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रविवार, 29 नवंबर 2015

चिल्का झील: प्रकृति का अनुपम उपहार - कलिंग यात्रा

सुबह जल्दी उठकर तैयार हो गए, आज हमें प्रसिद्ध चिल्का झील भ्रमण के लिए जाना था। यहाँ जाने के लिए बी एन होटल पुरी के समीप लक्जरी बसें उपलब्ध होती हैं, यह बस सेवा सप्ताह में चार उपलब्ध है। जिसकी टिकिट हमने रात को ही बुकिंग सेंटर से ले ली थी। पुरी से चिल्का का सातपाड़ा मीरजापुर क्षेत्र लगभग साठ किमी होगा। हम होटल से रिक्शा लेकर बस तक पहुंच गए। टिकिट में सीट नम्बर न होने के कारण कन्डेक्टर अपनी मर्जी अनुसार सवारी बैठा रहा था। बड़े ग्रुप को पहले सीट दे रहा था। हमारी रायपुर के लिए शाम 5 बजे ट्रेन होने के कारण हमें पहली बस से ही जाना और लौटना था। इसलिए हमने सीटों के नाम पर समझौता कर लिया। जहां उसने जगह दी, वहाँ बैठ गए। साढे सात बजे सुरेश पण्डा बस सर्विस चिल्का के लिए चल पड़ी। 
जल भरावन यंत्र से जल भरते हुए बिकाश बाबू
पुरी शहर से बाहर निकलते ही धान के खेत जहां तक नजर जाती वहां तक दिखाई दे रहे थे। हम खिड़की से प्रकृति का आनंद लेने लगे। तटीय क्षेत्र में मीलों तक खेत ही खेत दिखाई दे रहे थे। फ़सल पक कर ऐसे चमक रही थी मानों खेतों में सोना उग आया हो। आधा पौन घंटा चलने के बाद बस रुकी। यहां पर एक मंदिर है, जिसके दर्शन एवं जलपान के लिए बस रोकी जाती है। हमने सबसे पहले तो बड़ा जलेबी का नाश्ता किया, फ़िर मंदिर की तरफ़ चले। इस स्थान का नाम ब्रह्मापुर है। नारियल के गगनचुंबी पेड़ आसमान को छू रहे थे। एक स्थान पर घर के सामने मैने एक प्रतिमा देखी तो रुकना पड़ा। प्रतिमा के सिर पर गमला रखा था। देखते ही समझ आ गया कि तुलसी माला  है। इस क्षेत्र में तुलसी की प्रतिमा के सिर पर गमला रख कर तुलसी का पौधा लगाने की परम्परा मुझे लगभग सभी घरों में दिखाई दी।
मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती
यहां से बस आगे चली तो थोड़ी देर बाद खेतों की जगह दलदली जमीन ने ले ली। दसियों किमी तक पानी भरी दलदली जमीन दिखाई दे रही थी। परन्तु मेरे जैसे व्यक्ति की घुमक्कड़ी के लिए यह आदर्श क्षेत्र दिखाई दिया क्योंकि यहाँ तरह-तरह की चिड़िया दिखाई दी। परबस होने के कारण मैं इनकी फ़ोटो भी नहीं ले सकता था। वरना आराम से फ़ोटो खींचते चलते। सरकारी आंकड़ों के हिसाब यहां सर्दियों में एक लाख से अधिक प्रवासी जल पक्षी एवं तटीय पक्षी आते हैं। यहां नलबाण पक्षी अभ्यारण्य भी है, जहाँ 158 प्रजाति के पक्षी पाए जाते हैं। इन पक्षियों के कारण इस इलाके का सौंदर्य देखते ही बनता है। चिल्का झील में महानदी की भार्गवी, दया, कुसुमी, सालिया, कुशभद्रा जैसी धाराएं भी समाहित होती हैं। इससे इसमें मीठे जल का संगम होता है। 
नारियल पानी खींचन प्रतियोगिता
नदियों एवं समुद्र के मिश्रित जल में ऐसे कई गुण हैं जो यहां के जलीय पौधों व जंतुओं के लिए लाभप्रद होते हैं। इसलिए यहां 95 प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं, जो हजारों मील दूर साइबेरिया, बेकाल, मनचूरिया आदि से आकर यहां डेरा डालते हैं। बतख, नन्हें स्टिनर, सेंडरलिंग, क्रेन, गोल्डन प्लोवर, फ्लेमिंगो, स्टोर्क गल्स, सैड पाइपर्स और ग्रे पेलिकन यहां पाए जाने वाले प्रमुख पक्षी हैं। अक्टूबर-नवंबर में पक्षियों का आना शुरू होता है और दिसंबर-जनवरी में तो जगह-जगह पक्षियों के झुंड ऐसे दिखते हैं, जैसे उनकी अलग-अलग कॉलोनियां बसी हों। बैठा हुआ सोच रहा था कि कभी बाईक से सफ़र किया जाए तभी इसका भरपूर आनंद लिया जा सकता है। तभी मुझे पेंटेट स्टार्क का एक झुंड दिखाई दिया। इस तरह पक्षी देखते हुए सात पाड़ा के मीरजापुर पहुंच गए।
सातपाड़ा जेट्टी से नाव की ओर
यहां भोजन के लिए दो चार होटल हैं तथा बस वालों अपने-अपने होटल सेट कर रखे हैं। हमारे कंडेक्टर ने एक होटल में ले जा कर बस खड़ी की और सभी सवारियों को कहा कि - आप पहले खाने का आर्डर दे दें, अन्यथा आपको यहां खाना नहीं मिलेगा। जितने आर्डर दिए जाते हैं उतना ही खाना बनता है। कोई होटल वाला खाना बना कर नहीं रखता। उसका इतना कहना था कि लोग खाने का आर्डर देने लगे। मैने और बिकाश ने मीनू देखा तो पता चला कि दो आदमियों का खाना ही दो हजार का हो जाएगा और पेट भी नहीं भरेगा। हमने आर्डर नहीं दिया। ऐसा तो हो ही सकता कि खाना एक ही जगह मिले। चलो ढूंढ लेगें। कोई समस्या नहीं है। खाने का आर्डर देने के बाद हम जेट्टी की ओर चल पड़े।
जेट्टी से चिल्का झील का नजारा
