मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

थिम्पू की सुबह एवं परिकल्पना सम्मान समारोह - भूटान यात्रा -5

प्रारम्भ से पढ़ें 
पौ फ़टते ही आँखे खुल गई, बालकनी से देखा तो आस-पास अंधेरा सा ही था, पर दूर पहाड़ की बर्फ़ जमी चोटी रश्मि स्नान कर रही थी। सूर्य की किरणें धवल बर्फ़ पर पड़ने के कारण स्वर्णाभा का दृश्य उत्पन्न कर रही थी। द्वार उन्मुक्त कर बाहर निकला तो ठिठुरा देने वाली ठंड थी। कैमरा विश्राम मोड में होने के कारण इस दृश्य को संजो नहीं सका। सिर्फ़ आंखो के द्वारा हृदय में ही उतार पाया। मोबाईल कैमरे से दो-चार चित्र लिए और भीतर आ गया। तभी द्वार पर दस्तक हुई और चाय वाला भी पहुंच गए। गर्मागर्म चाय की भाप से सिकती हुई अंतड़ियों को राहत मिली। कमरे से बाहर निकलने का जी नहीं कर रहा था।
खिड़की से पर्वत दर्शन
हम मैदानी इलाकों के रहने वालों के नित्य स्नान जरुरी है, स्नान के साथ ही दिनचर्या प्रारंभ होती है। स्नानाबाद ही लगता है कि आज फ़िर नया दिन निकला है, वरना दिन पुराना ही रहता है। रात की खुमारी भी नहीं उतरती। पता नहीं यहाँ के लोग कितने दिनों में स्नान करते होगें या फ़िर काग स्नान से ही काम चला लेते होगें। बाथरुम में न बाल्टी थी न मग्गा। पर छ: फ़ुटा बाथटब जरुर था। नल से गर्म पानी आना शुरु हो गया। आज बाथटब स्नान ही किया जाए। बाथटब लबालब भरने के बाद उसमें उतर गए और गर्म पानी से देह से भरपूर सिंकाई की। आनंद आ गया। अभी तक फ़िल्मों में नायिकाओं को बाथटब स्नान करते देखा था। आज हम खुद ही बाथटब में थे। पर कोई फ़ोटो लेने वाला नहीं था। एक बारगी तो फ़ोटो की कमी खली। :) फ़ोटो नहीं हुई वरना 6 पैक और 8 पैक सब दिख जाते।
सुबह की धूप का आनंद - ललित शर्मा, गिरीश पंकज, कृष्ण कुमार यादव एवं समर बहादुर वर्मा
तैयार होकर लॉबी में पहुंचे तो सूनीता हांफ़ते हुए आ रही थी, जैसे 10-20 किलोमीटर की मैराथन दौड़ कर आ रही हो। बोलने के लिए मुंह खोलती तो शब्द भी जम रहे थे और उष्मा पाकर अटक-अटक पर पिघल कर बाहर निकल रहे थे। जमें हुए शब्द जब हम तक पहुंचे तो पता चला कि मोहतरमा मार्निंग वॉक करके आ रही हैं। फ़िर पता चला कि इनकी हार्दिक इच्छा यहाँ बाईक चलाने की है। बाईक तो मुझे कहीं दिखाई नहीं दी पर इन्होने कहा कि "मैं इंतजाम करती हूँ।" पता नहीं किसको बाईक के लिए कह कर आई और वह बाईक 3 दिनों में कहीं नजर नहीं आई। न ही बाईक की सवारी हुई। इनकी इच्छा अधूरी रह गई। 
यही चिमनी है लोखन वाली
टैरेस पर धूप आ गई, साथ ही यहाँ एक लोखन की चिमनी वाली सिगड़ी भी सुलग रही थी। जब मैं टैरेस पर पहुंचा तो कोई सज्जन नहीं आए थे। सिगड़ी में थोड़ी देर हाथ सेंक कर दस्ताने धारण कर लिए। हाथों का बचाव तो हो गया पर नाक और कान को ठंड लग रही थी। कान बंद करो तो सुनाई नहीं देगा और नाक बंद करो तो हरे राम, हे! राम हो जाएगा। तभी सर्जना शर्मा जी का पदार्पण हुआ। वे स्नानोपरांत ध्यान मोड में थी। ऐसे लग रहा था कि अनुलोम विलोम करते हुए ही चल रही हैं। उन्होने एक सोफ़े पर आसन जमा लिया और सूर्यमुखी होकर अनुलोम विलोम प्रारंभ कर दिया। स्वास-प्रस्वास की प्रक्रिया शरीर की ऊष्मा बनाए रखती है। जैविक हीटर शरीर की रक्षा के अनुसार ऊष्मा का उत्सर्जन प्रारंभ कर देता है।
योगाचार्या सर्जना शर्मा जी
यहाँ सुबह की धूप कुछ अजीब ही तरह की चमकीली होती है और आंखों को चुभती है। गर्मी के मौसम में जिस तरह चिलचिलाती धूप पड़ती है, कुछ उस तरह की ही धूप थी। सूर्य की ऊष्मा भी ठंड को कम नहीं कर पा रही थी। यह तो प्रकृति की महान कृपा हम थी कि हवा नहीं चल रही थी। अगर हवा चलती तो कहर ढा देती। दस्ताने हाथ से बाहर निकालते ही अंगुलियाँ गायब हो जाती थी। नाश्ता भी लग चुका था, हमसे तो यहाँ का खाना ही नहीं खाया जा रहा था। पानी भी बहुत कम पीया जा रहा था। ठंडा पानी पीयो तो दांत कनकनाने लगते और गर्म पानी गले से नीचे नहीं उतरता। अजीब संकट में फ़ंस गए थे और इसका कोई हल भी नहीं था। 
ब्लॉग़ भांति भांति के
सुबह से ही मनोज पाण्डे जी ने आज के कार्यक्रम की लिस्ट एवं आवश्यक वस्तुओं के साथ एक फ़ोल्डर रुम में ही सबको थमा दिया। आज रिसोर्ट के मिटिंग हॉल में मुख्य कार्यक्रम था। थोड़ी देर में सभी दूल्हे की माफ़िक सजधजकर रुम से बाहर निकलने लगे। लगा कि फ़ैंसी शो जैसा ही कार्यक्रम होने वाला है। डॉ विनय दास जी ने पूर्ण भारतीय परिधान धारण कर लिया था। कटिवस्त्रम, अंगवस्त्रम, जैकेटम के साथ उत्तरीयम धारण कर भूटान की धरती पर पारम्परिक भारतीय परिधान गरिमामय दर्शन भूटानवासियों को करवाया। बाकी तो सभी कोट पैंट में ही थे। 
कार्यक्रम में सिरपुर की कहानी
आज के कार्यक्रम के अतिथि भूटान चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के महासचिव फूब शृंग, उप महासचिव चन्द्र क्षेत्री, सार्क समिति के महिला विंग तथा इन्टरनेशनल स्कूल ऑफ भूटान की अध्यक्षा थिनले ल्हामा का उपस्थित होना भी तय हो गया। कार्यक्रम 11 बजे प्रारंभ हुआ। अतिथियों के साथ डॉ नित्यानंद पाण्डे, गिरीश पंकज, कृष्ण कुमार यादव एवं रविन्द्र प्रभात मंचासीन हुए और कार्यक्रम संचालन की डोर सुनीता यादव ने थाम ली। एकदम झकास भारतीय अंग्रेजी में कार्यक्रम का संचालन प्रारंभ हुआ। वैसे भूटान के बड़े छोटे अधिकारी हिन्दी समझते और बोलते हैं क्योंकि इनका काम भी हिन्दी के बिना नहीं चलता। पर इन्हें अंग्रेजी की सुविधा हमारे मंच से विशेष तौर पर प्रदान की गई।
सिरपुर सैलानी की नजर से भेंट
मंच के समक्ष ही समस्त सम्मानाधिकारी बैठे हुए थे और सभी के मोबाईल में कैमरे भी थे। नाम की पुकार होते ही सभी अपने मोबाईल फ़ोन लेकर सामने ही डट गए, अब पीछे बैठने वालों को कुछ दिखाई दे या न दे, उनकी बला से। वैसे भी जब से मोबाईल में कैमरे का चलन प्रारंभ हुआ है, लगभग सभी समारोहों में कमोबेश यही स्थिति रहती है। हायर किया गया फ़ोटोग्राफ़र पीछे रह जाता है और मोबाईल फ़ोटोग्राफ़र मुंह में भी कैमरा डाल कर फ़ोटो ले लेते हैं। फ़ेसबुक, वाट्सअप फ़ोबिया जो कराए वो कम है। 
मंचासीन अतिथिगण
ब्लॉगर सम्मेलन में परिकल्पना सम्मानों का वितरण किया गया। कृष्ण कुमार यादव को सर्वोच्च सार्क शिखर सम्मान, डॉ. राम बहादुर मिश्र को साहित्य भूषण सम्मान, रणधीर सिंह सुमन व डॉ. विनय दास को क्रमशः सोशल मीडिया सम्मान और कथा सम्मान, कुसुम वर्मा को लोक-संस्कृति सम्मान, डॉ. अशोक गुलशन को हिन्दी गौरव सम्मान, सूर्य प्रसाद शर्मा को साहित्य सम्मान तथा ओम प्रकाश जयंत व विष्णु कुमार शर्मा को क्रमशः साहित्यश्री सम्मान व सृजनश्री सम्मान, विश्वंभरनाथ अवस्थी को नागरिक सम्मान प्रदान किए गए।
श्री फ़ूब शृंग एवं ब्लॉगर
इस ब्लॉगर सम्मेलन में परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान से श्री कृष्ण कुमार यादव, श्री ललित शर्मा एवं श्रीमती सम्पत मोररका को सम्मानित किया गया। स्मृति चिन्ह एवं उत्तरीय के साथ 25 हजार की राशि भी देने की घोषणा की गई। इसके अलावा डॉ. राम बहादुर मिश्र को साहित्य भूषण सम्मान, रणधीर सिंह सुमन व डॉ. विनय दास को क्रमशः सोशल मीडिया सम्मान और कथा सम्मान, कुसुम वर्मा को लोक-संस्कृति सम्मान, डॉ. अशोक गुलशन को हिन्दी गौरव सम्मान, सूर्य प्रसाद शर्मा को साहित्य सम्मान तथा ओम प्रकाश जयंत व विष्णु कुमार शर्मा को क्रमशः साहित्यश्री सम्मान व सृजनश्री सम्मान, विश्वंभरनाथ अवस्थी,  सुनीता प्रेम यादव, प्रकाश हिन्दुस्तानी,  गिरीश पंकज, अल्पना देशपांडे, अदिति देशपांडे, सर्जना शर्मा, निशा सिंह, आलोक भारद्वाज आदि को भी विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान के लिए परिकल्पना सम्मान से नवाज़ा गया।
परिकल्पना का परचम थिम्पू में लहराया
सम्मेलन में पाँच पुस्तकों - संपत देवी मुरारका की यात्रा वृत्त, कुसुम वर्मा की ह्रदय कँवल, सूर्य प्रसाद शर्मा निशिहर की संघर्षों का खेल, विष्णु कुमार शर्मा की दोहावली, अशोक गुलशन की क्या कहूँ किससे कहूँ और परिकल्पना समय पत्रिका के जनवरी अंक, परिकल्पना कोष वेबसाईट का लोकार्पण भी किया गया । इसके अलावा अल्पना देशपांडे की कलाकृतियों की प्रदर्शनी व कुसुम वर्मा के लोकगीत गायन का उपस्थित सभी जनों ने आनंद लिया एवं प्रशंसा की । मुख्यातिथि ने अपने भाषण में भूटान एवं भारत की सांस्कृति विरासत एवं चल रहे साझे कार्यक्रमों की जानकारी दी। साथ उपस्थित भारतीयों को भूटान राष्ट्र के विषय में मुख्य जानकारी भी अवगत कराया। भोजनावकाश तक समारोह समपन्न हो गया। कुल मिलाकर मामला आनंददायक ही रहा। जारी है,  आगे पढ़ें। .... 

