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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

प्यार न बांटा जाए रे साथी

पहुचे और तख्ता संभाला 
प्रारंभ से पढें
आहिस्ता आहिस्ता भीड़ में जगह बनाते हुए हम गिरीश जी के घर राईट टाऊन गेट नम्बर 4 की तरफ़ बढ रहे थे। इन्होने घर का पता किरयाणे की दुकान के पास का दिया और दुकान के मालिक का नाम भी पंजाबी जैसा था मतलब पंजाबी ही था। हम उसे सरदार मानने की गलती कर बैठे बस यहीं चूक हो गई, पुरानी रेल्वे लाईन के के उपर से कई चक्करखाने के बाद इनके घर का रास्ता दिखाई दिया। गाड़ी किनारे पर लगा कर इनके यहाँ दाखिल हुए तो जबलपुर ब्रिगेड के कोई भी मेम्बरान नहीं पहुंचे थे। गिरीश दादा के मोबाईल पर फ़ुरसतिया जी का फ़ोन आ रहा था, वे भी हमारे जैसे कहीं भटक रहे थे भूल भुलैया में। हम गली के मुहाने तक आए, उनकी सहायता करने के लिए। थोड़ी देर में वे पहुंच गए।

अनूप शुक्ल, विजय श्रीवास्तव, ललित शर्मा, सत्येन्द्र शर्मा 
दादी ने नाश्ते की भरपूर तैयारी कर रखी थी। जबलपुर के लड्डूओं के साथ पेसल मिक्चर और चाय का विशेष इंतजाम था। विजय श्रीवास्तव जी, विजय तिवारी जी, बवाल हिन्दवी जी भी उपस्थित हुए। बस हँसी ठहाकों के साथ ब्लॉगरों की बैठकी जम गई। फ़ुरसतिया जी ने ब्लॉगिंग के सूत्रों पर व्याख्यान दिया और चर्चा चलते रही चाय नाश्ते के साथ। चर्चा सम्मानों की निकल गई। फ़ुरसतिया जी ने बताया कि उन्हे कहाँ कहाँ से सम्मानों का नेवता आया और उन्होने सम्मान ग्रहण नहीं किया। ये उनका बड़प्पन है कि उन्होने सम्मान करने वाले को सम्मानित करने का मौका नहीं दिया। हमें तो सिर्फ़ एक मेल आ जाती उतने में ही गिरीश दादा को साथ लेकर चल देते सम्मान ग्रहण करने के लिए। हमने कहा कि अब समय आ गया है आपको भी सम्मानित हो जाना चाहिए।

विजय तिवारी, अनूप शुक्ल,  ललित शर्मा, सत्येन्द्र शर्मा 
ब्लॉगिंग पर अब लोगों का ध्यान कम ही है। लगभग ब्लॉगर फ़ेसबुक पर स्थानांतरित हो गए हैं। ब्लॉगिंग के लिए चिंता जनक है। जब से ब्लॉगवाणी और चिट्ठा जगत बंद हुआ है, नए चिट्ठों की आमद का पता ही नहीं चलता। पुराने चिट्ठों पर भी पोस्टों की फ़्रिक्वेंशी कम हुई है। बड़का ब्लॉगर और छुटका ब्लॉगर सभी मिलाकर कम लिखने लगे हैं। लेकिन अधिक चिंता का विषय नहीं है। जिन्हे एक बार ब्लॉग रोग लग गया वह जीते जी छूटने वाला नहीं है। अगर ब्लॉग लिखना भी बंद देगे तब भी ब्लॉग देखने आएगें, क्या हो रहा है इस आभासी दुनिया में जरा एक बार झांक ही लिया जाए। इस महारोग से मुक्ति पाना इतना आसान नहीं है। अफ़ारे के कारण पेट में हुई गुड़गुड़ी अपने आप ही रास्ता बना लेती है निकलने का। 

प्यार न बांटा जाए रे साथी
फ़ुरसतिया जी फ़ोटो में तो काफ़ी सीनियर दिखाई देते हैं, पर आमने सामने भेंट होने से विजय तिवारी जी से भी कम उम्र के लगे :)। अब इन दोनो के सामने हमारी, गिरीश जी, संध्या जी और बवाल साहेब की बखत ही क्या है। ब्लॉगिंग के सीनियरों को वास्तविक जीवन में भी सीनियर दिखाई देना चाहिए। जब तक कुछ बाल पके दिखाई नहीं दें तब तक कौन सीनियर मानता है। :) हाँ महेन्द्र मिसिर जी से भेंट नहीं हो पाई। हार्दिक इच्छा थी उनसे मुलाकात करने की। पता चला कि कहीं व्यस्त थे। विजय श्रीवास्तव जी ने "दशहरा" मैग्जिन पकड़ाई। इसका प्रकाशन रायपुर से ही होता है। मुझे जानकारी नहीं थी, लेकिन कंटेट और डिजाईन की दृष्टि से अच्छी मैग्जिन लगी। जहाँ बवाल हों और वहाँ बवाल न हो यह हो ही नहीं सकता। सभी ने उनसे गाने की फ़रमाईश की। लेकिन साज के बिना गाने का मजा नहीं।

चाचू पशीने क्यों आ रहे हैं "बवाल साहेब " 
गिरीश दादा के यहाँ सुर ताल के सारे साधन हैं। लेकिन उनके हारमोनियम की एक कुंजी चिपकने के कारण मामला कुछ जमा नहीं। कहते हैं न "नाच न आवै आंगन टेढ़ा", जिसको नाचना आता है वह कहीं पर भी नाच लेता है। क्यों बसंती नहीं नाची थी क्या? पहाड़ की चट्टान पर पड़े हुए काँच पर। बस ऐसा ही कुछ सिचुएशन बन गया था। बवाल जन्मजात गायक हैं, जब हारमोनियम काम नहीं किया तो उन्होने ढोलक लेकर सुर ताल मिला लिया और मेरा प्रिय भजन "प्यार न बांटा जाए रे साथी प्यार न बांटा जाए" गाया। फ़िर अपनी मर्जी के भी उन्होने 4-5 गजल गीत गाए। विजय तिवारी जी ने बताया कि उनका पैतृक गाँव तेवर है। यदि उन्हे फ़ुरसत होती तो वे हमें घुमाने ले जाते। हमने इच्छा जाहिर की तो उन्होने कहा कि वे व्यवस्था कर देते हैं, वहाँ उनका भतीजा राजा मिल जाएगा। इस तरह सभा समाप्ति की ओर थी। सभी देवता अपने-अपने घरों ओर प्रस्थान कर गए और हम अपने डेरा की ओर चल पड़े। आगे पढें…जारी है…

नोट - फोटो गिरीश दादा की फेसबुक से साभार 

रविवार, 28 अप्रैल 2013

जमा गढ़ी नौ लाख की

दुरंतो

आखिर अमरावती-जबलपुर एक्सप्रेस का हार्न बज गया और चल पड़ी। 24 नवम्बर की रात के 11 बज रहे थे, हल्की हल्की ठंड सुहानी लग रही थी। थोड़ी देर तक ट्रेन ने रेंग कर अपनी गति पकड़ ली और हम चल पड़े जाबालिपुरम याने जबलपुर की ओर। ट्रेन के खटकों के बीच नींद आ जाती है और सुबह जब आँख खुलती है तो जबलपुर का मदनमहल स्टेशन दिखाई देता है और थोड़ी देर में जबलपुर जंक्शन पहुंच जाते हैं। यहाँ से त्रिचक्रवाहिनी से घर पहुंचते और स्नानोपरांत प्रात:राश लेकर मित्र को फ़ोन लगाया जाता है। उन्होने मजबूरी बताते हुए साथ जाने से मना कर दिया। किस्सा यहीं खत्म हो गया। कोई किस्सा जन्म लेने से पहले ही गर्भपात हो गया। खाया पीया कुछ नहीं गिलास तोड़ा बारा आना। उन्हे भी हम कुछ नहीं कह सकते थे क्योंकि मित्रता का बंधन जो था। हो सकता है उनकी भी मजबूरियों को उसी वक्त आना था। किसी ने कहा है न कोई तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यूँ ही बेवफ़ा नहीं होता। उनने कह दिया और हमने मान लिया। अब हमारे समक्ष दो दिवस का समय था और उसका सदुपयोग करना था। सोचा क्यों न जबलपुर के आस-पास ही आवारगर्दी कर ली जाए।

द्वार
जबलपुरिया महाब्लॉगराधीश आदरणीय गिरीश दादा को फ़ोन लगा कर बता दिया कि हम पहुंच गए हैं तो उन्होने कहा कि "हमाए घर पे ही गोष्ठी रखते हैं शाम को, आप सब आईए" और त्वरित कार्यवाही करते हुए सभी ब्लॉगर मित्रों को संदेश भेज दिया कि "घुमंतू प्रजाति के ब्लॉगर ललित शर्मा नगर में प्रवेश कर गए हैं" तथा इस मेसेज की एक प्रति मुझे भी भेजी। भोजनोपरांत हम गढा घूमने गए, जिसे रानी दुर्गावती का दुर्ग बताया जाता है। आज मोहर्रम का दिन था, जबलपुर की सड़कों पर "बाबा" लोग ही दिखाई दे रहे थे। संवेदनशील इलाका होने के कारण पुलिस ने व्यवस्था कर रखी थी और चौकस होकर घुड़सवार भी तैनात कर रखे थे। मुख्य मार्ग को प्रतिबंधित कर देने के कारण हम पतली गलियों से निकल कर आखिर दुर्ग तक पहुंच ही गए।

चेतावनी
दुर्ग तक जाने के लिए पहाड़ी पर पैड़ियाँ बनाई गई हैं। साथ ही युवा भजनियों को चेतावती देते हुए स्लोगन जगह जगह लिखे हैं। चेताया गया है कि चट्टानों की आड़ में बैठकर कोई आपत्तिजनक हरकत न करें जिससे पर्यटकों को नजर नीची करनी पड़े। सीढियों से चढते हुए दांई तरफ़ जिन्नात की मस्जिद बनी हुई है। चट्टानों के बीच के खोल में इसे व्यवस्थित किया गया गया है। इसके आगे बढने पर शिवालय भी है। गढ में पहुंचने पर सामने चट्टानों पर बना आवास दिखाई देता है। एक बड़ी चट्टान का सदुपयोग करके बनाया गया। तत्कालीन वास्तुकार ने निर्माण कौशल का अद्भुत परिचय दिया। यह रानी दुर्गावती का किला कहलाता है। यहाँ की ईमारतें ढह चुकी हैं, उनके भग्नावशेष अभी तक विद्यमान हैं। कुछ पर्यटक हमें यहाँ दिखाई दिए। 

जिन्नातों की मस्जिद
चट्टान पर बनी बड़ी ईमारत के समक्ष एक घुड़साल दिखाई देती है। यहाँ पर पुरातत्व विभाग का कोई भी कर्मचारी दिखाई नहीं दिया। घुड़साल में चूने की कुछ बोरियाँ रखी दिखाई दी। समीप ही पानी का कुंड भी बना है, अवश्य ही यह किले में जलापूर्ति  के काम आता होगा। कुछ लोगों का कहना है कि घुड़साल के प्रवेश द्वार के शीर्ष पर खजाने का मानचित्र बना है। लेकिन मुझे वह कहीं से खजाने का मानचित्र नहीं लगा। मैने छत पर चढ़ कर उसे सुक्ष्मता से देखने का प्रयास किया। चित्र लेने के लिए नीचे झुकना पड़ा। पर सही चित्र नहीं ले पाया। अधिक झुकने पर सिर के बल गिरने का खतरा था। छत से उतर कर हमने किले का भ्रमण किया और कुछ चित्र खींचे। किले की मुख्य ईमारत का पुनर्निर्माण भवनाशेष से किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि जगह जगह पर कुछ नक्काशीदार पत्थरों का प्रयोग भी हुआ है। 

