रविवार, 31 जुलाई 2016

द्वाराहाट, कुकुछीना, पाण्डूखोली यात्रा

आरम्भ से पढ़ें 
रिसोर्ट से विदा लेकर जब निकले तो आज भी सिर्फ़ भाई साहब को ही पता था कि कहाँ जाना है। हम तो सिर्फ़ रास्ते के दर्शक मुसाफ़िर थे। रास्ते में द्वाराहाट नामक कस्बा आया। यहां हमने नाश्ता करने के लिए गाड़ी रोकी और नाश्ता करते हुए एक फ़ोटो फ़ेसबुक पर अपडेट की  तो अल्मोड़ा से गीतेश त्रिपाठी जी ने कमेंट में बताया कि यहाँ प्राचीन मंदिर समूह है, आप सही जगह पहुंच गए। मंदिरों को देखना चाहिए। हमने होटल वाले से पूछा तो उसने अपना एक बंदा साथ कर दिया। वो हमें मंदिरो तक लेकर जाने के लिए तैयार हो गया। दही जलेबी का नाश्ता आनंददायक था। मैने भी दो जलेबियाँ खाई। 
द्वाराहाट में नाश्ता
होटल के भीतर से होकर पिछवाड़े की गली में पहुंचे, एकदम शार्ट कट रास्ता था। फ़िर थोड़ी सी चढाई चढ़ते हुए मंदिर समूह तक पहुचे। यहाँ कई मंदिर समूह हैं, पर समयाभाव के कारण हमने दो ही देखे। हम जहाँ पहुचे यह कचहरी मंदिर समूह था। सेंड स्टोन से निर्मित यहाँ सात मंदिर हैं। इनके समक्ष एक कुंआ भी है। सभी मंदिरों के गर्भगृह पृथक है, परन्तु चार मंदिरों का मंडप संयुक्त है। 
कत्युरी काल में निर्मित कचहरी मंदिर समूह द्वाराहाट
इसके बाद एक मंदिर मंडप विहीन है। इनसे लगा हुआ एक बड़ा मंदिर मंडप युक्त है तथा एक मंदिर इनकी पंक्ति से अलग बना हुआ है। मंदिरों की भित्तियां साधारण हैं, इन पर प्रतिमा अलंकरण दिखाई नहीं देता। यहां कई आमलक भूमि में पड़े हुए दिखाई देते हैं। जिससे प्रतीत होता है कि अन्य मंदिर भी रहे होंगे। 
कत्युरी काल में निर्मित कचहरी मंदिर समूह द्वाराहाट
समय कम था, इसलिए अगले मंदिर समूह में पहुंचे, इसे रत्नदेव मंदिर समूह कहा जाता है। यह मंदिर भी स्थापत्य के आधार पर कचहरी मंदिर समूह के काल ही दिखाई दे रहे थे। यहाँ संयुक्त मंडप एवं पृथक गर्भगृह के तीन मंदिर एक पंक्ति में है। चौथा शिखर विहीन इनसे पृथक है तथा एक मंदिर शिखर युक्त है, परन्तु इसका मंडप विहीन है। यह मदिर पंचायतन शैली में निर्मित हैं। इन मंदिरों की भित्ति पर भी कोई अलंकरण नहीं है। 
कत्युरी काल में निर्मित रत्नदेव मंदिर समूह द्वाराहाट
देख कर प्रतीत होता है कि यहाँ इसी तरह के मंदिरों के निर्माण का चलन था। इन मंदिरों का निर्माण कत्युरी राजाओं ने करवाया था। कत्युरी शासन का काल छठवीं शताब्दी से ग्याहरवीं शताब्दी तक माना गया है। माना जाता है कि ये अयोध्या के शालिवाहन शासकों के वंशज थे इसलिए सूर्यवंशी कहलाते थे। यहाँ अन्य मंदिर समूह भी हैं, परन्तु समयाभाव के कारण वहां तक नहीं पहुंच पाए।
दूनागिरि माता मंदिर
द्वाराहाट से एक मार्ग दूनागिरि होते हुए कुकुचीना पहुंचता है। दूनागिरि से पहले हमारी गाड़ी पंचर हो गई। सड़क के किनारे लगाकर टायर बदला गया। इसके बाद आगे बढे। एक बजे के आस पास हम कुकुचीना पहुंच गए थे। वैसे तो यह छोटी बस्ती है, परन्तु पाण्डूखोली के कारण प्रसिद्ध हो गई है। यहाँ ठहरने के लिए जोशी का पेईंग गेस्ट हाऊस है। हमने यहाँ पहुच कर खाना खाया और पाण्डू खोली की ओर बढ गए। पाण्डू खोली का रास्ता कच्चा एवं सकरा है। यह ग्राम रतखाल ग्राम पंचायत के अधीन है। घाटी में लगभग चार किमी उतरने के बाद पाण्डू खोली की चढाई शुरु होती है।
पाण्डू खोली के रास्ते में लीला राम आगारी
जब हम गाड़ी खड़ी करके आगे बढ रहे थे तो किसी ने आवाज दी कि इधर से जाईए, शार्ट कट है। हम ऊपर चढे तो एक झोंपड़ी दिखाई दी। यहाँ कुछ लोग बैठे भी दिखाई दिए। यहां पहुंचने पर पता चला कि पाण्डू खोली के लिए तो काफ़ी चढना पड़ेगा तो मैने मना कर दिया। बाऊजी और भाई साहब दोनो आगे बढ गए। मैं झोपड़ी मालिक के पास ही रहा। आस पास के नजारों की फ़ोटो खींचते रहा। यहाँ फ़ूल, चिड़िया, पलुम और आड़ू के पेड थे। किसी तरह समय व्यतीत करने की कोशिश जारी थी। जब हम यहाँ पहुंचे तो तीन बज रहे थे। 
पाण्डू खोली द्वार पर सुभाष शर्मा जी
झोंपड़ी वाले ने चाय पिलाई, इस बंदे का नाम लीलाराम अगारी था। यहाँ पत्नी एवं बच्चों के साथ निवास करता है तथा पाण्डू खोली जाने वालों के मार्ग दर्शन के साथ उन्हें भोजन आदि की सुबिधाएं भी मुहैया कराता है। इसके एवज में लोग जो दे दे, वह ले लेता है। कोई माँग नहीं करता। इसके साथ काफ़ी चर्चाएँ हुई, इस इलाके के भूगोल से लेकर इतिहास एवं संस्कृति तक। 
कुकुछीना का मार्ग 
इनका पैतृक गाँव द्वारा हाट के पास है, जहाँ इसका कुटुम कबीला रहता है। सांझ हो रही थी और बरसात भी शुरु हो गई। मेरी निगाहें पहाड़ी रास्ते की तरफ़ थी कि कब ये लोग लौटें। बरसात में भीगने के बाद ठंड लगने का भी खतरा था। आखिर साढे छ: बजे तक हमारे साथी लौट आए। आते ही कहा कि अच्छा हो गया, आप नहीं गए।
कुकुछीना में जोशी का गेस्ट हाऊस
सबने चाय पी और गेस्ट हाऊस की ओर लौट गए। जोशी ने गेस्ट हाऊस में कई कमरे बना रखे हैं। जिनमें पलंग गद्दों के साथ रजाई का भी प्रबंध है। यहां बिना रजाई के तो सोना मुश्किल है। रात को उसने खाना रुम में ही खिला दिया। बिजली नहीं थी, दो दिन पहले आए तूफ़ान में लाईन में समस्या हो गई। एकदम लो वोल्टेज में बल्ब जल रहा था। मेरे पास टार्च भी थी। आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी किया जा सकता था। 
कुकुछीना से आगे प्रस्थान सुभाष शर्मा जी, संजय अनेजा एवं जोशी जी
शायद आज पूर्णिमा थी, इसलिए चाँद अपनी पूरी रौनक पर था। मुझे बुलाकर भाई साहब ने चाँद की फ़ोटो खींचने कहा। चाँद की कुछ फ़ोटो लेकर हम सो गए। अगली सुबह नाश्ते के वक्त जोशी जी को पेमेंट पूछी तो कहने लगे, जो देना है दे दो। हमने तो आपकी सेवा के लिए इंतजाम कर रखा है। भाई साहब ने कुछ हिसाब करके उन्हें दो हजार रुपए दिला दिए। अब हम यहां से आगे चल पड़े। जारी है आगे पढें

