनका पुस्तकीय प्रेम मुझे बहुत भाता है। वे लगभग सभी साहित्यकारों की पुस्तकें पढते हैं, पुस्तकों से उन्हें बहुत लगाव है। कुछ देर बाद इसका मूल कारण भी समझ आ गया, उन्होने कहा - "मेरी उच्चशिक्षा सन् 1965 से 70 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई।" सहस्त्राब्दियों से बनारस साहित्य और संस्कृति की राजधानी रहा है, ऐसे महत्वपूर्ण शिक्षा के केन्द्र में शिक्षा ग्रहण करने से अवश्य ही साहित्य के प्रति रुझान हो जाता है।
वर्तमान राजा लाल बहादुर अजीत सिंह देव- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त
चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा चलते रहती है। लखनपुर के विषय में एक कहावत है कि "लखनपुर के लाख तरिया"। इस कहावत में लखनपुर में लाख तालाब होने की बात कही जाती है। लाल जी बाबा कहते हैं - लाख तालाब तो नहीं है परन्तु हमारे पूर्वजों ने अकाल के समय जनता को काम देने और जल संसाधन विकसित करने की दृष्टि से यहां कई तालाब खुदवाए थे। जिससे उन्हें अकाल से राहत मिले।" तालाब के विषय में एक जनश्रुति भी सुनाई देती है कि बनारस के राजा लाखन सिंह के कोई पुत्र नहीं था। उन्होने पुत्र प्राप्ति हेतु संकल्प किया कि प्रतिदिन एक तालाब खुदवा कर जल ग्रहण करेगें। इस तरह उन्होने लखनपुर क्षेत्र में 360 तालाब खुदवाए थे।
लाल बहादुर अमरेश प्रताप सिंह देव
टप्पा रामपुर महरी जमींदारी गढ़ लखनपुर के विषय में स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार त्रिपुरारी पाण्डे कहते है - "टप्पा रामपुर महरी जमींदारी का 600 वर्षों का इतिहास मिलता है। सरगुजा महाराजा अमर सिंह देव ने अपने अनुज विशेश्वर बखश सिंह देव को यह जमींदारी दी, ये सरगुजा राज के खरपोशदार थे। उन्होने यहां पैलेस एवं कुलदेवी कात्यायनी के मंदिर का निर्माण कराया था। परम्परा अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को ही गद्दी दी जाती है। इसी परम्परा में क्रमश महेश्वरी प्रसाद, रामप्रताप सिंह, हरप्रसाद सिंह अवधेन्द्र प्रसाद सिंह ने गद्दी संभाली। इसके पश्चात अमरेश प्रसाद सिंह देव ने कुछ दिनों तक गद्दी संभाली फ़िर स्टेट का विलय भारत संघ में हो गया। अमरेश प्रसाद सिंह देव के पश्चात लाल बहादुर अजीत सिंह देव वर्तमान में राजपरिवार के मुखिया का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं।"
लाल बहादुर अवधेन्द्र प्रताप सिंह देव
पूर्ववर्ती राजाओं ने यहां शासन करते हुए अपने पूर्वजों की आज्ञानुसार महामाया मंदिर का जीर्णोद्धार, ठाकुर बाड़ी, शिवालय के निर्माण के साथ ही महेशपुर, देवगढ़ के मंदिरों की देख-रेख एवं पूजा अर्चना इनके सहयोग से अनवरत जारी है। लाल जी बाबा के ज्येष्ठ पुत्र तथा गढ़ लखनपुर के आठवीं पीढी के कुमार अमित सिंह देव मिलनसार व्यक्तित्व के धनी एवं स्थानीय राजनीति में सक्रीय है। वे पूर्व में नगरपंचायत के निर्दलीय पार्षद एवं वर्तमान में जनपद सदस्य हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इनके सदव्यवहार की चर्चा होती है। 
स्टेट लखनपुर की आठवीं पीढी कुमार अमित सिंह देव
टप्पा रामपुर महरी के जमींदार को द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के रुप में प्रजा को न्याय देने एवं अपराधियों को दंड देने का अधिकार था। इन्हें 4-5 माह की सजा देने का अधिकार सरगुजा रियासत के महाराजा की ओर से प्रदत्त था। और कैदी यहां पैलेस के बगल में बनी जेल में रखे जाते थे। बड़े संगीन अपराधी सरगुजा के बड़े जज की अदालत में भेजे जाते थे। पूरे क्षेत्र में कोरवा-पंडो आदिवासी राजा द्वारा प्रदत्त सुरक्षा कर्मियों की वर्दी पहनकर पहरेदारी करते थे। राजा न्यायप्रिय थे और चोर-बदमाशों की कोड़ों से पिटाई की जाती थी, जिससे डरकर यहां अपराध नहीं होते थे।

चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा सम्पन्न होती है, लाल जी बाबा मुझे पुन: पधारने के लिए कहते हैं। मैं उनसे आगे की यात्रा के लिए आज्ञा लेता हूँ और चल पड़ता हूँ रामगढ़ की ओर……। 

शनिवार, 5 जुलाई 2014

कब आएगें बीएसएनएल के अच्छे दिन?

केन्द्र सरकार का उपक्रम भारत संचार निगम लिमिटेड, अनलिमिटेड समस्याओं से जुझ रहा है। कहने को तो इसके पास बहुत बड़ा अमला है। ग्राहक सेवाओं के नाम पर विभिन्न स्कीमें लांच की जाती हैं। परन्तु ग्राहकों को सर्विस देने के नाम पर शुन्य है। वातानुकूलित आफ़िसों में बैठे अधिकारी ग्राहकों की सुनने के लिए खाली नहीं है। इनके पास एक्सचेंजों में पुराने एवं खराब हो चुके उपकरणों को बदलने के लिए सामान भी नहीं है।

विभाग में ऐसे सामान एवं उपरकरणों की खरीदी की गई है जिनकी कोई उपयोगिता नहीं है। इन्हें थोक के भाव में खरीद लिया गया है। परन्तु जिन उपकरणों की आवश्यकता एक्सचेजों में हमेशा होती है, उन्हें खरीदने के लिए धन नहीं है। बीएसएनएल के लगभग एक्सचेंजों में बैटरियाँ खराब हो गई हैं। जैसे ही लाईट बंद होती है, मोबाईल, डब्लू एल एल इत्यादि सेवाएँ तत्काल ठप्प हो जाती हैं। बैटरियों में 10 मिनट का भी बैकअप नहीं है। ऐसे स्थिति में बीएसएनएल को बैटरियाँ बदलनी चाहिए परन्तु कंडम बैटरियों का ही दोहन हो रहा है। 

विभाग में नए कर्मचारियों की भर्ती एक अरसे से बंद है, जो कुछ मैदानी अमला जो बचा है अकर्मण्य हो चुका है। उसे कोई लेना देना नहीं है। ऐसी स्थिति में बीएसएनएल के अधिकतर मोबाईल नम्बर पोर्टेबिलिटी की सुविधा के तहत अन्य कम्पनीयों में स्थानांतरित हो चुके हैं। विद्युत व्यवस्था फ़ेल होने पर सर्विस हमेशा ही बंद हो जाती है। निजी कम्पनियों ने अपने टॉवर चलाने के लिए जनरेटर की व्यवस्था कर रखी है और निर्बाध सेवा दे रहे हैं। 

बीएसएनएल भारत सरकार के लिए सफ़ेद हाथी साबित हो रहा है। अगर हम देखे तो अन्य कम्पनियों की अपेक्षा इसकी सेवाओं में 80% गिरावट आई है। ग्राहकों का विश्वास टूटते जा रहा है और वे इससे विमुख होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को बीएसएनएल की सेवाओं की दशा सुधारनी होती। सरकारी उपक्रम होने के कारण इसे अन्य कम्पनियों से अधिक अच्छी सेवा देनी चाहिए। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा कि यह उपक्रम दीवालिया होने की कगार पर पहुंच जाएगा और इसे किसी निजी कम्पनी को बेच दिया जाएगा।   

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

बस्तर की माटी से जुड़ा कवि: डॉ राजाराम त्रिपाठी

भाषा की अन्य विधाओं की तरह कविता भी जगत को समझने का एक शक्तिशाली उपक्रम हैं, गद्य की अपेक्षा काव्य एवं उसमें निहीत तत्वों को साधारण मनुष्य भी सरलता एवं सहजता से समझ जाता है। क्योंकि कविताओं में रसाधिक्य होता है एवं भाव प्रधान होती हैं। कहीं पर कविता हास्य बोध उत्पन्न करती है तो कहीं पर सौंदर्य रसास्वादन करती नजर आती है। तो कहीं पर आक्रोश के साथ जोश भी प्रकट करती है। कविता मनुष्य के मन मस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल और उसके भावों को समक्ष प्रकट करती है। कविता के माध्यम से चराचर में व्यक्ति अपने मनोभावों को प्रसारित करता है। कम शब्दों में अधिक बात कहने की क्षमता कविता ही प्रदान करती है। इसका अपना अनुशासन भी है।