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

भूटानी मुद्रा और टॉकिन : भूटान यात्रा 4

प्रारम्भ से पढ़ें 
भूटान की मार्केट में भारतीय मुद्रा उसी तरह स्वीकार की जाती है जिस तरह भारत में। परन्तु वे भारतीय मुद्रा रुपए के बड़े नोट लेकर भूटानी (नोगंत्रोम) मुद्रा वापस करते हैं। भूटानी नोटों का काजग अच्छा है, नेपाली मुद्रा जैसे गंदे नोट नहीं है। नेपाल के नोट तो जेब में रखने की इच्छा ही नहीं होती। वैसे भी नेपाल में भारत के 500 एवं 1000 के बड़े नोट प्रतिबंधित हैं। परन्तु भूटान में ऐसा नहीं है। वैसे मुद्रा का यह खेल ध्यान देने योग्य है। भूटान में तो भूटानी मुद्रा चलती ही है। परन्तु भारत के सीमांत क्षेत्र में भूटानी मुद्रा का काफ़ी प्रचलन है। भूटानी नोट तो देखने मिले, लेकिन सिक्के कहीं दिखाई नहीं दिए। वैसे विदेशी मुद्रा के प्रति मेरा आकर्षण नहीं के बराबर है और नहीं मैं विदेशी मुद्रा अपने पास रखने की कोशिश करता हूँ।
भूटानी 100 रुपया
भूटानियों के नाम बहुत कठिन लगे, उच्चारण एवं याद रखने में। मुझे जो भी भूटानी मिले, उनमें किसी का भी नाम याद नहीं और न ही मैं याद रखने के लिए दिमाग पर जोर डाला। मुझे कौन सा यहाँ बसना है, जो इतनी माथापच्ची करुं। यहाँ दुकानों के दरवाजे बड़े नहीं होते। भारत में जैसे घर के दरवाजे 3 फ़ुट चौड़े होते हैं वैसे ही यहाँ दुकानों के द्वार भी होते हैं। एक दुकानदार से चर्चा हुई, वह अच्छी हिन्दी बोलता था। उसने मुझे रुपए एवं भूटानी मुद्रा के खेल के विषय में बताया कि भारत और भूटानी मुद्रा नोंगत्रम में कोई खास अंतर नहीं है और जो अंतर है वह आम आदमी की समझ में नहीं आता। भारत के सीमांत क्षेत्र में धड़ल्ले से भूटानी मुद्रा का चलन होता है।
स्ट्रीट मार्केट
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी क्षेत्र के बेलपाड़ा, नांगड़ाकाटा, तेलीपाड़ा, बीनागुड़ी, दालगांव और इथेबाड़ी इत्यादि स्थानों में भूटानी मुद्रा का भारतीय मुद्रा की तरह ही चलन है। भूटान की सीमा फ़्यूशलिंग के इस पार जयगाँव में भूटानी मुद्रा के 500 और 1000 के नोटों का चलन नहीं है। अगर आप किसी दुकानदार देगें भी तो वह नहीं लेगा। लेकिन जयगाँव से 25-30 किलोमीटर दूर बसे गाँव एंव कस्बों हासीमआरा, अलीपुर द्वार, कालचीनी, कालपाड़ा, हाशिमआरा, नंगड़ाकाटा और बानरहाटा में भूटानी नोट आराम से चल जाते हैं। यहाँ के लोग इन नोटों से व्यापार व्यवहार कर लेते हैं। इन नोटों के चलन के पीछे बड़ा गिरोह भी हो सकता है जो काले धन को एक नम्बर का बनाने का काम करता है।
रेड वाईन "टॉकिन"
जबकि भारत में अन्य किसी देश की मुद्रा में व्यापार एवं व्यवहार करना कानूनन अपराध है, परन्तु सीमा क्षेत्र में मांग के अनुसार व्यापारियों को भूटानी मुद्रा में लेन देन करना पड़ता है। अन्यथा उनका व्यापार ठप्प हो जाएगा। ग्राहक जो भी मुद्रा दें, उसे स्वीकार करना उनकी मजबूरी है। हमने थिम्पू में भारतीय मुद्रा से ही खरीदी की। दुकानों का संचालन अधिक औरते ही करती हैं और टीवी पर भारतीय गानों के फ़िल्में भी देखती हैं। इसके कारण उन्हें हिन्दी बोलने एवं समझने में कोई अत्यधिक परेशानी नहीं होती। 
भूटानी दुकान के समक्ष ब्लॉगर
थिम्पू के बाजार में शराब के लिए कोई अलग से दुकान नहीं है। किराने की दुकानों में शराब मिलती है। कोई भी बालिग व्यक्ति शराब खरीद सकता है। लोग राशन के साथ शराब खरीदते हैं। भूटान की लोकल शराब "टॉकिन" है, जिसमें अल्कोहल 16% है। रेड वाईन जैसी इस शराब का प्रचलन अधिक है और इसे बिना पानी या सोडा के इस्तेमाल किया जाता है। कुछ कुछ आयूर्वैदिक आसव जैसा स्वाद है। साथ ही सस्ती भी है। 750 एम एल की एक बोतल 140 रुपए मे मिल जाती है। मेरे सामने ही कुछ भूटानी महिलाएं राशन के साथ एक-एक बोतल टॉकिन खरीद कर ले गई। 
एक दृश्य
रिसोर्ट में आने के बाद हम लोगों का भोजन बन कर तैयार हो गया था। भोजन करने के उपरांत हमने अपने बिस्तर की शरण ली। बाहर ठंड बढ रही थी। रिसोर्ट के केयर टेकर कह रहे थी कि आज की रात पारा - 14 पार कर जाएगा। ब्लू पाईन की लकड़ी से रुम का फ़र्श एवं दीवारे बने होने के कारण रुम गर्म था तथा वाताकूलन की व्यवस्था भी थी। बैड के गद्दे में लगे हीटर का बटन चालु करके सो गए तो रात को रजाई में पसीने आ गए। कुल मिला कर ठंड से बचने का इंतजाम उम्दा था। मैदानी लोगों को पहाड़ की ठंड बर्दास्त नहीं होती। अब बाकी कल देखा जाएगा। आज की रात तो गुलजार हो कर गुजर रही है। ……… जारी है, आगे पढ़ें 