जेट्टी के द्वार पर कई आदमी बहुत सारी टोपियां लेकर बैठे थे, जिन्हे 10-10 रुपए में किराए पर दे रहे थे। मैने ध्यान नहीं दिया। यहां चिल्का झील में प्रति बोट किराया 1200 से 1400 रुपए है जिसमें लगभग 16 किमी का सफ़र कराते हैं। सभी बोट डीजल इंजन से चलती हैं। हमारी बस वाली सवारियों ने शेयरिंग बोट ली, हम 14 लोग थे, प्रत्येक के हिस्से 125 रुपए आए। बोट में सवारी भर कर चालक ने नाव खोल दी। चिल्का झील में नाव का सफ़र करने का फ़ायदा यह है कि इसके उथले होने के कारण समुद्र जैसा भय नहीं लगता है। अगर जल में कूदेगे तो भी कमर तक ही पानी आएगा। इसकी अधिकतम गहराई तीन मीटर मानी गई है। थोड़ी दूर बोट चलने के बाद धूप का चमका लगने लगा। तब टोपी की याद आई, अगर एक हैट ले लेते तो इस धूप से बचा जा सकता था। पर अब तो सफ़र पर निकल चुके थे।
सीप में मोती, मोती में सीप
चिल्का झील का मजा यह है कि यहां कम पैसे लम्बी बोट राईडिंग हो जाती है। मैने किनारे पर बैठे पक्षियों की फ़ोटो लेने की कोशिश की, परन्तु बोट की स्पीड एवं हिलने के कारण चित्र लेना संभव नहीं हो रहा था।  थोड़ी देर चलने के उसने एक टापू पर बोट लगा दी। वहां पर दो लोग टोकरी लिए बैठे थे, एक ने लाल केकड़े दिखाई और दूसरा सीप वाले मोती बेच रहा था। जिसकी कीमत डेढ सौ रुपए बता रहा था। सीप फ़ोड़ने से उसमें से मोती निकलने की बात कह रहा था। उसने तीन सीप फ़ोड़े तब कहीं एक में से छोटा सा मोती निकला। आखिर में वह 20 रुपए में सीप देने को तैयार हो गया। पर मुझे तो हकीकत मालूम थी। हम कहां फ़ंसने वाले थे। बोट वाला वहां टाईम खराब कर रहा था। उसे डांट कर बोट आगे बढवाई।
यहाँ आकर जमीं आसमान एक हो जाते हैं
बोट फ़िर पानी में चलने लगी, लगभग एक घंटा चलने के बाद वह क्षेत्र आ गया जहां डाल्फ़िन दिखाई देती है। यहां बहुत सारी बोट मंडरा रही थी। तभी डाल्फ़िन ने गोता लगाया। लोग कैमरा साध रहे थे, पर वह तो जूम करने का भी समय नहीं दे रही थी। आखिर मैने इसका तोड़ निकाला और 4 स्नैप लिए। आखिरकार डाल्फ़िन मेरे कैमरे में कैद हो गई थी और लोग उसे ढूंढ रहे थे। चिल्का झील का सौंदर्य अपूर्व है, अद्भूत है, यहाँ मन रम जाता है आकर। इसकी सुंदरता इतनी मनमोहक है कि उड़ीसा के एक कवि को आजादी के आन्दोलन में गिरफ़्तार कर लिया गया तो उन्होने कहा "मुझे थोड़ी देर चिल्‍का के चित्रपट को निहार लेने दो, फिर तो अंधेरी कोठरी में रहना ही है।" यह अतिश्योक्ति नहीं है, सच में इसका सौंदर्य ही अद्भुत है। जो आकर्षित करता है।
सिर्फ़ मेरे ही कैमरे में कैद हुई डाल्फ़िन
डाल्फ़िन दर्शन के बाद भूख लगने लगी थी, हमने लौटने का कार्यक्रम बना लिया। सहयात्रियों की सहमती से चालक को लौटने का आदेश दिया। उसने नाव घुमा ली और हम वापस सातपाड़ा की ओर चल पड़े। रास्ते में एक स्थान पर रेतीला टापू आता हैं, यहा स्नैक्स की दुकाने लगी हैं। प्रत्येक नाव वाला यहाँ कुछ देर के लिए नाव किनारे लगाता है, यहीं पर नदियों की यह सम्मिलित धारा समुद्र में मिलती है। जो इस टापू से दिखाई देती है। मैन्ग्रोव की झाड़ियां के बीच लोग शंका दूर करने निकल पड़े, उन्हें फ़िर सकेला गया और हम वापस जेट्टी पर आ गए। चिल्का में नाव का यह सफ़र आनंददायक रहा। अगर खाने की सामग्री, पीने लिए पानी और हैट साथ रख लेते तो आनंद कई गुना बढ जाता।
सस्ता होटल 
रेस्टोरेंट में लोग खाने के लिए चल दिए, हमको भी भूख लग रही थी। हमने खाने ढूंढना शुरु किया। थोड़ा आगे चलने पर एक स्थान पर थाली वाले खाने का होटल मिल ही गया। उसने थाली 60 रुपए की बताई, हमने थोड़ा मोल भाव किया तो 50 पर आ गया। बढिया गर्मागर्म दाल, चावल, सब्जी, अचार, सलाद के साथ उसने खाना परोस दिया। दूबारा मांगने पर भात सब्जी इत्यादि भी दी। सौ रुपए में हमारा पेट भर गया। वहां हजार में नहीं भरने वाला था। होटल वाले को धन्यवाद देकर हम बस में आकर बैठ गए। वापसी का सफ़र जल्दी ही बीत गया।
सेल्फ़ी ले ले रे - रेत के टापू पर
एक सप्ताह की पुरी यात्रा से बहुत कुछ सीखने एवं देखने मिला। पर एक सप्ताह में कलिंग प्रदेश को देखने एवं समझने के लिए कम हैं, फ़िर कभी समय मिला तो तटीय क्षेत्र से अलग अन्य किसी क्षेत्र में कलिंग भ्रमण करना है, वैसे तो कलिंग हमारा सहोदर प्रदेश है, छत्तीसगढ़ के नक्शे में आधा प्रदेश उड़ीसा की सीमा से लगता है तथा अंग्रेजों के शासन काल में सम्बलपुर से छत्तीसगढ़ पर शासन किया जाता था।
चल खुसरो घर आपने
अंग्रेजों ने सम्बलपुर पुर को कमिश्नरी बना कर कमांडिंग ऑफ़िसर बैठाया हुआ था। 1800 ई में यहाँ मेजर ई रफ़सेज कमांडिग ऑफ़िसर था। बस चल रही थी और हम यात्रा के आनंद में डुबे था। बस वाले पुरी पहुंच कर ट्रेन के टाईम से आधे घंटे पहले ही स्टेशन के पास पहुंचा दिया और हम साप्ताहिक यात्रा सम्पन्न करके घर की ओर चल पड़े। 