घुड़साल
रानी दुर्गावती का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से उसकी अदम्य वीरता को देखते हुए लिखा गया है। गढ़ा-मंडला में आज भी एक दोहा प्रचलित है - मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच . जमा गढ़ी नौ लाख की, दो सोने की ईंट"। रानी दुर्गावती कालिंजर के चंदेल राजा कीर्तिसिंह की इकलौती संतान थी। नवरात्रि में अष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण कन्या का नाम दुर्गावती रखा गया।रूपवती, चंचल, निर्भय वीरांगना दुर्गा बचपन से ही अपने पिता जी के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। ये बाद में तीरंदाजी और तलवार चलाने में निपुण हो गईं। गोंडवाना शासक संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह की सुन्दरता, वीरता और साहस की चर्चा धीरे धीरे दुर्गावती तक पहुँची परन्तु जाति भेद आड़े आ गया। फ़िर भी दुर्गावती और दलपत शाह दोनों के परस्पर आकर्षण ने अंततः उन्हें परिणय सूत्र में बाँध ही दिया।

रानी दुर्गावती गढ़ मंडला
दुर्भाग्यवश विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था. अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया. उन्होंने अनेक मंदिर,मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया। दुर्गावती ने 16 वर्ष तक जिस कुशलता से राज संभाला, उसकी प्रशस्ति इतिहासकारों ने की। आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है, "दुर्गावती के शासनकाल में गोंडवाना इतना सुव्यवस्थित और समृद्ध था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्णमुद्राओं और हाथियों से करती थी। मंडला में दुर्गावती के हाथीखाने में उन दिनों 1400 हाथी थे।"

गढ़ और ब्लॉगर
गोंडवाना के उत्तर में गंगा के तट पर कड़ा मानिकपुर सूबा था। वहाँ का सूबेदार आसफखां मुग़ल शासक अकबर का रिश्तेदार था। वह लालची और लुटेरे के रूप में कुख्यात भी था। अकबर के कहने पर उसने रानी दुर्गावती के गढ़ पर हमला बोला परन्तु हार कर वह वापस चला गया, लेकिन उसने दुबारा पूरी तैयारी से हमला किया जिससे रानी की सेना के असंख्य सैनिक शहीद हो गए। उनके पास मात्र 300 सैनिक बचे। जबलपुर के निकट नर्रई नाला के पास भीषण युद्ध के दौरान जब झाड़ी के पीछे से एक सनसनाता तीर रानी की दाँई कनपटी पर लगा तो रानी विचलित हो गई. तभी दूसरा तीर उनकी गर्दन पर आ लगा तो रानी ने अर्धचेतना अवस्था में मंत्री आधारसिंह से अपने ही भाले के द्बारा उन्हें समाप्त करने का आग्रह किया. इस असंभव कार्य के लिए आधार सिंह द्बारा असमर्थता जताने पर उन्होंने स्वयं अपनी तलवार से अपना सिर विच्छिन्न कर वीरगति पाई।

खजाने का नक्शा और एक ब्लॉगर दो सिविलियन
वे किसी भी कीमत पर जिन्दा रहते हुए दुश्मन के आगे समर्पण नहीं करना चाहती थीं और मरते दम तक शेरनी की तरह मैदान में डटी रहीं। उनके शासन काल में प्रजा सुखी और संपन्न थी। राज्य का कोष समृद्ध था जिसे आसफखां लेकर वापस लौट गया। जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां देशप्रेमी जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं. जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती युनिवेर्सिटी भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है। गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ा-मंडला सहित 52 गढ़ों की शासक वीरांगना रानी दुर्गावती ने अपना सम्मान अक्षुण्ण रखा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए कर्तव्य की बलिवेदी पर वह चढ गई और इतिहास में अमर हो गई।

वास्तुकार की अनोखी कृति
मदनमहल से हम लौट कर बाजार की तरफ़ आ गए। मोहर्रम का जुलूस होने के कारण भीड़ भाड़ के साथ गहमा गहमी भी अत्यधिक थी। इधर जाबालि ॠषि का फ़ोन आना शुरु हो गया। अब हमें गढ़ ब्लॉगर की तरफ़ जाना था। समाचार था कि जाबालिपुरम के नामी गिराम ब्लॉगरों के दर्शन के साथ फ़ुरसतिया ब्लॉगर का दर्शन एवं श्रवण लाभ प्राप्त होगा। कहने का तात्पर्य है कि अब वह घड़ी समीप आ गई थी जब बड़े ब्लॉगरों का लघु सम्मिलन तय था। जाबालि ॠषि घड़ी-घड़ी घड़ी की तरफ़ देख रहे थे। जब से मोबाईल में घड़ी हो गई है, तब इंतजार कठिन हो गया है। घड़ी की तरफ़ देखते हुए बंदा दो चार कॉल कर ही देता है। वही घड़ी ठीक थी जिससे फ़ोन नहीं होता था, सिर्फ़ इंतजार होता था।  आगे पढें जारी है……

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

ज्योतिष का प्रभाव

लोकसभा चुनाव 2009 में छत्तीसगढ़ की कोरबा लोकसभा सीट से चरणदास महंत जी कांग्रेस के उम्मीद्वार  थे, सुमित दास ने मुझसे कोरबा चुनाव प्रचार के दौरान साथ चलने कहा तो मैंने भी घुमक्कड़ी दृष्टि से इलाके का सर्वेक्षण करने के लिए हां कर दी। उसका भी काम हो जाएगा और मेरा भी। 16 अप्रेल को मतदान सम्पन्न हुआ और 17 अप्रेल को मैं अत्यावश्यक कार्य से शाम की फ़्लाईट से दिल्ली आ गया। गुड़गाँव के होटल में रात्रि विश्राम कर रहा था तभी लगभग रात्रि 11 बजे महंत जी का फ़ोन आया और चर्चा के दौरान मैने उन्हे बताया कि मेरा आंकलन है कि कांग्रेस सिर्फ़ एक सीट पर ही विजयी रहेगी और 10 सीटों पर भाजपा का कब्जा रहेगा। 16 मई को चुनाव परिणामों की घोषणा हुई, जिसमें मेरा आंकलन सही निकला।

48 डिग्री सेल्सियस की एक महीने की चुनाव प्रचार की कड़ी मेहनत के बाद परिणाम आ ही गया, चरण दास जी विजयी रहे।  चुनाव के पश्चात कांग्रेस को बड़ा दल होने के कारण सरकार बनाने का मौका मिला। 26 मई को केबिनेट का शपथ ग्रहण होना था। चरणदास महंत जी को मंत्रिमंडल में स्थान मिलने की चर्चाएं हवा में गर्म थी। स्थानीय कार्यकर्ताओं में भी उत्साह था और वे अपने साधनों से दिल्ली पहुंच रहे थे। सुमित दास के मन में दिल्ली जाने की थी जिससे शपथ ग्रहण कार्यक्रम को वह करीब से देख सके। हम 26 मई को दिल्ली पहुंच गए और पहाड़गंज में डेरा जमाया। स्नानाबाद पता चला कि आज होने वाला शपथ ग्रहण स्थगित हो गया है अब अगला कार्यक्रम 28 को होगा।

हम दो दिन दिल्ली और गुड़गाँव घूमे-फ़िरे। 28 तारीख को होने वाले मंत्रिमंडल में शपथ लेने वालों की सूची में चरणदास महंत का नाम नहीं था। दोपहर सभी मंत्रियों ने शपथ ले ली थी। अब हमने वापसी का कार्यक्रम बनाया। मैं और सुमित संध्या काल में चरण दास महंत जी के फ़्लैट पर गए, छत्तीसगढ़ कांग्रेस के काफ़ी नेता वहाँ एकत्रित थे। हमारी मुलाकात महंत जी से हुई और हमने अपनी वापसी के विषय में बताया। उन्होने टिकिट कन्फ़र्म कराने के लिए रेलमंत्री के नाम चिट्ठी लिख दी। गर्मी के दिन थे, हमने 3900 रुपए में एसी की 2 टिकिटें ली और स्वयं जाकर रेल मंत्रालय के डिब्बे में चिट्ठी डाल कर आए। अब हम मौज में थे, गाड़ी का समय अगले दिन सवा तीन बजे के लगभग था। पालिका बाजार की सैर करके कुछ इलेक्ट्रानिक आयटम खरीदे और शाम पंचकुईया रोड़ पर फ़ैशन डिजायनर रोहित बल की बार में गुजारी।

अगले दिन जब नेट से पता किया तो टिकिट कन्फ़र्म नहीं हुई थी। सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता, अभी चार्ट क्लियर नहीं हुआ है स्टेशन पर जब चार्ट लगेगा तो उसमें कन्फ़र्म दिखाएगा। स्टेशन पहुंचने पर चार्ट में देखा तो तब भी 15-16 वेटिंग बता रहा था। मतलब एसी में सीट नहीं होने के कारण हमारा आरक्षण कन्फ़र्म नहीं हुआ। टी टी से चर्चा होने पर उसने बताया कि आगे भी कन्फ़र्म होने की कोई गुजांईश नहीं है। आपको स्लीपर में बैठना होगा। हो गया सत्यानाश, 39 सौ रुपए देने के बाद भी स्लीपर में भी जगह नहीं थी। हम एसी 2 के बगल वाले स्लीपर में चढ गए। लैट्रिन खोली के पास दो तीन सवारियाँ बैठी थी। हमने भी बैग रख कर वहीं डेरा जमा लिया। सोच रहा था कैसा दुर्भाग्य है कि इस स्थान पर तो 200 में बैठकर सफ़र कर सकते थे। 39 सौ में भी यही स्थान मिला। सुमित ने टी टी से चर्चा की, लेकिन उसने भी स्थान नहीं होने की बात कहकर अपना पीछ छुड़ाया। 

हम टट्टी खोली के पास टिके रहे क्योंकि किसी की आरक्षित सीट पर जाकर बैठने से रात को उठना ही पड़ता और आरक्षित सीट का मालिक भी नहीं चाहता कि कोई अन्य सीट पर बैठे, सभी सवारियाँ उसे चोर उचक्के नजर आती हैं। इसलिए हमने यहीं बैठने का फ़ैसला लिया। यह जीवन में पहली बार घटा था। दिल्ली से रायपुर तक का 23 घंटे का लम्बा सफ़र होने के कारण बैठने का स्थान भी जरुरी था। साथी सवारियों से बात-चीत करते आगरा पहुंच गए। आगरा पहुंचने के बाद सुमित मुझे कह कर गया कि सीट का इंतजाम करके आता हूँ। थोड़ी देर बाद लड़का मेरे पास आया और कहने लगा कि सुमित भैया ने भेजा है, आप कृपया मेरे बारे में कुछ बताईए न, ऐसा कहकर वह हाथ की हथेली खोल कर बैठ गया। मैं समझ गया कि सुमित ने टाईम पास मुर्गा भेज दिया है और अब इसका भविष्य जांचना पड़ेगा।