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

भूटान में पहला दिन : भूटान यात्रा 3

प्रारम्भ से पढ़ें 
मिड टाऊन होटल पांच मंजिला था। रुम औसत दर्जे के ही थे। हमारे पहुंचने तक गरम पानी आना बंद हो गया था। होटल के साथ बार रुम भी अटैच था और उसके पीछे तरणताल भी। उपर कमरे की खिड़की से तरण ताल का पानी नीला और सुंदर दिखाई दे रहा था। कुछ बच्चे पानी में उछल कूद कर रहे थे। उनके साथ दो-चार बड़े बच्चे भी थे। मेरी इच्छा तरणताल में कुछ समय गुजारने की थी परन्तु वातावरण में ठंडक थी और सांझ ढलने के साथ टेम्परेचर भी  मायनस में जाने वाला था। पर कुछ जुगाड़ लगा कर मैने तरणताल में छलांग लगा ही दी। ओह … पानी इतना ठंडा था कि एक बार तो सांस बंद होने को आ गई। जल्दी जल्दी पानी में हाथ पैर मारे और इस कोने से उस कोने तक 5 बार तैराकी की। शरीर में कुछ गर्माहट बनी। पर पानी बर्फ़ जैसा ही रहा।
होटल मिड टाऊन एवं गगन शर्मा जी
हमारे साथी मुझे पानी में तैरते देख कर उत्साहित हो गए। पूछने लगे पानी कैसा है? मैने कह दिया कि गुनगुना है और थोड़ा जलकिलोल करके दिखाया तो उन्हे विश्वास हो गया। अब वे भी धड़ाम धड़ाम। कूदते ही उनकी नानी याद आ गई। बहुत ठंडा पानी है, आपने धोखा दिया है शर्मा जी। अरे मैने तुम्हें कहा धोखा दिया। अगर मैं कहूंगा तो तुम बिल्डिंग से कूद जाओगे क्या? जब तक व्यक्ति के मन में इच्छा का अंकुरण नहीं होता तब तक वह किसी काम को नहीं करता। तुम्हारे मन में थी स्वीमिंग पुल में नहाने की इच्छा। बस उसे मैने थोड़ी सी हवा दी है। इतनी देर में तरणताल का केयर टेकर आ गया और चिल्लाने लगा कि यहाँ तैरने के लिए ड्रेस कोड है, आप लोग कुछ भी पहन कर कूद गए पानी में। भाई हमने तो अंडर वियर पहन रखी है, अब बिकनी वाला कास्ट्यूम ये लोग कहां से लाएं। इसी में काम चलाओ। ठंड के कारण अधिक देर पानी में नहीं रहे। मै तो रुम में आकर बिस्तर में घुस गया और एक नींद जम कर ली। अगलों की राम जाने।
फ़्यूसलिंग की सुहानी सांझ 
जब नींद खुली तो सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा था। होटल की बालकनी से नदी के किनारे डूबता हुआ सूरज बहुत ही खूबसूरत छटा बिखेर रहा था। शनै: शनै: रात हो रही थी। खाने के समय तक गिरीश पंकज जी भी आ चुके थे। उनका कहना था कि उत्तर प्रदेश वालों की ट्रेन 9 घंटे विलंबित है इसलिए मुझे बस से भेज दिया। रात को ठंड बढ चुकी थी और केटरिंग वाले ने सब्जी, दाल सब में मीठा डाल दिया था। एक तरह का गुजराती खाना बना दिया। मेरा मन नहीं था खाने का। होटल का रेस्टोरेंट भी बंद हो चुका था। अब खाने में कोई मजा नहीं रहा। मैने अपने पास रखे कुछ फ़ल खाए और बिस्तर के हवाले हो गए। रात को सोना भी जरुरी है। आगे के सफ़र का कुछ पता नहीं था। हमें सोने के पहले बता दिया गया था कि सुबह 7 बजे यहां से बस थिम्पू के लिए रवाना हो जाएगी। सभी को समय पर ही तैयार रहना है।
फ़्युशलिंग का प्रवेश द्वार
सुबह रुम में चाय दी गई। इस होटल के सभी कर्मचारी भारतीय ही थे। मैने अपनी आई डी देकर भूटान का एक टुरिस्ट सिम मंगवाया। इसमें 220 रुपए खर्च हुए। होटल के मैनेजर ने बताया कि इस सिम में आपका नेट भी चलेगा और सिम की वैलीडिटी एक माह थी। नेट चलने की बात सुनकर मैं खुश हो गया कि सभी से सतत सम्पर्क बना रहेगा। पर आखिर में यह एक छलावा ही निकला। कहीं पर भी नेट नहीं चला और 220 रुपए गए मुफ़्त में ही पानी में। उत्तर प्रदेश से आने वाला दल रात को पहुंच चुका था, इसमें पूर्व परिचित डॉ रामबहादूर मिश्र जी, रणधीर सिंह सुमन जी और मनोज पाण्डे जी ही थे। बाकी सभी नए लोग थे। जिनसे मैं परिचित नहीं था। परिचय से पहले व्यक्ति नया ही होता है। परिचय पश्चात सौ जान-पहचान एवं रिश्तेदारियाँ निकल आती है। यही हमारी भारतीयता और भारतीय संस्कृति है।
श्री ओमप्रकाश जयंत, डॉ राम बहादूर मिश्र, श्री बिसम्भर शर्मा, श्री गिरीश पंकज, श्री रणधीर सिंह सुमन, डॉ अशोक गुलशन, डॉ विनय दास, श्री समर बहादुर एवं निसिहर जी
नाश्ते के उपरांत सभी का सामान बस में चढ़ा कर बांद दिया गया। सभी ने बस में अपना स्थान ग्रहण कर लिया। अब छत्तीसगढ़ एवं उत्तर प्रदेश को मिलाकर कुल 18 नग सवारियाँ हो चुकी थी, ट्रैवल एजेंट रजत मंडल हमारे साथ ही थे। इस तरह भूटान यात्रा के लिए कुल 19 लोगों का परमिट बना था जो थिम्पू और पारो की 15 जनवरी से 18 जनवरी तक 4 दिन की यात्रा करेगा। यह परमिट में दर्ज किया गया था। हमारी बस अब थिम्पू के लिए चल पड़ी। थोड़ी दूर जाने के बाद रास्ते में जांच चौकी आई। जहाँ हम सब के परमिट की जांच कर मुहर लगाई गई । अब इससे आगे बस चल पड़ी। बस में बहुत ही अधिक विस्फ़ोटक सामग्री भरी हुई थी। एक-एक कवि बड़े परमाणू बम की मारक क्षमता रखता है। :) सारे असलहा जांच बच गया :)। अगर भूटान के अधिकारियों को पता चलता कि कवि आ रहे हैं तो शायद परमिटानुमति ही नहीं मिलती। इतनी सारी विस्फ़ोटक सामग्री के सामने भूटान की क्या बिसात है? :)