शनिवार, 28 नवंबर 2015

नवकलेवर पूजन एवं दारु खोजन उत्सव - कलिंग यात्रा

मंदिर के बाहर निकलते ही भगवा कपड़ों में वाद्य यंत्र धारण किए गाते बजाते भक्त दिखाई दिए, इनके साथ ही मंदिर के मुख्य पुजारी एवं उनके सहयोग नवीन वस्त्र धारण कर मंदिर परिसर की ओर जुलूस की शक्ल में बढ रहे थे। पूछने पर पता चला कि आज नवकलेवर का उत्सव है,  संयोगवश हम भी इस त्यौहार के साक्षी बन गए। नवकलेवर भगवान की काष्ठ प्रतिमाएं बदलने के उत्सव को कहते हैं। जिस वर्ष हिन्दू पंचांग के अनुसार दो आषाढ होते हैं उस वर्ष भगवान की पुरानी प्रतिमाएं बदल कर स्थापित की जाती हैं।

दारू खोज मुहूर्त के लिए जाते हुए दैतापति
इन प्रतिमाओं को बदलने का भी बड़ा कठिन विधि विधान है। हमारे पण्डा जी पुर्णचंद महापात्र ने बताया कि प्रतिमाओं के लिए ऐसे  ही किसी वृक्ष को काटकर नहीं बना दी जाती। इसके लिए विशेष प्रकार की"दारु" (नीम की लकड़ी) का चयन किया जाता है। यह चयन प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही होता है। इस काम में कई पंडित या दैतापति लगते हैं। शास्त्रों के अनुसार, पेड़ के लिए सबसे पहले मुख्य पंडित को सपना आता है, उसके बाद दसियों पंडित उस पेड़ की तलाश में निकलते हैं। प्रतिमा निर्माण के लिए वृक्ष पुराना हो, नदी या तालाब के किनारे हो, शंख, चक्र, गदा, पद्म के चिन्ह हों, पेड़ का कोई हिस्सा टूटा न हो, उसमें कोई कील नहीं ठोकी गई हो, किसी पशु का पंजा न लगा हो तथा पेड़ पर कोई घोंसला न हो। 
कृष्णा किर्तन करते हुए भगत
मुख्य दैतापति को सपना आने के बाद वह वृक्ष के स्थान की ओर संकेत करता है। फ़िर 10 पुजारियों का दल चारों दिशाओं में उस स्थान एवं वृक्ष की खोज करते हैं। इस खोज की समयावधि 45 दिन निश्चित है, इस अवधि में ही "दारु" की खोज अवश्य ही होनी चाहिए। पेड़ को काटने के पहले सारे पंडित दो दिन तक अन्न जल नहीं लेते एवं शास्त्रों के बताए मंगल चिन्ह एवं शर्तें पूर्ण होने पर उस वृक्ष को पूजा करके विधि विधान से प्रतिमाओं के लिए काटा जाता है। यह प्रक्रिया गोपनीय रुप से आधी रात को सम्पन्न की जाती है। उसके पश्चात लकड़ी की प्रतिमाएं बनाई जाती है और स्थापित की जाती है। 
हरे राम हरे कृष्ण, कृष्ण हरे हरे
पण्डा जी ने बताया कि - नव कलेवर का समय 12 या 19 वर्षों में एक बार आता है। हिंदू धर्म की पौराणिक मान्यताओं में चारों धामों को एक युग का प्रतीक माना जाता है। इसी प्रकार कलियुग का पवित्र धाम जगन्नाथपुरी माना गया है। यह भारत के पूर्व में उड़ीसा राज्य में स्थित है, जिसका पुरातन नाम पुरुषोत्तम पुरी, नीलांचल, शंख और श्रीक्षेत्र भी है। उड़ीसा या उत्कल क्षेत्र के प्रमुख देव भगवान जगन्नाथ हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा राधा और श्रीकृष्ण का युगल स्वरूप है। श्रीकृष्ण, भगवान जगन्नाथ के ही अंश स्वरूप हैं। इसलिए भगवान जगन्नाथ को ही पूर्ण ईश्वर माना गया है।
दैतापति दल लवाजमा के साथ मंदिर की ओर
वैसे तो रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आरंभ होती है। परन्तु इस वर्ष नवकलेवर होने के कारण अधिक आकर्षण रहेगा।  यह यात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है।जहां भगवान जगन्नाथ सात दिन तक विश्राम करते हैं और आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है। यह बहुड़ा यात्रा कहलाती है। जगन्नाथ रथयात्रा एक महोत्सव और पर्व के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस रथयात्रा के मात्र रथ के शिखर दर्शन से ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य फल प्राप्त होता है और भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती है।