मेरे समक्ष कोण्डागाँव निवासी डॉ.राजाराम त्रिपाठी का काव्य संग्रह "मैं बस्तर बोल रहा हूँ" है। बस्तर में जन्मे डॉ.राजाराम त्रिपाठी इस काव्य संग्रह के माध्यम से बस्तर की व्यथा कथा को समक्ष लेकर आते हैं। संग्रह में 27 कविताएं संकलित हैं। इस काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविता का शीर्षक ही काव्य संग्रह का शीर्षक है। प्रथम कविता हैं  - "हाँ मैं बस्तर बोल रहा हूँ/ अपने जलते जख्मों की कुछ परतें खोल रहा हूँ।" यह दो पंक्तियाँ चावल के उबले एक दाने के सामान बस्तर के यथार्थ से रुबरु कराने में सक्षम हैं। शोषण से उपजे हालातों पर आगे कहते हैं कि "बारुदों से भरी हैं सड़कें,  हरियाली, लाली में बदली, खारे हो चले सारे झरने।" श्रम का फ़ल तो मीठा होता है, फ़िर झरने खारे क्यों हो चले? बारुद की मचाई तबाही से इतने अधिक लोगों ने प्राण गंवा दिए कि मानवता के अश्रुजल से झरने भी खारे हो गए। कवि इन खारे झरनों में मिश्री की डली डाल कर पुन: मिठास लाना चाहता है।

बंदूकों की उगती फ़सल से ने बस्तर का सुख चैन छीन लिया कोयलें भी खामोश हो गई धमाकों के बीच। वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए अगली कविता कहती है " कुपोषण से देश मर रहा, सेठ बेचारा चूर्ण खाए, लँगोटी, रोटी को तरसे, सूट-बूट तंदूरी खाए।" यह व्यंग्य मिश्रित आक्रोश वर्तमान हालातों को सामने ला रहा है। बारुदे के धमाकों ने गांवों को कब्रिस्तान बना दिया। पर लोग अभी भी शोषण से बाज नहीं आ रहे। बारुद के धमाकों एवं सत्ता की गोलियों के बीच जीवन बचाना कठिन है। इस संग्रह में कवि सौंदर्य या इश्क मिजाजी की कविताएँ नहीं कहता। कवि भावुक होकर कहता है कि "कविता मेरे लिए, मात्र दु:खों की अभिव्यक्ति है/ कविता अगर बांसूरी की तान है/ तो मेरे लिए दिल के छेदों से निकली पुकार है।"

सरकारी आबंडरों से हलाकान सोमारु समाज का वह पात्र है जो हर गांव में पाया जाता है। सारी योजनाएं सोमारु को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं। पर योजना आने पर मसालों की गंध मुखिया के घर से उड़ती हुई सोमारु तक पहुंचती है। कविता "सोमारु की सुबह" का एक अंश हैं -"मुखिया के यहाँ से उठती है, मसालों की सुगंध! सोमारु फ़िर परेशान है। शाम  देर तक पिछवाड़े, लड़ते हैं कुत्ते झूठी पत्तलों पर।" कवि संकेतों के माध्यम यथार्थ बयान कर देता है कि शासकीय योजनाओं का क्या हश्र हो रहा है।

संग्रह की प्रत्येक कविता में बस्तर ही समाया हुआ है। कवि, इस कालखंड को अपने काव्य के माध्यम से समय की किताब के पन्नों में दर्ज कर रहा है। बस्तर की नक्सल समस्या से प्रत्येक बस्तरिहा निजात पाना चाहता है, साथ ही प्रश्न भी करता है "फ़ैसला लेना होगा अब, ये चलेगा कब तक, बस्तर की छाती पर मूँग दलोगे कब तक? फ़िर कवि पूछता है "मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो? वापस ले लो अपनी नियामतें, उठा ले जाओ चाहे, अपनी सड़कें, खम्भे, दुकानें। उठा ले जाओ चाहे, बिना सांकल के बालिका श्रम, बिना डाक्टर के अस्पताल, बिना गुरुजी के स्कूल, बंद कर दो चाहे भीख की रसद, ये सस्ता चावल, चना, नमक की नौटकीं।" मेरा बस्तर मुझे लौटा दो।