भूटान के सहचर - कुछ जागते कुछ ऊंघते
सफ़र के दौरान काव्य गोष्ठी का आयोजन भी कर लिया गया। जिसके संचालन की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी गई। इस बहाने एक दूसरे के साथ परिचय भी हो रहा था और उनकी काव्य प्रतिभा का भी स्वाद मिल रहा था। ये सभी हिन्दी भाषा के साथ अवधि के भी अच्छे कवि थे। कार्यक्रम का प्रारंभ गिरीश पंकज जी की गजल से किया गया। इसके पश्चात ओमप्रकाश जयंत, डॉ अशोक गुलशन, डॉ विनय दास, श्री बिसम्भर शर्मा,  निसिहर जी, कुसुम वर्मा, के साथ गगन शर्मा जी ने भी पुराने गीत गाए। अरविंद देशपांडे में भौंक कर कुत्ते की मिमिक्री कर के सबका मनोरंजन किया। मैने भी एक दो हिन्दी छत्तीसगढ़ी कविताएं मौका पाकर पेल दी। इस तरह मनोरंजन के साथ सफ़र कटते रहा। हमारा रास्ते का खाना पैक करके लाया गया था। एक स्थान पर सभी लोग खाना दिया गया। लोगों ने खाने बाद खाली पैकेट वहीं पर फ़ेंक दिए तो वहां रहने वाले भूटानी नाराज हो गए। उसने डिब्बा लाकर दिया और सारा कचरा उसमें फ़ेंकने कहा। यह भारत नहीं है कि कहीं भी हग दिए और मूत दिए।
चलित काव्य गोष्ठी में कुसुम वर्मा जी सोहर गाते हुए
भूटान में पर्यावरण की तरफ़ विशेष ध्यान दिया जाता है। यहाँ सावर्जनिक स्थानों पर कचरा फ़ैलाने पर कठोर दंड दिया जाता है जिसमें जुर्माने के साथ सश्रम कारावास की भी सजा है। अब हमारे भोले साथियों को कौन सा भूटान के कानूनों का इल्म था। जहाँ खाए, वहीं फ़ेंके। आखिर में सभी ने अपना कचरा समेट कर डिब्बे के हवाले किया। भोजनोपरांत हम थिम्पू की ओर बढ़ चले। पहाड़ी रास्ते को किलोमीटर में नहीं, घंटे मे नापा जाता है। 4 घंटे के सफ़र के बाद सभी की बैटरी डाऊन हो गई और सीटों से लग गए। सफ़र लम्बा था। थिम्पू प्रवेश करने के पूर्व एक स्थान पर पुन: परमिट चेक किए गए और मुहर मार कर विदा किया गया। यहाँ पर जांच चौकी वाले देखते हैं कि पर्यटकों के अलावा कोई अवांछित तत्व भूटान में प्रवेश न कर जाए। मजदूर टाईप के व्यक्तियों को भूटान में प्रवेश नहीं दिया जाता। क्योंकि ये भूटान में आकर मजदूरी करने लगते हैं और यहाँ की नस्ल को भी बिगाड़ते हैं। भूटान का शासन अपनी नस्ल की शुद्धता के विषय में अत्यधिक जागरुक है।
हमारी बस का पायलट परम्परागत भूटानी वेष में, संग डॉ विनय दास जी
आखिरकार हमने थिम्पू में प्रवेश कर लिया। उस समय सांझ हो रही थी। हमारा अस्थाई निवास एक ऊंची पहाड़ी पर बना वांगचुंग रिसोर्ट था। यह रिसोर्ट ताबा में स्थित है। सुंदर ब्लू पाईन के वृक्षों से घिरा रिसोर्ट बहुत ही सुंदर है। इसके साथ इसमें एक कांफ़्रेस हाल भी है। रिसोर्ट में पहुंचने के बाद हमें अपने-अपने रुम की चाबियाँ थमा दी गई। रुम भी बहुत सुंदर डेकोरेटेड थे। प्रत्येक रुम में हीटर वाला बेड एवं चाय की केटली के साथ आवश्यक सभी वस्तुए उपलब्ध थी। हमारे पहुंचने से पूर्व फ़्लाईट से आने वाले साथी भी पारो से आ चुके थे। पहुंचते ही शाम को नास्ते का इंतजाम था। इस दौरान ही अन्य पुराने साथियों से भेंट हुई, जिसमें संपत मुरारका जी, सुनीता यादव जी, कृष्णकुमार यादव जी, रविंद प्रभात जी एवं उनकी बेटी जवांई थे। इंदौर से प्रकाश हिन्दूस्तानी जी, दिल्ली से ब्लॉगर सर्जना शर्मा जी एवं सिलचर से प्रो नित्यानंद पाण्डे एवं उनकी धर्मपत्नी शुभदा पाण्डे जी भी थी। सभी से परिचयोपरांत बताया गया कि आज कोई कार्यक्रम नहीं है, शाम को आपको मार्केट घुमाया जाएगा, फ़िर खाना और सोना ही है, बाकी कार्यक्रम अगले दिन किया जाएगा।
कल के बिछड़े हुए हम आज यहाँ आ के मिले ( ललित शर्मा-सुनीता यादव-कृष्ण कुमार यादव)
थिम्पू की मार्केट अधिक बड़ी नहीं है, होटल ताज से लेकर मुख्यचौराहे तक सड़क एक तरफ़ दुकाने बनी हुई हैं। जिनमें अधिकतर मालकिने ही दिखाई देती हैं। जैसी अन्य टुरिस्ट स्थानों पर दुकाने होती है वैसी ही मुझे यहाँ भी दिखाई दी। सामान का मुल्य भी सामान्य से अधिक दिखाई दिया। मेरा कैमरा काम नहीं कर रहा था इसलिए मुझे सेल लेने थे। आखिर मोल भाव करने के बाद मुझे 800 रुपए में 4 सेल लेने पड़े। मुझे कैमरा चालू करना बहुत ही आवश्यक था। बाजार में गर्म कपड़ों का मूल्य भी बहुत अधिक था। सुनीता ने एक-दो लेदर के जैकेट खरीदे। मुझे तो बच्चों का नाप ही याद नहीं रहता। इसलिए बाहर से कोई भी सामान खरीदने का रिस्क नहीं लेता। धीरे-धीरे बाजार घूमते हुए रात होने लगी और बस ड्रायवर का फ़ोन आने लगा। नई जगह में किसी तरह एक स्थान पर एकत्रित हुए और पुन: रिसोर्ट में आ गए। ……… जारी है, आगे पढ़ें 