दम लगा कर है जोर
रथयात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये लकड़ी वजन  में भी अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इसे आसानी से खींचा जा सकता है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है। यह रथ यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। इस रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। इस रथ के सारथी का नाम दारुक है। 
रथयात्रा मार्ग से आता हुआ दल
भगवान जगन्नाथ के रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ पर सुदर्शन स्तंभ भी होता है। यह स्तंभ रथ की रक्षा का प्रतीक माना जाता है। इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है। इसके 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। इसमें लगभग 1100 मीटर कपड़ा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
उत्सव में सम्मिलित 
बलरामजी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहते हैं। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
बिकाश बाबू की मौज
भगवान जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा के रथों पर जो घोड़ों की कृतियां मढ़ी जाती हैं, उसमें भी अंतर होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर मढ़े घोड़ों का रंग सफेद, सुभद्राजी के रथ पर कॉफी कलर का, जबकि बलरामजी के रथ पर मढ़े गए घोड़ों का रंग नीला होता है। रथयात्रा में तीनों रथों के शिखरों के रंग भी अलग-अलग होते हैं। बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला, सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल और ग्रे रंग का, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ के शिखर का रंग लाल और हरा होता है। पण्डा जी की बातें हमने मोबाईल फ़ोन में सुरक्षित कर ली।
लाईव टेलीकास्ट
जब इस महत्वपूर्ण पर्व पर हम पुरी में उपस्थित थे तो सोचा कि उसकी फ़ोटोग्राफ़ी भी अच्छे से होनी चाहिए। मीडिया वालों का लाईव प्रसारण चल रहा था। हम कोई तीन चार मंजिल का भवन ढूंढ रहे थे जिसकी छत से चित्र लिए जा सकें। तभी एक भवन की छत पर छतरी लगाई कुछ कैमरामेन दिखाई दिए तो हम वहीं पहुंच गए और उस भवन से लगातार कुछ अच्छे चित्र लिए। छत पर काफ़ी समय व्यतीत किया। उसके बाद नीचे आकर वाद्यको समेंत सभी के खूब चित्र लिए। बिकास बाबू ने वाद्यों की धुन पर खूब नृत्य किया और थोड़ा बहुत मजा हमने भी लिया। इस तरह हमारी हमने भगवान जगन्नाथ के दर्शन लाभ प्राप्त किए।

रिक्शे पर सवार राजा और राणा
सूर्य देवता अस्ताचल की ओर जा रहे थे, हम मंदिर से निकल कर रिक्शे में सवार होकर समुद्र तट पर पहुंच गए। शाम की समय यहां की रौनक ही अलग होती है। पुरी होटल से चलते हुए स्वर्गद्वार के आगे तक हमने पैदल भ्रमण किया। फ़िर चना चबेना लेकर समुद्र के किनारे एक स्थान पर आसन जमा कर बैठ गए। ठंडी हवा में आंखे बंद कर समुद्र की गर्जना सुनने का अलौकिक आनंद आया। यह आनंद गुंगे के गुड़ जैसा है। छेना मिठाई बेचने वाला भी वहीं आ गया। बिकास बाबू ने सभी प्रकार की मिठाईयों का आनंद लिया क्योंकि जब हम समुद्र की गर्जना सुनने का आनंद ले रहे हैं तो वे मिष्टी आनंदाधिकारी है। दस बजे तक हमने समुद्र के किनारे वक्त गुजार दिया। उसके बाद एक होटल से भोजन कर अगली सुबह चिल्का झील भ्रमण की तैयारी करते हुए झपक लिए। जारी है, आगे पढें।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