शनिवार, 30 जुलाई 2016

कुमाऊँ की सैर पर त्रिदेव

अजंता एलोरा एक बाद पुन: देखने का मन था। बाईस बरस पहले सरसरी तौर पर देखा था, अब अध्ययन की दृष्टि से देखना था। दस मई तारीख तय हुई, परन्तु उस इलाके में पानी की बहुत किल्लत हो गई थी, मित्र से पता चला कि चार दिन में पानी आ रहा है और मेरे पहुंचते तक हो सकता है हफ़्ते भर में आने लगे। पानी की किल्लत के कारण इस यात्रा को दिसम्बर तक स्थगित किया गया। एक दिन फ़ेसबुक मनु त्यागी ने पोस्ट लगाकर बताया कि 21 मई लेह लद्दाख का बाईक टूर बन रहा है। बस मैने हामी भर दी और तैयारी शुरु कर दी। 
रायपुर के तेलीबांधा तालाब पर फ़हराता राष्ट्रीय ध्वज
पहाड़ी सफ़र में हमेशा कम से कम एवँ कम वजन का सामान होना चाहिए। यात्रा के लिए मैने तत्काल पोस्ट पेड सिम खरीदा और उसे चालु करवाया, पैराशुट के कपड़े के दो लोवर, एक हाफ़पेंट, विंडचीटर, दो काले गॉगल, दस्ताने और भी बहुत कुछ खरीदा। रास्ते के लिए दवाईयाँ, खाने का पौष्टिक सामान भी आ गया। जैसे ही सफ़र के लिए निकलने की तारीख आई, वैसे ही शारीरिक व्याधि दिखाई देने लगी। अब आखरी क्षणों में यात्रा स्थगित करने की नौबत आ गई। मैने फ़ोन करके मनु को वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए अपनी लेह लद्दाख यात्रा स्थगित कर दी। परन्तु दिल्ली की टिकिट कैंसिल नहीं हुई थी। अब उसका उपयोग अन्य किसी स्थान के लिए किया जा सकता था।
रायपुर रेल्वे स्टेशन से प्रस्थान
गाजियाबाद वाले सुभाष शर्मा जी ने कहा कि चलो आपको कुमाऊँ घूमा लाता हूँ। बस बात बन गई। 20 तारीख को सुबह कुमाऊँ के लिए निकलना तय हो गया। मैं निर्धारित तिथि पर दिल्ली पहुंच गया। गोंडवाना थोड़ी विलंब से पहुंची। दिल्ली पहुंचने पर सुभाष शर्मा जी ने फ़ोन पर बताया कि सरायकाले खाँ से गाजियाबाद के लिए बसें चलती है। उससे आप गाजियाबाद आ जाओ और बस स्टैंड के पास छोटा सा मंदिर है, वहाँ मिलो। संजय अनेजा जी भी वहीं पहुंच रहे हैं, साथ चलेगें। सरायकाले खाँ पे गाजियाबाद की बस लगी थी, तुरंत चढ गया। उसने 30 रुपया किराया लिया गाजियाबाद का। यह सीधे रस्ते से चलने की बजाए कई कालोनियों से घूम कर गाजियाबाद पहुंचा और ओव्हर ब्रिज के नीचे सवारियों को उतार दिया। लगभग ग्यारह बज रहे थे।
ब्रजघाट में संजय अनेजा जी के साथ गंगा स्नान
संजय अनेजा जी भी पहुंच चुके थे, उनसे फ़ोन पर बात हुई तो उन्होनें बस अड्डे के गेट के सामने खड़ा होना बताया। मैं वहां तक पहुंचा और बाऊ जी मिल गए। आगे से पोस्ट में अनेजा जी को बाऊ जी एवं सुभाष शर्मा जी को भाई साहब संबोधित किया जाएगा। सूरज बहुत अधिक तप रहा था और स्नान करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। मन हो रहा था कि जितनी जल्दी हो सके हो सके डुबकी लगा ली जाए तो ठीक रहेगा। भाई साहब को आने में विलंब हो रहा था। हमने एक चाय पी, तब तक भाई साहब भी आ गए। पान बनवाए गए और सीधे ही सफ़र पर निकल लिए। तय हुआ कि स्नान ब्रजघाट गढ़ गंगा में किया जाएगा। 

जिम कार्बेट पार्क रामनगर के द्वार पर त्रिदेव
दोपहर लगभग एक बजे हम ब्रजघाट पहुंच चुके थे।  सीधे घाट पर जाक पहला काम स्नान करने का किए। बाऊ जी और हम गंगा नहाने का पुण्य कमाए और भाई साहब फ़ोटो खींचते रहे। इसके बाद भोजन करना था। हाईवे थोड़ा आगे बढने पर एक ढाबे पर गाड़ी लगाई और भोजन किया। इसके बाद सपाटे से आगे बढते रहे। मुझे नहीं मालूम था कि कहाँ जाना है, कहाँ रुकना है। जब जानकार साथ हो तो क्या सोचना। रामनगर के पास पहुंच कर कुछ फ़ल लिए, जिसमें एक मतीरा और कुछ लीची और केले थे। मतीरा तो हमने रख दिया, केले और लीची का सेवन किया।
रानी खेत का रिसोर्ट जहाँ हमने रात गुजारी
शाम साढे पाँच बजे हम कार्बेट नेशनल पार्क के गेट पर थे। यहाँ से फ़ेसबुक मित्र गोविंद पाटनी जी को फ़ोन किया। तो उन्होने कहा कि आप आगे बढ चुके हैं। आगे बढने के बाद लौट कर आना नहीं जमता। कार्बेट नेशनल पार्क से घुमावदार पहाड़ी रास्ता शुरु हो गया। इसके बाद सपाटे से गाड़ी चलती रही। भाई साहब इन सड़कों से अच्छी तरह परिचित लगे। उन्होने बताया कि उनका जब मन हुआ तब मोटरसायकिल लेकर इन पहाड़ों में आ जाते थे। वैसे दिल्ली वालों को पहाड़ों तक आने में अधिक समय नहीं लगता। वो हम जैसों को पहले दिल्ली तक 13 सौ किमी चलकर आना पड़ता है। सारी कसर इसी में निकल जाती है। इनकी ड्राईविंग की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है। खास कर पहाड़ी रास्तों पर।

आगे की यात्रा के पूर्व सेल्फ़ी
लगभग साढे आठ बजे हम रानीखेत पहुंचे तब पता चला कि आज की रात यहीं रुकना है। हल्की-हल्की बरसात हो रही थी। आधा घंटा हो गया ठहरने का ठिकाना ढूंढते, पर बंगाली पर्यटकों के कारण सभी होटल पैक थे। कहीं भी रुम नहीं मिल रहा था। फ़िर एक लड़का आया, उसने कहा कि कलावती रिसोर्ट में एक रुम मिल जाएगा। यह 6 किमी है, मारुति के शो रुम के पास। खाना भी मिल जाएगा वहीं। रुम का किराया 1800 बताया। हमने मान लिया और शहर से पहुंच गए रिसोर्ट में। पहुंचते ही बरसात जोर से शुरु हो गई। खाना उन्होने रुम पर ही खिला दिया। ठंड सी थी, इसलिए कम्बल ओढने पड़े। 
रास्ता बताते हुए सूचना फ़लक
आज जुलाई की 21 तारीख थी। सुबह 6 बजे नींद खुल गई, कलावती रिसोर्ट पहाड़ी की ढलान पर अच्छे स्थान पर है। उठने के बाद थोड़ी देर आस पास के लैंड स्केप का मजा लेते रहे। मैने चिड़ियों एवं फ़ूलों के कुछ फ़ोटो खींचे। इसके बाद स्नान करके रिशेप्शन पर पहुंचे तो होटल मालिक ने अधिक पैसे बताए। कुछ टैक्स के कुछ चद्दर धुलाई के, कुछ सफ़ाई के आदी जोड़ कर 24 का हिसाब बना दिया। भाई साहब ने कहा कि आपके आदमी ने रात को 1800 कहे थे, अब आप 2400 बता रहे हो। तो वो बोला- मैं उस लड़के का बाप हूँ। उसको हिसाब किताब नहीं मालूम। मैने कहा कि आप तो ग्राहक के साथ बड़ी धोखाधड़ी कर रहे हो। बोलो कुछ और करो कुछ। वैसे भी मैं ट्रेवल राईटर हूँ, आपकी कारस्तानी गुगल पर जिन्दगी के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगी और सालाना तुम्हारे 50 ग्राहक तो बिदका ही सकता हूँ ये मानकर चलो। तब जाकर कहीं वो सरेंडर हुआ। कार्ड देते हुए बोला - अच्छा लिखना सर।  जारी है पढ़ें 