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

चलती का नाम गाड़ी : भूटान

प्रारम्भ से पढ़ें 
चपन में भूटानी परियों की कहानियाँ पढते थे और इसे अब डेग्रन का देश कहा जाता है। इसे देखने की उत्सुकता तो अरसे से थी परन्तु चढे हुए दिमागी पारे ने रोमांच और उत्साह का बंटाढार कर दिया। कोच में पहुंच कर देखा तो ये तीन विराजमान थे। किसी के आने न आने का इन्हें कोई फ़िक्र ही नहीं था। मैने अरविंद से कहा कि अगर ये फ़ोन नहीं रही तो तुम तो जवाब दे सकते थे। तीन घंटे की प्रताड़ना से बना हुआ नजला गिरने लगा। मन हल्का होने का नाम ही नहीं ले रहा था। ज्यों ज्यों बात निकलते जा रही थी त्यों त्यों तापमान बढ़ते ही जा रहा था। 

मैने भी ठान लिया कि अब सफ़र के दौरान से इनसे बात ही नहीं करनी है और जैसे अन्य अजनबी हैं वैसे ही व्यवहार इनके साथ भी किया जाए। रही बात वापसी की टिकिट की तो वह मैं तत्काल में भी बनवा लुंगा। अब इनके साथ जाना भी नहीं है सोच कर अपनी बर्थ पर सो गया। इन्होने कोई मेरी टिकिट मुफ़्त में तो कराई नहीं है। फ़िर इतना तमाशा करने की क्या जरुरत थी। बरसों का एक संबंध फ़ालतू की रार की भेंट चढ़ता जा रहा था। 

सुबह आँख खुली तो किसनगंज दिखाई दिया। बिहार का यह वही किसनगंज है जो बंगलादेशी घूसपैठियों का स्वर्ग कहा जाता है। कौन बंगला देशी और कौन देशी, इसका यहाँ पता ही नहीं चलता। वातावरण में ठंडक थी। एक चाय पीने के बाद हिन्दी का अखबार खरीदा। बाहर कोहरा घना छाया हुआ था। इस हिसाब से लग रहा था कि हमारी ट्रेन न्यू जलपाई गुड़ी विलंब से पहुंचने वाली है। मैने अपना मोबाईल बंद कर पावर बैंक में चार्जिंग में लगा रखा था। हमारी भूटान यात्रा यहीं से प्रारंभ होने वाली थी। न्यू जलपाई गुड़ी आने से पहले मैने फ़ोन चालु किया तो उस पर किसी रजत मंडल का फ़ोन आया। उन्होने हमें प्लेट फ़ार्म से बाहर आने को कहा, जहाँ वे हमारा इंतजार कर रहे थे। फ़िर उन्होने दुबारा फ़ोन करके कोच नम्बर पूछा और स्वयं ही कोच पर आने का संदेश दिया।

अब हम बंगाल में थे। हमारे साथी गगन शर्मा जी ने जीवन के लगभग 35 वर्ष बंगाल में गुजारे हैं, इसलिए अच्छी बंगाली बोल लेते हैं। इसका फ़ायदा हमें मिला भी। पर पंजाबी टोन में बंगाली बोलने और सुनने का मजा भी कुछ और ही है। हम न्यू जलपाई गुड़ी पहुंच चुके थे। कोच से बाहर निकलते ही चियां (चिड़िया का बच्चा) चहचहाने लगा। फ़ोन उठाकर देखा तो रजत मंडल का ही फ़ोन था। वह मेरे सामने ही खड़ा था। साईन बोर्ड देख कर उसने मुझे पहचान लिया। हम अपना सामान लेकर स्टेशन के बाहर आ गए। वहाँ उसने एक क्वालिस गाड़ी तैयार कर रखी थी। ड्रायवर ने हमारा सामान कैरियर पर बांध लिया और रजत मंडल हमें नाश्ता करवाने ले चला।

