गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

मासूल : खारुन नदी की रोमांचक यात्रा

कुकुर कोटना से आगे बढ़ने पर मुझे सूखी हुई वह घास दिखाई दी, जिसे मेले ठेले में लोग संजीवनी बूटी कह कर बेचते हैं। यह सूखी घास पानी में डालने पर फ़िर से हरी हो जाती है। रामकुमार ने बताया कि इसे भठेलिया (लाल खरगोश) चारा कहते हैं, यह भठेलियों का भोजन है। 
भालुओं का भोजन
यहां से हम आगे बढे ही थे कि मुझे पत्तों में  सरसराहट की आवाज सुनाई दी, मुड़ कर देखा तो एक बड़ा किंग कोबरा सरसराते हुए निकल रहा था। उसकी लम्बाई भी सात आठ फ़ुट रही होती, इसे गंउहा डोमी कहा जाता है। मैने साथियों को आवाज दी तो उन्होने उसे दूर भगा दिया।
जंगल का भठेलिया चारा, शहर की संजीवनी बूटी
नदी के कुछ स्थानों पर गांव वालों ने मछली पकड़ने का ठिकाना बना रखा है, उस ठिकाने पर कोई दूसरे गांव वाला मछली नहीं पकड़ सकता है,  यह जंगल का अघोषित नियम है। सब गांव वालों का अपना-अपना दहरा है। आगे बढ़ने पर चट्टानें बड़ी होती जाती हैं। इस स्थान को मासुल कहा जाता है। मासुल पहुंच कर नदी एक छोटे से झरने का रुप ले लेती है।
तिहारु राम सोरी बीज साफ़ करते हुए
यहाँ पर तिहारुराम कुछ फ़ल तोड़ लाया। उनको फ़ोड़ कर नदी के जल में बीजों को धोया और मेरे को खाने के लिए दिए। बीज देते वक्त उसके मन में प्रकट हो रहे भावों को मैं देख रहा था, ये वही भाव थे जो जिस भाव से सबरी ने रामचंद्र को बेर खिलाए थे। नितांत निश्छल प्रेमिल मुस्कान के साथ उसने बीज मेरी ओर बढाए। बीजों के उपर लगे गुदे का स्वाद कुछ कुछ सीताफ़ल के  जैसे था। मैं उस फ़ल का नाम भूल गया, परन्तु स्वाद अभी तक याद है।
भालु के पंजो के निशान
मासुल बहुत बीहड़ दिखाई देता है। पत्थरों के बीच की गुफ़ाएं भालुओं एवं अन्य जंगली जानवरों के छिपने के लिए आदर्श स्थान है। कउहा (अर्जुन) के ऊंचे पेड़ों पर मधुमक्खियों के बड़े बड़े छत्ते लटक रहे थे और पेड़ों पर भालूओं के पंजो के निशान भी। नीचे देखने पर नदी की रेत में भालुओं के पंजो के निशान दिखाई दिए। नदी के पार तीन भालु विचर रहे थे। साथियों ने मुंह से आवाज निकाल कर उन्हें भगाया क्योंकि हमें मासुल से उतर कर नदी पार करनी थी।
मासुल से खारुन नदी का नजारा
मासुल इस ट्रेकिंग का बहुत ही सुंदर एवं मनोरम स्थल है। यहाँ आकर मन रम गया। एक चट्टान काफ़ी ऊंचाई पर लगभग 12 फ़ुट तक बाहर निकली हुई है। उस पर बैठकर नदी का दृश्य आनंददायक दिखाई देता है। तिहारु राम ने मासुल नाम के विषय में बताया कि यह स्थान गहरा होने के कारण यहाँ से मछलियां ऊपर नहीं चढती। लोग यहां पर मछली मारने के लिए आते हैं। एक दिन पानी रोकने के लिए लकड़ी का लट्ठा ढूंढने लगे तो समीप ही दीमक लगा लट्ठा मिल गया। उन्होंने उठाकर उसे काम में ले लिया।
अर्जुन के वृक्ष पर भालु के पंजों के निशान
कुछ देर बात लट्ठे में हलचल हुई तो पता चला कि मासुल सर्प है। मासुल सर्प आलसी होने के कारण एक स्थान पर ही पड़ा रहता है। उसके मुंह के सामने जो कीड़े मकोड़े आ जाते हैं उन्हें खाता है। यहाँ तक कि उस दीमक भी चढ़ जाती है। उस दिन के बाद इस स्थान का नाम मासूल पड़ गया। कुछ देर यहां बैठकर भालुओं को भगाने के बाद हम धीरे-धीरे नदी में उतरे, क्योंकि आगे भालुओं का खतरा था।
मासुल का नजारा
नदी पार करके आधा किमी चलने के बाद खैरडिगी गांव का खार (खेत) आ गया। हमने गांव में पहुंच कर एक के घर में चाय बनवा कर पी। अब लौटने के लिए कोई साधन नहीं मिला। हमारी गाड़ी कंकालीन मंदिर में ही खड़ी थी। अब फ़िर पैदल चलकर लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था। हमने नदी का साथ छोड़ दिया और उसके बगल से चरवाहों वाले रास्ते से कंकालीन लौटने लगे। फ़िर उबड़-खाबड़ रास्ते का सामना किया। 

