गोलकुंडा दर्शन करते हुए ग्यारह बज चुके थे, शहर से बाहर आते हुए साढे ग्यारह बज गए। अब हमारी स्मार्ट कार बंगलोर के लिए हाईवे पर दौड़ रही थी। हमारी मंजिल यहाँ से 587 किमी थी और जीपीएस वाली बाई बता रही थी कि जिस गति से हम चल रहे हैं, लगातार उसी गति से चलते रहे तो साढे आठ घंटे चलेगें तो मंजिल तक पहुंच जाएगें। हैदराबाद से बंगलोर तक टोल रोड़ है, इसलिए इस मार्ग पर गाड़ियां भी तेज गति से चलती हैं। तेज गति से चलने पर लोकल बाईक वाले सवार बाधा बनते हैं। डिवाईडर के ऊपर से कब कौन कूदकर आपकी गाड़ी के सामने आ जाए इसका पता नहीं चलता। मुझे सारे रास्ते भर इसी का भय लगा रहा। जब भी कोई रोड़ कट दिखाई देता मैं पहले से ही पाबला जी को गति धीमी करने के लिए आगाह करता। रोड़कट पार होने पर फ़िर ये वही गति पकड़ लेते, मेरा सारा सफ़र गति नियंत्रण में ही निकल गया।
|
चौराहों पर स्थापित होने के लिए तैयार पुतले |
हमारा देश पुतलों का देश है, पुतले ही शासन करते हैं, पुतले ही प्रतिष्ठा दिलाते हैं, पुतले ही दंगा कराते हैं, अगर कहा जाए तो सारी व्यवस्था पुतलों के अधीन हो गई है। हर गली चौराहे पर कोई न कोई पुतले खड़े दिखाई दे जाते हैं। रास्ते में चलते हुए एक स्थान पर बहुत सारे कांक्रीट के पुतले खड़े हुए दिखाई दिए। इतने सारे पुतले मैने एक साथ कभी नहीं देखे थे, जिज्ञासावश गाड़ी रोकी गई, फ़ोटो लेने की इच्छा भी पूरी करनी थी। इन पुतलों में बाबा साहेब के पुतले अधिक थे। पुतले भी आठ फ़ुट से दस फ़ुट ऊंचाई तक के थे। मैने पुतले बनाने वाले से चर्चा की। उसने बताया की बाबा साहेब के पुतलों की सबसे अधिक बिक्री होती है, उसके बाद नम्बर आता है, महात्मा फ़ूले का। इंदिरागांधी, नेहरु, गांधी जी, राजीव गांधी एवं अन्य नेताओं के भी पुतले बना कर रखने पड़ते हैं, अगर मांग आ जाए तो तुरंत सप्लाई की जा सके। एक पुतले की कीमत पचास हजार से एक लाख तक बताई।
|
हाईवे |
हम फ़ोटो लेने में मगन थे और हाईवे पुलिस आकर पाबला जी को तीन बार टोक चुकी थी, हाईवे पर गाड़ी नहीं खड़ी की जा सकती है। गाड़ी खड़ी करके आराम करने के लिए भी निर्धारित स्थान हैं, जहाँ आप घंटो गाड़ी खड़ी कर आराम कर सकते हैं। गाड़ी के हार्न की आवाज सुनकर दो चार फ़ोटो और लेकर मैं गाड़ी में पहुंच गया। गाड़ी चलने पर पाबला जी ने सारा किस्सा बताया। अब एक घंटा दबा के गाड़ी चलाई जाए तो सौ किमी का सफ़र तय हो जाएगा। चलते वक्त मेरी निंगाहें सड़क पर चौकस रहती थी, अब एक सौ बीस-तीस की गति में तो चौकस रहना ही पड़ता है। तब भी कहीं न कहीं स्पीड ब्रेकर पर चूक हो ही जाती और गाड़ी उछल जाती। खैर जैसे भी चल रहे थे, मतलब चल रहे थे। इस दौरान वार्तालाप भी कम ही होता था। मुकेश के गानों के सहारे दोनों की मौज हो रही थी।
|
होटल का नाम नहीं पता, खुद ही पढ़ लो |
थोड़ी देर बाद भूख लगने लगी और हम कोई अच्छा ढाबा या होटल देखने लगे भोजन के लिए। कई स्थान तो ऐसे मिलते थे जहाँ कतार से ढाबे और होटल दिखाई देते थे, कभी सैकड़ों किमी चलने पर एक दो ढाबे दिखते थे। आज आंध्रा का परम्परागत भोजन करने का मन था। एक होटल में तेलगु में लिखा हुआ दिखा और साईन बोर्ड पर थाली की फ़ोटो छपी थी। समझ आ गया कि यहाँ खाना मिल जाएगा। गाड़ी रोकने पर होटल वाले ने बताया कि खाना मिल जाएगा। खाने में चपाती, चावल, दाल, रसम, सांभर, दही, चटनी, भाजी, पापड़ और अचार भी था। उसने खाली थाली लाकर रख दी और अलग से बर्तन में चावल के साथ सारी दाल सब्जी भी। जितनी आवश्यकता है उतना लो। मांगने का कोई झमेला नहीं, अपना हाथ जगन्नाथ। खाना स्वादिष्ट था, मजा आ गया। उदर के साथ आत्मा भी तृप्त हो गई।