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

संगोष्ठी के बाद घुमक्कड़ मिलन एवं डेरे की ओर मुसाफ़िर

उज्जैन कुंभ में सिहंस्थ के अवसर पर मौन तीर्थ सेवार्थ फ़ाऊंडेशन, राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना एवं अक्षरवार्ता शोध पत्रिका के तत्वाधान में सार्वभौमिक मूल्यों के प्रचार प्रसार में साहित्य, संस्कृति और धर्म-अध्यात्म की भूमिका विषय पर गहन मंथन करने के लिए 8 मई को शोध संगोष्ठी का आयोजन मंगलनाथ जोन, गंगाधाट स्थित चित्रकूट सभा भवन में किया गया था। जिसमें संगोष्ठी का लाभ उठाने के लिए डॉ शैलेन्द्र शर्मा जी ने मुझे भी आमंत्रित किया था। इस अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश-विदेश के विद्वानों के उपस्थित होने की सूचना भी थी। रात को बिकाश शर्मा का भी फ़ोन आया कि वो भी सुबह तक उज्जैन पहुंच रहा है। हमने उसे संगोष्ठी स्थल पर ही बुला लिया था।
मंगलनाथ जोन की ओर जाते हुए भीड़
सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर हम गंगाघाट के लिए पैदल निकल लिए। पैदल इसलिए कि कोई साधन नहीं था और हमें भी पता नहीं था कि गंगाघाट कहाँ पर है। पूछताछ करने पर पता चला कि हमारे डेरा से लगभग सात किमी की दूरी पर है। श्रद्धालुओं की भीड़ इतनी अधिक थी कि वाहन से चलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम पैदल चल रहे थे और आसमान तपने लगा। गर्मी और पसीने से बुरा हाल हो रहा था। भीड़ की स्थिति देखकर आयोजकों को भी फ़ोन करके गाड़ी भेजने की कहने में संकोच हो रहा था। जैसे तैसे करके एक छोटा हाथी मिला। उसने पुल तक छोड़ दिया और रास्ता बता दिया। 
बिकाश शर्मा के साथ संगोष्ठी स्थल पर
पुल से भी दूरी तीन किमी से अधिक थी, जितनी दूर तक पैदल चला गया, उतना चले। फ़िर एक ऑटो दिखाई दिया, उससे पूछे तो उसने मना कर दिया। फ़िर एक मियां का ऑटो मिला, वो बोला पचास रुपए में पहुंचा दुंगा। उसने ठिकाना पता किया, लोगों ने सांदीपनी आश्रम के आगे बताया। ऑटो वाला हमें ठिकाने तक पहुंचा गया। गंगा घाट पर भी स्नानार्थियों का मेला लगा हुआ था। लोग राम घाट से स्नान करके गंगाघाट पहुंच रहे थे। यही पर चित्रकूट भवन एव सभागार बना हुआ है। यहां पहुंचने पर हमारी भेंट डॉ प्रभु चौधरी से हुई। उस समय वही यहां पहुचे थे, फ़िर कुछ अन्य स्थानों से शोधार्थी भी आए।
उद्घाटन भाषण देते हुए शैलेन्द्र शर्मा एवं मंचासीन अतिथि
कार्यक्रम का शुभारंभ केन्द्रीय मंत्री श्री थावरचंद गहलोत जी को करना था। तय समय से एक घंटा विलंब से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। मंत्री जी ने सधे हुए शब्दों में उपरोक्त विषय पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और समारोह प्रारंभ हो गया। डॉ शैलेन्द्र शर्मा जी ने मेरा परिचय मंत्री जी से करवाया। बिकास शर्मा ने मौके का लाभ उठाते हुए फ़ोटो खिंचवा ली। मामला फ़िट हो गया। कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद दो सत्र चले और फ़िर आश्रम के अन्न सत्र में ही सभी ने भोजन किया। इसके बाद अंतिम सत्र में मुझे भी बोलने का मौका मिला। मैने भी उपरोक्त विषय पर अपनी बात रखी। इसके बाद समापन सत्र में किन्ही विशिष्ट अतिथि को आना था। सांझ ढल रही थी, इसलिए हम कार्यक्रम स्थल से निकल लिए।
सामाजिन न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत के साथ
बाहर निकलने पर देखा कि सड़क पर भारी भीड़ थी। आज की रात 9 तारीख का स्नान पर्व भी था, जिसमें संतों की रैली भी निकलनी थी। हमको एक ऑटो मिल गया, जिसमें हम तीनो लड लिए, पर मजाल है कि ऑटो अपने स्थान से सरक भी जाए। यहां से निकलने में हमें दो घंटे लग गए। ऑटो वाले ने उज्जैन की गलियों में घुमाकर हमें रामघाट के इस पार छोड़ दिया। चार किमी पैदल चलते हुए हम किसी तरह सदावल रोड़ पर स्थित अपने कमरे तक पहुंचे और आराम करने लगे। कुछ देर आराम करने के बाद सोनीपत वाले संजय कौशिक जी का फ़ोन आया। उनका दल कुंभ में पहुंच चुका था और मिलना चाहते थे। मैने अपना पता बता दिया। पर नया स्थान होने के वजह से उनके ठहरने के स्थान से अपनी दूरी नहीं बता सका।
मंच से संगोष्ठी में सहयोग
फ़िर भी वे व्यस्तता के बीच कुछ समय चुरा कर मेरे पास सात बजे पहुंच गए। उनको भी आज रात की ट्रेन से निकलना था। हमने भी प्लान बना रखा था कि रात की ट्रेन से निकल कर भोपाल पहुंच जाएगें और वहाँ  से कोई दूसरी ट्रेन से घर तक निकल जाएंगे। संजय कौशिक जी के साथ, सचिन जांगड़ा जी, हरेन्द्रर धर्रा जी, डॉ सुमीत शर्मा जी भी पहुंचे थे। सारे घुमक्कड़ों से एक स्थान पर ही भेंट हो गई। खूब दिल से मिले और रज्ज के मिले। फ़िर उनके साथ कुछ फ़ोटोएं यादगार के लिए खिंचवाई गई। आठ बजे वे निकल गए। हम भी भोजन करके आराम करने लगे। नेट से पता चला था कि एक लोकल ट्रेन रात को सवा बारह बजे भोपाल के लिए निकलती है।
तृतीय सत्र के मंचासीन अतिथि
रात ग्यारह बजे हम छत्तीसगढ़ पेवेलियन से स्टेशन जाने के लिए निकले। अब गुगल मैप स्टेशन की दूरी छ किमी से अधिक बता रहा था। नित्यानंद के पंडाल से हम लोग हाथ ठेले पर बैठकर दो किमी दूरी तय किए। उसके बाद से सड़क से आगे बढ रहे थे तो रामघाट रोड़ पर पुलिस वालों ने रेल को किसी अन्य रोड़ की ओर मोड़ दिया। जैसे जैसे तारीख बदलना करीब आ रहा था स्नानार्थियों की भीड़ बढती जा रही है। पूछने पर पता चला कि ओव्हर ब्रिज से उतरने के बाद भूखी माता के करीब ही रेल्वे स्टेशन है। पता बताने वाले ने सरलता से बता दिया और हम चक्कर काटते जा रहे थे, लगभग पांच किमी चल लिए होंगे। अन्य कोई साधन दिखाई नहीं दे रहा था।
कुंभ में सांझ के समय स्नान पर्व की भीड़
एक स्थान पर बड़ी एस यू वी वाला सवारी बैठा रहा था, उससे चर्चा हुई तो वह सौ रुपए में हम तीनों को स्टेशन छोड़ने के लिए तैयार हो गया। उसे वहीं से होकर इंदौर जाना था। जब गाड़ी से चले तो हमें स्टेशन पहुंचने में आधा घंटा लग गया। पहुंच कर टिकिट लिए। प्लेटफ़ार्म खासी संख्या में पुलिस बल लगा था। पता चला कि सवा बारह बजे वाली गाड़ी कैंसिल कर दी गई है। फ़िर एक ट्रेन इंदौर तरफ़ से आई, उसमें बड़ी मुस्किल से हम चढ पाए। बिकास और मैं एक डिब्बे में चढ गए और अनुज किसी दूसरे डिब्बे में। जोड़ी बिछड़ गई, जैसे तैसे करके रात कटी और हम सुबह भोपाल पहुंचे। पैंरो में दर्द हो रहा था, देखा तो छाले हो गए थे रात को चलने के कारण।
भोपाल में घुमक्कड़ संजय कौशिक, ललित शर्मा, सचिन जांगड़ा, हरेन्द्र धर्रा
भोपाल पहुंचने पर एक बार फ़िर संजय कौशिक जी लोगों से भेंट हुई। हमने सबने एक साथ चाय पी। उनकी गाड़ी शाम को थी, उन्हें भोपाल घूमना था। हमारी गाड़ी तमिलनाडू एक्सप्रेस आठ बजे आने वाली थी। तमिलनाडू एक्सप्रेस के आते ही हम जनरल डिब्बे में सवार हो गए, इसका नागपुर और भोपाल के बीचे सिर्फ़ इटारसी में एक स्टापेज है, इसके भोपाल पहुंचने के बाद हमे तिरुनुवेल्ली से बिलासपुर जाने वाली गाड़ी डेढ बजे नागपुर से मिलनी थी और रात तक घर पहुंचना था। इटारसी में हमने भरपेट नाश्ता कर लिया और पानी बोतल ले ली। हमारी ट्रेन अब गंतव्य की ओर चल पड़ी थी……। इति कुंभ वार्ता:

