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बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

छठवीं शताब्दी का परशुरामेश्वर मंदिर -- कलिंग यात्रा

राजा रानी मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर परशुरामेश्वर मंदिर है, इस मंदिर का निर्माण सातवीं सदी में हुआ था। इसके शिल्प से ही स्पष्ट प्रकट होता है कि यह भुवनेश्वर के अन्य मंदिरों से प्राचीन है। छठीं शताब्दी तक उत्तर एवं दक्षिण के मंदिरों की शैली एक जैसी ही थी, इसमें बदलाव सातवीं सदी से प्रारन्भ हुआ एवं शिल्प का विकास हुआ। उड़ीसा में विमान, मुख्‍य पूजा-स्‍थल पर मंदिर का बुर्ज, भारत में वास्‍तुकला के भव्‍यतम आविष्‍कारों में से एक है और दक्षिण भारतीय गोपुरम की तुलना में क्रियात्‍मक दृष्टि से कहीं अधिक परिष्‍कृत है । 
परशुरमेश्वर मंदिर 
दक्षिण भारत में गोपुरम में बेलनाकार बुर्ज गर्भ गृह के ऊपर न होकर केवल एक महिमामंडित प्रवेशद्वार है । वास्‍तुकार मंदिर को इर्द-गिर्द की अन्‍य इमारतों से अधिक महत्‍व देना चाहता था क्‍योंकि यहां उसके देवता का गर्भ-गृह में निवास था । ओड़ीशा में शिखर अपने विशाल और भव्‍य आकार से दूर-दूर तक भगवान की उपस्थिति दर्शाता है जैसा कि पुरी के जगन्‍नाथ मंदिर या भुवनेश्‍वर के लिंगराज मंदिर की विशालता भक्‍तों के ह्रदय में सम्‍मान का संचार कर उन्हें प्रभावित करती है।
सिरदल पर गज लक्ष्मी 
परशुरामेश्वर मंदिर में जगमोहन एवं गर्भगृह है, जगमोहन की छत के निर्माण में पत्थरों की पट्टियाँ लगाई गई हैं। यहाँ ढलावदार पटिया की दो छते हैं, जिनके बीच में बने हुए झरोखों से मंदिर में प्रकाश की व्यवस्था होती है और कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। यह मंदिर शिल्प की प्रारंभिक अवस्था थी, इसके बाद ढलावदार पटियों वाली  ये छतें धीरे-धीरे एक से बढ़कर दो और दो से बढ़कर तीन हो गईं और इन छतों को बढ़ाकर वेदी के ऊपर एक पिरामिडी छत बनाई गई जिसे ओडिशा में जगमोहन कहते हैं और यह मुख्‍य पूजा-स्‍थल से पहले है । 
भित्ति पर सप्तमातृकाएं 
भारत में मूर्तिकार और वास्‍तुकार अक्‍सर एक ही व्‍यक्ति होता था और इसलिए मूर्तिकला और वास्‍तुकला को अलग-अलग देखना एक भूल होगी । वास्‍तव में मूर्तियों का प्रयोग मंदिर के अग्रभाग की बाहरी दीवारों को अलंकृत करने के लिए किया जाता था । परशुराम मंदिर के प्रवेश द्वार के सिरदल में गजाभिषिक्त लक्ष्मी विराज मान हैं तथा भित्तियों पर सप्त मातृकाएं, (ब्रह्मणी, वैष्‍णवी, माहेश्‍वरी, वाराही, इंद्राणी, कौमारी और चामुंडा) गणेश, महिषासुर मर्दनी, सनाल सूर्य एवं सिंह वाहिनी की स्थापना के संग मिथुन अलंकरण भी है। मंदिर के प्रांगण में सहस्त्रलिंग भी स्थापित है। 
महिषासुर मर्दनी 
विभिन्न शासकों एवं काल का प्रभाव यहाँ के मंदिरों में दिखाई देता है। कलिंग की इस धरती ने सत्ता संघर्ष की पराकाष्ठा को बेहद निकट से देखा है। पहली शती से सातवीं शती के मध्य कलिंग का इतिहास का बहुत धुंधला सा है। लेकिन अलग-अलग दौर में अनेक शासकों का यहां राज रहा। ईसा पूर्व पहली शती में कलिंग में चेदी साम्राज्य का उद्भव हुआ, जो जैन धर्म के अनुयायी थे। इस काल के तीसरे नरेश खारबेल का शासन उल्लेखनीय है जिस दौरान यहां खंडगिरि व उदयगिरि की पहाडिय़ों में बनी जैन संन्यासियों की गुफाएं बननी आरंभ हुई। दूसरी शताब्दी में यहां पर सातवाहन राजाओं के शासन का उल्लेख मिलता है। 
मंदिर का गर्भ गृह एवं झरोखों से आता हुआ प्रकाश 
तीसरी शताब्दी में कुषाण व नागवंशियों ने भी कलिंग के कुछ हिस्से पर शासन किया। उसके उपरांत समुद्रगुप्त ने इस राज्य को अपने अधीन किया। चौथी शती के अन्त तक यहां मराठा शासन रहा, जिनके बाद पांचवीं शती में यहां पर पूर्वी गंग नरेशों का काल आया। लेकिन फिर सम्राट हर्षवर्धन ने इसे विजित किया। उनके बाद फिर बौद्ध धर्म के अनुयायी राजा भूमा रहे। इसके उपरांत कलिंग पर हिंदू राजाओं का पूरी तरह से अधिपत्य हुआ। 
प्राचीन शिव लिंग परशुरमेश्वर 
आठवीं शती में हिंदू धर्म के पुनर्जागरण के बाद हर नरेश अपनी क्षमता व राज्य के संसाधनों से मंदिरों का निर्माण करवाता चला गया। आरंभ में भुवनेश्वर इसका केंद्र था। दसवीं शती के उत्तराद्र्ध में कलिंग की धरती पर सोमवंशी राजवंश का उदय हुआ, जिसके राजाओं ने 11वीं शती तक यहां अलग-अलग काल में राज किया। वर्तमान में भी भुवनेश्वर सत्ता का केन्द्र बनकर उड़ीसा राज्य की राजधानी बना हुआ है। जारी है आगे पढ़ें……।