|
स्पेटपनी पर शैव तिलक |
भोजन करके हम अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। आज शिवरात्रि का दिन था, मंदिरों में उत्सव चल रहे थे। पूजा के साथ भंडारे का आयोजन भी हो रहा था। दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय के मानने वाले अधिक है, एक समय था कि दक्षिण एवं उत्तर भारत शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के बीच बंटा हुआ था तथा अत्यधिक झगड़े में इनमें ही आपस में होते थे। सदैव एक दूसरे को नीचा दिखाने को तत्पर रहते थे। आद्य शंकराचार्य के हस्तक्षेप से समय में बदलाव आया, वैष्णव दक्षिण पहुंचे और शैव उत्तर की ओर, दोनो पूजित होने लगे। सम्प्रादायिक भेद भाव इस कदर खत्म हुआ कि "हरिहर" की संघाट प्रतिमाएं बनने लगी। तिरुपति बाला जी और पद्मनाभ स्वामी मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय के हैं तो उत्तर भारत में कई ज्योतिर्लिंग हैं। यह साम्प्रदायिक समरसता अभी तक कायम है।
|
पथकर नाका |
हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की पहचान तिलक छापे एवं वेषभूषा से होती है। शैव आड़े तिलक लगाते हैं तो वैष्णव खड़े। कोई गोल तिलक लगाता है तो कोई सारा माथा ही रंग लेता है। कोई चंदन का तिलक लगाता है तो कोई रोली, हल्दी का। सभी अपनी पहचान आज भी कायम रखे हुए हैं। शायद यह जीवन की पहली शिवरात्रि होगी जब मैं कहीं यात्रा पर रहा हूँ। बाकी तो अन्य त्यौहारों पर यात्रा पर जाना होता रहा है, सिर्फ़ रक्षा बंधन, दीवाली और होली, ये तीन त्यौहार हमेशा घर पर ही मनते हैं। मुकेश के गानों के साथ सफ़र सपाटे से कटते जा रहा था। अनंतपुर के आगे चलने पर रास्ते में बहुत सारे पवन पंखे लगे दिखाई दिए, पहाड़ियों पर लगाकर इनसे बिजली उत्पन्न की जाती है तथा एक ग्रिड से जोड़कर इसका वितरण किया जाता है। यह पवन उर्जा का सदूपयोग दिखाई देता है।
|
उर्जा उत्पादन का साधन पवन पंखे |
जिस हाईवे पर हम चल रहे थे, उसे बनाने के लिए काफ़ी श्रम लगा होगा। हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को भी काटना पड़ा तो कहीं सड़क को पचास फ़ुट ऊपर तक उठाना भी पड़ा, इस तरह यह हाईवे बनकर तैयार हुआ। हर 50-60 किमी में एक टोल नाका आ ही जाता था। जिस पर सड़क बनाने वाली कम्पनियाँ खर्च की गई राशि वसूल कर रही थी। चलते चलते वह समय आ ही गया जब बंगलोर की हद में हम पहुंच गए। रात हो गई थी और अब थकान इतनी बढ गई थी कि लग रहा था, कब होटल में पहुंचे और बिस्तर के हवाले हो जाएं। बंगलोर पचास किमी पहले से शुरु हो जाता है। रात को गति वैसे भी कम हो जाती है।
|
रात का ट्रैफ़िक बंगलोर |
भारी ट्रैफ़िक के बीच हम इलेक्ट्रानिक सिटी की तरफ़ जा रहे थे, रास्ते में एक फ़्लाई ओव्हर ऐसा आया कि गाड़ी चल रही थी और वह खत्म होने का नाम ही नही ले रहा था। लग रहा था कि यह हमें सीधे आकाश की ओर लेकर जा रहा है। जब फ़्लाई ओव्हर खत्म हुआ तब सांस में सांस आई। पता चला कि यह नौ किमी लम्बा है। एक गोल चक्कर के बाद जीपीएस वाली बाई ने दिखाया कि हम मंजिल के करीब पहुंच गए हैं, दो तीन मोड़ों से गुजरने बाद बोली " आपकी मंजिल आ गई है"। रात साढे नौ बज रहे थे। हम अपनी मंजिल पर पहुंच गए थे। होटल चेक इन किया और रुम में पहुंचते ही पड़ गए बिस्तरों पर, अगली सुबह के इंतजार में।
जारी है आगे पढ़ें…।