खारुन ट्रेकिंग का सुंदरतम स्थान मासुल
दिन ढलने से पहले हम कंकालीन पहुंच जाना चाहते थे। ट्रेकिंग के शौक ने आज खूब पैदल चला दिया था। दो घंटे लगातार चलने के बाद कंकालीन मंदिर दिखाई देने लगा और सूरज भी ढल रहा था। मन में खुशी थी कि आज हमने खारुन नदी की कठिन ट्रेकिंग कर ली थी।
उबड़ खाबड़ पत्थरों के बीच से मार्ग बनाते हुए वापसी
थकान बहुत अधिक हो गई थी, तिहारु राम सोरी भी नाहर डबरी से हमारे साथ लौट आया था। मैने उन्हें कुछ पैसे दिए और हम घर लौट आए कि बाकी ट्रेकिंग दो चार दिन बाद शुरु करेंगे। सुबह उठकर देखा कि दोनों पैरों के अंगुठे नीले हो कर फ़ुल गए हैं। देखते ही घबराहट बढ गई। तुरंत डॉक्टर के पास दौड़ा उसने दवाईयाँ दी। डर रहा था कि कहीं गैंगरिन न हो जाए। 
पैरों की हालत: अंगुठे के साथ दो अंगुलियों के नाखून भी नीले हो गए
तीन महीने बाद एक पैर के अंगुठे का नाखून थिम्पू में निकला और दूसरा दिल्ली में तथा आगे की ट्रेकिंग पर विराम लग गया। मेरा मानना है  कि लोग पहाड़ों पर जाते हैं ट्रेकिंग के लिए, परन्तु छत्तीसगढ़ में ऐसे स्थानों की कमी नहीं है, जहाँ आप अपना रोमांचक शौक पूरा न कर सें। कभी आप भी ट्रेकिंग करके देखिए।

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

कुकुर कोटना : खारुन नदी की रोमांचक पदयात्रा

चलते-चलते बन्नु सिंह अपनी कथा कहता जा रहा था "मुझसे धनी कोई नहीं है, ये पत्थर देखो। एक-एक पत्थर कितना मंहगा है। ये पेड़ देखो, जिसे दीमक खा रही है, यह कितना मूल्यवान है। जंगल वाले ही सारा जंगल काट कर ले गए। अब तो जलाऊ के लायक भी लकड़ी नहीं दिखाई देती। 

