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शुक्रवार, 23 मई 2014

शिवालयों में कीर्तिमुख अलंकरण

शिवालयों में द्वारपट, स्तंभों, भित्तियों में एक भयावह मुखाकृति बनी दिखाई देती है। इस आकृति को शिल्पकार अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार भयावह निर्मित करते थे। देखने से प्रतीत होता है कि किसी राक्षस की प्रतिमा है। भक्तजन इस मुखाकृति को प्रणाम कर आगे बढ जाते हैं। परन्तु उनके मन में हमेशा इस मुखाकृति के प्रति कौतुहल बना रहता है। कुछ मित्र मुझसे इस आकृति के विषय में हमेशा चर्चा कर अपनी जिज्ञासा शांत करते हैं। उनका प्रश्न रहता है कि इस आकृति को शिवालयों में क्यों निर्मित किया जाता है? यह आकृति शिवालयों के साथ जैन मंदिरों के शिल्प में भी पाई जाती है। खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर में भी इस मुखाकृति को मंदिर शिल्प में स्थान दिया गया है।
कीर्तिमुख (भीमा-कीचक) मल्हार छत्तीसगढ़
इस मुखाकृति को कीर्तिमुख कहा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका जीवंत निर्माण लंका के प्रवेशद्वार पर शुक्राचार्य द्वारा किया गया था। वर्णन है कि शुक्राचार्य ने "रुद्र कीर्तिमुख" नाम का दारुपंच अस्त्र लंका के प्रवेशद्वार पर स्थापित किया, बाहर होने वाली प्रत्येक गतिविधि इस पर चित्रित होकर दिखाई देती थी। इसके मुख से अग्नि का गोला निकल कर शत्रु का संहार करता था। लंका में कीर्तिमुख का अस्त्र के रुप में प्रयोग किया गया। वर्तमान में हम घरो, दुकानों एवं अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर सी सी टी वी कैमरों का इस्तेमाल करते हैं, इसी तरह कीर्तिमुख अस्त्र का निर्माण कर प्रयोग किया गया था।

कीर्तिमुख के विषय में एक कथा मत्स्य पुराण अ 251 में आती है -  अंधकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेद बिंदू गिरे उनसे एक भयानक आकृति का पुरुष प्रकट हुआ। जिसने अंधकगणों का रक्त पान किया, परन्तु अतृप्त ही रहा। अतृप्त होने के कारण वह भगवान शंकर का ही भक्षण करने चल दिया। इस कारण महादेवादि देवों ने इसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रुप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया।  इसलिए यह वास्तु पुरुष या वास्तु देवता कहलाने लगा। देवताओं ने वास्तु को  गृह निर्माण, वापी, कूप, तड़ाग, गरी, मंदिर, बाग बगीचा, जीर्णोद्धार, यग्य मंडप निर्माणादि में पूजित होने का वरदान दिया। तब से यह वास्तु देवता के रुप में पूजित एवं प्रतिष्ठित है।
कीर्तिमुख (ताला) छत्तीसगढ़
एक अन्य कथा में  बताया गया है कि प्राचीन काल में  जलंधर नामक एक महाशक्तिशाली दैत्य उत्पन्न हुआ जिसने अपनी तपस्या के बल पर  ब्रह्मा को खुश करके कई वरदान प्राप्त कर लिये। इसने जंगल के मध्य अपने लिए एक भव्य भवन का निर्माण कराया और एक राक्षसी सेना भी तैयार कर ली। इससे इसकी ताकत बहुत बढ़ गई और मन में अहंकार भी समा गया। अब वह प्रतिदिन संध्या समय एक सुंदर रथ पर सवार होकर भ्रमण के लिए निकलता था और  ऐसे-ऐसे कार्यों को अंजाम दे डालता था जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठती थी।