मैने उसकी जन्म तिथि का आंकलन करते हुए 2-4 भूतकाल की बातें और 2-4 वर्तमान की घटनाओं पर तुक्का छोड़ा, जो एकदम सही फ़िट हो गया। अब वह लड़का पूरे प्रभाव में आ चुका था। वहीं मेरे पास बैठा ही रहा। थोड़ी देर में सुमित का भेजा हुआ दूसरा बंदा भी पहुंचा। उस पर भी मेरा आंकलन सटीक बैठ गया। वह भी वहीं बैठकर चर्चा करने लगा। अगली बार तीसरा बंदा आया, यह कोई 35-40 की उमर का रहा होगा। उसने भी मुझसे कुछ बताने कहा। मैने उसकी जन्मतिथि से आंकलन लगाया तो इस समय उसकी किडनी में स्टोन होना चाहिए था। मैने कहा कि आपकी किडनी में स्टोन है और परेशान है उससे। डॉक्टर ने आपरेशन करवाने की सलाह दी है। सुनकर वह भौंचक्क रह गया, सीधे पैर ही पकड़ लिए। बोला महाराज आपको कैसे पता चला कि मेरी किडनी में स्टोन है और डॉक्टर ने आपरेशन कराने कहा है? मैने कहा कि फ़िर मेरे पास क्यों आए थे, अपने आस पास की किसी सवारी से ही पूछ लेते।

उसने विनय पूर्वक निवेदन किया कि आप यहाँ सवारियों की ठोकर में मत बैठिए, मेरी सीट पर चलिए, एक साईड बर्थ आपको देता हूँ, हम पति-पत्नी और एक बच्चे के पास तीन सीट हैं एक सीट पर आप विराजिए, बच्चे को हम अपने साथ सुला लेगें। मेरे मना करने पर भी नहीं माना और मेरा बैग उठा कर आगे आगे चल पड़ा। मैं उसके पीछे पीछे पहुंचा। उसने साईड लोवर वाली बर्थ मेरे नाम कर दी। सुमित सीट पर बैठा था और उसके चेहरे पर विजयी भाव की हल्की हल्की स्मित थी। इस तरह भविष्याकांक्षी जिज्ञासु लोगों के कारण हमारा उद्धार हुआ, अन्यथा टट्ठी खोली के पास बैठकर ही रात कटती। जब मैने एसी 2 की टिकिट ली थी तभी संदेह हो गया था कि कन्फ़र्म होनी मुश्किल है, क्योंकि गोंडवाना में एसी 2 की एक ही बोगी लगती है और सवारियाँ सैकड़ों होती है। उस दिन के बाद मैने जब भी एसी की टिकिट ली तो कन्फ़र्म ही ली वरना स्लीपर की विश्वसनीय सवारी करने का ही आनंद लिया।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

अलवर का अजेय दुर्ग: बाला किला

पीतल  तोप 

किले के प्रवेश द्वार पर वन विभाग के कर्मचारी रजिस्टर में आवक जावक दर्ज करने के साथ पर्यटकों से पूछ्ताछ भी करते हैं। हमने भी अपनी उपस्थिति यहाँ के रजिस्टर में दर्ज कराई।हस्ताक्षर करने के लिए पेन ढूंढने पर बैग में दिखाई नहीं दिया तो एक फ़ारेस्टर ने अपना पेन दिया। मुझे किले पर पहुंच कर भी कुछ जानकारियाँ लिखनी थी, उन्होने कहा कि यह पेन आप रख लीजिए। मैने कहा कि लौटकर आपको दे दिया जाएगा। उन्होने कहा कि जरुरत नहीं है। लेकिन मुझे पेन की जरुरत उस समय थी, लौटने के बाद वापिस किया जा सकता था। पहाड़ी सड़क पर आगे बढने पर अलवर का विहंगम दृश्य दिखाई देने लगा। आगे चलने पर जयपोल द्वार दिखाई देता है। यहीं पर बांए तरफ़ की सड़क धंस गई है। जहाँ बोरियाँ लगा रखी है, अगर ध्यान नहीं रहा तो भयानक दुर्घटना भी हो सकती है।  जयपोल द्वार के समीप नीचे खाई में करणी माता का मंदिर है। इसका दर्शन हमने लौटते हुए करने का तय किया।

झरोखे से किले की प्राचीर 
अब हम पहाड़ के शिखर पर पहुच चुके थे। यहां से दो तरफ़ रास्ते जाते हैं, बांई तरफ़ का रास्ता हनुमान मंदिर की तरफ़ जाता है और दांई तरफ़ का रास्ता महल में। इस चौक पर सिंटेक्स की पानी की टंकी लगी है। यहीं पर दो सज्जन बैठे मिल गए उन्होने हमें महल का रास्ता बताया। आगे चलने पर महल दिखाई देने लगा। महल के बाहर दांई तरफ़ एक चाय नास्ते की दुकान है। हमने महल में प्रवेश किया तो दो पुलिस वाले दिखाई दिए और प्रांगण में कोई नहीं था। नीचे मंदिर बना हुआ है। महल में आर्कियोलॉजी वालों द्वारा मरम्मत की जा रही थी। पुलिस वाले से चर्चा हुई तो उसने कहा कि यह किला अलवर पुलिस के कब्जे में है। आप उस दरवाजे से भीतर जा सकते हैं।

महल का उपरी हिस्सा 
हमने महल में प्रवेश किया, सामने प्रांगण था, यह महल तीन मंजिला है। उपर की मंजिल में राजा का खास दरबार है उसके दाईं तरफ़ के कमरे में वायरलेस सेट चलने की आवाज आई। कुछ लोग दिखाई दिए। हमने पूरे किले का भ्रमण किया। इस राजमहल किले के निर्माण के बाद में बना हुआ दिखाई दिया। कुछ दिनों पूर्व यहाँ आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की 150 वीं जयंती मनाने के चिन्ह दिखाई दे रहे थे। महल में कई तोपें रखी हुई है। जिसमें दो पीतल का पतरा चढाई हुई तोपें भी शामिल थी। राजमहल के सिंह द्वार पर उत्कीर्ण राज चिन्ह में ध्वज धारण किए हुए वृषभ एवं सिंह दिखाई देते हैं। यह महल बहुत ही अच्छी हालत में है। यहाँ पुलिस की उपस्थित होने के कारण असामाजिक तत्वों की उपस्थिति से बचा हुआ है। महल को देखने के लिए पर्यटकों के लिए कोई रोक टोक नहीं है। इस किले के साथ हसन खान मेवाती का भी नाम जुड़ा हुआ है। 

अलवर यात्रा का सूत्रधार मेरा फुफेरा भाई दिलीप 
किले में सलीम सागर नाम का एक तालाब है, कहते हैं कि जब बादशाह ने सलीम को देश निकाला दे दिया था तब दिल्ली से ईरान तक उसे किसी भी राजा ने बादशाह के भय के कारण शरण नहीं दी तब उसे अलवर गढ के राजा ने अपने किले में शरण दी। ढाई वर्ष तक सलीम यहाँ शरणार्थी रहे। उसी की याद में सलीम सागर का निर्माण किया गया। कहते हैं कि यह किला हमेशा अजेय रहा। इस पर आक्रमण तो अवश्य हुए लेकिन कोई भी इसे जीत नहीं सका। इसलिए इसे बाला किला या कुंवारा किला कहा जाता है। अजेय गढ होने के कारण ही राजा ने हिम्मत करके सलीम को यहाँ पर शरण दी थी। महल दर्शन करने हमने स्टाल वाले से चाय बनवा कर पी। वह अलवर से यहां आकर रोज अपनी दुकान लगाता है।

करणी माता 
मुगल साम्राज्य के उदय से पूर्व निर्मित इस किले के चारों और परकोटा बना हुआ है जो बाहरी हमले से किले कि सुरक्षा करता था. यह किला उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक १०६ किलोमीटर में फेला है. यह १५ बड़े व ५१ छोटे बुर्जो और तोपों के लिए ४४६ द्वारों से युक्त एक सुदृढ़ प्राचीर है जिसे आठ विशाल बुर्ज घेरे हुए है. इसमें अनेक द्वार है. जैसे जय पोल, सूरज पोल, लक्ष्मण पोल, चाँद पोल, कृष्ण पोल और अँधेरी गेट प्रमुख है. इसमें जल महल, निकुम्भ महल, सलीम सागर, सूरज कुंड व अन्य मन्दिर स्थित है.हम यहां से हनुमान मंदिर के दर्शन हेतु गए, यहां पहुचने पर मंदिर बंद दिखाई दिया। 

उजड़ी कोठी 
इसके आगे एक भग्न महल (कोठी) और है। जहाँ जाने के लिए कच्चा मार्ग है। मार्ग में इतनी सारी रोड़ियाँ पड़ी है कि मोटर सायकिल के पंचर होने का खतरा बना रहता है। आगे बढने पर सघन जंगल है। यहाँ पर काले हिरण (सांभर) विचरण करते मिल जाते हैं। अब इन्हे मनुष्यों का अनुभव हो गया है। इसलिए देख कर भी नहीं भागते। मुझे कई सांभर मिले। आगे चलकर एक द्वार बना हुआ है, इस द्वार पर कोई किवाड़ नहीं  है। बांए तरफ़ के मैदान पर कोठी बनी हुई है। निर्माण के अनुसार यह अधिक पुरानी दिखाई नहीं देती। फ़िर भी कळी और सूर्खी के निर्माण के आधार 200 वर्ष पुरानी तो मानी जा सकती है।

काला हिरण (सांभर )
लौटते हुए सांझ होने लगी थी। हमें जयपोल के समीप मोटर साईकिल खड़ी करके करणी माता के दर्शन करने थे। सड़क पर एक पूजा सामग्री बेचने वाली की दुकान लगी हुई थी और समीप ही सांभर बैठा हुआ था। दुकान वाला नदारत था। हम पैड़ियों से उतरकर मंदिर तक पहुंचे। पुजारी ने बताया कि नवरात्रि के अवसर यहां बहुत भीड़ होती है और श्रद्धालुओं का नौ दिनों तक तांता लगा रहता है। दो-दो घंटे लाईन में लगे रहने के बाद दर्शन का नम्बर आता है। यहाँ करणी माता के मंदिर में बेल्जियम के काँच की सुंदर पच्चीकारी की गई है। इस मंदिर में बिजली नहीं है। अभ्यारण क्षेत्र होने के कारण बिजली नहीं लगाई जा सकती। काँच लगे होने के कारण थोड़े से ही प्रकाश से मंदिर जगमगा उठता है। इसका निर्माण महाराज विनय सिंह ने करवाया था। करणी माता का दर्शन करके हम वापस शहर की तरफ़ चल पड़े। किले के द्वार स्थित वन विभाग के गार्ड का पेन वापस किया और उसे धन्यवाद दिया।सांझ घिरने लगी थी, अलवर पहुच कर हमने कचौड़ी खाई और खैरथल के लिए चल पड़े। 