"बस्तर के सप्तसुर" कविता में बस्तर के साहित्य शिल्पी लाला जगदलपुरी को श्रद्धांजलि अर्पित है। काव्य संग्रह की अन्य कविताएँ भी पाठक के मन पर अपना गहरा असर छोड़ती हुई प्रतीत होती हैं। डॉ राजाराम त्रिपाठी कवि के रुप में शब्द जाल नहीं बुनते पर उनकी नई कविताएं सहज एवं सपाट रुप से बस्तर के दर्द, दुख, व्यथा को मुखर करने में सक्षम है। जब कविता में भाव प्रधान होता है तो शिल्प गौण हो जाता है। डॉ त्रिपाठी विशुद्ध अपनी शैली में शब्द बिंब गढते हैं और कविताएँ चित्र रुप में चलचित्र सी दृश्यांकन प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं। अवश्य ही आगे चलकर बस्तर का यह कवि अपनी कविताओं के माध्यम से साहित्य फ़लक पर दैदिप्यमान होने की उर्जा रखता है।

प्रकाशक: छत्तीसगढ़ साहित्य परिषद (कोण्डागाँव) बस्तर
रचनाकार : डॉ राजाराम त्रिपाठी
मूल्य: 80/- रुपए
पृष्ठ: 52
पता: 151 हर्बल स्टेट, डी, एन के, कोण्डागाँव - बस्तर (छ ग)