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

मोक्ष-दायिनी सप्तपुरियों में से एक उज्जयिनी

आज 7 मई का दिन था, सुबह उठकर पुन: रामघाट की तरफ़ चल दिए। आज भीड़ कुछ अधिक दिखाई दे रही थी। सांझ के समय कुछ बारिश भी हुई थी, सो गरमी कम ही थी। स्नान ध्यान के पश्चात कुंभ का चक्कर काटते हुए लौट आए। उज्जैन नगरी को घूमकर देखने का काफ़ी दिनों से कार्यक्रम बन रहा था, परन्तु संयोग कुंभ में ही मिला। हमारे छत्तीसगढ़ से विवेक तिवारी भी कुंभ में नित्यानंद के पंथ दीक्षित बने हुए थे। वे भी मिलने के लिए आए और सांझ के समय हम सबने कुंभ स्थल का भ्रमण किया। अवन्ति की राजधानी उज्जैन होने का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। एक दृष्टि उज्जैन के इतिहास पर डाली जाए।
अनुज साहू, ललित शर्मा एवं विवेक तिवारी उज्जैन कुंभ
धार्मिक दृष्टि से मोक्ष-दायिनी सप्तपुरियों में उज्जयिनी गिनी जाती है। पुराणों एवं महाभारत के अनुसार इस नगर का अस्तित्व महाभारत युद्धों से भी पूर्व था। पुरातात्विक उत्खनन् इस नगर को लगभग 3000 वर्ष प्राचीन सिद्ध करते हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य का सृजन सांस्कृतिक वातावरण में हुआ। भारतीय संस्कृति की प्रशंसा न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी मुक्तकण्ठ से की गई है। इस विगत भव्य संस्कृति की झलक प्राचीन साहित्य के प्रत्येक पृष्ठ पर मिलती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति के केन्द्रभूत नगरों में उज्जयिनी नगरी का अपना विशिष्ट स्थान है। उज्जयिनी की प्राचीनता महाभारत आदि के वर्णन से, ईसा पूर्व 4000 वर्षों तक मानी जा सकती है। इतनी प्राचीन नगरी अपने परिवर्तित नामों के परिवेश में अनेक ऐतिहासिक उत्थान-पतन के बाद भी अचल रही है। 
उज्जैन नगरी का प्राचीन द्वार
उज्जयिनी का इतिहास अनेक राजवंशी के उत्थान-पतन का इतिहास है। इतिहास पूर्व युग में यह नगरी नाग सभ्यता का केन्द्र थी। इसके बाद यह वैदिक यदुवंश की हैहय शाखा के शक्तिशाली राजाओं की राजधानी बन गयी। महाभारत युद्ध में कौरवों को यहाँ के शासक विन्द-अनुविन्द ने सहायता दी थी।  प्रद्योतवंशीय राजाओं ने स्वतंत्र रूप से उज्जयिनी पर शासन किया, परंतु नन्द वंश के उदय ने उज्जयिनी को मगध साम्राज्य का अंग बना दिया। प्रद्योत देवी का उपासक था। बुद्ध धर्म के आराधकों में यहाँ के भिक्षु महाकात्यायन, सौण, अभय, भद्रकपिलानी, ऋषिदासी, देवी (अशोक की पत्नी), गोपाल माता, गणिका प्रज्ञावती आदि का नाम उल्लेखनीय है। विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रचारक में बुद्धकालीन काश्यप मातंग का नाम स्मरणीय है। ये उज्जयिनी के थे और इन्हें चीन के सम्राट ने निमंत्रित किया था।
उज्जैन नगरी की सैर
नंदों के विशाल साम्राज्य को नष्ट कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारतीय इतिहास में नये युग का निर्माण किया। संसार का प्रथम साम्राज्यवादी नीतिज्ञ चाणक्य चन्द्रगुप्त का आचार्य सहायक तथा मन्त्री था। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध राज्य पर अधिकार किया। चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने मगध पर अधिकार करने के लिए कूटनीति और युद्धनीति दोनों का सहारा लिया। चन्द्रगुप्त ने भारत के अनेक राष्ट्रों को अपने वश में कर एक साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त ने उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक शासन सूत्र में बांध-कर राजनैतिक एकता स्थापित की।
उज्जैन नगरी का राम घाट
चन्द्रगुप्त ने अवन्ति का शासन अपने पपौत्र अशोक को सौंपा। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने सिंहल देश जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। पाली त्रिपिटक को वे अपने साथ ले गये। महेन्द्र का लालन-पालन उज्जयिनी में हुआ था। उनकी भाषा अवन्ति की भाषा थी और उसी भाषा में उन्होंने वहाँ सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। स्वयं विश्व के सम्राट अशोक भी अपने यौवन के अति प्रारम्भिक काल से उज्जयिनी के राज्यपाल रहे। उन्होंने कुशल प्रशासन की शिक्षा इसी भूमि से ली। आज विश्व में प्रख्यात् सम्राट के रूप में उनका नाम लिया जाता है। बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में अशोक ने महत्वपूर्ण कार्य किए। अशोक स्तम्भ पर चक्र और सिंह मुद्रित है। भारतीय परम्परा में चक्र अध्यात्म भावना, जीवन की प्रगति तथा समदर्शिता का सूचक है। यह चक्रांकित मुद्रा उज्जयिनी की मानी जाती है।
उज्जैन नगरी के घाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़
अशोक द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म और सम्प्रति द्वारा प्रचारित जैन धर्म की प्रक्रिया के कारण यहाँ शुंग शासन में ब्राह्मण धर्म को पुनः प्रतिस्थापना मिली। वैदिक यज्ञ- यागां तथा देवताओं की पूजा-अर्चना के लिए शुंग शासकों ने प्रजा को प्रोत्साहित किया। शुंग काल में उज्जयिनी मगध साम्राज्य के द्वितीय श्रेणी के नगरों में परिगणित थी। शुंगकालीन उज्जयिनी का इतिहास स्पष्ट नहीं है। पुष्यमित्र ने अपना राज्य आठ पुत्रों में बाँट दिया था ऐसा वायुपुराण से स्पष्ट होता है। विदिशा पर उसका पुत्र अग्निमित्र राज्य करता था। सम्भवतः सम्पूर्ण मालवा प्रदेश भी उसके अधिकार में रहा होगा। ऐसा ज्ञात होता है। शुंग वंश का राज्यकाल 186-85 ई.पू. से 75 ई. पूर्व तक रहा। 
उज्जैन नगरी की सैर
शुंगो के पश्चात कण्व शासक आया और इसी समय दक्षिण की आन्ध्र-सप्तवाहन शक्ति उत्तर की और प्रभावकारी होने लगी। और शीघ्र ही मालवा-मानव जाति के गर्दभिल्ल के नेतृत्व में आ गया। इसी समय मालवा पर शकों का आक्रमण हुआ। शकों की कार्दमक शाखा के चष्टन ने मालवा पर अधिकार कर लिया। चष्टन ने एक राजधानी स्थापित की और साथ ही क्षत्रप वंश स्थापित किया, जो बिना किसी व्यवधान के ईसवी सन् चौथे दशक के आरम्भ तक चलता रहा। मालवा प्रान्त में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो कार्दमक की प्रभुसत्ता को चुनौती दे सके। शकों ने मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी राजपूताना के भागों से मिलकर बने अपने विशाल साम्राज्य पर उज्जैन से शासन किया। रूद्रसिंह तृतीय का उल्लेख अन्तिम शक शासक के रूप में आता है।
उज्जैन नगरी की सैर
विक्रमादित्य के काल में शैक्षणिक और साहित्यिक प्रगति चरम सीमा पर थी। इसका स्पष्ट प्रमाण उनके नवरत्न तथा अन्य साहित्यकार हैं। जिनके नाम हैं- धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटपरकर, कालिदास, वराहमिहिर, वररूचि, गुणाढ्य, हरिस्वामी, वात्स्यायन, व्याडि, भर्तृहरि आदि। यहाँ काव्यकारों की परीक्षा का केन्द्र था। उपर्युक्त विद्वानो के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि यहाँ वेद-वेदांग, धर्मशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, दर्शन, काव्य स्मृतिशास्त्र, नाट्यशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, कामशास्त्र, रसायनशास्त्र, आदि का अध्ययन अध्यापन होता था।
उज्जैन नगरी की सैर
यहाँ जैन और बौद्ध धर्मों की उपस्थिति तो थी और उसके अनुयायी भी थे परन्तु जो राजसम्मान सम्प्रति के समय जैन धर्म को एवं अशोक के समय बौद्ध धर्म को प्राप्त था वह इस समय नहीं था। चन्द्रगुप्त आदि गुप्त शासक सब धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। गुप्त काल में यहाँ कीक शिक्षा प्रणाली में प्रगति हुई। वराहमिहिर जैसे प्रख्यात ज्योतिषी इस युग के प्रमुख रत्न हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य, चित्र करने के लिए विदेश गए। उनमें धर्मरक्ष, उपशून्य, गुणभद्र, गुणराय, परमार्थ, श्रमण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस नगरी की समृद्धि और भव्यता से आकर्षित होकर विदेशी यात्री ह्वेनसांग, फाह्यान, इत्सिंग आदि यहाँ आये। इस तरह उज्जैन का गौरवमय इतिहास रहा है, यह सर्वकाल में सांस्कृतिक वैभव की नगरी रही है।  जारी है, आगे पढ़े…