न्यू जलपाई गुड़ी स्टेशन के बाहर निकलते ही थोड़ी दूर पर छोटे छोटे भोजनालयों की कतार बनी हुई है। जिसमें सभी तरह का भोजन मिलता है। हमें एक भोजनालय में ले जाया गया। वहाँ नाश्ते में पुरी, दाल और छोले थे। हम तो हमारे यहाँ मिलने वाला नाश्ता सोच कर आए थे। हमारे यहाँ तो पूरी दाल, सब्जी चावल इत्यादि भोजन की श्रेणी में आता है। झक मार कर हमें यही भोजन करना पड़ा। मेरे पास घर से लाए हुए मटर के पराठे। जिसे बेटी ने बड़े ही स्नेह के साथ तैयार किए थे। मैने डेढ पराठा खाया और बाकी साथियों को दे दिया। दही पराठा खा कर आत्मा तृप्त हो गई। अब हम आगे का सफ़र करने लायक हो गए थे। हमने गाड़ी होटल के समीप ही मंगवा ली और लगभग साढ़े दस बजे न्यू जलपाईगुड़ी से फ़्यूशलिंग (Phuentsholing) की ओर प्रस्थान कर गए। यह हमारा पहला था दल, अभी अन्य यात्रियों का दूसरा दल उत्तर प्रदेश से पहुंचने वाला था।

हमारी यात्रा प्रारंभ हो गई, हम सड़क मार्ग से फ़्यूशलिंग की ओर जा रहे थे। सड़क के किनारे चाय के बगान दिखाई दे रहे थे तथा पथरीली नदियां भी रास्ते में दिखाई दे रही थी। हमारा ड्रायवर भी नेपाली मूल का युवक था। बात चीत से पता चला कि वह भी पहली बार फ़्यूशलिंग जा रहा है। ड्रायवर भी नया था और हम भी। दोनो का नयापन एक सा था। इसलिए कोई खतरा भी नहीं। कुछ घंटे चल कर हम जयगाँव पहुंचे। यह भारतीय सीमावर्ती कस्बा है और खूब चहल पहल दिखाई देती है। 

रेल्वेक्रासिंग पर ट्रेन आने के कारण गेट बंद दिखाई दिया। कुछ देर के लिए हमें यहाँ रुकना पड़ा। हमारी गाड़ी के समीप ही नीली ट्री शर्ट पहने कुछ मोटरसायकिल सवार भी रुके। उनकी टी शर्ट पर "से नो टु ड्रग" लिखा था। यह अपील करने वाले संगठन का नाम जयगाँव वेलफ़ेयर आर्गेनाईजेशन भी लिखा था। भूटान प्रवेश करने वाले सीमावर्ती कस्बे के प्रारंभ में ही भनक लग गई कि इस सीमा पर भी अनैतिक कार्य हो रहे हैं और यहाँ के युवा ड्रग डीलरों एवं पैडलरों की चपेट में हैं। सीमाक्षेत्र में पहुंचने पर चारों तरफ़ कोलाहल सुनाई दिया। नेपाली बंगाली दलालों की भीड़ ग्राहक फ़ंसाने के हथकंडे अपना रही थी। इस गांव में होटल भी बहुत सारे दिखाई दिए। सोच कि समय मिलने पर ड्रग की महामारी के संबंध में स्थानीय लोगों से चर्चा की जाएगी।
भारतीय सीमा से भूटान का प्रवेश द्वार
जयगांव से ही एक द्वार के माध्यम से भारत एवं भूटान सीमा में प्रवेश किया जाता है। हमें एक रात फ़्यूशलिंग के होटल में रुकना था और अन्य साथियों के आने के पश्चात ही सबको थिम्पू की ओर रवाना होना था। सीमा पर एक युवक अपनी कार से हमें होटल मिडटाऊन तक पहुंचाने के लिए राजी हो गया। उसके पीछे पीछे हमने प्रवेश द्वार से फ़्यूशलिंग कस्बे के माध्यम से भूटान में प्रवेश किया। प्रवेश द्वार के दोनो तरफ़ डेग्रन के चित्र हमारा स्वागत कर रहे थे। अब हम विदेशी धरती पर थे। अचानक लगा की भूटान में प्रवेश करते ही सब कुछ बदल गया। वेशभूषा के साथ वातावरण भी। चारों तरफ़ साफ़ सफ़ाई एवं शांति दिखाई दी। कोलाहल का कहीं नाम ओ निशान नहीं। जबकि प्रवेश द्वार के उस पार मच्छी बाजार सा कोलाहल सुनाई दे रहा था। साफ़ समझ में आता है कि निजाम के साथ सब कुछ बदल जाता है। हम होटल मिडटाऊन में पहुंच चुके थे। ....... जारी है, आगे पढ़ें 

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

सैर कर गाफ़िल … भूटान

सैर कर गाफ़िल दूनिया की, जिन्दगानी फ़िर कहाँ …… सैलानियों के लिए यह आदर्श वाक्य हो गया है। देशाटन और पर्यटन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का मन करता है परन्तु इसके रास्ते में रोड़े भी बहुत अधिक हैं। घर द्वार से निकलते निकलते भी कोई न कोई काम आ ही जाता है जो आपकी यात्रा को प्रारंभ ही नहीं होने देगा। ऐसी स्थिति में नफ़ा-नुकसान देखे बिना गाफ़िल हो कर  ही यात्रा को अंजाम देना पड़ता है। बस सब तरफ़ से आँखें बंद कर लो और चल पड़ो अपने मनचाहे स्थान की ओर, तभी यात्रा सम्पूर्ण होती है। वरना जीवन में पहेलियों के इतने जंजाल होते हैं कि एक को सुलझाते ही उसमें से दूसरी उलझन जन्म लेती दिखाई देती है।

मेरी पुस्तक "सरगुजा का रामगढ़" प्रकाशन के अंतिम दौर पर थी, तभी रविन्द्र प्रभात जी का फ़ोन आया कि अबकि बार ब्लॉग़र सम्मेलन भूटान में हो रहा है और आपकी स्वीकृति चाहिए। भूटान का नाम सुनकर मैने अपनी स्वीकृति दे दी। क्योंकि कई महीनों से बिकास और मेरे बीच भूटान भ्रमण को लेकर मंथन चल रहा था। जाना वह भी चाहता था और मैं भी। परन्तु कोई "साईत" नहीं निकल रहा था। रविन्द्र जी के फ़ोन से हमें भूटान यात्रा को लेकर गंभीरता से सोचना पड़ा। मैने जल्दबाजी में ही पुस्तक पूर्ण की एवं उसका प्रकाशन भी हो गया। अब मुद्दा विमोचन को लेकर टंगा हुआ था। इस पुस्तक का विमोचन हमारे मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के द्वारा होना पूर्व में ही तय हो गया था। अब उनकी तरफ़ से तिथि का निर्धारण होना था। समय धीरे धीरे सरकता जा रहा था।

इसी बीच छत्तीसगढ़ के अन्य मित्र भी इस यात्रा में सम्मिलित हो रहे थे। जिनमें गगन शर्मा, गिरीश पंकज, अल्पना देशपान्डे इत्यादि। मैं भूटान यात्रा सड़क मार्ग से तय करना चाहता था इसलिए पाबला जी को फ़ोन लगाया। तो उन्होने बताया कि पापा की तबियत ऊक-चूक रहती है, अगर ठीक लगा तो चलेगें। अर्थात तय नहीं था उनका जाना। रविन्द्र जी ने परमिट के फ़ार्म भेज दिया। इधर अल्पना भी सपरिवार तैयार हो रही थी। उसका सही जवाब नहीं आ रहा था और टिकिट करवाने में विलंब होता जा रहा था। मैने गगन शर्मा जी  को टिकिट करवाने कह दिया और अल्पना को अल्टीमेंटम दे दिया। फ़ार्म भेजने के बाद टिकिट करवाने की जिम्मेदारी उसकी थी। मुझसे यहीं पर बड़ी चूक हो गई। अपनी टिकिट अलग ही करवानी थी। यही चूक आगे चल कर मानसिक यंत्रणा का कारक बन गई।