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

अलवर राज

ब्लॉगिंग करते कब 4 साल बीत गए, पता ही न चला। आज "ललित डॉट कॉम" की 701 वीं पोस्ट है। इन वर्षों से अनेको ब्लॉगर्स से मुलाकात हुई, हजारों ब्लॉगों को पढा होगा। टिप्पणियों का अदान-प्रदान हुआ और ब्लॉग युद्धों का भी साक्षी बना। लेकिन जो मजा ब्लॉग़िंग का "ब्लॉगवाणी" एवं "चिट्ठा जगत" के रहते था। वह अब कहाँ। इन चिट्ठा संकलकों का स्थान कोई अन्य नहीं ले सका। अभी तक तो उर्जा बनी हुई है लेखन के लिए, कभी थोड़ा उतार चढाव भी आ जाता है। लेकिन ब्लॉगिंग निरंतर जारी है। इस अवसर पर सभी पाठकों को मेरी शुभकामनाएं। 
जिन्दोली घाटी की सुरंग 
दिल्ली जयपुर रेलमार्ग पर अलवर और रेवाड़ी के मध्य खैरथल स्टेशन स्थित है। राजस्थान की यह सबसे बड़ी अनाज की मंडी मानी जाती है। यह एक व्यापारिक नगर है, पूर्व में रेल लाईन पार करने के बाद इस नगर से लगा हुआ कस्बा किसनगढ़ बास है। यहाँ से सोहना तावड़ू एवं भिवाड़ी तिजारा के लिए यात्रा के साधन मिलते हैं। मुझे आज की रात खैरथल में गुजारनी थी और अगले दिन सुबह अलवर का भ्रमण करना था। दौसा से ट्रेन में सवार हुए तो टीटी ने सभी सवारियों को एस टू में खदेड़ना शुरु कर दिया। सारी सवारियाँ एक ही बोगी में भर दी। मैने इस रुट पर टीटीयों की अधिक मनमानी देखी है। जयपुर से दिल्ली के लिए कुल जमा कुछ गाड़ियाँ ही हैं तथा भीड़ इतनी अधिक रहती है कि कब किसका पर्स, घड़ी, अंगुठी पलक झपकते की पार हो जाए पता नहीं चलता। 

अलवर का मार्ग 
थोड़ी देर तक दरवाजे के पास अपने पिट्ठू पर बैठा रहा। फ़िर सामने एक सीट खाली हुई तो जगह बन गई। लगभग साढे सात बजे खैरथल स्टेशन पर पहुंचा। दिलीप मुझे लेने आया हुआ था। ठंड बढ गई थी, साथ ही चलती हुई हवा कानों को काट रही थी। घर पहुंच कर खाना खाया और 8 बजे ही रजाई में घुस गया। एक रजाई से ठंड कम नहीं हुई तो उस पर कंबल डाला तब कहीं जाकर आधे घंटे में गर्मी के साथ नींद आ गई। फ़ोन बजने लगा, लेकिन रजाई से बाहर हाथ निकाल कर फ़ोन उठाने की हिम्मत नहीं थी। फ़ोन दो बार बज कर अपने आप रह गया। सुबह 8 बजे गुदड़ों से बाहर निकला और स्नानाबाद से आकर नाश्ता करके मैं और दिलीप अलवर भ्रमण को चल पड़े।

झील 
खैरथल भी अरावली पर्वत श्रेणी में ही बसा हुआ है। पूर्व में अलवर जाने के लिए जिंदोली घाटी पर चढना पड़ता था। रास्ते में कई खतरनाक मोड़ आते थे। 1994 में यहाँ टनल बननी प्रारंभ हुई थी। जिससे अलवर और खैरथल के बीच की दूरी कम हो गई। आस पास के ग्रामीण अंचल के लोगों को भी इसका फ़ायदा मिला। हम इसी टनल से अलवर के लिए निकले। काफ़ी बड़ी और ऊंची टनल बनाई गई है। इसके निर्माण में एक खास बात यह थी कि इस टनल की खुदाई दोनो तरफ़ से की गई। यह इंजीनियरिंग का बड़ा करिश्मा है। पहाड़ को दोनो तरफ़ से खोद कर सुरंग का मिलान करना बड़ी बात हैं। 10 फ़ुट इधर उधर सरक जाए तो समय और धन का अपव्यय हो सकता था। टनल में पहाड़ों से पानी रिस कर आता है और यह गर्मी में भी ठंडी रहती है। बाहर 48 डिग्री तापमान में भी टनल में 20 डिग्री तापमान रहता है।

जय पोल 
अलवर का प्राचीन नाम शाल्वपुर है। अरावली पर्वत श्रृंखला से घिरा हुए अलवर शहर का इतिहास महाभारत काल से प्राचीन है। यह प्राचीन शहर अपने आगोश में सहत्राब्दियों के इतिहास को समेटे बैठा है। न जाने कितने राजाओं ने यहाँ राज किया और न जाने कितनी कहानियों का जन्म हुआ। महाभारत काल से इसके इतिहास का पता चलता है। महाभारत के युद्ध के पूर्व राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। पिता की मृत्यु के उपरांत राजा विराट ने मत्स्यपुरी से 30 मील पूर्व में विराट नगर बसा कर उसे राजधानी बनाया। किंवदन्ती है कि सरिस्का के वनों में पाण्डवों ने अज्ञातवास का कुछ काल व्यतीत किया। तीसरी शताब्दी में यहां गुर्जर एवं प्रतिहार वंशीय क्षत्रियों का अधिकार था।  

महल का पहला आँगन 
पाँचवी शताब्दी के आसपास इस प्रदेश के पश्चिमोत्तरीय भाग पर राज ईशर चौहान के पुत्र राजा उमादत्त के छोटे भाई मोरध्वज का राज्य था जो सम्राट पृथ्वीराज से ३४ पीढ़ी पूर्व हुआ था। इसी की राजधानी मोरनगरी थी जो उस समय साबी नदी के किनारे बहुत दूर तक बसी हुई थी। इस बस्ती के प्राचीन चिन्ह नदी के कटाव पर अब भी पाए जाते हैं। छठी शताब्दी में इस प्रदेश के उत्तरी भाग पर भाटी क्षत्रियों का अधिकार था। राजौरगढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि सन् ९५९ में इस प्रदेश पर गुर्जर प्रतिहार वंशीय सावर के पुत्र मथनदेव का अधिकार था, जो कन्नौज के भट्टारक राजा परमेश्वर क्षितिपाल देव के द्वितीय पुत्र श्री विजयपाल देव का सामन्त था। इसकी राजधानी राजपुर थी। 

महल का भीतरी दृश्य 
१३वीं शताब्दी से पूर्व अजमेर के राजा बीसलदेव चौहान ने राजा महेश के वंशज मंगल को हराकर यह प्रदेश निकुम्भों से छीन कर अपने वंशज के अधिकार में दे दिया। पृथ्वीराज चौहान और मंगल ने ब्यावर के राजपूतों की लड़कियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। सन् १२०५ में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चौहानों से यह देश छीन कर पुन: निकुम्बों को दे दिया। १ जून, १७४० रविवार को मौहब्बत सिंह की रानी बख्त कुँवर ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रताप सिंह रखा गया। इसके पश्चात् सन् १७५६ में मौहब्बत सिंह बखाड़े के युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। राजगढ़ में उसकी विशाल छतरी बनी हुई है। मौहब्बत सिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र प्रतापसिंह ने १७७५ ई. को अलवर राज्य की स्थापना की।

टूटे हुए झरोखे से अलवर शहर 
खैरथल से अलवर प्रवेश के समय सबसे पहले झील दिखाई देती हैं, पहाड़ियों के बीच बनी इस झील के किनारे महल का निर्माण 1918 में किया गया। यह महल महाराज जय सिंह का निवास था। वर्तमान में यहाँ के सांसद कुंवर भंवर सिंह का कार्यालय का सूचना पट लगा दिखाई दिया। इससे आगे बढने पर थोड़ी चढाई के बाद पहाड़ पर किले के बुर्ज दिखाई देने लगे। यह किला शहर से 595 मीटर की ऊँचाई पर है। सरिस्का अभ्यारण क्षेत्र में होने के कारण इस किले की चौकीदारी निदानी वन खंड के वन विभाग के जिम्मे है। अभ्यारण क्षेत्र होने के कारण यहाँ किसी भी तरह का निर्माण वर्जित है। बाला किला निदानी वन खंड में धोंक, रोंझ, कालाखैर, कूमठा, गुर्जन, पलाश, गोयाखैर, खिरनी, कड़ाया, तम्बोलिया, जाल, गणगार, चापरेन, गुग्ग्ल, आकड़ा, अपामार्ग, मकड़घास, शतावरी, चिरमी(रत्ति),औरया आदि वनस्पति पाई जाती है। बघेरा, लकड़बग्गा, गीदड़, सांभर, चींटीखोर,चीतल, नीलगाय, जंगली सुअर, सेही, लंगुर, नेवला, पाटा गोह, जंगली बिल्ली, कबर बिज्जू, मोर इत्यादि जीव जंतु पाए जाते हैं। जैव विविधता एंव जंगली पशु पक्षी बाला किला के वन में देखने मिलते हैं। 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

भानगढ़ की रत्नावती से एक मुलाकात

आरंभ से पढें
रात का भोजन करने के बाद मेल और फ़ेसबुक चेक किया और बिस्तर के हवाले हो गया। लम्बी यात्रा से थका हुआ होने के कारण पता नहीं कब नींद आ गई। विचित्र सी सुगंध से नींद खुली, आँखें खोल कर देखा तो कमरे में नीली रोशनी वाला बल्ब जल रहा था। कमरे की दीवारें नीली रोशनी से नहाई हुई थी। सुगंध मेरे समीप से ही आ रही थी, एक गहरी सांस लेकर मैने सुगंध को अपने फ़ेफ़ड़ों में भर लिया और आँखें बंद कर ली। सोचा कि घर के ईर्द गिर्द बहुत पेड़ पौधे हैं, हवा के किसी झोंके से चली आई होगी। कुछ देर बाद नथुनों में भरी सुगंध असहनीय होने लगी। मैने कंबल सिर पर ओढ कर नीचे दबा लिया। सभी तरफ़ से सुरक्षित हो गया। अब सुगंध नहीं आएगी सोच कर। धीरे धीरे फ़िर नींद के आगोश में जाने लगा लेकिन सुगंध का आना निरंतर जारी था।

कुछ देर बाद कानों में फ़ुसफ़ुसाहट की आवाज सुनाई देने लगी। मैने धीरे से एक तरफ़ का कंबल हटा कर देखा तो श्रीमती जी और बालक दोनो गहरी नींद में सोए हैं। मैने कंबल सरका लिया। सोने का यत्न करने लगा। फ़ुसफ़ुसाह फ़िर शुरु हो गई, आवाज अपष्ट थी, महिला कि है या पुरुष स्वर है, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैने अब बाईं तरफ़ से कंबल सरका कर चेहरा उघाड़ा, सामने बड़ी खिड़की थी। खिड़की के पार बिजली की चमक दिखाई देने लगी, बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। अरे! ये कैसा  मौसम बनने लगा, बेमौसम बरसात होने लगी। रह रह कर बिजली की चमक खिड़की पर पड़ कर वातावरण को और भी रहस्यमय और संदिग्ध बना रही थी। 

नीले बल्ब की मद्धम रोशनी में बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट कहर ढा रही थी। मैंने पुन: चेहरा ढक लिया, लेकिन फ़ुसफ़ुसाहट कम नहीं हुई। सोचने लगा कि ऐसा तो कभी हुआ नहीं, पहले तो खेतों के बीच सुनसान में खाट डाल कर अकेले सो जाया करता था। आज क्या हुआ? अब दिमाग सन्नाने लगा, मैने एक झटके से कंबल फ़ेंका और उठ कर बैठ गया। एक नजर सोए हुए बालक पर डाली और जैसे ही ड्रेसिंग टेबल की ओर मुंह धुमाया तो उसके सामने धवल वस्त्रों में स्टूल पर बैठी एक गौरवर्णा दिखाई दी। नीली रोशनी में वस्त्रों की सफ़ेदी कुछ अधिक ही चमक रही थी। उसकी पीठ मेरी ओर थी। चेहरा ड्रेसिंग टेबल के शीशे की ओर था। जीरो बल्ब के प्रकाश में स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। मैने आँखे फ़ाड़ कर गौर से उसकी तरफ़ देखा। कमरे के सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बंद थे। 