बुधवार, 27 जुलाई 2016

उज्जैन कुंभ, क्षिप्रा नदी उत्पत्ति, स्नान महत्व पौराणिक आख्यान

आरंभ से पढें
उज्जैन कुंभ में आज हमारी दूसरी रात्रि गुजर रही थी, बिस्तर लेट हुए अनुज साहू जी के साथ प्रश्नोत्तरी जैसी ही चल रही थी। वे कुछ पूछते और मैं जवाब देता। उनके साथ सत्संग से ज्ञानरंजन हो रहा था। अनुज भाई भी हमारी बिरादरी के हैं अर्थात घुमक्कड़ प्रवृति के। कम से कम खर्च में अधिक से अधिक घुमक्कड़ी करते हैं। ठहरने के लिए बाबाओं के आश्रम एवं धर्मशालाओं के साथ भोजन के लंगर, भंडारे को प्राथमिकता देते हैं। लम्बी दूरी की यात्रा भी सामान्य डिब्बे में कर लेते हैं। इस तरह भारत के लगभग सभी प्रमुख तीर्थों की यात्रा कर चुके हैं। उन्होंने ने पूछा कि "कुंभ काबर होथे ग?" (कुंभ क्यों  होता है?)
उज्जैन कुंभ में संतों के पंडाल
मैने कहा कि  - कुंभ, सामान्य जन एवं साधू संतों के मिलन का स्थल है, जहाँ भक्त अपने गुरुओं के साथ मिलकर ज्ञानरंजन करते हैं और उनसे शास्त्र के उपदेश सुनकर अपने कंटकाकीर्ण जीवन को सफ़ल बनाते हैं। यह पर्व देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधता है। देखो यहाँ भारत के सभी प्रांतों के साधू संत एवं आम जनता पहुंची हुई है। विभिन्न संस्कृतियों, भाषा भाषियों का मिलन कुंभ में ही संभव है और इस आयोजन को प्रारंभ करने का उद्देश्य भी यही रहा होगा। आदि शंकराचार्य ने इस परम्परा को आगे बढाया वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी प्रमुख रहा है। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट
शास्त्रों ने कहा है कि - कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।  हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है। ब्रह्मा कहते हैं-हे मनुष्यों! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं। वस्तुतः वेदों में वर्णित महाकुम्भ की यह सनातनता ही हमारी संस्कृति से जुड़ा अमृत महापर्व है जो आकाश में ग्रह-राशि आदि के संयोग से मनाया जाता है। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट के पीपा पुल पर स्नानार्थी
उज्जैन के कुंभ ल सिंहस्थ काबर कहिथे? (उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ क्यों कहते हैं?) अनुज भाई ने पूछा। मैने कहा कि - शास्त्रों में इसके लिए शुभ लक्षण बताते हुए तिथि का निर्धारण किया गया है। जब बैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तिथि हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तभी उज्जैन में कुंभ भरता है। वृहस्पति के सिंह राशि में आने के कारण इसे सिंहस्थ कहा जाता है। अर्थात वृहस्पति का सिंह में स्थित हो जाना। मान्यता है कि इस दिन उज्जैन में क्षिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा लोग मोक्ष की कामना से उज्जैन में क्षिप्रा स्नान करते हैं। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट
क्षिप्रा की उत्पत्ति स्कन्द पुराण में वर्णन देखने से प्रतीत होता है कि पुराण के रचयिता या सम्पादक ने क्षिप्रा सम्बन्ध तत्युगीन प्रायः सभी प्रचलित मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में समाहित कर लिया था। सम्भवतः यही कारण है कि पुराण में क्षिप्रा उत्पत्ति सम्बन्धी आख्यान एक नहीं अनेक हैं। उत्पत्ति सम्बन्धी गाथाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न है- एक समय शिवजी ब्रह्म-कपाल लेकर भिक्षार्थ भगवान विष्णु को अँगुली दिखाते हुए भिक्षा प्रदान की। शंकर यह सहन न कर सके और उन्होंने तत्काल ही अपने त्रिशूल से उस अँगुली पर प्रहार कर दिया, जिससे रक्त धारा प्रवाहित होने लगी। वही धारा क्षिप्रा नदी के रूप में प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार त्रैलोक्य पावनी क्षिप्रा बैकुण्ठ से अद्भुत हो तीनो लोकों में प्रसिद्ध हो गई।
शिप्रा किनारे स्नान घाट पर भक्तों का उमड़ता रेला
नदी के तट पर उज्जैन नगर बसा होने से विशेष पवित्र माना जाता है। क्षिप्रा का ऐसा महत्व है कि इसके समान पावन करने वाली कोई नदी नहीं है और दूसरा स्थान नहीं है। उज्जयिनी में 12 वर्ष में एक बार सिंहस्थ कुम्भ महापर्व का मेला क्षिप्रा तट पर लगता है। उस समय शिप्रा स्नान का विशेष महत्व वर्णित है। क्षिप्रा मालव देश की सुप्रसिद्ध और पवित्र नदी है। तेज बहने वाली नदी होने के कारण इसका नाम क्षिप्रा पड़ा। स्मृतियों पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों में तो नारायण शब्द के मूल में जल की स्थिति ही प्रतिपादित की गई है। ऐसी ही शान्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाली तथा संस्कृति का इतिहास रचने वाली नदी है ’क्षिप्रा’। जिसके सम्बन्ध में समुचित ही कहा गया है- क्षिप्रायाश्च कथां पुण्यां पवित्रं पापहारिणीम्। यह पवित्र नदी वैकुण्ठ में क्षिप्रा, स्वर्ग में ज्वरन्ध्री, यमपुरी में पापाग्नि तथा पाताल में अमृतसम्भवा वराह कल्प में ’धेनुजा’ नाम से विख्यात है।
शिप्रा किनारे स्नान घाट पर जल शुद्धि उपकरण
शास्त्रों में कुंभ स्नान करने के फ़ल भी बताए हैं, आज तो हमारे पास तीव्रगामी आवागम के साधन हैं, परन्तु सहस्त्रों वर्षों पूर्व लोग दूर-दूर से कई महीनों तक की कठिन पद यात्रा करते हुए कुंभ स्थल तक पहुंचते थे और कुंभ पर्व में सम्मिलित होते थे।  विष्णु पुराण में कुम्भ के महात्म्य के संबंध में लिखा है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञों का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल होता है, वही फल कुम्भ के केवल एक स्नान का होता है। इस तरह हमें चर्चा करते हुए नींद आ गई…… जारी है आगे पढें……