हमारी यात्रा रायपुर स्टेशन से हावड़ा मुंबई मेल द्वारा 12 जनवरी 2015 को शाम को प्रारंभ होनी थी। सब कुछ तय समय के हिसाब से चल रहा था। परन्तु कुछ न कुछ व्यवधान मानव जीवन में आते ही रहते हैं। छोटे भाई कीर्ति की एक महीने से तबियत ठीक नहीं थी। शाम को उसको टेबलेट लेने के लिए ध्यान दिलाना पड़ता था। वरना भूल जाता था। नगर पंचायत के चुनाव भी चल रहे थे और एक साप्ताहिक समाचार पत्र के सम्पादक का दायित्व भी इसी दौरान संभालना पड़ा। कुल मिला कर उलझने बढती ही जा रही थी। नगर पंचायत चुनाव में ताऊ जी के पुत्र पार्षद का चुनाव जीत चुके थे और उन्हें 13 तारीख को उपाध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ना था। उनका कहना था कि 13 को शाम की फ़्लाईट से कलकत्ता चले जाना, जिससे अपने साथियों से मिल जाओगे और यहाँ का चुनाव भी निपट जाएगा।

मैने अल्पना को वर्तमान स्थिति से अवगत करवा दिया और कह दिया कि शाम की फ़्लाईट से चल कर दार्जलिंग मेल के समय पर सियालदाह स्टेशन पर मिल जाऊंगा। उसने नाराजगी जाहिर की और मैने अपनी सफ़ाई दी। यहीं से बात से बिगड़नी प्रारंभ हो गई। उसके बाद मैने इन्हें सैकड़ों बार कॉल किया लेकिन फ़ोन पर कोई जवाब नहीं आया। 13 तारीख को दोपहर 1 बजे भाई के विजय होने का समाचार आ गया और छोटा भाई कीर्ति, भतीजा, छोटू और बेटा उदय मुझे एयरपोर्ट छोड़ने आ गए। शाम 4/15 के इंडिगो विमान से सफ़र तय कर 5/40 को दमदम हवाई अड्डे पर पहुच गया। यहाँ पहुच कर भी अल्पना को फ़ोन लगाया तो कोई जवाब नहीं आया। क्योंकि मेरी आगे की टिकिट तो उनके साथ ही सम्मिलित थी। न ही उन्होने मुझे कायदे से मेरा सीट नम्बर दिया। इसके पीछे मुझे सिर्फ़ अपनी अहमियत सिद्ध करने का भाव ही समझ में आया। आएगा साला खुद पड़ गिर और ढूंढेगा अगर साथ जाना है तो।

मैं हवाई अड्डे से टैक्सी लेकर सियालदाह स्टेशन की ओर चल पड़ा। मेरा टैक्सी ड्रायवर हिन्दी भाषी और बिहार के गया जिले का निवासी था। बहुत अच्छी हिन्दी बोलता था और पढने लिखने का शौकीन था। उससे चर्चा करते हुए 22 किलोमीटर का रास्ता कट गया और सियालदाह स्टेशन पहुंच गया। इस स्टेशन पर बहुत ही भीड़ भाड़ थी। सामान ढोकर थोड़ा आगे बढने पर पता चला कि कल संक्राति है और गंगासागर जाने वालों का मेला लगा हुआ था। इसलिए अत्यधिक भीड़ दिखाई दे रही थी। सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार। स्टेशन पहुंचा तो 7 बजे थे। मैने एटीएम के पास अपना डेरा लगा लिया। क्योंकि मेरे पास टिकिट भी नहीं थी जो प्लेटफ़ार्म पर पहुंच सकता। मैने एक प्लेटफ़ार्म टिकिट खरीदी और इनका इंतजार करने लगा। इन लोगों ने मुझे इस तरह से बांध दिया था कि मैं मानसिक प्रताड़ना का शिकार हो रहा था। गुस्से का स्तर शनै शनै बढते जा रहा था। 

आठ बजे मैने गगन शर्मा जी फ़ोन लगा कर वस्तु स्थिति बताई तो उन्होने कहा कि वे 9 बजे प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएगें। इस बीच मैने घर से लाया हुआ भोजन कर लिया। वादे के अनुसार गगन शर्मा जी नौ बजे पहुंच गए। हमारी ट्रेन दार्जलिंग एक्सप्रेस दस बजे थी। गगन शर्मा जी ट्रेन एवं टिकिट की स्थिति देखने गए और मैं अपने स्थान पर ही बैठा रहा। आज अपने आप को बहुत ही मजबूर समझ रहा था। अब दिमाग सनकने के कगार पर था। चार्ट लगने में थोड़ा समय था। चार्ट लगते ही हमने देखना शुरु किया तो मेरा नाम ही नहीं दिखाई दिया। अब मैने तय किया की सामान्य टिकिट लेकर ट्रेन में ही सीट की व्यवस्था कर लुंगा। मै सामान्य टिकिट लेकर लौटा तो गगन शर्मा जी ने बताया कि मेरी टिकिट बी-3 में है और उन लोग अपनी सीट पर बैठ चुके हैं। अब पारा और अधिक चढ गया। इधर सामान्य टिकिट के पैसे फ़ालतु लग गए। मैने दौड़ कर टिकिट कैंसिल कराई और किसी तरह अपने कोच में पहुंचा। इसे कहते हैं कर भला तो हो बुरा…………। आगे पढ़ें 

सैर कर गाफ़िल … भूटान

सैर कर गाफ़िल दूनिया की, जिन्दगानी फ़िर कहाँ …… सैलानियों के लिए यह आदर्श वाक्य हो गया है। देशाटन और पर्यटन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का मन करता है परन्तु इसके रास्ते में रोड़े भी बहुत अधिक हैं। घर द्वार से निकलते निकलते भी कोई न कोई काम आ ही जाता है जो आपकी यात्रा को प्रारंभ ही नहीं होने देगा। ऐसी स्थिति में नफ़ा-नुकसान देखे बिना गाफ़िल हो कर  ही यात्रा को अंजाम देना पड़ता है। बस सब तरफ़ से आँखें बंद कर लो और चल पड़ो अपने मनचाहे स्थान की ओर, तभी यात्रा सम्पूर्ण होती है। वरना जीवन में पहेलियों के इतने जंजाल होते हैं कि एक को सुलझाते ही उसमें से दूसरी उलझन जन्म लेती दिखाई देती है।