इसी क्रम में एक दिन जलंधर रथ पर सवार होकर घूम रहा था कि एक मादक सुगंध उसके नाक में समा गई जिससे वह चकित हो उठा और चतुर्दिक दृश्यों को निहारने पर एक अद्वितीय सुंदर नारी जंगल में घूमती हुई दिखाई दी। तब वह चौंका – कौन है यह नारी? इस सुन्दरी के अंदर तो सृष्टि की सारी सुघड़ता सिमटी जैसी दिखाई दे रही है। ‘यह कैलासपति शिव की पत्नी पार्वती है’, एक सेवक ने उत्तर दिया तो वह हंस पड़ा, ‘भला उस बूढ़े शिव के साथ इस अनुपम सुन्दरी का क्या काम? मैं इसे अपनी पटरानी बनाऊंगा।’ दैत्य ने मन में ठान लिया और बेचैन होकर महल में वापस लौट आया फिर अपने एक सेवक को दूत बनाकर शिव के पास भेजा।
कीर्तिमुख पंचायतन शिवालय सुरंग टीला सिरपुर छत्तीसगढ़
इस सेवक का नाम रोनू था। वह कैलास पर्वत पर पहुंचा तो भोलेनाथ योगसाधना में मगन थे। इससे रोनू तनिक सहमा किंतु शीघ्र अपनी राक्षसी प्रवृत्ति के अनुकूल जोर-जोर से चिल्लाने लगा, ‘आप पार्वती को तुरंत हमारे हवाले करें क्योंकि दैत्यपति जलधर को वह पसंद आ गयी है।’ शिव कुछ सुन नहीं पाये क्योंकि उनकी आंखें मुंदी थीं और पूरा शरीर एकदम स्थिर था। मगर रोनू का हठ तो पराकाष्ठा पर पहुंच गया और अपनी बात चिल्ला-चिल्ला कर बताने लगा। उसकी चिल्लाहट से शिव की तंद्रा टूट गयी और और उन्होंने रोनू की तरफ लाल-लाल आंखों से देखा फिर क्रोध से अपने त्रिनेत्र खोल लिये। इस त्रिनेत्र के खुलते ही आक्रोश की एक रक्तिम धारा बहने लगी जिससे एक विचित्र जीव पैदा हो गया। 

इस जीव के चेहरे का आकार बाघ पशु के समान चौड़ा एवं मजबूत था जबकि हाथ-पैर रस्सी की भांति पतला तथा छिन्न। यह जीव जन्म लेते ही भूख-भूख चिल्लाने लगा और रोनू की ओर लपका। वह शिव के चरणों में गिर पड़ा और प्राण रक्षा के लिए गुहार लगाने लगा। रोनू के गिड़गिड़ाने से शिव को दया आ गयी और उन्होंने माफ कर दिया, पर उस जीव की भूख को मिटाना आवश्यक था। इससे शिव सोच में पड़ गये किंतु शीघ्र ही इस जीव का नामकरण कीर्तिमुख किया फिर प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारते हुए समझाया – पुत्र कीर्तिमुख, जब तक भोजन का प्रबंध नहीं होता तब तक अपने ही हाथ-पैर खाकर भूख मिटा लो।
कीर्तिमुख कंसुवा शिवालय कोटा (फ़ोटो - रिंकेश अग्रवाल कोटा)
बस फिर क्या कहना था, कीर्तिमुख अपने ही हाथ-पैर पर टूट पड़ा और पेट-पीठ भी खा गया। इसके बाद गर्दन की ओर बढ़ा तो शिव ने रोकते हुए कहा  पुत्र कीर्तिमुख, तुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है ताकि मेरी कुटिया की सुरक्षा होती रहे अत: तुम द्वार पर नियुक्त हो जाओ। शिव से आदेश पाकर कीर्तिमुख इनके द्वार  का प्रहरी बन गया और अपने जीवन को धन्य कर लिया। इस जीव के अंदर शिव-मस्तिष्क का कल्याण समाहित है, इसलिए शिवालयों में इसकी दैत्यनुमा आकृति बनाने की परम्परा है और यह भी मान्यता है कि जो व्यक्ति कीर्तिमुख की पूजा करके शिवालय में प्रवेश करता है उसकी प्रार्थना शिव तुरंत सुनते हैं। इसी मान्यता स्वरुप शिवालयों में कीर्तिमुख का निर्माण किया जाता है।