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

तलवार भांजते नागा साधू : उज्जैन कुंभ

सुबह छ: बजे निवृत हो कर हम पैदल ही राम घाट की ओर चल दिए। कुंभ में ऑटो एवं रिक्शा बंद थे, इनकी जगह पर हाथ ठेले पर लोग जा रहे थे। हाथ ठेले वाले सत्तर से सौ रुपए तक सवारियों की संख्या के आधार पर ले रहे थे। हम पैदल-पैदल फ़ोटो खींचते हुए चल रहे थे। सड़क के दोनो तरफ़ साधूओं ने अपने पंडाल लगा रखे थे। किन्हीं ने चेले-भक्तों के लिए कूलर एवं एसी युक्त झोंपड़ियां बना रखी थी और आम चेलों के पंडाल था। नागा साधूओं ने अपने धूने बाल रखे थे। जहाँ से भभूत लगा कर एकदम चौकस भक्तों की बाट जोह रहे थे। कहीं पर नागाओं के धूने में सुबह-सुबह चिलम सेवा चल रही थी। जहाँ चिलमची भक्तों का डेरा लगा था।
कुंभ स्थल उज्जैन की सुबह
हम रामघाट के समीप पहुंचे तो पंचायती दशनाम अखाड़े के सामने अचानक ट्रैफ़िक रोक दिया गया। सड़क के दोनो तरफ़ बैरिकेट लगा दिए। कुछ साधू एवं नागा साधू भाले एवं तलवार लेकर भांजने लगे और जनता तो डरा कर रोकने लगे। एक दो पुलिस के इंस्पेक्टर दांत निपोरते हुए खड़े। दोनो तरफ़ हजारों की संख्या में जनता जुट गई। हमको भी कुछ समझ नहीं आया क्या हो रहा है। थोड़ी देर बाद पता चला कि किसी ने अखाड़े के सामने सड़क पर कचरा फ़ेंक दिया। जिसे उठाने की मांग लेकर नागाओं ने चक्का जाम कर दिया। रास्ता न खुलते देख हमने स्थानीय लोगों से पूछताछ कर रास्ता बदल दिया। आधा किमी का चक्कर काटकर दूसरी तरफ़ से स्नान घाट पहुंचे।
नागाओं द्वारा चक्का जाम
स्नान घाट पर स्नानार्थियों का रेला लगा हुआ था। नर-नारी, वृद्ध-बाल सभी घाटों पर स्नान कर रहे थे। हमने भी एक सुरक्षित स्थान देख कर स्नान करने के लिए कपड़े उतार कर घाट पर रखे। एक पुलिस वाला बार बार सबको चेता रहा था कि अपने कपड़ों का ध्यान रखें, पलक झपकते ही गायब हो जाते हैं, अब हम दोनो एक साथ स्नान नहीं कर सकते थे। एक स्नान करे और दूसरा कपड़ों की रखवाली करे। तभी दोनो का स्नान संभव है। पहले मैने डुबकी लगाई, कई डुबकियां लगानी पड़ी, जिन-जिन ने कहा था, उनके नाम की भी लगा ली। फ़िर अनुज साहू जी ने स्नान किया। इस तरह दोनों का स्नान हो गया। 
कुंभ स्थल में नागा साधू
यहाँ से हम महाकालेश्वर दर्शन करने पहुंचे तो देखा एक बड़ा रेला धक्का मुक्की करते हुए आगे बढ रहा था। पता चला कि ये लोग परकम्मा करके आए हैं। भीड़ इतनी थी कि धक्के से कोई अगर गिर जाए तो कईयों की लाश ही मिले। हमने एक स्थान पर चप्पल जमा किए, यहां नि:शुल्क का बोर्ड लगा था। भीड़ के बीच कुछ दूर तक गए तो धक्का मुक्की अधिक बढ गई थी। तभी छोटे भाई का मेसेज वाटसएप पर दिखा कि - धक्का मुक्की से दूर रहना। बस हम वहां से लौट गए, लौटने में भी पसीने छूट गए। चप्पल वापिस लिए तो नि:शुल्क सेवा वाले ने दस रुपए ले लिए। ऐसी फ़र्जी सेवा हो रही थी। धूप बढने लगी तो हम वापस अपने डेरे पर लौट आए। नाश्ता करके आराम करने लगे। अब शाम को ही कहीं जाएंगे।
कुंभ स्नान का लाभ
दोपहर भोजन करके नींद भांजी और शाम को फ़िर कैमरा धर के निकल लिए। कुंभ में नित्यानंद का जोर दिखाई दे रहा था। स्टेशन से लेकर सारे कुंभ में इसके ही फ़्लेक्स बैनर दिखाई दे रहे थे। समीप ही मीना बाजार भी लगा हुआ था। हम पैदल पैदल नित्यानंद के पंडाल पहुंचे। यहां खूब भीड़ थी। इसकी भव्यता देखते ही बनती थी, दो हजार चेले चेली विदेशी इकट्ठे कर रखे। उन्हें ही देखने लोगों की भीड़ लगी हुई थी। मेले ठेलों एवं मंदिरों में सबसे बड़ी समस्या जूते चप्पलों की होती है। कहीं पर आपने छोड़े और गायब होने में मिनट भी नहीं लगता। फ़िर जब तक जूते चप्प्लों की दुकान न मिले तब तक नंगे पैर ही घूमना पड़ता है। यह सोच कर हमने भीतर प्रवेश करना त्याग दिया।
नित्यानंद का भव्य पंडाल
छत्तीसगढ़ पेवेलियन में सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। हम कार्यक्रम देखने बैठ गए। आज भी पंडवानी चल रही थी, पर कलाकार बदल गए थे। कुछ जान पहचान के लोग मिले। वे भी कुंभ स्नान के लिए आए थे। भोजन करने पहुंचे तो आज रसोईए ने चावल बिगाड़ दिए थे, मतलब गीले कर दिए थे, पूछने पर कहने लगा कि लोग कहते हैं चावल सूखे लगते हैं इसलिए आज गीले बनाए। मैने पूछा कौन लोग कहते हैं तो उसने नाम नहीं बताया। मतलब वह अपनी गलती लोगों के सिर पर मढ रहा था। छत्तीसगढ़ चावल खाने वालों का प्रदेश है और यहाँ कभी चावल गीले नहीं बनाये जाते। मैंने उसको खूब डांटा। अगले दिन से रसोईया बदल गया। भोजन करने बाद हम रुम में आ गए। दिन में सो लिए थे तो रात अनुज भाई के साथ चर्चा जारी थी…… जारी है आगे पढें…