बुधवार, 2 जुलाई 2014

मानस को प्रभावित करती कविता वर्मा की कहानियाँ

साहित्य काल का संवाहक होता है, वह समय की अच्छाईयों, सामाजिक विद्रुपताओं एवं परिस्थितिजन्य तथ्यों को समाज के समक्ष लेकर आता हैं। इसका प्रभाव क्षेत्र व्यापक होता है। साहित्य के एक प्रभावी माध्यम के रुप में कहानियों का चलन आदिकाल से है, पुराण जैसे ग्रंथ भी कथानकों के माध्यम से समाज को शिक्षित करते हैं और पंचतंत्र जैसी कहानियाँ मानव का निर्माण करती हैं। कभी-कभी तो कोई कहानी मनुष्य के जीवन के इतनी अधिक प्रेरक हो जाती है कि उसकी जीवन यात्रा में ही आमूल-चूल परिवर्तन कर देती है। साहित्य की स्वस्थता से उत्तम समाज का निर्माण भी होता है। भारत में व्यक्ति की  जीवन यात्रा दादी-नानी की कहानी से होती है। बच्चे को होश संभालते ही कहानियों से लगाव हो जाता है और कहानियों के प्रेरक कथानकों के माध्यम से उसे जीवन पथ मिल जाता है। प्राचिन राजा-रानियों की कहानियाँ से पृथक वर्तमान में नई कहानियाँ भी साहित्य में अपना मुकाम हासिल कर रही हैं। 
कहानियाँ समाज का दर्पण होती हैं, कहानीकार समाज से विषय उठाता है और वृहद दायरे में समाज को ही सौंप देता है चिंतन करने के लिए। कविता वर्मा की कहानियाँ भी वर्तमान समाज के भीतर चल रही हलचल को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। "परछाईयों के उजाले" कहानी संग्रह में 12 कहानियों को स्थान दिया गया है, जिसमें ये कहानियाँ प्रमुखता से नारी जिजिविषा एवं उसकी जीवटता को सामने लाती हैं। कहानी संग्रह में "जीवट" कहानी की मुख्य पात्र फ़ुलवा की जीवटता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जब वह कहती है " अगर मैं उसे छ: महीने खिला सकती हूं, तो अपने बच्चों को क्यों नहीं। मुझे किसी के सहारे की क्या जरुरत है, औरत हूँ तो क्या?" स्त्री अब समाज में कमजोर नहीं रही, अगर ठान ले तो अपने जीवन का निर्णय स्वयं कर सकती है उसे किसी आसरे या सहारे की आवश्यकता नहीं।
गणित जैसे विषय की सिद्धहस्त कविता वर्मा सहज ही प्रवाहमय शब्दों के साथ कहानियों के माध्यम से अपना प्रभाव छोड़ती हैं। इनकी कहानियों में गणित भी दिखाई देता है। जब "जीवट" कहानी की पात्र फ़ुलवा ट्रक ड्रायवर को छोड़ कर जाती है, पहले गुणा भाग कर सारा हिसाब निकाल लेती है और जो उसे शेष दिखाई देता है उसमें ही उसे जीवन की चमक दिखाई देती है। हानि को लाभ में बदलने के लिए वह अपना निर्णय ले लेती है। "परछाइयों के उजाले" कहानी की पात्र सुमित्रा भी कुछ ऐसा ही जोड़-घटाना लगाती नजर आती है।
कविता वर्मा की कहानी "निश्चय" स्वार्थ, षड़यंत्र, शोषण एवं प्रतिकार दिखाई देता हैं। मंगला की पति से क्या खटपट हुई कि फ़ायदा मालकिन ने उठा लिया और पति-पत्नी के बीच स्वयं स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए दरार डालकर मिलने नहीं दिया। यह कहानी स्त्री का स्त्री के द्वारा भावनात्मक शोषण का पक्ष उजागर करती है। " मंगला की आंखों में अंधेरा छा गया। इतना बड़ा धोखा, जिस प्यार और हमदर्दी की वह दिन रात-सराहना करती थी, उसके पीछे इतना छल?" यही संसार की वास्तविकता है, इससे जाहिर अकारण हमदर्दी स्वार्थ की नींव पर टिकी होती है और कहीं न कहीं शोषण की एक नई कहानी गढती रहती है।
शब्दों की बुनावट में कसावट एवं कथा की प्रस्तुति से नहीं लगता कि कविता वर्मा का यह प्रथम कहानी संग्रह है। इसमें वे एक मंजी हुई कहानीकार के रुप में समक्ष आती हैं। इस कहानी संग्रह में "सगा सौतेला" "पुकार" "लकीर" "आवरण" एक खाली पन अपना सा" "दलित ग्रंथी" "डर" "पहचान" कसौटी पर खरी उतरती हैं। 
कहानी संग्रह की प्रतिनिधि कहानी "परछाइयों के उजाले" अंतिम में प्यार का अनूठा अहसास छोड़ जाती है। एक निस्छल प्रेम जो सामाजिक बंधनों एवं वर्जनाओं के बीच भी अपनी जगह बना लेता है। जीवन के उतरार्ध का यह प्रेम सागर की गहराईयों में उतर जाता है। कहानी कहती है " नारी मन को किसी मजबूत भावनात्मक सहारे की जरुरत होती है और ये जरुरत उम्र के हर पड़ाव की जरुरत है। स्त्री, पुरुष की विशाल बाहों में खो कर अपनी चिंताएँ, जिम्मेदारियाँ, अकेलापन भूल कर सिमट जाती है।" नारी का संबंल होता है उसका प्रिय पुरुष, चाहे वह किसी भी रुप में हो।
जीवन यात्रा की उतराईयों में भी प्रेम समाज से डरता है, समाज के समक्ष मुखर होने से डरता है। मन की लहरें समाज के बंधनों के उतुंग पर्वतों को लांघना चाहती हैं पर कहीं न कहीं वर्जनाओं की बाड़ आगे आ जाती है। सुमित्रा कहती है  "इस उम्र में जब प्यार में दैहिक आकर्षण का कोई स्थान नहीं है। मानसिक संतुष्टि पाने पर भी समाज का डर है।" जीवन की इस अवस्था को भी मनुष्य को लांघना पड़ता है, यहाँ से आगे बढना पड़ता है, पर प्रेम वह संजीवनी है जो सूखे हुए वृक्ष में भी जीवन का संचार कर उसे हरा भरा कर देता है। "परछाईयों के उजाले" कहानी संग्रह पठनीय है।

कहानी संग्रह : परछाईयों के उजाले
लेखिका : कविता वर्मा (इंदौर)
प्रकाशक: मानव संस्कृति प्रकाशन
12- ए, संगम नगर, सन्मति चिकित्सालय के पास इंदौर मप्र
दूरभाष:0731-4245373
पृष्ठ: 142
मूल्य : 150/- रुपए