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मल्हार: देऊर मंदिर


प्राचीन नगर की सैर करते हुए सूरज सिर पर चढने लगा था। हमें अभी देऊर मंदिर देखना था। यहीं से एक रास्ता कसडोल एवँ गिरोदपुरी होते हुए रायपुर को जाता है। देऊर मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचने पर मन प्रसन्न हो गया। देऊर मंदिर की भग्न संरचना देखने से ही पता चलता है कि यह मंदिर विशाल रहा होगा।। इसका अधिष्ठान भूतल पर ही है। गर्भ गृह द्वार पर नदी देवियों की सुंदर प्रतिमाएँ हैं। अलंकृत द्वार की ऊंचाई लगभग 14 फ़ुट होगी। इसकी विशालता से ही मंदिर के महत्व का पता चलता है।
भव्य देऊर मंदिर (शिवालाय)
प्राचीन काल में मल्हार महत्वपूर्ण नगर रहा होगा। इस नगर को राजधानी का दर्जा प्राप्त था या न था। इस पर अध्येताओं के विभिन्न मत हैं। इस नगर का उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग सागर विश्वविद्यालय के के डी बाजपेयी एवँ एस के पाण्डे ने 1975 से 1978 के दौरान किया था। जिसमें प्रतिमाएँ, विभिन्न संरचनाएँ, सिक्के, पॉटरी, शिलालेख एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई थी। 
नदी देवियाँ (जमुना एवं गंगा)
इनके आधार पर आंकलन किया गया कि इस स्थान से पाँच ऐतिहासिक काल खंडों के प्रमाण मिलते है। आद्य ऐतिहासिक काल - 1000 से 350 ई पू, मौर्य, शुंग, सातवाहन काल - 300 से 350 ईसा पूर्व, शरभपुरीय एवं सोमवंशी काल - 300 से 650 ईस्वीं, सोमवंशी काल - 650 से 900 ईंस्वी, कलचुरी काल - 900 से 1300 ईस्वीं माना गया है।

भीमा - कीचक
इस अवधि तक यह नगर आबाद रहा। इसके पश्चात यह टीले रुप में प्राप्त हुआ, जिसके उत्खनन के पश्चात 7 वीं से 8 वीं सदी का यह मंदिर प्राप्त हुआ। इस शिवालय का निर्माण सोमवंशी शासकों ने कराया था। मंदिर के समीप ही प्रांगण में दो बड़ी प्रतिमाओं के शीर्ष भाग रखे हुए हैं। विशालता देखते हुए ग्रामीण जनों में महाभारत कालीन भीमा-कीचक के रुप में उनकी पहचान स्थापित हो गई।
शिव परिवार
मंदिर के द्वार पट पर शिव के गणों की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं, मुख्य द्वार शाखा पर परिचारिकाएँ स्थापित हैं। द्वार पर किए गए बेलबूटे के अलंकरण देख कर सिरपुर के तिवर देव विहार का स्मरण हो उठता है। मंदिर की भित्तियों में प्रतिमाएँ लगाई गई हैं तथा मंदिर के निर्माण में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया। द्वार के एक-एक पट का वजन ही कम से कम 10 टन होगा।
यज्ञ करते हुए ब्रह्मा
मंदिर की भित्तियों पर पशु, पक्षियों, यक्ष, यक्षिणी, गंधर्व, कीर्तीमुख, भारवाहक इत्यादि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। द्वार शाखा पर ब्रह्मा को यज्ञ करते हुए, उमा महेश्वर संग कार्तिकेय उत्कीर्ण किया है। द्वार पर स्थापित नदीं देवियों के वस्त्र अलंकरण मनमोहक हैं। शिल्पकार ने अपने कार्य को महीनता से अंजाम दिया है।
शिल्पकार द्वारा अधूरा छोड़ा गया महिषासुर मर्दनी का अंकन
शिवालय के द्वार पट पर एक अधूरी प्रतिमा का दागबेल दिखाई दिया। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दनी की बनाई जानी थी। शिल्पकार ने सुरमई से अंकन के बाद छेनी चलाकर उसे पक्का भी कर दिया था। इसके पश्चात प्रतिमा का अंकन होना था। पता नहीं क्या कारण था जो इतने बड़े एवं भव्य मंदिर में वह सिर्फ़ एक शिल्प अधूरा छोड़ कर चला गया।
कीर्तिमुख
शिवालयों के अलंकरण में कीर्ति मुख का स्थान अनिवार्य माना जाता है। भगवान शिव के इस गण को मंदिरों में आवश्यक रुप से बनाया जाता है। कीर्तिमुख को शिव ने वरदान दिया था। मंदिर की भव्यता देखने के पश्चात लगा कि यदि इस मंदिर का अवलोकन हम नहीं करते तो मल्हार के विषय में काफ़ी कुछ जानने से वंचित रह जाते। मंदिर दर्शन के पश्चात हम बिलासपुर की ओर चल पड़े। …… इति मल्हार यात्रा कथा।