सोमवार, 25 जुलाई 2016

कुंभ दर्शन की अभिलाषा लिए उज्जैन की ओर

हिन्दु धर्म में कुंभ मिलन को महत्वपूर्ण माना गया है। यह नदियों के तट पर भरता है और लाखों करोड़ों श्रद्धालु मिलन एवं स्नान का आनंद उठाते हैं। यह परम्परा सहस्त्राब्दियों से जारी है। वैसे तो नदियों के तट पर हमेशा जाना होता है, पर कुंभ पर्व पर कभी नहीं पहुंच पाया था। विगत चार वर्षों से उज्जैन सिंहस्थ कुंभ की प्रतीक्षा कर रहा था कि कब हो और मैं इसमें सम्मिलित होऊँ। आखिर वो दिन आ ही गया। मध्य प्रदेश के उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ का आयोजन हुआ, इसकी व्यवस्था की खबरों पर मेरी निरंतर निगाह थी। साथी अनुज राम साहू जी को तैयार किया, वे भी साथ चलेगें ये तय हो गया। 
उज्जैन की ओर सुधीर पाण्डे जी के साथ
मैने उज्जैन  जाने के लिए बीकानेर एक्सप्रेस से टिकिट करवा ली थी। परन्तु आखिर तक बर्थ कन्फ़र्म नहीं हुई, चार्ट निकल गया। पर सीट नहीं मिली। बिना आरक्षण के मुझसे लम्बा सफ़र नहीं होता। लगभग 10 बजे कसडोल से सुधीर पाण्डे जी का फ़ोन आया। वे भी सपरिवार कुंभ जा रहे थे। उन्होने कहा कि चिंता न करें, हमारे पास तीन कन्फ़र्म बर्थ हैं, जैसे तैसे पहुंच ही जाएंगे। उनके इस आश्वासन से कुछ ढंढास बंधा। मैने कहा कि भाटापारा से ट्रेन में बैठते ही फ़ोन कर देना। जिससे हमें कोच एवं बर्थ नम्बर की जानकारी हो जाए। हम शाम को स्टेशन पहुंच गए और ट्रेन से उज्जैन से सुधीर जी के साथ कुंभ के सफ़र पर निकल लिए। 
सहयात्री अनुज साहू जी
रात को उन्होने एक सीट हमे दे दी, जिस पर मैं और अनुज भाई फ़िट हो गए और एक सीट पर माता जी, एक सीट पर वे दोनो पति पत्नी एडजेस्ट हो गए। कुंभार्थियों को एक सीट देकर उन्होने यहीं से कुंभ स्नान का पूण्य प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया। सुबह हुई, गाड़ी धीरे धीरे सरकते हुए बढ रही थी, हम एक एक स्टेशन गिनते हुए दोपहर को उज्जैन पहुंचे। मैने उज्जैन पहुंचने से पहले वहाँ ठहरने के लिए दो तीन स्थानों पर व्यवस्थाएँ विकल्प के तौर पर कर रखी थी। पहला शैलेन्द्र शर्मा जी ने स्टेशन के सामने एक होटल बता रखा था, दूसरा हमारे संस्कृति विभाग का पंडाल था, तीसरा हमारे प्रदेश के जनसम्पर्क विभाग का डोम। ट्रेन से उतर कर सुधीर भाई तो रामघाट स्नान के लिए चल दिए, उन्हें आज शाम की इसी गाड़ी लौटना था। 
छत्तीसगढ़ का भव्य पेवेलियन
हम होटल पर पहुंचे, तो उसने एक कमरा दिखाया, जिसका किराया दो हजार प्रतिदिन का बताया। हमने शैलेन्द्र जी को फ़ोन किया, उन्होंने होटल वाले से बात की तब भी उसने किराया कम नहीं किया। हमको यहाँ सप्ताह भर रुकना था, अगर होटल लेते तो चौदह हजार रुपए तो सिर्फ़ किराया ही हो जाता और इतने रुपए हमें कहीं से नहीं मिलने थे। यहाँ उज्जैन की व्यवस्था के लिए संस्कृति विभाग के जोशी जी लगे हुए थे, उन्हें फ़ोन करते के साथ वे गाड़ी लेकर स्टेशन आ गए और हम सदावल रोड़ पर स्थित छत्तीसगढ़ सरकार के पेवेलियन की ओर चल दिए। सारा कुंभ उजड़ा हुआ था, पांच तारीख की शाम को भयंकर तूफ़ान आया था, जिसमें पंडाल और डोम उखड़ गए, कई कुंभार्थियों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ गया।
पंडवानी कार्यक्रम की प्रस्तुति
छत्तीसगढ़ पेवेलियन पहुंचने पर उप संचालक श्री दिनेश मिश्रा जी ने हमें प्लाई बोर्ड से बनी एक खोली दे दी। जिसमें एक कूलर, लाईट एवं आरो के पानी की व्यवस्था थी। परन्तु द्वार पर ताला नहीं था। कुंभ में अगर आपको सेप्रेट रुम मिल जाए, इससे बढकर कोई वीआईपी व्यवस्था नहीं हो सकती। यहाँ से रामघाट लगभग दो किमी की दूरी पर था। छत्तीसगढ़ सरकार ने यहाँ प्रदेश से कुंभ स्नानार्थियों के अच्छी व्यवस्था कर रखी थी। चार बड़ डोम बने हुए थे, जिसमें एक एक हजार आदमी आराम से रुक सकते थे। बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए बड़े जनरेटर लगे हुए थे। भोजन की भी उत्तम व्यस्था थी। एक पंडाल में यहाँ छत्तीसगढ़ पर्यटन एवं जनसम्पर्क की फ़ोटो प्रदर्शनी लगी थी, साथ ही शाम 6 बजे से छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रति दिन आयोजन हो रहा था।
कलाकार की एक भंगिमा
हम स्नानाबाद से लौट कर तैयार हुए, आज तो सिर्फ़ यहीं आस पास घूमना था। पंडाल के बाहर एक चक्कर काट कर आए तब तक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रारंभ हो चुके थे। आज पंडवानी का आयोजन था, जो हमारे प्रदेश में महाभारत को काव्य रुप में परम्परागत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम के पश्चात भोजन किया और रुम में आ गए। पर यहां मच्छरों की भरमार थी, मिश्रा जी से निवेदन करके इसमें हिट का स्प्रे करवाए। जिसके बाद ही आराम से सो सके। वरना सारी रात मच्छरों के बीच गुजारना कठिन हो जाता और मलेरिया लेकर घर लौटते। जारी है आगे पढें…।