जगन्नाथ मंदिर का शिल्प एवं इतिहास - कलिंग यात्रा

उड़ीसा राज्य के तटवर्ती क्षेत्र में स्थित जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं का प्राचीन एवं प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिन्दूओं की धार्मिक आस्था एवं कामना रहती है जीवन में एक बार भगवान जगन्नाथ के दर्शन अवश्य करें क्योंकि इसे चार धामों में से एक माना जाता है। वैष्णव परम्परा का यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार कृष्ण को समर्पित है। यहाँ की वार्षिक रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है। इस मंदिर में तीन मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा एवं भाई बलभ्रद की पूजा होती है। जगन्नाथ के धार्मिक महत्व के विषय में जन-जन जानता है। फ़िर भी मैं संक्षेप में उल्लेख करना चाहुंगा।
सुभाष चौक पुरी
इस मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन गंगदेव ने कराया था। मंदिर का जगमोहन एवं विमान भाग इनके शासन काल (1078-11148 ई) में निर्मित हुआ था। फ़िर सन 1147 में राजा अनंग भीम देव ने इस मंदिर को वर्तमान रुप दिया था। इसका ताम्रपत्रों में उल्लेख बताया जाता है। मंदिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी तथा विग्रहो को चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे गुप्त रखा गया। बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।
मंदिर का विहंगम दृश्य
कलिंग शैली में निर्मित इस मंदिर को हम देखे तो वर्तमान में भी काला पहाड़ द्वारा किए गए विध्वंस के चिन्ह दिखाई देते हैं। मुख्य मंदिर के आमलक एवं जगमोहन की छत को उसके द्वारा तोड़ दिया गया प्रतीत होता है। प्रस्तर निर्मित इस मंदिर के विशाल आमलक एवं जगमोहन की छत का पुनर्निर्माण हुआ है। जो प्रस्तर निर्मित न होकर चूना सुर्खी से बना हुआ है अलग ही दिखाई देता है। राजा ने जगन्नाथ मंदिर का भव्य निर्माण कराया था। इसकी भित्तियों पर अप्सराएं, वादक, भारसाधक, व्यालों के साथ मिथुन मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं। इसकी भव्यता देखते ही बनती है।
चलो चले मुसाफ़िर
मंदिर का विस्तार वृहत क्षेत्र में है, जो लगभग चार लाख वर्ग फ़ुट में विस्तारित है और चारदिवारी से घिरा हुआ कलिंग स्थापत्यकला एवं शिल्प का उदाहरण है तथा यह भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फ़ुट (65 मी) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। 
सिंह द्वार पर स्थापित गरुड़ स्तंभ
मंदिर का मुख्य भाग विशाल है। मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरी हुई छोटी पहाड़ियों एवं टीलों के समुह सदृश दिखाई देता है। मुख्य भवन एक बीस फ़ुट (6.1 मी) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।
ध्वज एवं चक्र
मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र, सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ का प्रतीक माना जाता है। इस मंदिर से अनेक किंवदन्तियां एवं लोककथाएं जुड़ी हुई हैं। एक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया।

रथयात्रा मार्ग
उसके बाद राजा विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर समक्ष मूर्ति बनवाने के लिए उपस्थित हुए। विश्वकर्मा जी ने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आये। जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आई, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं।
भोग प्रसाद रिक्शा
महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह भगवान जगन्नाथ को मानते थे, उन्होने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। कहते हैं कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मंदिर को दान कर दिया जाए। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक ब्रिटिशों ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।
मंदिर मुख्य प्रवेश द्वार
जगन्नाथ मंदिर की एक खास बात है कि इसमें हिन्दूओं के अतिरित्क अन्य धर्मावलम्बियों का प्रवेश वर्जित है। मुख्यद्वार पर ही इस आशय की चेतावनी लिखी हुई है। भारतीय सिक्ख, जैन एवं बौद्धों के लिए प्रवेश की छूट है, परन्तु उन्हें अपनी भारतीय पहचान दिखानी होती है। मंदिर ने धीरे-धीरे गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का मंदिर क्षेत्र में प्रवेश स्वीकार करना आरम्भ किया है। अन्यथा बाली द्वीप के लोगों को भी प्रवेश नहीं दिया जाता था। पूछने पर पण्डा जी ने बताया कि अन्य लोगों को भगवान स्वयं रथयात्रा के दिन मंदिर से बाहर आकर दर्शन देते हैं, इस दिन कोई भी भगवान के दर्शन कर सकता है। यह  रथ यात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को होती है, जो तिथियों के अनुसार जून या जुलाई में होती है। जारी है… आगे पढें।