ये कौन है जो कमरे में घुस आई है? मैने गरदन घुमाकर श्रीमती की तरफ़ देखा, वह मजे से नींद भांज रही थी। जैसे ही मैने ड्रेसिंग टेबल की तरफ़ गरदन घुमाई, सहसा बिजली जोर से कड़की और कमरे में फ़्लेश लाईट सी रोशनी हुई, उसका चेहरा दिखा, बस देखता ही रह गया। रोंए-रोंए खड़े हो गए, कड़ाके की ठंड में पसीना निकलना शुरु हो गया। बाहर कुत्तों के रोने के स्वर सुनाई देने लगे। कुत्ते एक स्वर में लय बद्ध रुदन कर रहे थे। वह स्टूल पर मूर्तिमान बैठी थी, हिल-डुल भी नहीं रही थी। उसने सिर पर पीली ओढनी डाल रखी थी, स्वर्ण जड़ित कांचली के साथ गोटे दार घाघरा पहन रखा था। हाथों में कोहनियों तक चूड़ियाँ, माथे पर बोरला, कानों में बड़े-बड़े झुमके, नाक में नथ, गले में नौलखा और भुजाओं में बाजुबंद पहने सोने से लदी हुई राजस्थानी वेशभूषा में सौंदर्य के प्रतिमान गढ़ रही थी।

पुन: बिजली कड़की और उसका चेहरा दिखा, चौड़ा माथा, माथे पर झूलती लटें, सुंतवा नाक, भरे-भरे होंठ, बड़ी-बड़ी पैनी आँखें जैसे मुझसे कुछ कहना चाहती हों। मेरी हालत पतली हो रही थी। बिजली चमकने के बाद नीले बल्ब की रोशनी में चेहरा दिखाई नहीं देता था। अब बिजली रह रह कर चमकने लगी, उसने चेहरा मेरी तरफ़ नहीं फ़ेरा, शीशे की तरफ़ मुंह किए ही बैठी रही, वह मुझे शीशे में देख रही थी, मैं उसे। बिजली की चमक के साथ बादल फ़िर जोर से गड़गड़ाए। मैने सारे शरीर की ताकत समेट कर पूछा - तुम कौन हो, यहाँ कैसे और क्यों आई हो? उसके ओंठ हिले, और बोली - भूल गए मुझे। कुछ दिनों पहले तो मुझसे मिलने आए थे, वही हूँ मैं, जिसकी खोज में इतनी दूर से चले आए थे। कितनी प्रतीक्षा की तुम्हारी, मुझे मालूम था एक दिन तुम अवश्य आओगे। हिलते हुए होठों से सिर्फ़ बर्फ़ सा सर्द स्वर निकल रहा था। इधर मैं पसीने से तर-ब-तर हो चुका था।

मुझे याद नहीं आ रहा तुम कौन हो, मैं तुम्हे जानता ही नहीं तो तुमसे मिलने क्यों जाऊंगा? मैने उससे प्रश्न किया। बिजली फ़िर कड़की, अब बरसात शुरु हो चुकी थी, विंडो कूलर की छत पर टपकती हुई बूंदों से भी स्वर उत्पन्न होने लगा। बूंदों का आघात रह-रह कर स्वर परिवर्तित करने लगा। आज की रात कयामत की रात में बदलते जा रही थी। जीवन में जो कभी घटा नहीं उसे प्रत्यक्ष देख रहा था। उसने शीशे में ही देखते हुए कहा - "मैं रत्नावती हूँ।" चेहरे पर कोई भाव नहीं, कोई सौम्यता नहीं, कोई कोई कोमलता नहीं। ठोस सर्द चेहरा, हल्के से हिलते हुए ओंठों से वह बुदबुदाई और बिजली ऐसे जोर से कड़की कि लगा छत का कांक्रीट तोड़ कर ही भीतर आ जाएगी। लगता था कहीं आस पास ही गिरी है। बिजली के कड़कते ही बिजली भी चली गई। कमरे में घुप्प अंधेरा छा गया।

कमरे में सिर्फ़ हम दो ही थे, एक जीता जागता मनुष्य और दूसरी आभासी दुनिया से आई हुई प्रेतात्मा। सुगंध को पहचान लिया मैने। केवड़े की सुगंध थी। भानगढ़ में आज भी केवड़े की झाड़ियाँ हैं और रानी रत्नावती को केवड़े का ईत्र और सुगंधित तेल बहुत ही पसंद था। सुगंध से प्रमाणित हो गया यह रत्नावती की ही आत्मा है, जो भानगढ़ से मेरे पीछे पीछे चली आई है। बिजली रोशनी हुई और रत्नावती ने कहना शुरु किया - तुम्हारे दिमाग जो चल रहा है मैं सब जानती हूँ। अभिशप्त नगर की महारानी हूँ मैं। नगर के साथ मैं भी अभिशप्त हो गई। तुम्हें सदियों से जानती हूँ। तुम भानगढ़ के राजकवि थे, दरबार में तुम्हारे कवित्त झरोखे की ओट में बैठकर मैने सैकड़ों बार सुने। फ़िर न जाने कहाँ खो गए तुम। बहुत ढूंढा तुम्हें, सदियाँ बीत जाने पर अब मिले हो। तभी तुमसे मिलने चली आई।

मैं और राजकवि! नहीं नहीं, मैं तो एक ब्लॉगर हूँ जो लेखक होने का भ्रम पाल बैठा है। लोग दो-चार टिप्पणियाँ दे जाते हैं और जिन अखबारों को मुफ़्त में अपने पन्ने भरने होते हैं, वे मेरी ब्लॉग की पोस्ट से अपना अखबार भर लेते हैं। इससे लोगों को भी भ्रम हो गया है कि मैं लेखक हूँ - मैने हकलाते हुए कहा। रत्नावती कहने लगी - मैं तुम्हारे से मिलने खास प्रयोजन से आई हूँ, लेखक से अधिक खतरनाक ब्लॉगर होता है। वह बिना तथ्यों की छानबीन किए कुछ भी अनाप-शनाप लिख देता है अपने ब्लॉग़ पर। तुमने देखा होगा कि कई लोगों ने भानगढ़ के नाम से अफ़वाहे उड़ा रखी हैं। एक ने तो यहां तक लिख दिया कि भानगढ़ से जिंदा लौटकर आना ही मुश्किल है और जो लौटकर आया वह पागल हो जाता है।

मैं इसलिए आई हूँ कि तुम भानगढ़ की एवं मेरी कहानी को जाँच परख कर लिखोगे। जिससे लोगों के दिमाग में छाई हुई भ्रांतियाँ समाप्त हो जाएं। सारे भूत प्राण हरण नहीं करते और वो भी भानगढ़ में, कदापि नहीं। आज भी भानगढ़ के भूतों से लेकर जिंदों की भी इतनी हिम्मत नहीं कि वे मेरी हुक्म उदूली कर दें। डरो नहीं, मैं सिर्फ़ तुमसे मिलने आई थी क्योंकि तुम ही भानगढ़ के साथ न्याय कर सकते हो। अन्यथा तो अफ़वाहें इतनी अधिक उड़ा रखी है कि सत्य और असत्य का ही पता नहीं चलता।

तुम्हारे ब्लॉग पर निरंतर मेरी नजर है। वाणी गीत ने कहा था न "आप जैसे यायावार सारे रोमांच की ऐसी तैसी कर देते हैं :)" उन्हे मेरा निमंत्रण देना और कहना कि अपने साथ सारा गढ़ घुमाऊंगी, मान-मनुहार भी करुंगी और रोमांच खत्म नहीं होने दूंगी, ये मेरा पक्का वादा रहा है। अब मैं चलती हूँ, उसके इतना कहते ही फ़िर एक बार जोर से बिजली कड़की और उसके प्रकाश में मैने देखा कि स्टूल खाली था। केवड़े की सुंगध कमरे में बाकी थी। मैं बिस्तर पर बैठे हुए सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा । इस घटना को मैने किसी को भी नहीं सुनाया ……… आज ब्लॉग पर लिख रहा हूँ।  … इति भानगढ़ पुराण………:)

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

भानगढ के भूतों की सच्चाई

भानगढ़ का राजप्रासाद
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भानगढ़ राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का अभ्यारण के एक छोर पर स्थित है। इतिहास अधिक पुराना नहीं है। 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इसका जन्म होता है और 19 वीं शताब्दी में अवसान हो जाता है। इस समय दिल्ली पर मुगलों का शासन था और दिल्ली के तख्त पर अकबर गद्दीनशीं था। आमेर के कछवाहा राजपुत राजा भारमल ने गद्दी संभालने के बाद अकबर के दरबार में प्रवेश पाया और अपनी पुत्री हरखा बाई का विवाह अकबर से करना स्वीकार किया। विवाह के बाद राजपूतों ने इसे छोड़ दिया और हरखा बाई कभी लौट कर आमेर नहीं आई। भारमल के पुत्र राजा भगवंत दास ने संभवत: इस इलाके पर अपनी पकड़ बनाए रखने लिए इस किले का निर्माण 1573 में कराया। भारमल का प्रपौत्र एवं भगवंत दास के पुत्र राजा मानसिंह ने भी अकबर के दरबार में उच्च स्थान प्राप्त किया। 

राजप्रासाद के भग्नावशेष
भानगढ़ के बसने के बाद लगभग 300 वर्षों तक यह आबाद रहा। राजा भगवंत दास ने यह गढ़ अपने छोटे बेटे माधौ सिंह को दिया। माधौसिंह के बाद उसका पुत्र छत्र सिंह गद्दी पर बैठा। छत्रसिंह एवं उसके पुत्र 1630 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। विक्रम संवत 1722 में इसी वंश के हरिसिंह ने गद्दी संभाली।इसके साथ ही भानगढ की चमक कम होने लगी। छत्र सिंह के बेटे अजब सिह ने समीप ही अजबगढ़ बनवाया और वहीं रहने लगा। यह समय औरंगजेब के शासन का था। औरंगजेब कट्टर पंथी मुसलमान था। उसने अपने बाप को नहीं छोड़ा तो इन्हे कहाँ छोड़ता। उसके दबाव में आकर हरिसिंह के दो बेटे मुसलमान हो गए, जिन्हें मोहम्मद कुलीज एवं मोहम्मद दहलीज के नाम से जाना गया। इन दोनों भाईयों के मुसलमान बनने एवं औरंगजेब की शासन पर पकड़ ढीली होने पर जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह ने इन्हे मारकर भानगढ़ पर कब्जा कर लिया तथा माधो सिंह के वंशजों को गद्दी दे दी।

मंगला माता मंदिर
केशवराय मंदिर में स्थित शिलालेख में संवत १९०२ उत्कीर्ण है। इससे यह सत्यापित होता है कि १६७ वर्ष पूर्व अर्थात अंग्रेजों के आने के बाद तक यह नगर आबाद था| भानगढ़ के उजड़ने के पीछे आक्रमण या दुर्घटना जो भी कारण रहा होगा वह संवत 1902 के पश्चात का है। भानगढ़ उजड़ने के कई कारण किंवदंतियों के माध्यम से जनमानस में प्रचलित हैं। जिसमें सिंधु शेवड़े के प्रतिशोध की कहानी चटखारे लेकर सुनाई जाती है। रानी रत्नावती को सिंधु शेवड़ा पाना चाहता था और उसने तंत्र मंत्र का प्रयोग करके इस नगर को उजाड़ दिया। दूसरी जन श्रुति है कि 1720 में आमेर के राजा जयसिंह ने इसे अपने राज्य में मिला लिया था। मुगलों के दौर में राजस्थान में उनके आक्रमण हुए और भयानक युद्द भी हुए। लेकिन मुगलों का आक्रमण भानगढ़ पर हुआ दिखाई नहीं देता। नगर के भीतर जितने मंदिर हैं सभी सही सलामत हैं। अगर मुसलमानों का आक्रमण हुआ रहता तो मंदिर सलामत नहीं मिलते।