बन्नु सिंह और नारायन साहू
फ़ालतू का काड़ी-कचरा उगा हुआ है। अगर इन पत्थरों को ही गाड़ी मोटर में भर के शहर ले जाए तो लाखो-कड़ोरों रुपए के हैं। उधर देखो साहब, पेड़ों पर चारों तरफ़ नोट ही नोट लटके हैं। एक-एक पत्ता सौ-सौ का नोट है। अब बताओं आप, मुझसे अमीर कौन है? ये सारा जंगल मेरा है और मैं इसका मालिक हूँ। मेरे ही धन को लोग चोरा कर ले जा रहे हैं।" 
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हमारी अमानत
मैं बन्नु राम की बात सुनकर उससे सहमत होता हूँ, जंगल के मालिक तो वे ही हैं जो उनसे प्यार करते हैं, उसकी रखवाली करते हैं। जंगल कटने एवं खत्म होने का दर्द वही महसूस कर सकता है, जिसका जीवन उसके साथ जुड़ा है। जिस पेड़ को मैने लगाया है, उसे काटने की हिम्मत मैं जुटा नहीं पाता। इसके कारण मेरे घर परिसर में कई महावृक्षों ने विस्तार ले लिया है, जो अब हानि भी पहुंचा रहे हैं। फ़िर तो बन्नु सिंह जंगल का ही आदमी है। 
पथरीली नदी घाटी
वह मुझे मुक्त कंठ से एक रेलो गीत सुनाता है। जो जंगल में गूंजता है और मैं उसे रिकार्ड करता हूँ… "साय रेलो रे रेलो रे रेलो, नदी नादर निहिर निहिर ताघर ता, ओSS रोहुर झुहुर झुहुर बाजेर तिहिर तोर। गांवे रे गांवे रे घुमेर बाबू कहे नादर तोर। ओSS नादर लोहर लोहर लोघर तोर।" सुनसान जंगल में उन्मुक्त कंठ से गाया हुआ गीत बिना साज के ही सुहाना लग रहा था तथा आनंद दे रहा था। पहले रेडियो में बस्तर के रिलो गीतों का रायपुर से प्रसारण होता है, एक अरसे के बाद बन्नु सिंह के मुंह से गीत सुना। बन्नु सिंह के गीत मुझे जंगल के साथ जोड़ रहे थे। 
एक पड़ाव कुकुर  कोटना
वनवासी के गीतों ने मेरे अंतरमन को वन के साथ एकाकार कर दिया था, पर कदम उबड़-खाबड़ पत्थरों पर पड़ते हुए सावधान थे। सफ़र चल रहा है बलखाती इठलाती कुंवारी नदी के साथ। अइरी बुड़ान के बाद हम जिस स्थान पर पहुंचे, साथियों ने इस स्थान का नाम कुकुर कोटना बताया। यहाँ चट्टान को काटकर दो ढाई फ़ुट चौड़ी नाली सी बनाई हुई है। पहले जंगल में शिकार करने वालों के कुत्ते इस स्थान पर पानी पीने आते थे। कोटना के आगे थोड़ी गहराई है, इन चट्टानों के नीचे काले केकड़े छिप रहते हैं, एक साथी केकड़े पकड़ने के लिए पानी में उतर गया। 
कुकुर कोटना पर दोपहर का भोजन पानी
सूर्य सिर पर चढ गया था, हमने अपने खाने की पोटली खोल ली। रामकुमार के घर से बनाकर लाई हुई अंगाकर रोटी सभी लोगों ने आपस में बांट ली। अंगाकर रोटी छत्तीसगढ़ का पारम्परिक भोजन है। रोटी इतनी बड़ी होती है कि एक रोती चार आदमियों का पेट भरने के लिए पर्याप्त है। कुकुर कोटना पर बैठकर भोजन समाप्त करते तक साथी ने कई केकड़े पकड़ कर अपने झोले के हवाले कर लिए। दोपहर का भोजन इतमिनान से हो गया। जारी है… आगे पढें।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

भकाड़ू डबरी: खारुन नदी की रोमांचक पद यात्रा

भालु खांचा से आगे बढने पर घना जंगल प्रारंभ हो जाता है, पेड़ों पर लटकती लताओं की बेलें मोटी हो जाती हैं। दीमक की बांबियाँ आठ-दस फ़ुट ऊंची हो जाती हैं। इन बांबियों में सांपों का बसेरा रहता है और भालू भी इनके आस पास दीमकों की तलाश में पहुंचते हैं। 
पदयात्रा दल: लगभग दस फ़ुट ऊंची बांबी के साथ
नदी अब चट्टानों के बीच से होकर बहने लगती है। नदी के मार्ग में बड़े बड़े बोल्डर दिखाई देने लगते हैं। बोल्डरों पर से होकर चलना कठिनाई भरा था। पैर फ़िसलने पर चोट लगने की आशंका बढ जाती है। इसलिए चाल धीमी हो गई और हर कदम जमीन देख कर रखना पड़ रहा था।
भकाड़ू डबरी
आगे बढ़ने पर एक तालाब दिखाई दिया। पूछने पर बन्नु सिंह ने बताया कि इसे भकाड़ू डबरी कहते हैं। इसका निर्माण जंगलात वालों ने वन्य पशुओं के पानी पीने के लिए बनाया है। नामकरण के पीछे की कहानी पूछने पर रामकुमार ने कहा कि हमारे गाँव में निषाद जाति का भकाड़ू नाम व्यक्ति रहता था। उसका विवाह नहीं हुआ। गांव में अविवाहित आदमी की कोई कदर नहीं होती और भले ही न हो, पर उसे हमेशा नीयतखोर समझा जाता है। 
भकाड़ू डबरी में धुंए के छल्ले बनाता बन्नु सिंह
भकाड़ू की वृद्धावस्था में मृत्यु हो गई तो गांव वालों ने उसके दाह संस्कार के लिए गांव में जगह नहीं थी। जगह न देने की पीछे डर था कि मरने बाद वह रक्सा (कुंवारा प्रेत) बनकर गांव वालों को हलाकान करेगा। गांव वालों ने सहमति से इस तालाब के किनारे उसका दाह संस्कार किया। तब से इस तालाब को भकाड़ू डबरी कहा जाता है।
  