मेरी पुस्तक "सरगुजा का रामगढ़" प्रकाशन के अंतिम दौर पर थी, तभी रविन्द्र प्रभात जी का फ़ोन आया कि अबकि बार ब्लॉग़र सम्मेलन भूटान में हो रहा है और आपकी स्वीकृति चाहिए। भूटान का नाम सुनकर मैने अपनी स्वीकृति दे दी। क्योंकि कई महीनों से बिकास और मेरे बीच भूटान भ्रमण को लेकर मंथन चल रहा था। जाना वह भी चाहता था और मैं भी। परन्तु कोई "साईत" नहीं निकल रहा था। रविन्द्र जी के फ़ोन से हमें भूटान यात्रा को लेकर गंभीरता से सोचना पड़ा। मैने जल्दबाजी में ही पुस्तक पूर्ण की एवं उसका प्रकाशन भी हो गया। अब मुद्दा विमोचन को लेकर टंगा हुआ था। इस पुस्तक का विमोचन हमारे मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के द्वारा होना पूर्व में ही तय हो गया था। अब उनकी तरफ़ से तिथि का निर्धारण होना था। समय धीरे धीरे सरकता जा रहा था।

इसी बीच छत्तीसगढ़ के अन्य मित्र भी इस यात्रा में सम्मिलित हो रहे थे। जिनमें गगन शर्मा, गिरीश पंकज, अल्पना देशपान्डे इत्यादि। मैं भूटान यात्रा सड़क मार्ग से तय करना चाहता था इसलिए पाबला जी को फ़ोन लगाया। तो उन्होने बताया कि पापा की तबियत ऊक-चूक रहती है, अगर ठीक लगा तो चलेगें। अर्थात तय नहीं था उनका जाना। रविन्द्र जी ने परमिट के फ़ार्म भेज दिया। इधर अल्पना भी सपरिवार तैयार हो रही थी। उसका सही जवाब नहीं आ रहा था और टिकिट करवाने में विलंब होता जा रहा था। मैने गगन शर्मा जी  को टिकिट करवाने कह दिया और अल्पना को अल्टीमेंटम दे दिया। फ़ार्म भेजने के बाद टिकिट करवाने की जिम्मेदारी उसकी थी। मुझसे यहीं पर बड़ी चूक हो गई। अपनी टिकिट अलग ही करवानी थी। यही चूक आगे चल कर मानसिक यंत्रणा का कारक बन गई।

हमारी यात्रा रायपुर स्टेशन से हावड़ा मुंबई मेल द्वारा 12 जनवरी 2015 को शाम को प्रारंभ होनी थी। सब कुछ तय समय के हिसाब से चल रहा था। परन्तु कुछ न कुछ व्यवधान मानव जीवन में आते ही रहते हैं। छोटे भाई कीर्ति की एक महीने से तबियत ठीक नहीं थी। शाम को उसको टेबलेट लेने के लिए ध्यान दिलाना पड़ता था। वरना भूल जाता था। नगर पंचायत के चुनाव भी चल रहे थे और एक साप्ताहिक समाचार पत्र के सम्पादक का दायित्व भी इसी दौरान संभालना पड़ा। कुल मिला कर उलझने बढती ही जा रही थी। नगर पंचायत चुनाव में ताऊ जी के पुत्र पार्षद का चुनाव जीत चुके थे और उन्हें 13 तारीख को उपाध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ना था। उनका कहना था कि 13 को शाम की फ़्लाईट से कलकत्ता चले जाना, जिससे अपने साथियों से मिल जाओगे और यहाँ का चुनाव भी निपट जाएगा।

मैने अल्पना को वर्तमान स्थिति से अवगत करवा दिया और कह दिया कि शाम की फ़्लाईट से चल कर दार्जलिंग मेल के समय पर सियालदाह स्टेशन पर मिल जाऊंगा। उसने नाराजगी जाहिर की और मैने अपनी सफ़ाई दी। यहीं से बात से बिगड़नी प्रारंभ हो गई। उसके बाद मैने इन्हें सैकड़ों बार कॉल किया लेकिन फ़ोन पर कोई जवाब नहीं आया। 13 तारीख को दोपहर 1 बजे भाई के विजय होने का समाचार आ गया और छोटा भाई कीर्ति, भतीजा, छोटू और बेटा उदय मुझे एयरपोर्ट छोड़ने आ गए। शाम 4/15 के इंडिगो विमान से सफ़र तय कर 5/40 को दमदम हवाई अड्डे पर पहुच गया। यहाँ पहुच कर भी अल्पना को फ़ोन लगाया तो कोई जवाब नहीं आया। क्योंकि मेरी आगे की टिकिट तो उनके साथ ही सम्मिलित थी। न ही उन्होने मुझे कायदे से मेरा सीट नम्बर दिया। इसके पीछे मुझे सिर्फ़ अपनी अहमियत सिद्ध करने का भाव ही समझ में आया। आएगा साला खुद पड़ गिर और ढूंढेगा अगर साथ जाना है तो।

मैं हवाई अड्डे से टैक्सी लेकर सियालदाह स्टेशन की ओर चल पड़ा। मेरा टैक्सी ड्रायवर हिन्दी भाषी और बिहार के गया जिले का निवासी था। बहुत अच्छी हिन्दी बोलता था और पढने लिखने का शौकीन था। उससे चर्चा करते हुए 22 किलोमीटर का रास्ता कट गया और सियालदाह स्टेशन पहुंच गया। इस स्टेशन पर बहुत ही भीड़ भाड़ थी। सामान ढोकर थोड़ा आगे बढने पर पता चला कि कल संक्राति है और गंगासागर जाने वालों का मेला लगा हुआ था। इसलिए अत्यधिक भीड़ दिखाई दे रही थी। सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार। स्टेशन पहुंचा तो 7 बजे थे। मैने एटीएम के पास अपना डेरा लगा लिया। क्योंकि मेरे पास टिकिट भी नहीं थी जो प्लेटफ़ार्म पर पहुंच सकता। मैने एक प्लेटफ़ार्म टिकिट खरीदी और इनका इंतजार करने लगा। इन लोगों ने मुझे इस तरह से बांध दिया था कि मैं मानसिक प्रताड़ना का शिकार हो रहा था। गुस्से का स्तर शनै शनै बढते जा रहा था। 

आठ बजे मैने गगन शर्मा जी फ़ोन लगा कर वस्तु स्थिति बताई तो उन्होने कहा कि वे 9 बजे प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएगें। इस बीच मैने घर से लाया हुआ भोजन कर लिया। वादे के अनुसार गगन शर्मा जी नौ बजे पहुंच गए। हमारी ट्रेन दार्जलिंग एक्सप्रेस दस बजे थी। गगन शर्मा जी ट्रेन एवं टिकिट की स्थिति देखने गए और मैं अपने स्थान पर ही बैठा रहा। आज अपने आप को बहुत ही मजबूर समझ रहा था। अब दिमाग सनकने के कगार पर था। चार्ट लगने में थोड़ा समय था। चार्ट लगते ही हमने देखना शुरु किया तो मेरा नाम ही नहीं दिखाई दिया। अब मैने तय किया की सामान्य टिकिट लेकर ट्रेन में ही सीट की व्यवस्था कर लुंगा। मै सामान्य टिकिट लेकर लौटा तो गगन शर्मा जी ने बताया कि मेरी टिकिट बी-3 में है और उन लोग अपनी सीट पर बैठ चुके हैं। अब पारा और अधिक चढ गया। इधर सामान्य टिकिट के पैसे फ़ालतु लग गए। मैने दौड़ कर टिकिट कैंसिल कराई और किसी तरह अपने कोच में पहुंचा। इसे कहते हैं कर भला तो हो बुरा…………। आगे पढ़ें