शेवड़ों का धूणा
तीसरी किंवदंती भानगढ़ को जयपुर विस्थापित करने के विषय में सुनाई जाती है। अंग्रेजों के शासन काल में जयपुर के राजाओं ने भानगढ़ नगर को जयपुर विस्थापित किया होगा। इस तर्क पर मैं सहमत हूँ, क्योंकि 18 वीं सदी में मराठों एवं पिंडारियों के आक्रमण के कारण राजपुताना त्रस्त हो गया था। इसलिए सारी शक्ति को एकत्र कर जयपुर में स्थापित करने की दृष्टि से भानगढ़ नगर का विस्थापन संभव है। पूर्ववर्ती राजाओं एवं बादशाहों द्वारा अपनी राजधानी को विस्थापित एवं स्थानांतरित करने के अनेकों उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। इस तरह भानगढ़ के विस्थापन का कारण सामरिक कारण रहा होगा। तब से यह नगर उजड़ गया और यहाँ दुबारा कोई बसने नहीं आने के कारण देख रेख के अभाव में यह नगर खंडहर बन गया होगा। इस इलाके में पानी की कमी थी। जिसके कारण यहाँ अकाल की स्थिति बन जाती थी। कहते हैं कि 1783 में भयंकर अकाल पड़ा, जिसमें भूख प्यास से काफ़ी लोग त्रस्त होकर काल का ग्रास बन गए। अकाल के कारण फ़ैली महामारी से भानगढ़ उजड़ गया। यहाँ के निवासी भानगढ़ छोड़ कर चले गए।

असमाजिक तत्वों की उपस्थिति 
भानगढ़ उजड़ने के बाद यहाँ असामाजिक तत्वों का बसेरा हो गया। वीरान स्थान पर पहाड़ियों के बीच स्थित यह नगर अपराधियों के छिपने के लिए उत्तम था। उनके द्वारा ही यहाँ भूत प्रेतों की कहानियाँ गढ़ी गई होगीं। जिससे कि आस पास के क्षेत्र के लोग भानगढ़ के खंडहरों की तरफ़ न आए और उनकी गतिविधियाँ निर्विघ्न जारी रहें। गड़े धन के प्रति लोगों का लगाव सदैव रहा है। यहाँ पर भी गड़े खजाने की खोज में लोग आते होगें तथा खजाने को प्राप्त करने के लिए नान प्रकार की तांत्रिक क्रियाए करने के कारण भय का वातावरण निर्मित होता होगा। वर्तमान में भी असामाजिक तत्वों की उपस्थिति के चिन्ह भानगढ़ में दिखाई देते हैं। दारु की खाली बोतलें एवं डिस्पोजल गिलास यत्र तत्र बिखरे पड़े है। दिन रात समूचा किला तांत्रिकों एवं बाबाओं के हवाले रहने के कारण यहाँ भय का वातावरण बना रहता है।

चौकीदार से चर्चा
वर्तमान में मोस्ट हंटेड प्लेस (घोर भूतिया स्थान) में पर्यटकों की रुचि बढती जा रही है। चमत्कार एवं भूत प्रेतों से संबंधित कहानियाँ रोमांच पैदा करती हैं और पर्यटक रोमांचकारी स्थानों पर जाकर उस रोमांच को अनुभव करना चाहता है। मानव की जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण वह ऐसे स्थानों पर सत्यता की परख करने लिए पहुंचता है। वर्तमान में पर्यटकों के शौक में बदलाव दिखाई दे रहा है। पूर्व में लोग तीर्थ स्थानों का पर्यटन करते थे तथा वर्तमान में प्राकृतिक दृष्यों के साथ कौतुहल वाले स्थानों पर सैर करने जाते हैं। जैसे हम भी भानगढ़ की सच्चाई की खोज में 15 सौ किलो मीटर की दूरी तय करके पहुंच गए। मुझे भानगढ़ में कोई भी भूतिया आभास  नहीं हुआ। जैसे अन्य स्थानों को देखा वैसा ही यह भी लगा। भूतों की कहानी सिर्फ़ वातावरण में तैरती है। जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता।

अनंत से आता प्रकाश
आधुनिक युग में जहाँ तक बिजली पहुंच गई है वहाँ तक के सारे भूत प्रेत अंधेरे क्षेत्रों की ओर पलायन कर गए हैं। भूत अंधेरे में ही लोगों को दिखाई देते हैं। क्योंकि लोगों की मानसिकता ही वैसी बन गई है। अंधेरा होते ही अज्ञात का भय उत्पन्न हो जाता है और उसे भूत प्रेत दिखाई देने के साथ विचित्र आवाजें भी सुनाई देने लगती हैं। यही स्थिति भानगढ़ की है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ झाड़ियों में जंगली जानवर विचरण करते हैं। किसी पर्यटक के साथ रात को कोई दुर्घटना न हो जाए इसलिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यहाँ दिन ढलने के बाद प्रवेश पर पाबंदी लगा रखी है। सर्वे के 16 चौकीदार यहाँ कार्य करते हैं, किसी ने भी भूत प्रेतों को यहां पर नहीं देखा। इससे यही सत्यान्वेषण होता है कि व्यक्ति अपने भीरुपन को घर में छोड़ कर आए और उन्मुक्त होकर भानगढ़ के पुरावशेषों की सैर करे तो बहुत आनंद आएगा। ……… आगे पढ़ें

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

भानगढ़ का मंदिर शिल्प

भूतिया कुंए का पानी पीते रतन सिंह जी
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सोमेश्वर मंदिर से दांई तरफ़ चलने पर घनी झाड़ियाँ है तथा इधर कोई रिहायसी निर्माण कार्य नहीं है। यहाँ पर शेवड़ों की मढियाँ और समाधियाँ है तथा एक भवन के बाहर शिवलिंग स्थापित है और भवन के भीतर गणेश जी। कहते हैं कि यहीं पर शेवड़े (शव साधक तांत्रिक) तांत्रिक उपासना करते थे। जो चेला दर चेला चली आ अही है। धूणे के पास एक छोटा सा कुंआ है, जिस पर डिब्बा और रस्सी रखी हुई थी। गढ में काम करने वाले मजदूर इसी कुंए से पानी पीते हैं। हमें भी प्यास लग रही थी। भरत सिंह ने पानी निकाला तथा हमने बारी-बारी से अपनी प्यास बुझाई। कुंए का जल शीतल होने के साथ मीठा भी था। इस दौरान चौकीदार हमारे साथ ही चल रहा था। झाड़ियों के बीच से हम रास्ता बनाते हुए टीले पर चढे। यह मंगला देवी का मंदिर था। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है। बलुए पत्थर से निर्मित मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है। 

मंगला माता मन्दिर
भानगढ़ के मंदिरों में मुझे कहीं पर भी मिथुन  मूर्तियाँ दिखाई नहीं दी। जिस तरह अन्य प्राचीन मंदिरों में दिख जाती है। किसी भी प्राचीन मंदिर बहुत सारी नहीं तो एक मिथुन मूर्ति मिलती ही है। अगर मानव मिथुन मूर्तियाँ नहीं प्राप्त होती तो उनकी जगह पशु मिथुनरत मूतियाँ उत्कीर्ण होती हैं। प्रतीत होता है कि पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में मिथुन मूर्तियों का निर्माण शिल्पकारों ने बंद कर दिया होगा। जबकि प्राचीन काल में मिथुन मूतियों के निर्माण के पीछे मान्यता थी कि मंदिरों में मिथुन प्रतिमाएं बनाने के कारण उस पर तड़िक प्रकोप नहीं होता तथा वे मिथुन मूर्तियों को मंदिर में उत्कीर्ण कर जनता के लिए एक कौतूक पैदा करना चाहते थे। मिथुन मूर्तियों के निर्माण के पीछे अन्य कारण भी बताए जाते हैं। यहाँ मिथुन मूर्तियों के न होने से लगता है कि मिथुन दृश्यों का कौतुक जन सामान्य की निगाह में समाप्त हो गया था।

केशवराय मंदिर के पार्श्व में मंगला माता मंदिर
मंगला देवी मंदिर के गर्भगृह की प्रतिमा गायब है। इसके वितान पर 16 वाद्यकों का चित्रण है। संगीत में प्रयोग में आने वाले तत्कालीन वाद्यों का चित्रण शिल्प की समृद्धता का परिचायक है। इसके द्वार पर भी प्रतिहारों का अंकन है. इस मंदिर से थोड़ी दूर पर केशव राय का मंदिर है, इस मंदिर के गर्भ गृह में भी प्रतिमा नहीं है। गर्भ गृह के द्वार पर दंडधारी प्रतिहारों का ही अंकन है. इस मंदिर में कोई विशेष शिल्पकारी नहीं है। कहते हैं कि इन मंदिरों की प्रतिमाएं तत्कालीन राजा जयपुर ले गए थे। यहाँ पर हमने कुछ देर विश्राम किया। चौकीदार ने चर्चा के दौरान बताया कि यहाँ आर्कियोलाजी के 16 चौकीदार 4-4 की पाली में काम करते हैं। किसी को भी कभी कोई भूत प्रेत नहीं दिखाई दिया और न ही कोई आवाजें सुनाई दी। उसका कहना है कि लोगों ने इस तरह की अफ़वाहें उड़ा रखी हैं। उसने बताया कि एक बार मंगला माता के मंदिर तरफ़ आते हुए उसे शेर मिल गया था। हाथ में लालटेन लिए दो चौकीदार साथ थे और मंगला माता के मंदिर तरफ़ जा रहे थे। अचानक झाड़ियों में से शेर निकल कर सामने आ गया। उनकी तो घिघ्गी बंध गई। थोड़ी देर बाद शेर चला गया। यहाँ भूत प्रेतों की बजाए जंगली जानवरों का अधिक डर है।

भानगढ के यात्री
इस किले में 5 द्वार हैं जिन्हें हनुमान द्वार, फ़ुलवारी द्वार, अजमेरी द्वार, दिल्ली द्वार तथा लुहारी द्वार के नाम से जाना जाता है। 5 शताब्दी पूर्व भानगढ़ के समीप से अजमेर और दिल्ली जाने वाला मार्ग रहा होगा। इसलिए इन द्वारों का दिल्ली और अजमेरी द्वार नामकरण किया गया होगा। लुहारी द्वार से संबंधित कथानक है कि इस द्वार के समीप लुहारों की बस्ती थी। इस स्थान पर आज भी लौह मल के बड़े बड़े ढेर पड़े हैं। राजा को आयुधों के निर्माण के लिए सिद्धस्थ लुहारों की आवश्यकता होती है। इसलिए उन्हे अलग बस्ती बनाकर बसाया गया होगा। इन लुहारों के वशंज समीप के गांवों में रहते हैं। गढ की प्राचीर के ये द्वार दूर-दूर स्थित हैं। भानगढ का क्षेत्र काफ़ी बड़ा है, इसे एक दिन में देख पाना संभव नहीं। जंगली जानवरों की आमद के कारण यहाँ पर रात्रि में भ्रमण करने अनुज्ञा नहीं दी जाती तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रात्रि में किसी भी संरक्षित स्मारक में जाने की अनुमति नहीं देता। इसमें भानगढ़ की कोई विशेष बात नहीं है। 

चलते चलते यात्रा समापन  चित्र
भानगढ़ से भ्रमण कर हम अब वापस जयपुर की ओर चल पड़े। मुझे अलवर से खैरथल जाना था और अन्य साथियों को जयपुर। चौकीदार से चर्चा होने पर उसने बताया कि 5 बजे आश्रम एक्सप्रेस दौसा से खैरथल जाने के लिए मिल सकती है। अगर आप 5 बजे तक दौसा स्टेशन तक पहुंच गए तो खैरथल जाने के लिए यह बढिया साधन है। भानगढ से दौसा लगभग 22 किलो मीटर की दूरी पर है। प्रदीप जी ने जल्दी ही मुझे दौसा स्टेशन पहुंचा दिया। यहाँ से मैने खैरथल की टिकिट ली। क्योंकि अगले दिन मुझे अलवर का बाला किला देखना था। एक घंटे प्रतीक्षा करने के पश्चात आश्रम एक्सप्रेस प्लेट फ़ार्म पर लगी। अंधेरा हो चुका तथा थोड़ी ठंड भी बढ चुकी थी। यह समय राजस्थान में अच्छी ठंड का था और मैने छत्तीसगढ़ के वातावरण के हिसाब से एक पतली सी स्वेटर ले रखी थी। खैरथल पहुंचते तक सिकुड़ कर आधा रह गया था। ...... आगे पढ़ें .......... 