नदी में बेचांदी कांदा प्रसंस्करण: नाहर डबरी
बातचीत करते हुए हम संभल कर चल रहे थे। आगे चलकर नदी का पाट थोड़ा चौड़ा हो जाता है, दोनों किनारों पर बड़ी बड़ी चट्टाने हैं। इस जगह पर नदी का पानी थोड़ी गहराई लिए हुए ठहरता है। दूर से हमें कुछ लोग नदी के किनारे कुछ चमकीली सी चीज धोते हुए दिखाई दिए। समीप पहुंचने पर देखा कि ये लोग एक कंद की चिप्स बनाकर धो रहे थे। इस काम में चार पांच परिवार लगे हुए थे। चिप्स को धो कर चट्टानों पर सुखाया हुआ था। इस स्थान को नाहर डबरी कहते हैं।
बेचांदी कांदा की चिप्स धोते हुए
यहां हमारी भेंट तिहारु राम सोरी से हुई। उनका परिवार भी कंद का प्रसंस्करण कर रहा था। उसने इस कंद का नाम बेचांदी कांदा बताया तथा कहा कि इसमें बहुत नशा होता है। अगर इस कंद का गेंहूं के बराबर का दाना किसी को खिला दिया जाए तो उसके मांस पेशियां जाम हो जाती है अत्यधिक नशे में व्यक्ति शिथिल हो जाता है। 
नाहर डबरी: खारुन पदयात्रा
डाक्टरी इलाज से भी इसका नशा नहीं उतरता। जब इसके नशे की मियाद पूरी होती है तो स्वत उतरता है। इस कंद के चिप्स बनाकर ये बाजार में ले जाते हैं, जहाँ व्यापारी दवाई बनाने के लिए अस्सी रुपए किलों में खरीदते हैं। यहाँ आधे घंटे विश्राम कर हमने जल ग्रहण किया। अब हमारे दल में तिहारु राम भी जुड़ चुके थे।
अइरी बुड़ान
उबड़ खाबड़ चट्टानों पर चलना दुखदाई भी था, परन्तु आगे की सोच कर रोमांच भी हो रहा था। यही रोमांच हमें आगे खींच कर ले जा रहा था। आगे चलकर अरई बुड़ान नामक स्थान आया। यहाँ पर नदी की धार में एक छोटा सा रेतीला टीला है, जिसके आस पास काफ़ी जानवरों के खुरों के चिन्ह दिखाई दिए। 
नमकीन मिट्टी: यहां जानवर  नमकीन  मिट्टी चाटने आते हैं।
इस स्थान की मिट्टी नमकीन है, जिसे चाटने के लिए वन्य पशु आते हैं। इस स्थान पर मछलियां भी खूब मिलती है, इसलिए अइरी नामक पक्षी भोजन की तलाश में डेरा डाले रहते हैं। अइरी पक्षी के नाम पर इस स्थान का नाम अइरी बुड़ान हो गया।

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

भालु खांचा: खारुन नदी की रोमांचक पदयात्रा

कंकालीन मंदिर में पक्का हाल भी बना हुआ है, वहाँ रात काटने के लिए हमने रामकुमार से चर्चा की तो वह हमें स्थान देने के लिए तैयार हो गया और एक दरी हमारे सोने के लिए भी बिछा दी। रात बातचीत करते हुए सुबह का कार्यक्रम बनाते हुए गहरी होती गई। 
सफ़र का साथी पोयाम
लगभग बारह बजे के बाद नींद आई। सुबह की चाय के लिए मैने रामकुमार से कह दिया था। सुबह के खाने के लिए मैने रामकुमार कोमर्रा को घर से अंगाकर रोटी और टमाटर की चटनी बनाने के लिए रुपए दे दिए। ग्राम के तीन चार लोग हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए तैयार हो गए।
दोपहर का भोजन अंगाकर रोटी
इस यात्रा में मेरा एक साथी बना बन्नु सिंह उकै। इसके पास छ: एकड़ की किसानी एवं बीबी-बच्चे सब हैं, पर घुमक्कड़ जीवन व्यतीत कर रहा है। भोजन बनाने के लिए जर्मन के दो बर्तन, एक लाल रिफ़िल का पेन, फ़ुल स्केप का पेपर, थैली में तम्बाखू चूना की पुड़िया तथा चिलम ही इसकी कुल सम्पत्ति है। जिसे हमेशा साथ रखता है। सुबह हमारी नींद खुली तो बन्नु राम ने नदी के किनारे चूल्हा बना एवं जलाकर गुड़ की लाल चाय पिलाई। चाय पीकर तबियत तर हो गई क्योंकि मुझे सुबह की चाय की आवश्यकता होती है। उसके बाद दिन भर चाय की कोई दरकार नहीं। लगा कि बिगबॉस का लक्जरी आयटम मिल गया।