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

वेलसर गाँव का हर्रा टोला

भोजन के वक्त विष्णु सिंह से शंकर गढ के समीप अन्य पुरातात्विक स्थानों के विषय में जानकारी ली तो उन्होने शंकरगढ के समीप ही स्थित हर्रा टोला बेलसर का जिक्र किया। हमने भोजनोपरांत हर्राटोला जाना तय किया। शंकरगढ से 5-6 किलोमीटर की दूरी पर वेलसर गाँव का हर्रा टोला एक मोहल्ला है।  रास्ते में एक नदी आती है जिसका नाम पूछने पर महान नदी बताया गया। हमें दूर से ही ऊंचे आयताकार टीले पर एक भग्न मंदिर दिखाई देता है। यह स्थान चार दिवारी से घिरा हुआ है। गाड़ी रोकने पर एक व्यक्ति से मुलाकात होती है। शायद वह यहाँ का चौकीदार है।
सामत सरना का दृश्य 
प्रवेश द्वार के समीप ही भग्न मंदिर की सामग्री पड़ी हुई है। थोड़ा आगे बढने पर किसी मंदिर के द्वार का सिरदल दिखाई देता है। मुख्य टीले पर स्थित मंदिर का शीर्ष भाग इस तरह दिखाई दे रहा था जैसे किन्ही आदिम मनुष्यों ने पत्थरों को एक दूसरे के उपर रख कर वर्तमान संरचना खड़ी कर दी हो। मंदिर के समीप पहुंचने पर दिखाई दिया कि यह कोई अकेला मंदिर नहीं है। यह तो मंदिरों का समूह है। चौकीदार ने बताया कि पहले यह मंदिर पूरा मिट्टी के टीले में दबा हुआ था। लगभग बीस साल पहले रायकवार साहब ने इसका उद्धार किया था। चलो यह तो अच्छा हुआ मैने रायकवार साहब को फ़ोन लगा कर इस स्थल के बारे में जानकारी ली और जिज्ञासा की शांति की।
अमित सिंह, ललित शर्मा, विष्णु सिंह, बादशाह खान हर्रा टोला में 
पूर्वाभिमुखी मुख्य मंदिर के समीप ही ईष्टिका निर्मित मंदिर के अवशेष दिखाई देते हैं साथ ही छोटे-छोटे अन्य मंदिर भी हैं। मुख्य मंदिर का मंडप गिर चुका है। सरसरी तौर पर देखने से ज्ञात होता है कि मंदिर द्वार के सिरदल पर नंदीआरुढ शिव पार्वती के साथ शिव परिवार का अंकन है। जिसमें गरुड़ पर सवार कार्तिकेय एवं गणेश जी प्रदर्शित हैं। इसके साथ ही कीर्तिमुख, देवी, भारवाहक विष्णु लक्ष्मी के साथ नदी देवियों का भी अंकन किया गया है। मंदिर के द्वार के समीप ही एक प्रतिमा के केश बुद्ध की प्रतिमा जैसे दिखाई  दिए, लेकिन उसके अलंकरण से बुद्ध प्रतीत नहीं होते। जी एल रायकवार ने जिज्ञासा शांत करने हेतु बताया कि यह शिव की सेना का ही एक किरदार है।
हर्रा टोला बेलसर का भग्न शिवालय 
उन्होने बताया कि स्थापत्य शैली के अनुसार इसे आठवीं सदी के आस-पास का माना गया है। इस स्थल से प्राप्त कूछ प्रतिमाएं अम्बिकापुर स्थित जिला पुरातत्व संग्रहालय में रखी हुई हैं। आस-पास देखने और चौकीदार से पता चला कि यह मंदिर केराकछार एवं महान नदी के संगम पर स्थित है। अब सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था और हमे अम्बिकापुर तक का सफ़र तय करना था। समीप ही एक व्यक्ति टाट लगा कर बनाई हुई छोटी सी दुकान में भजिया तल रहा था। शायद चखना जैसा ही कोई उपक्रम था। हमने कुछ चित्र लिए और हर्रा टोला से अम्बिकापुर की ओर प्रस्थान किया। 