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

भूतों का भानगढ़

मोडा सेठ की हवेली
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भानगढ़ के उजड़ने के पीछे कई कहानियाँ है, जिनमे सिंधु शेवड़े और भूतों की कहानी अधिक प्रसिद्ध हो गई। मैं भानगढ को भिन्न नजरिए से देख रहा था। लोग यहाँ भूतों की तलाश में आते हैं। वो भूत जिन्हें किसी ने देखा नहीं, सिर्फ़ किस्से बनकर रह जाते हैं। भानगढ़ को जितना अधिक नुकसान जिंदे भूतों ने पहुंचाया, उतना किस्से कहानियों में प्रचलित भूतों ने नहीं। भानगढ़ कोई अधिक पुराना कस्बा नहीं है, 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इसे राजा भगवंत दास ने बसाया था। इसके बाद राजा मान सिंह के भाई माधो सिंह ( अकबर के दीवान)  ने अपनी रियासत की राजधानी बनाया। जब कोई राजा राजधानी बसाता था तो उस स्थान को सामरिक दृष्टि से सुदृढ़ मान कर ही निर्माण कार्य करवाता था। क्योंकि पड़ोसी राजाओं की कब साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो जाए, कब राजधानी पर आक्रमण हो जाए इसका पता नहीं चलता था। क्योंकि ये युद्ध बैर, विद्वेश की दृष्टि से नहीं होते थे, साम्राज्य विस्तार की दृष्टि से किए जाते थे।

त्रिपोलिया द्वार
भानगढ़ खंडहर हो चुका है, लेकिन यहाँ के सभी मंदिर सुरक्षित हैं और अपनी गरिमा के साथ खड़े हैं। इससे प्रतीत होता है कि कभी मुसलमानों ने इस पर आक्रमण नहीं किया। अगर मुसलमान आक्रमण करते तो मंदिर को सबसे पहले हानि पहुंचाते। इसके उजड़ने का कारण हिंदु राजाओं की ही आपसी प्रतिद्वंदिता रही होगी। जिन्होने गढ पर आक्रमण कर उसे धराशायी किया होगा तथा दैवीय आपदा के भय से मंदिरों को नहीं छेड़ा होगा। दूसरी श्रेणी के सुरक्षा घेरे के मुख्य द्वार को त्रिपोलिया द्वार कहते हैं। इस द्वार से आगे बढने पर दांई तरफ़ बलुआ पत्थर से नागर शैली में ऊंचे अधिष्ठान पर निर्मित गोपीनाथ जी का मंदिर दिखाई देता है। इस मंदिर में गर्भ ग़ृह में कोई भी देव प्रतिमा नहीं है। गर्भ गृह के निर्माण को देख कर प्रतीत होता है कि यहाँ विष्णु के ही किसी अवतार का विग्रह रहा होगा।

गोपीनाथ जी का मंदिर
मंदिर शिल्प मनमोहक है। मंडप के वितान सुंदर पद्माकृति का अंकन के साथ १६ तरह के वाद्यों के साथ वाद्यकों का भी चित्रण किया गया है। द्वार पट पर विष्णु के दशावतारों का अंक है, तथा शीर्ष पर गणेश जी विराज मान हैं तथा नीचे की चौखट में कल्प वृक्ष का अंकन है। बाईं तरफ़ के झरोखे में उमामहेश्वर को स्थान दिया गया है, इस मूर्ति के आधार पर नागरी लेख है और दाईं तरफ़ के झरोखे में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के द्वार पर सुंदर वल्लरियों, लता पुष्पों का अंकन है तथा सिरदल पर हाथी, घोड़ों एवं ऊंटों को स्थान दिया गया है। विग्रह नहीं होने के कारण मंदिर में पूजा नहीं होती। इस मंदिर से आगे बढने पर भग्नावशेषों में एक छतरी दिखाई देती है। चारों तरफ़ की दीवालों में आले बने हुए हैं तथा छतरी के उपर स्थानक मुद्रा में महावीर की प्रतिमा दिखाई देती है। इससे प्रतीत होता है कि यह जैन मंदिर रहा होगा तथा महल के प्रांगण में स्थित होना इसे विशिष्ट बनाता है। जाहिर है कि राजा ने जैन व्यापारियों को अपने राज्य में विशिष्ट स्थान दे रखा होगा।

घरठ
जैन मंदिर से महल की ओर आगे बढने पर एक घरठ दिखाई देती है। कभी इसका उपयोग निर्माण कार्य में चूना मिलाने के लिए किया गया होगा। लेकिन यह अभी तक यथावत है। कई स्थानों पर इसे हटा दिया जाता है तथा घरठ का गोल पत्थर ही मिलता है। प्रतीत होता है कि नगर उजड़ने से पूर्व तक यहाँ निर्माण कार्य जारी था। यहाँ पर्यटकों ने पत्थर के छोटे-छोटे घरों के प्रतीक बना रखे है।मान्यता कि जिसका मकान नहीं होता वे ऐसी मनौती करते हैं जिससे खुद का मकान हो जाता है। महल में प्रवेश करने पर बारहदरी दिखाई देती है। जिनके समक्ष कमरे बने हुए हैं। किवंदन्ती है कि यह महल सात मंजिला था, महल के पीछे पहाड़ी स्थित है। निर्माण विधि के अनुसार यह महल सातमंजिला नहीं दिखाई देता। उस काल में राज प्रसादों में कई चौक हुआ करते थे, जिनसे गुजरने के बाद  ही रनिवास तक प्रवेश किया जाता था। हो सकता है कि इस महल के 7 खंड रहे हों। जिसके कारण इसे सतखंडा महल कहा जाने लगा हो।

राजमहल का प्रवेश एवं पार्स्व में राजमहल
महल के उपर की मंजिल में रनिवास था, रनिवास के चिन्ह अभी भी मिलते हैं। रनिवास में कमरों के साथ शौचालयों का निर्माण हुआ है। उपर की मंजिल पर जाने के बाद बाईं तरफ़ रत्नावती का मंदिर बताया जाता है। इस मंदिर में कोई विग्रह नहीं है। लेकिन धुंवे से दीवारे काली हो चुकी है। अवश्य ही कोई तांत्रिक प्रयोग यहाँ पर होता दिखाई देता है। सिंदुर और पूजा की सामग्री हमें यहां पर मिली। रनिवास में स्थित इस मंदिर में अवश्य ही राजपरिवार की कुल देवी का मंदिर रहा होगा। क्योंकि राजा अपनी कुलदेवी का स्थान निवास में ही रखते थे। राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों में मुख्य निवास में देवी का "थान" बनाने की परम्परा दिखाई देती है। मूर्तियों के चोरों ने मंदिर के विग्रह को चुरा लिया होगा इसलिए कालांतर में जन सामान्य में रत्नावती के मंदिर का नाम प्रचलित हो गया होगा।

महल के भग्नावशेष एवं रत्नावती का मंदिर
महल के निचले तल में तहखाना है, जहाँ घोर गुप्प अंधकार रहता है। हमने इस तहखाने की भी पड़ताल की। तहखाने की पैड़ियों पर बहुत सारी कबूतरों की बीट पड़ी थी। अंधेरा इतना गहरा है कि दो पैड़ियों के बाद रास्ता दिखाई नहीं देता। इस स्थान के विषय में अफ़वाहें फ़ैलाई गई है कि यहाँ पर कैमरे का शटर काम नहीं करता। किन्ही कारणों से यहाँ मैग्नेटिक फ़िल्ड का निर्माण होने से वह कैमरे को प्रभावित करता है इसलिए उसका शटर काम नहीं करता और फ़ोटो नही लिए जा सकते। इसके कमरों में भूतों की आवाजें आने की कहानियाँ चटखारे लेकर सुनाई दी जाती हैं, परन्तु हमें तो कोई आवाज सुनाई नहीं थी तथा न ही भय का अहसास हुआ। अगर किसी स्थान पर नकारात्मक शक्ति होती है तो वह अवश्य ही मनुष्य की चेतना को प्रभावित करती है और अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाती है। यहाँ मुझे किसी भूत प्रेत के अस्तित्व का अहसास नहीं हुआ।

सोमेश्वर महादेव मंदिर
राजमहल से बाहर निकलने पर कुंए दिखाई देते हैं, जो कि अब कचरे से पाट दिए गए हैं। इसके बाईं तरफ़ सोमेश्वर महादेव का मंदिर है। कहते हैं कि इसे सोमनाथ नाई ने बनवाया था। इस विशाल मंदिर के समीप कुंड बना हुआ है जहाँ पानी पहाड़ से रिसकर आता है। अभी इस पानी में गंदगी हो गई है, कभी यह कुंड निर्मल खनिज जल से भरा रहता होगा। इस मंदिर का निर्माण भी बलुई पत्थर से हुआ है। मंदिर में शिवपरिवार विराजित है तथा नंदी के साथ गणेश की सवारी मूषक महाराज भी विराजित हैं। नंदी संगमरमर पत्थर से बना है और मूषक काले पत्थर से। मैने पहली बार नंदी के साथ मूषक की स्थापना कहीं पर देखी है। इससे पहले नंदी के साथ मूषक की स्थापना  मुझे कहीं देखने नहीं मिलती। इस मंदिर का द्वार भी अलंकृत है। गढ में यह मंदिर सतत पूजित है।

सोमेश्वर महादेव मंदिर का गर्भ गृह
पहले राजा और सेठ जैसे धनी मानी लोग ही मंदिर, प्याऊ, तालाब \इत्यादि का निर्माण करवाते थे। यहाँ पर किसी नाई द्वारा मंदिर बनवाना हैरत में डालता है। सबसे बड़ी बात यह हैं कि मंदिर राजमहल की परिधि के भीतर है। बिना राजा की सहमति के इस स्थान पर मंदिर नहीं बनाया जा सकता। किसी नाई द्वारा महल परिसर में मंदिर बनाने के निर्णय से राजा की ठकुराई को भी ठेस पहुंच सकती थी। लेकिन इस मंदिर के निर्माण की अनुमति देने से राजा की सहिष्णुता का परिचय मिलता है। राजा अपनी प्रजा के लिए निष्ठावान एवं दयालु था। तभी इस स्थान पर सोमेश्वर नाई द्वारा मंदिर बनाया जा सका। भानगढ के समीप स्थित अजबगढ में सोमेश्वर नाई द्वारा निर्मित "सोम सागर" का जिक्र भी सुनाई देता है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के खल्लारी (खल्वाटिका) में देवपाल नामक मोची ने विष्णु मंदिर बनवाया था। मोची द्वारा उस काल में मंदिर बनवाया जाना बड़ी घटना था। इससे शासकों की सामाजिक उदारता का पता चलता है। ..........  आगे पढ़ें ....