बन्नु सिंह ऊकै
हम लोगों के दैनिक कार्यों से निवृत्त होते तक बन्नु सिंह नदी में नहाकर आ गया और उसने चूल्हे में राहर दाल बनने के लिए चढा दी थी। मेरे लिए आंवला वृक्ष की दातौन तोड़ लाया। मेरे दातौन मुखारी करते तक भोजन तैयार हो गया। भोजन करने से पहले उसने बालों में तेल लगाया और डबरा के जल में चेहरा देखकर जुल्फ़ों को संवारा। फ़िर लहसुन, टमाटर एवं मिर्च का तड़का देकर दाल फ़्राई की। जिस सलीके से उसने सीमित संसाधन में भोजन तैयार किया उससे लगा कि बन्नु सिंह भोजन का शौकीन है।

खारुन नदी पदयात्रा प्रारंभ
सुबह छ: बजे रामकुमार अपने साथियों के साथ आ गया, साथ में बड़ी-बड़ी तीन अंगाकर रोटी एवं टमाटर मिर्च की चटनी भी लाया। रोटी के एक टुकड़े का नाश्ता करके हम ट्रेकिंग पर चल पड़े। कंकालीन मंदिर से पथरीला उबड़ खाबड़ क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है। हम नदी के साथ-साथ ही चल रहे थे। जंगल के भी अपने नियम और कायदे होते हैं। यहाँ अनजान आदमी तो चक्कर काटते ही रह जाएगा। 
सुबह तालाब का दृश्य
जिस तरह शहरों में गली मोहल्लों को नाम रख कर चिन्हित किया जाता है उसी तरह जंगल में स्थानीय ग्रामीण स्थानों को विभिन्न नामों से चिन्हित करके रखते हैं, यही चिन्ह जंगल में रास्ता न भूलने में सहायक होते हैं। बन्नु सिंह बड़ा ही फ़क्कड़ एवं मस्त मलंग है, इसके साथ नदी के आस-पास देखते हुए बात चीत करते रास्ता कट रहा था।
यात्रा मार्ग में भालु खांचा - यहाँ बारहो महीने पानी रहता है।
प्राकृतिक वनों विभिन्न प्रजाति के पेड़ पौधे एवं वनस्पति होती हैं। जिन्हें जंगल का आदमी बराबर पहचानता है और स्थानीय भाषा में उसका नाम रखकर चिन्हांकित कर लेता है। कुछ दूर चलने पर पथरीली धरती पर एक स्थान पर चारों तरफ़ से पानी आकर जमा होता है। इसे भालू खांचा नाम दिया गया है। जंगल में जब पानी की कमी हो जाती है तो भालु इस खांचे में आकर पानी पीते हैं। जारी है …… आगे पढें।