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

जगन्नाथ दर्शन - कलिंग यात्रा

आज हमें भगवान जगन्नाथ का प्रसाद ग्रहण करना था। यहाँ प्रतिदिन भगवान को छप्पन भोग लगते हैं और वही प्रसाद के रुप में अन्न सत्र में कुछ दक्षिणा देने के बाद प्राप्त हो जाता है। कहते हैं "जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ।" हम होटल से पैदल ही मंदिर तक चल पड़े। थोड़ी देर चलने के बाद एक गली से जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर स्थापित चक्र एवं ध्वज दिखाई देने लगा। जगन्नाथ मंदिर के पंडे जगत प्रसिद्ध हैं, मंदिर के सामने आते ही एक पण्डा महाराज हमारे सामने आ गए। बिकाश बाबू ने ही उनसे बात की और वे हमें दर्शन कराने के लिए तैयार हो गए। मंदिर के बाहर ही मोबाईल एवं चप्पल जूता स्टैण्ड बना  हुआ है, नगद देकर भी वे रखवाली करते हैं और नि:शुल्क भी है। हमने मोबाईल एवं सैंडिल जमा करवाए और पंडा महाराज हमें मंदिर के भीतर ले गए।
मंदिर के सामने की गली 
आज नवकलेवर उत्सव का प्रारंभ था। इसलिए मंदिर में अपार भीड़ थी। पण्डा जी हमें बाईं तरफ़ वाले द्वार से भीतर ले गए। वहां पुलिस की चौकस व्यवस्था थी। मंदिर का पट खुलने में अभी देर थी। जैसे ही पट खुला भीड़ पेलते ढपेलते भीतर जाने को उद्धत हो गई। हम भी भीड़ के साथ पहुंचे। सामने भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा एवं बदभद्र दिखाई दिए। धक्का मुक्की  में दर्शन हो गए। मुफ़्त दर्शनों के साथ यहाँ वी आई पी दर्शन की सुविधा है। जो 300 रुपए प्रति टिकिट में कराई जाती है। टिकिट दर्शनार्थियों को न देकर पण्डों को दी जाती है और वे उसकी मनमानी कीमत भी वसूलते हैं, इससे उनकी अतिरिक्त कमाई हो जाती है। हम तो मुफ़्त के दर्शनार्थी थी इसलिए दूर से ही दर्शन करके तृप्त हो गए।
पंडा पूरणचंद्र महापात्रा 
द्वार से बाहर निकलने पर सामने ही ब्रह्मा गादी है, जहाँ पण्डा जी लोग विश्रामासन में दिखाई देते हैं। ब्रम्हागादी से हम मंदिर के परिक्रमापथ की ओर चल पड़े। यहाँ पर छोटे छोटे अन्य देवों के मंदिर भी हैं। हमारे पण्डा पुरणचंद्र महापात्र जी हमें प्रसाद वाली जगह पर ले गए जहाँ सूखा प्रसाद ढाई सौ रुपए से लेकर हजारों रुपए तक मिलता है। हमने घर ले जाने के लिए न्यूनतम ढाई सौ रुपए का प्रसाद लिया। यहीं दान के चंदे की रसीदी काटी जाती हैं। यहां से आगे बढने पर अन्न सत्र प्रारंभ होता है। जहां पत्तल और मिट्टी के कुल्हड़ों में भोजन प्रसाद दिया जाता है। भगवान को भोग लगने के बाद यहीं पर पण्डा लोग प्रसाद का वितरण मय दक्षिणा अपने कोटे के हिसाब से करते हैं।
भगवन जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र 
जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है. यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है. इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद तैयार होता है जिसके लिए लगभग 500 रसोइए और उनके 300 सहयोगी काम करते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है. भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है.यहां बनाया जाने वाला हर पकवान हिंदू धर्म पुस्तकों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग पूर्णत: शाकाहारी होता है। भोग में किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं किया जाता। भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है।
मंदिर द्वार पर दर्शनार्थी 
रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है। इस रसोई में 56 प्रकार के भोगों का निर्माण किया जाता है। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं। कहते हैं कि मंदिर में भोग पकाने के लिए 7 मिट्टी के बर्तन एक दूसरे पर रखे जाते हैं और लकड़ी पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे ऊपर रखे बर्तन की भोग सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती  है। परन्तु इस प्रक्रिया को किसी को दिखाया नहीं जाता।
मंदिर की ध्वजा एवं चक्र 
जगन्नाथ मंदिर के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतया प्रसाद ही कहा जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मंदिर में ही किसी ने उन्हें प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। इसी महाप्रसाद से छत्तीसगढ़ अंचल में स्थाई मित्रता का संकल्प लेकर "महाप्रसाद" बदा जाता है। फ़िर आजीवन दोनो एक दूसरे का नाम न लेकर महाप्रसाद से ही संबोधित करते हैं।
महाप्रसाद जगन्नाथ मंदिर पुरी
अन्न सत्र में पहुंचने पर देखा कि यहाँ सब्जी बाजार जैसे प्रसाद का बाजार लगा हुआ है, पण्डा जी ने एक कुल्हड़ चावल और दालमा दिलाया। यही भगवान का श्रेष्ठ प्रसाद माना जाता है। भोजन करने के लिए प्रस्तर निर्मित बड़ी छतरी बनी हुई है। यहीं बैठकर हमने पत्तलों में प्रसाद ग्रहण किया। भूख भी जोर की लगी थी और मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने की इच्छा ने स्वाद को बढा दिया। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हमसे प्रसाद की दक्षिणा के 120 रुपए लिए। वहीं पर जल ग्रहण करने के लिए नल की व्यवस्था भी है। नल से जल पीकर भोजनोपरांत आत्मा तृप्त हो गई। पण्डा जी हमारे साथ फ़ंस कर छटपटा रहे थे, क्योंकि हम ठहरे घुमक्कड़ के साथ पुरातत्व निरीक्षक, इसलिए उन्हें हमारे साथ अधिक समय लग रहा था। हमें छोड़ कर वे और भी जजमान देखना चाहते थे। बिकाश बाबू ने उन्हें दक्षिणा देकर विदा किया और हम मंदिर परिसर के बाहर आ गए। जारी है … आगे पढें। 