रविवार, 24 जुलाई 2016

कुल्टी मदद फ़ाऊंडेशन पश्चिम बंगाल में एक दिन

सांसद जी से विदा लेकर आगे के कार्यक्रम के लिए चिरकुंडा होते हुए बराकर के लिए चल पड़े। इस यात्रा मे बिकास बाबू की भूमिका महत्वपूर्ण रही और धनबाद के सर्वमाननीय पत्रकार साथी मृत्यूंजय पाठक जी का भरपूर सहयोग मिला। संझा झमाझम बारिश हुई। .आज बंगाल झारखंड यात्रा का छठवां दिन था। चिपचिपाती उमस भरी गरमी से निजात पाने वतन वापसी का भी दिन था। बराकर के पास के ही कस्बे से एक इंस्ट्यूट द्वारा आमंत्रण प्राप्त हुआ था कि उनके संस्थान मे नये मीडिया पर कुछ बोलना है। सुबह नौ बजे की ट्रेन पकड कर हम कुल्टी पहुंच गये। यह कस्बा आसनसोल के समीप ही माना जा सकता है।
कुल्टी स्टेशन पश्चिम बंगाल
इस स्थान पर हमारी भेंट रबिशंकर चौबे जी से हुई। चौबे जी पेशे से पत्रकार हैं और समाजिक सरोकार रखते हुए कुल्टी मदद फाऊंडेशन चला रहे हैं। जीजिविषा के लिए फोटो स्टेट टायपिंग इत्यादि का कार्य भी करते हैं। ये कहते हैं कि यह इलाका काफी पिछड़ा हुआ है और लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे भी नही रहते। इसके कारण बालिका शिक्षा के प्रति लोग अधिक ध्यान नही देते। परिस्थतियों को देखते हुए सिलाई मशीन प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया इसके लिए घर की सिलाई मशीन उठाकर लाई गयी। फिर कम्प्यूटर लाए गये और कई बैच मे प्रशिक्षण कार्य प्रारंभ हुआ। 
रविशंकर चौबे जी एवं महादेव लाल जी के साथ चर्चा
पाँच वर्षो मे लगभग 2000 महिलाओ को इस संस्थान द्वारा रोजगार के लिए प्रशिक्षित किया जा चुका है। जिसमे मेंहदी, ब्यूटी पार्लर कोर्स, कम्प्यूटर, सिलाई प्रमुख है। सुबह बच्चों की शैक्षणिक समस्या को दूर किया जाता है, उसके बाद कालेज के बच्चों को अंग्रेजी प्रशिक्षण दिया जाता है। उसके बाद सिलाई की क्लास एवं सांझ को सेवानिवृत वृद्धों की महफिल जमती है। उनके लिए छोटी सी लायब्रेरी है जिससे उनका समय व्यतीत हो जाता है और बहू-पतोहू आदि के ताने खाने से राहत मिल जाती है।
कुल्टी फ़ाऊंडेशन के सदस्यों के साथ
इस सेवा कार्य के लिए धन की व्यवस्था संस्था के 8-10 सदस्य हजार पांच सौ की अपनी मासिक हिस्सेदारी से करते है। कोई भी सरकारी सहायता नही लेते। हमने 2 घंटे इन बच्चों के साथ गुजारे। बच्चो की जिज्ञासा देखकर अच्छा लगा। सभी ने धैर्य लगाकर सुना एवं प्रश्न भी किए। बच्चों ने हमे स्मृति चिन्ह भेंट किए और मैने भी इनकी लायब्रेरी के लिए कुछ पुस्तकें भेजने का वादा किया। इसके बाद हमने कुल्टी के होटल से बंगाली मिठाईयों का आनंद लिया। बिकास बाबू की बल्ले बल्ले हो गई। हमने भी एक दो टुकड़े चखे। पेट भर तो खा नहीं सकते थे।
कुल्टी फ़ाऊंडेशन के सदस्यों के साथ चर्चा
कुल्टी की बदहाली का बडा कारण इसको के प्लांट का रुग्ण होना है। इस स्टील प्लांट की स्थापना 1876 में हुई थी और यह भारत का पहला लौह अयस्क कारखाना था। इस कारखाने से ही लोगों का जीवन चलता था। राजनैतिक कारणों से यह कारखाना उपेक्षा का शिकार हो गया, जिसका खामयाजा यहां के निवासियों को भुगतना पडा। यहां से विदा लेकर हम आगे के सफर मे चल पडे। कुल्टी में हमारी मुलाकात महादेव लाल, उम्र-79 साल, निवास- अंडाल प.बंगाल से हुई थी। रेल्वे के लोको विभाग से सेवानिवृत है पेसमेकर से हृदय संचालित होता है। यही छोटा सा परिचय है इनका। पर काम बडा और प्रणम्य है। इनसे राम राम के पश्चात बात शुरु हुई तो पता चला कि ये भी महा घुमक्कड हैं। इन्होने भारत का भ्रमण सायकिल से किया है।
कुल्टी फ़ाऊंडेशन के समक्ष रविशंकर चौबे, महादेव लाल जी, बिकास शर्मा
चौंकाने वाली बात तो यह थी कि जब लोग रिटायर होकर भजन करते हुए ऊपर जाने का इंतजार करते है तब इन्होने सायकिल भ्रमण 74 वर्ष की उम्र मे प्रारंभ किया। इसे उत्कट आकांक्षा से ऊपजा दुस्साहस ही कहेगें। इनका कार्य युवाओं से लेकर जीवन के ढलान पर चल रहे लोगों के लिए भी प्रेरक है।  इन्होने यात्रा तीन चरणो मे पूर्ण की। पहली बार अंडाल से चलकर दिल्ली ऋषिकेश होते हुए लखनऊ से पुनः अंडाल लौटे। दूसरी यात्रा अंडाल से बांधवगढ होते हुए केरल तक एवं तीसरी यात्रा अंडाल से उड़ीसा छत्तीसगढ महाराष्ट्र होते हुए द्वारिका ओखा तक जाना और लौटना।
कुल्टी फ़ाऊंडेशन के सदस्यों द्वारा स्मृति चिन्ह प्रदत्त
इन यात्राओं का एक-एक दिन और घटनाएं इन्होने अपनी डायरी मे संजों रखे है। इन्होने अपना थैला क्या खोला, यात्राओं का पिटारा ही खोल दिया। बंगाली, हिन्दी, अंग्रेजी' ऊर्द अखबारों की सैकडों कतरनों के साथ हजारों फोटूएं भी दिखाई। शेर से मुलाकात एवं उडीसा के जंगलों में नक्सलियों द्वारा पैसे छीनने से लेकर अनेकों खट्टे मीठे एवं कड़ूए अनुभवों से भरी इनकी साहसिक यात्रा रही है। मैने इनसे समस्त यात्रा का वृतांत लिखने का निवेदन किया। जिससे लोक भी इनके यात्रा अनुभव से लाभ उठा सके। इनसे सुनना तो बहुत कुछ चाहता था और ये बताना भी बहुत कुछ चाहते थे। 
चलते चलते महादेव लाल जी के साथ एक सेल्फ़ी
महादेव लाल जी के पास कथा कहने के लिए पूरा समय था पर मुझ मुसाफिर के पास नहीं। आखिर हमारे आगे बढने की घडी ले आई ट्रेन सीटी बजाते हुए, एक मुसाफिर आगे चल पडा और दूसरा प्लेटफार्म पर ही रह गया अन्य किसी यात्रा की तजवीज लगाते। हमारी ट्रेन आने को थी। अगर विलंब होता तो गरीब रथ छूट सकता था। हमें झारसुगड़ा से फ़िर ट्रेन बदलनी थी। खैर समय रहते रांची पहुंच गए। गरीब रथ प्लेटफ़ार्म पर लगा हुआ था। गरीब रथ से मेरा पहला सफ़र था। इससे हम झारसुगड़ा तक आए, इसके बाद रात दो बजे मेल पकड़ कर सुबह रायपुर पहुंचे। इति।