रविवार, 18 दिसंबर 2016

खारुन नदी की रोमाचंक पदयात्रा

वनांचल के निवासी निरंतर प्रकृति से जुड़े रहते हैं, नदी, पर्वत, वन एवं वन्य पशुओं के साथ अपनी संस्कृति एवं परम्पराओं के पोषक होते हैं। शुद्ध वायु के साथ हरियाली सेहत को बनाए रखती है। शहर का व्यक्ति भी प्रकृति से जुड़ना चाहता है, उसे देखना, समझना एवं परखना चाहता है, परन्तु जीवन की आपा-धापी में उसके पास भौतिक सुविधाओं की कमी नहीं है, परन्तु प्रकृति से जुड़ने के लिए समय नहीं है। फ़िर भी वह व्यस्ततम समय में से कुछ समय चुरा कर वनों की तरफ़ चल पड़ता है। कुछ ऐसा ही हाल मेरा भी है, मुझे जंगल, नदी, पर्वत हमेशा आकर्षित करते हैं और इनकी समीपता पाने का प्रयत्न करता रहता हूँ। समय मिलते ही निकल जाता हूँ प्रकृति को जानने, मानव संस्कृति समझने।
कंकालीन मंदिर पेटेचुआ
इसी कड़ी में एक दिन खारुन नदी की ट्रेकिंग करने का ख्यान मन में आया। क्योंकि सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ नदियों के किनारे ही पुष्पित पल्लवित हुई और उनका पतन भी हुआ। उनके अवशेष इन स्थानों पर मिलते हैं। खारुन नदी रायपुर शहर की प्राणदायिनी है। शहर में पेय एवं उद्योगों आदि के लिए इसी नदी से जल लिया जाता है। इसलिए तय हुआ कि खारुन नदी के उद्गम से संगम तक की पदयात्रा की जाए, इस पदयात्रा से खारुन द्वारा पोषित ग्रामों का इतिहास, संस्कृति एवं वर्तमान जान पाऊंगा। 
खारुन उद्गम पेटेचुवा में नारायण साहू के साथ
अब बारी थी योजना को अमलीजामा पहनाने की। नये स्थान से पदयात्रा प्रारंभ करना और जहाँ कोई पहचान का भी न हो तो काफ़ी कठिन कार्य हो जाता है, यदि स्थानीय निवासियों का सहयोग न मिले तो। इस विषय में एक दिन मैने मित्र नारायण साहू से चर्चा की, वे तैयार हो गए। मैने तय किया था कि उद्गम तक मोटर सायकिल से जाएंगे। परन्तु नारायण साहू  ने कहा कि कार से चलेंगे। मामला फ़िट हो गया और  अगले दिन सुबह हम खारुन के उद्गम की ओर चल दिए। खारुन का उद्गम पेटेचुवा ग्राम में है, जिसे स्थानीय लोग कंकालीन भी कहते हैं। रायपुर से पेटेचुआ की दूरी 115 किमी है।  चारामा घाट के नीचे से मरका टोला नामक ग्राम है, यहाँ से पेटेचुवा लगभग तीन-चार किमी की दूरी पर है।
खारुन नदी 
हमने ठंड से बचने का सामान ले लिया था, परन्तु ओढने एवं बिछाने के सामान का ध्यान नहीं रहा। इसकी जरुरत वहाँ पहुंचने पर पता चली। पेटेचुवा हम दोपह्रर को पहुंचे, कंकालीन माता के मंदिर के समीप गाड़ी खड़ी की। मंदिर के समीप ही सायकिल पंचर बनाने की एक दुकान एवं छोटा सा चायपानी का होटल था। इस ग्राम में हम पहली बार आए थे, इसलिए कोई पहचान का नही था। 
मंदिर परिसर का भीतरी पैनारामा दृश्य
होटल में चाय बनवाई और चाय पीते हुए खारुन नदी के उद्गम की चर्चा की। सायकिल दुकान वाला हमें खारुन नदी के उद्गम पर ले जाने के लिए तैयार हो गया। उसके साथ हम पैदल चलकर नायक तालाब पहुंचे, इस तालाब से झरिया से पानी निकलता है, जो खेतों से बहते हुए आगे चलकर कंकालीन नाले का रुप ले लेता है। यह नाला मंदिर के दाईं तरह से होकर जंगल में चला जाता है और मैदान में पहुंच कर खारुन नदी नाम पाता है।
खारुन नदी के प्रारंभ स्थल पर 
तालाब बहुत बड़ा था, मंदिर के पुजारी रामकुमार ने बताया कि इस तालाब का रकबा सत्रह एकड़ है। पुरखे बताते थे कि इसका निर्माण नायक लोगों ने कौड़ी पैसे में कराया था, पहले इस जगह पर एक झरिया था, जिसमें पेड़ का खोल गाड़ा हुआ था, ग्रामवासी उसी जल से अपना निस्तार करते थे। प्राचीन काल में नायक बंजारे अपनी गाड़ियों में सामान भर कर बेचने आते थे। उनके काफ़िले के लिए पानी की जरुरत पड़ती थी,

नायक तालाब पेटेचुवा, इसी तालाब से खारुन नदी का उद्गम हुआ
पानी की जरुरत को पूरा करने के लिए उन्होंने गांव वालों को मजदूरी देकर इस तालाब का निर्माण कराया, जिसके कारण इसे नायक तालाब कहा जाता है। रामकुमार की बातों से पता चला कि यह तालाब प्राचीन है। छत्तीसगढ़ में अन्य स्थानों पर भी बनजारों ने तालाबों का निर्माण कराया। अभनपुर के जनपद के एक ग्राम का नाम ही नायकबांधा है। अवश्य ही इसका संबंध नायकों द्वारा बनवाए गए तालाब से ही है। इसके बाद मुझे नायकबांधा नामक एक अन्य ग्राम महासमुंद के समीप भी मिला तथा पिथौरा में नायक लोग अभी भी रहते हैं।
नायक तालाब का निरीक्षण करते हुए
कंकालिन मंदिर से खैरडिगी ग्राम की दूरी लगभग सात किमी है। इस सात किमी में सघन वन है, इसके बाद मैदानी क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है। हमारी नदी ट्रेकिंग का यही कठिन हिस्सा था। इसलिए हमने ट्रेकिंग को अगले दिन पर टाल दिया और रात के खाने का सामान लेने गुरुर ग्राम चले गये। हमारे साथ धमतरी से सुनील बरड़िया भी आये थे, उन्हें भी गुरुर से धमतरी वापसी के लिए बस पकड़वा दी। हम रात का खाना लेकर कंकालीन लौट आये। जारी है… आगे पढे