नोट - मंदिर परिसर में किसी भी तरह की फ़ोटो लेना वर्जित है, इसलिए सारे चित्र बाहर से ही लिए गए हैं। 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

महोदधि स्नान से उपजा ज्ञान - कलिंग यात्रा

हम धूप होने से पहले पुरी पहुंचना चाहते थे, इसलिए सुबह जल्दी उठकर पुरी जाने के लिए तैयार हो गई। पुरी जाने वाली बस सांतरापुर से ही जाती हैं, हमने सड़क पर पहुंचकर आठ बजे पुरी की बस में चढ गए। बस ने हमें लगभग डेढ घंटे में पुरी पहुंचा दिया। बस स्टैंण्ड पहुंच कर हमें पहले होटल पकड़ना था। एक ऑटो वाला तैयार हो गया पचास रुपए में समुद्र तट तक होटल पहुंचाने के लिए। पहले उसने अपनी पहचान के होटल लॉज दिखाए, पर हमें पसंद नहीं आए। बिकास बाबू वहीं पास के एक होटल का पता रखे हुए थे शायद अजंता होटल जैसा नाम था। वह पाँच सौ रुपए में रुम देने के लिए तैयार हुआ। हमने एक रुम लिया और समुद्र तट पर पहुंच गए जलक्रीड़ा करने के लिए। 
महोदधि: विहंगम दृष्टि
मौसम अच्छा था और हवा भी मंद चल रही थी जिससे समुद्र में लहरें छोटी ही थी। मेरे मन में समुद्र में तैरने की इच्छा थी, पर विकाश बाबू उसके खिलाफ़ थे, वे छेना गाजा, छेना पोड़ा तलाश रहे थे। समुद्र के किनारे छतरियों के साथ कुर्सियां भी लगी हुई थी। यहाँ बैठकर समुद्र के नजारे लिए जा सकते थे। पूछने पर पता चला कि एक घंटे का किराया बीस रुपए है। हमने एक जगह कुर्सियां खाली देख कर कब्जा जमाया और सामान रख दिया। बिकास बाबू कैमरा संभाल स्थान ग्रहण कर लिए और हम समुद्र में उतर गए। किनारे पर काफ़ी संख्या में पर्यटक जलक्रीड़ा कर रहे थे। 
ऊंट खरीदने के लिए मोलभाव करते बिकाश शर्मा
तालाब, पोखर, नदी के तैरने वालों का घुटने भर पानी से मन नहीं भरता। इसलिए हम और आगे चले गए। बिकाश बाबू कैमरे से फ़ोटो खींच रहे थे। आगे चलकर जब कंधे भर पानी आ गया तब लहरों पर खेलने लगे, बड़ा ही आनंद आ रहा था। महोदधि की महाजलराशि मन को तरंगित कर रही थी और लहरों के साथ लयबद्ध खेल जारी था। तभी अचानक एक बड़ी लहर आई और उसने हमें दबोच लिया। हम पानी के भीतर पैर मार रहे थे पर थाह नहीं मिल रही थी। सांस भर गया, बड़ी मुस्किल से पानी से बाहर आए और जल्दी जल्दी हाथ पैर मार कर किनारे आ गए। एक झटके में ही ज्ञान की प्राप्ति हो गई। समुद्र में तीन लहरें दिखाई देती है, किनारे की पहली लहर बुलाती है, दूसरी मध्य की लहर खिलाती है और तीसरी लहर डुबाती है, अब सबक सीख लिए कि कभी तीसरी लहर से खेला नहीं करना है।
महोदधि स्नान एवं क्रीड़ा
किनारे पर पहुंचने के बाद छतरी तले कुर्सी पर दम साधने बैठ गए। हमारी कुर्सियों के मालिक का नाम एम दिलीप था। समुद्र का आनंद लेते हुए उनसे बातचीत प्रारंभ हुई। दिलीप लाईफ़ गार्ड है, छत्रछाया देने के साथ समंदर में डूबने वालों की जान बचाने का काम भी करते हैं। कुछ लोग लहरों से खेलते हुए गहराई में चले जाते हैं इन पर दिलीप की निगाहें लगी रहती है और डूबने का संकेत मिलते ही यह समंदर में छलांग लगा देते है और उन्हें बचा कर ले आते हैं। इसकी एवज में बख्शीश के  सौ पचास रुपए मिल जाते हैं साथ ही छतरी से भी दोपहर तक 100-200 कमा लेते हैं। दोपहर के बाद समंदर में मछली मारने चला जाते हैं। 
ऊंट खरीदते ही बिजनेश शुरु
मच्छंदर कुल के इसके पूर्वज आन्ध्र प्रदेश से आए थे, तेलगु भाषी है। दोपहर को कुछ पैसे मिलने के बाद 30 रुपए गिलास  के हिसाब से बिक रही गुड़ की देशी दारु का मजा लेते हैं। कहते है कि- अंग्रेजी दारु महंगी मिलती है और उसमें मजा नहीं आता तथा ताड़ी जल्दी उतर जाती है। इनने सिर पर टोपी लगा रखी है, उस पर लाईफ़ गार्ड लिख रखा है। लाईफ़ गार्ड का लायसेंस सरकार देती है पर इसके एवज में कुछ भी मानदेय नहीं मिलता। लाईफ़ गार्ड का कार्य इन्हें वालेन्टरी करना पड़ता है। जो कुछ कमाई होती है वह छत्रछाया से होती है। 
लाईफ़ गार्ड दिलीप एवं लेखक
दिलीप कहते है कि समंदर का खारा पानी मनुष्य की चमड़ी को नुकसान पहुंचाता है। आप एक घंटा समुद्र में रहेगें तो यह रंग को काला कर देता है। इसका प्रमाण भी मुझे मिला, समुद्र का पानी आंखो में जलन पैदा करता है और दो घंटे नहाने पर चमड़ी का रंग भी बदल जाता है। अगर एक हफ़्ते समंदर में स्नान किया जाए तो रंग काला हो जाएगा। जाहिर है समंदर भी प्रदूषण का शिकार हो रहा है। अधिक खारापन एसिड का काम कर रहा है। दोपहर हो गई थी, समुद्र तट भी धीरे धीरे पर्यटकों से रिक्त हो रहा था। दिलीप अपनी छतरी उखाड़ कर मछली मारने चला गया और हम नहाने के लिए होटल चले आए। जारी है… आगे पढें।