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

भानगढ़ की रत्नावती और सिंधु शेवड़ा

बाजार से आगे बढने पर पीपल के वृक्ष के पत्ते सरसराहट की आवाज के साथ इस गढ के वैभव की गाथा कहते हैं।मुख्य मार्ग के सुनसान बाजार के खंडहर बेबस स्तब्ध खड़े थे। समय की मार से कुछ भी नहीं बचा। सारी रौनक और वैभवता नष्ट हो गई है। जो बसा है उसे एक दिन उजड़ना भी होता है ये संसार का नियम है। धरा पर कोई स्थायी नहीं रह सका। किसी को प्रतिद्वंदिता ने उजाड़ दिया तो किसी को प्रकृति के कोप का सामना करना पड़ा। पूरी धरती को मानव ने पग पग नाप कर अपनी उपस्थिति के चिन्ह छोड़ दिए। इनकी बातें सुनने के लिए ध्यान लगा कर उस काल खंड में जाना होगा जब यहाँ प्रतिहार, अनुचर, दंडधारी विचरण करते थे। खड्गधारी एक आवाज में ही किसी का प्राण हरण करने के लिए तत्पर रहते थे। समय गुजर गया लेकिन पीपल आज भी उन गाथाओं को सुनाता है। 
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सुनसान भानगढ़ नगर
मैं पीपल की छांव में जाकर बैठ गया। मुझे बैठे देख कर उसने पत्ते फ़ड़फ़ड़ाए और कहने लगा। थक गए पथिक, चलते-चलते। तनिक विश्राम करो, तुम्हारी जिज्ञासा मुझ पर प्रगट है। तुम्हे वही कहानी सुनाता हूँ, जिसे सुनने की आकांक्षा लिए यहाँ आए हो। यह कहानी है, रानी रत्नावती की। हाँ! वही रानी रत्नावती, जिसके सौंदर्य के चर्चे वर्तमान में भी विद्यमान हैं। अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी थी वह। उसके पिता ने विवाह के लिए स्वयंवर रचाया था। इस स्वयंवर में दूर देशों के नरेश तथा राजा आए थे। एक से बढ कर एक पराक्रमी, धनुर्धारी बल पौरुष के धनी रत्नावती का वरण करने की आकांक्षा से पधारे थे। स्वयंवर समारोह की चमक - दमक देखते ही बनती थी। स्वयंवर के मध्य व्यवधान की आशंका से राजा ने अपने सुदृढ़ एवं उद्भट सैनिकों को सुरक्षार्थ तैनात कर रखा था।

चलते फ़िरते प्रेत
मैने जम्हाई ली, चेहरे पर थोड़ी थकान दिख रही थी। उसने बोलना जारी रखा … तुम सुन रहे हो न राहगीर, अगर तुम्हारा ध्यान भटका तो वंचित रह जाओगे इस कथा से। मैने सिर हिला कर सहमति दी……वह कहने लगा… इन राजाओं में सिंधू देश का राजा भी रत्नावती के वरण की आकांक्षा लेकर आया था। स्वयंवर प्रारंभ हुआ, सभी राजाओं के चेहरे पर यह गुमान का भाव था कि रत्नावती उसका ही वरण करेगी। रत्नावती ने स्वयंवर सभा का एक चक्कर लगाया, सभी राजाओं पर भरपूर दृष्टि डाली और भानगढ़ नरेश के गले में वरमाला डाल दी। दूदूंभि बज उठी, पुष्प वर्षा होने लगी, हर्ष मिश्रित ध्वनियाँ परदों के पीछे से सुनाई देने लगी। ब्राह्मणियाँ मंगल गान करने लगी। साक्षात राम एवं सीता के स्वयंवर का दृष्य सजीव हो उठा। सभी राजा विवाह की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों को प्रस्थान कर गए। इधर दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया।

विश्राम के पल - सिंह त्रयी (भरत सिंह, प्रदीप सिंह, रतन सिंह)
स्वयंवर स्थल पर ही भानगढ के विनाश के बीज पड़ गए… समझ रहे हो न? उसने मुझसे प्रश्न किया। आगे बताओ कहानी रोचक होती जा रही है, मैने कहा। तो सुनो- सिंधु देश का राजा रत्नावती की  सुंदरता पर मोहित था, उसने रत्नावती के सौंदर्य के चर्चे पहले ही सुन रखे थे। लेकिन भानगढ़ के राजा जैसा सामरिक दृष्टि से सक्षम नहीं था। रत्नावती से विवाह करने की आकांक्षा को लेकर वह उससे युद्ध नहीं कर सकता था। क्योंकि युद्ध में उसकी हार निश्चित थी। वह मन मसोस कर रह गया। लेकिन रत्नावती को पाने की उसकी कामना प्रबल होती गई। वह सिंधु देश में जाकर सिर्फ़ यही चिंतन करने लगा कि रत्नावती को कैसे प्राप्त किया जाए। उसे अपने महल की शोभा कैसे बनाए? शारीरिक बल काम न आने पर व्यक्ति तंत्र बल-छल की ओर प्रयाण करता है। यही सिंधु राजा ने भी किया।

शिवालय एवं शेवड़ों का धूणा
कुछ इतिहास में घटी घटनाओं का जिक्र करना चाहुंगा। जो इस गाथा से जुड़ी हुई हैं। एक बार राजा भगवंत दास यहाँ शिकार खेलते हुए आए। उन्हे यह स्थान अपनी राजधानी बनाने लिए सुरक्षित और उपयुक्त लगा। इस स्थान पर एक प्राचीन शिवालय था जहाँ कुछ शेवड़े अपनी तांत्रिक साधना करते थे। यह स्थान शेवड़ों के धूणे के नाम से प्रसिद्ध था। राजा ने अपना विचार शेवड़ों के गुरु को बताया। उसने राजा से कहा कि - तुम यहाँ राजधानी बना सकते हो, हमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन तुम्हारा महल इतनी दूर होना चाहिए कि उसे धूणे की धुंवा छू न पाए। राजा ने सहमति दे दी एवं यहाँ गढ का निर्माण किया। राजा अपने राज काज में लग गया और शेवड़े अपने धूणे में मस्त हो गए। एक दिन खूब आँधी आई और धूणे की धुंवा राजमहल तक पहुंच गई। बस इसी दिन से भानगढ़ के विनाश की नींव पड़ गई।

पहाड़ी पर सिंधु शेवड़े की छतरी (चित्र पर क्लिक करके देखें)
प्यास लगने लगी थी, मैने एक घूंट पानी की ली और आगे सुनने लगा। सुन रहे हो न … सिंधु राजा रत्नावती को भूल नहीं पा रहा था। अब उसने तांत्रिकों का सहारा लेना शुरु किया। उसने सोचा कि रत्नावती को प्राप्त करने का सिर्फ़ तंत्र मंत्र का ही एक रास्ता बचा है। उसने भानगढ़ की पहाड़ी पर डेरा जमा लिया। वो देखो उपर छतरी … दिखाई दे रही है न। वहीं सिंधु राजा रहने लगा। उसने डेरे के शेवड़ों से तंत्र मंत्र सीखे और उन्हे सोधने में लगा रहा। मनुष्य की कामना प्रबल होती है, वह उसका उत्कर्ष भी कर सकती है तो पतन भी। बस यही कुछ भानगढ़ पर भी मंडरा रहा था। मंत्र सोधते सोधते एक दिन सिंधु राजा सिद्ध हो गया और सिंधु शेवड़ा कहलाने लगा। बस अब समय आ गया था रत्नावती पर तंत्र मंत्र का प्रयोग करने का। 
कभी इन गलियारों में रौनक थी
उपर पहाड़ी पर बैठा सिंधु शेवड़ा गढ की भीतर हो रही सारी गतिविधियों को जानता था। रत्नावती की एक दासी सुंगधित तेल लेने बाजार तक आती थी जिसे उसके बालों में लगाती थी। सिंधु शेवड़ा नगर में प्रवेश कर गया और दासी कटोरे में तेल लेकर महल की ओर जा रही थी। उसने तेल देखने लिए अपने हाथ में लेकर तंत्र-मंत्र का प्रयोग किया और पहाड़ी पर पुन: चढ गया। इधर दासी को विलंब होने का कारण रत्नावती ने पूछा। तो उसने रास्ते में एक शेवड़े के मिलने का कारण बताया। रानी ने दासी के हाथ से कटोरा लेकर देखा तो उसमें तेल घूम रहा था। उसे कुछ भान हुआ और उसने तेल का कटोरा एक बड़ी शिला पर फ़ेंक दिया। शिला पर तेल गिरते ही वह शिला उड़ने लगी। रानी समझ गई कि तेल में शेवड़े ने तंत्र का प्रयोग किया है।

गढ के झरोखे से
जैसे ही तेल शिला पर गिरा, उधर शेवड़े को मंत्र शक्ति से पता चला कि तेल का प्रयोग हो गया है। उसने आदेश दिया कि उपर आ जाओ, आदेश मिलते ही शिला पहाड़ की ओर उड़ चली। सिंधु शेवड़ा शयन मुद्रा में था, शिला देख कर उसने सोचा कि रानी शिला पर बैठी है, उसने आदेश दिया कि मेरी वक्ष पर ही बैठो। शिला जब नीचे उतरने लगी तो उसे रानी दिखाई नहीं दी और सिंधु शेवड़ा समझ गया कि शिला उसकी छाती पर गिरेगी और उसकी मृत्यु निश्चित है। तो उसने मंत्र से शिला के दो टुकड़े कर दिए और श्राप दिया कि रात दूसरे पहर तक यह नगर नष्ट हो जाएगा यहाँ कुछ भी नहीं बचेगा। इस नगर में आज के बाद कोई भी आबाद नहीं पाएगा। आधी शिला सिंधु शेवड़े के वक्ष पर गिरी और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। आधी शिला नगर के उपर भ्रमण करने लगी। रत्नावती को अनिष्ट का अहसास हो गया और उसने नगर वासियों को अर्ध रात्रि तक नगर खाली करने का आदेश दे दिया।

खंडहर हुआ रानी रत्नावती का महल
नगर खाली हो गया सिंधु शेवड़े के श्राप से। कथा कहते हुए पीपल ने एक लम्बी सांस ली, तब से लेकर आज तक यह नगर फ़िर कभी आबाद नहीं हुआ। कईयों ने कोशिश की लेकिन श्राप के भय से कोई भी इस नगर में पुन: बसने को तैयार नहीं हुआ। खजाने के चोरों ने पूरा गढ़ खोद डाला। जो कुछ मिला सब उठा ले गए। घरों एवं महल के दरवाजों को भी नहीं छोड़ा। सब उखाड़ ले गए। वीरान पड़ा है यह नगर। इसे देख देख मैं खून के आँसू रोता हूँ। कितना वैभव था इस नगर का। कभी यह स्वर्ण नगरी से कम नही था। आज जंगली जानवरों का बसेरा हो गया। मैं ही बूढा बच गया हूँ इसकी गाथा कहने को, मेरे बाद शायद कोई और गाथा कहने वाला न मिले। इस नगर का इतिहास समय की गर्त में दफ़न हो जाए। तुम सुन रहे हो न…  मैने हुंकारु भरी, आँसूओं की दो बूंदे मेरी पेशानी पर टपकी। पीपल सुबक रहा था……… आगे पढें