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

बहुत कठिन है डगर पनघट की

धरती के सभी प्राणियों का जीवन कठिनाईयों से भरा है। जीवन जीने के लिए नाना प्रकार के उद्यम सभी को करने पड़ते हैं। शास्त्रोक्त जरायुज, अंडज, स्वेदज एवं उद्भिज जातियाँ धरा पर हैं, इनमें मानव ही एकमात्र बुद्धिमान योनि मानी गई है, जिसका सभी प्राणियों से अलग जीवन अपनी संस्कृति है और सभ्यता है। इन सभी जातियों में एक चीज समान है, वह है उत्पत्ति, स्थित एवं विनाश (मृत्यु)। मृत्यु को जीवन का सबसे बड़ा सच माना गया है, कहते हैं उसे एक दिन आना ही है। सब ठाठ धरा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा। जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु होनी ही है, इसे कोई नहीं टाल सकता। यह प्रकृति का नियम है। प्रिय से भी प्रियतम को जाना है, बस धरती पर रहने वाला आँखों में आंसू लिए हठात देखता रहता है।
मेरे छोटे भाई देवराज की पैट्रोल पंप में बैठे हुए अंतिम फ़ोटो - चित्र उदय शर्मा
मैने बचपन से अपने प्रियजनों को इस धरती से जाते देखा। छोटा था, अबोध था, बस इतना बोध था कि जान गया था मृत्यु क्या होती है। दादा जी की मृत्यु को देखा, याद है, मैं रोया नहीं, घर भर के लोग रो रहे थे। शायद तब मुझमें वह भाव नहीं पैदा हुआ होगा, जिससे प्रकट होने से आँखों में आँसू आते हैं। दादा जी चले गए। मैं बड़ा हो रहा था। संयुक्त परिवार में हम सात भाई बहन एक साथ बढ रहे थे। सात में चार हम (दो भाई मैं और राजु, दो बहन दुर्गा एवं शारदा) एवं तीन चचेरे भाई बहन (दो भाई देवराज, कीर्ति एवं एक बहन वीणा) थे। मैं सबमें बड़ा हूँ, बाकी सब मुझसे छोटे। समय अपनी गति से उड़ रहा था। 
महाविद्यालय में द्वितीय वर्ष की शिक्षा चल रही थी, अचानक एक दिन पौ फ़टे हृदयाघात से पापा चल बसे। लगा कि वज्राघात हो गया। समझ नहीं आया क्या हुआ? दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। बचपन उसी दिन खत्म हो गया और उनके साथ ही चला गया। जिन्दगी की गाड़ी के जुड़े में जुत गया। आँखों से आँसू नहीं निकले। भीतर ही भीतर रोता रहा। अगर मेरी आँख से आंसू निकले तो छोटे भाई बहनों का मनोबल कमजोर हो जाएगा। रात को नींद में अचानक हृदय भर आता और लावा अंधेरे में उमड़ कर बाहर निकलता। अंधेरे में आँखे पोंछ्कर फ़िर सो जाता। इसी तरह जिन्दगी चलती रही।
दस वर्षों के भीतर दादी चल बसी, उन्होने अपनी उम्र पूरी की। शरीर अशक्त हो गया था, मेरे सामने ही उनकी सांसे थमी। शरीर से निकलते हुए हंस को तो नहीं देख पाया, पर कायोत्सर्ग देखा। सांसे धीरे-धीरे लम्बी हुई, फ़िर एक झटके से रुक गई। हंसा अपने देश चला गया। जहाज का पंक्षी, जहाज पर पहुंच गया। रह गए हम सब रोते बिलखते। इसके बाद बुआ जी चली गई और कुछ दिनों के बाद चाचा जी भी। मेरे सामने इतने लोग एक-एक करके धरती छोड़ते गए। वो आए थे, इसलिए चले भी गए। सभी से मेरी बेइन्तिहा मुहब्बत थी और आज तक भी है। उन्हें रोकना मेरे बस में न था। 
अभी तक जितने भी लोग दुनिया छोड़ गए वे सब मुझसे उम्र में बड़े थे, जैसे तैसे करके मैने मन को समझाया और लग गया अपने कामों में। संसारिक उलझने एवं कर्तव्य गहरे से गहरे घाव को भी भर देती हैं, जब बड़ा दर्द मिलता है तो छोटा दर्द आदमी भूल जाता है। यही मानवी प्रकृति एवं प्रवृति है। मनोवैज्ञानिक तौर मंथन करके दर्शन शास्त्रियों ने इन सब घटनाओं को झेलने के लिए शास्त्रों के पन्ने पर पन्ने भर रखे हैं। पर हृदय की चोट का दर्द असहनीय होता है।