हर्रा टोला मंदिर समूह का  शिवालय 
रास्ते में महान नदी के कटाव पर रेत मिश्रित मिट्टी की कई परतें जमी हुई दिखाई दी। जिज्ञासावश गाड़ी रोक कर हमने देखने का प्रयास किया। क्योंकि नदी के तटों पर ही सभ्यताओं का विकास एवं अवसान हुआ है। इस तरह के कटाव पर ही उनके अवशेष प्राप्त होते हैं। आदिम कालीन प्राचीन प्रस्तर के मानवोपयोगी उपस्कर एवं आयुध इन परतों में स्थित होते हैं। इन्हे देखने एवं पहचानने के लिए भरपुर समय की आवश्यकता होती है। वह हमारे पास नहीं था। हम तो सिर्फ़ घुमक्कड़ है, शोध तलाश और अनुसंधान का कार्य विषय विशेषज्ञों एवं संबंधित विद्याथियों के लिए छोड़ देना सही है। हर्रा टोला पहुंच कर आनंद आया। हमने विष्णु सिंह देव को मन ही  मन धन्यवाद दिया।
भग्न मंदिर के अवशेष 
आज की रात अम्बिकापुर में विश्राम करके सुबह मैनपाट जाने का कार्यक्रम बनाया गया था। अमित सिंह देव ने अपनी सफ़ारी गाड़ी को मरम्मत के लिए गैरेज में छोड़ा था। गैरज पहुंचने पर पता चला कि गाड़ी की मरम्मत का कार्य चालु है। हम अब रात्रि विश्राम के लिए सर्किट हाऊस पहुंचे। पूर्व के अनुभवानुसार पता चला कि कोई भी रुम खाली नहीं है। हमारा मोबाईल गुम होने के कारण एस डी एम तीर्थराज अग्रवाल का नम्बर गुम गया था। साथियों ने प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी। अब हमने तय किया कि वापस उदयपुर चला जाए। वहीं के विश्राम गृह में एक रात और काटी जाए। भोजन का इंतजाम हमने अमित सिंह देव की सलाह पर अम्बिकापुर के अच्छे माने जाने वाले रेस्टोरेंट विरेन्द्र प्रभा से किया। उक्कड़-कुक्कड़ खाने का मन नहीं था। सिर्फ़ अंडा करी, सादी सब्जी के साथ रोटियों और पुलाव का पार्सल लिया।
शिव सेवक बुद्ध के रूप में 
अब हम अमित सिंह देव के साथ उदयपुर के मार्ग पर थे।  रास्ते में ही इनकी जमीदारी लखनपुर आती है। हमने उन्हे घर छोड़ा और उदयपुर के विश्राम गृह पहुंचे। यहाँ पहुचने पर चौकीदार ने बताया कि एक कमरा तो बुक हो गया है। अन्य कोई शासकीय कर्मचारी ठहरे हैं। उसने हमारे लिए 1 नम्बर रुम खोल दिया। मैंने सुबह जाते वक्त चौकीदार को कहा था कि रात्रि विश्राम करने के लिए हम इधर लौट कर आएगें तो बात बन गयी थी। जब विरेन्द्र प्रभा होटल के भोजन का पार्सल खोला गया तो सब्जी में उपर तक तेल भरा हुआ था। देखते ही माथा ठनक गया। जैसे-तैसे जितना तेल सब्जी में से गिराया जा सकता था उतना फ़ेंका और भोजन किया और बिस्तर के हवाले हो गया। ठंड अच्छी थी, इसलिए सोना ही ठीक था। राहुल काफ़ी देर तक माउथ आर्गन बजा कर ब्लंडर करते रहा। पंकज और राहुल कब सोए इसका मुझे पता नहीं चला।

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