राजस्थान के दौरे का पहला दिन 15 नवम्बर 2016 था, रात बारह बजे फ़ोन को चार्जिंग में लगा कर सोया। दूसरा फ़ोन आलमारी में रखा था। रात को एक बार फ़ोन की घंटी बजी, पर थकान के कारण फ़ोन नहीं उठाया। सुबह  16 नवम्बर 2016 उठने पर रात की कॉल की याद नहीं रही। रतन सिंह जी, देवेन्द्र कोठारी एवं मैं आपस में चर्चा करते हुए आज की यात्रा का प्लान बना रहे थे। तभी मैने फ़ोन खोल कर देखा तो  वाटसएप पर छोटे भाई राजु का मैसेज था कि "देवराज की तबियत रात को अचानक खराब हो गई, उसका बीपी लो हो गया था। अस्पताल में भर्ती किया है और डॉक्टर जैसे तैसे बीपी सामान्य रखने की कोशिश करता रहा, अब उसे वेंटिलेटर पर रखा गया है, ईश्वर जाने क्या होगा?"
मैसेज देख कर पिंडलियाँ कांप गई। तुरंत वापसी के लिए रास्ता देखने लगा। कोठारी जी तुरंत जयपुर से दिल्ली एवं दिल्ली से रायपुर की एयर इंडिया की टिकिट कर दी और तत्काल जयपुर की ओर लौट चले। रास्ते में एक जगह नाश्ता करने का विचार आया और ढाबे पर गाड़ी रोक ली। पराठे का पहला टुकड़ा तोड़ कर खाया था और दूसरा हाथ में था, तभी फ़ोन की घंटी बजी और दुखद सूचना मिली। छाती खाली हो गई और मस्तिष्क सुन्न हो गया। हम तुरंत चल पड़े। बचपन से लेकर तीन दिन पहले तक की सभी घटनाएँ चलचित्र की तरह मस्तिष्क में चल रही थी। मेरा छोटा भाई हम सब को छोड़ कर चला गया। 
घर की चिंता सताने लगी, परन्तु ऐसा कोई साधन नहीं था कि मैं तत्काल घर पहुंच जाता और सबको धीरज बंधाकर संभालता, छाती से लगाता। बस यहीं पर आकर मनुष्य परवश हो जाता है। चलते-चलते ही अंतिम संस्कार की व्यवस्था फ़ोन से की और हम आगे बढते रहे। नोटबंदी के दूसरे दिन शाम को मैं और उदय दोनो कैमरा लेकर फ़ोटो खींचने निकले थे। पांच सौ पैट्रोल भराने के लिए पैट्रोल पंप पर गए तो उदय ने बताया कि चाचा वहाँ बैठे हैं। मैने कहा एक फ़ोटो ले ले यहीं से चाचा की। वो उदय को फ़ोटो लेते देख मुस्काता रहा और उदय ने फ़ोटो ली। 
आज इस घटना को एक महीने होने जा रहे हैं, मन और तन दोनो काबू में नहीं है। मैने उसे गोदी में खिलाया था, स्कूल में भी भर्ती मैने ही कराया था। जैसे कल की बात हो। आज वह हमारे साथ नहीं है। किसी और के साथ कोई दुर्घटना होती है तो दिलासा दे लेते हैं, जब खुद के साथ घट जाय तो मन को समझाना बहुत कठिन हो जाता है। शोक, महाशोक में बदल जाता है। सभी अपने - अपने सुख को रोते हैं, मैं भी अपने सुख को रो रहा था कि मेरा भाई था। मेरी एक भुजा कट चुकी है और मैं फ़ड़फ़ड़ा रहा हूँ, बार बार आँखें भर आती है, थोड़ा सा भी कहीं एकांत मिलता है तो आँखों में भर आए पानी से दिखाई देना बंद हो जाता है। 
अपना दुख भुलाने को इस बीच मैं दो बार दो-दो दिन के लिए जंगल की यात्रा भी कर आया। पर कोई घर से कितनी दूर बाहर रह सकता है। आखिर लौटकर घर में आना ही है, यहाँ भी बहुत जिम्मेदारियाँ है, काम हैं। उनको भी निभाना है। पर मेरे लिए यह धक्का बहुत बड़ा है। जिसे झेल नहीं पा रहा। पापा जी के जाने के बाद बचपन चला गया और ये मेरा बाकी जीवन रोते रोते काटने का बंदोबस्त कर गया, बड़ा निष्ठुर निकला, जो मेरे पीछे से चला गया। आखरी वक्त में मुंह भी नहीं दिखाया। जीवन भर आत्मा रोते रहेगी। भाई-बहन तो भाई-बहन ही होते हैं…, माँ-बाप का मिलना तो भगवान तय करता है, पर भाई बहन किस्मत से ही मिलते हैं।