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

भये प्रकट कृपाला दीनदयाला - कलिंग यात्रा

लगभग एक बज गया था और भूख जोरों की लगी थी, ऑटो वाले को उसकी दक्षिणा देकर विदा किया, भला आदमी था, उसका व्यवहार अच्छा लगा वरना कल सुबह वाले ने लूटने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी। होटल पहुंच कर सात्विक भोजन दालमा भात खाया और रुम पर आराम करने पहुंच गए। संझा का कार्यक्रम भुवनेश्वर का बाजार देखने और शहर घूमने का था। हर शहर की अपनी अलहदा तासीर होती है, उससे भी रुबरु होना जरुरी रहता है। 

शाम ऑटो पकड़ कर बाजार की तरफ़ निकले। आज रामनवमी थी, रास्ते में राममंदिर के समीप उतर गए। मंदिर के समक्ष बहुत भीड़ थी। अगर भीतर जाते तो फ़िर वही, जूते चप्पल की रखवाली, मोबाईल जमा करना इत्यादि प्रक्रिया से गुजरना पड़ता। हमने सड़क पर खड़े खड़े ही मर्यादा पुरुषोत्तम को जन्मदिन की शुभकामनाएं दे दी और उन्होने स्वीकार भी कर ली। सोचा होगा कि घुमक्कड़ हैं ये लोग, क्या भरोसा दूबारा आएगे कि नहीं। इसलिए स्वीकार कर लेने में ही भलाई है, इस घटना के साक्ष्य के रुप में हमने एक सेल्फ़ी भी खींच ली।

बिकाश ने कहा कि यहाँ के मॉल देखे जाएं, मैं भी तैयार हो गया। सड़क पार करके ग्यारह नम्बर की गाड़ी पर सवार होकर मॉल पहुंच गए। घूम फ़िर कर एक कपड़े की दुकान में घुस गए। ऑफ़र चल रहा था, एक के साथ एक फ़्री का। बिकाश कहने लगा कि पतलून ले लो। अब हम पतलून पसंद करने लगे। खूब मगज मारी करने के बाद एक नाप की दो पतलून नहीं मिली। जो पसंद आती थी उसकी जोड़ी नहीं मिलती थी। थक हार कर बाहर आ गए, अब फ़्री के ऑफ़र में तो यही होना है। 

एक जगह निकोन कम्पनी का काऊंटर लगा था। कई दिनों से सोच रहा था कि एक एस एल आर कैमरा लेना है। परन्तु लेंस आदि के भाव देख कर हिम्मत ही नहीं होती थी। सोचा कि आज मोल भाव जम जाए तो ले लिया जाए। उसकी दुकान में पहुंच कर कई कैमरे देखे, पर जमे नहीं। क्योंकि वहाँ डिजिटल कैमरों की रेंज अधिक थी और वह मैं 30X जूम का वह कैमरा तो हाथ में लेकर घूम रहा था। खैर यहाँ से भी बैरंग लौट आए। 

अब मार्केट में घूमते फ़िरते उड़ीसा हैंडलूम की कई दुकाने दिखाई दी। मन आया कि कोई साड़ी खरीद ली जाए उड़िया पैटर्न की मालकिन के लिए। वैसे हमने जीवन में कभी कोई साड़ी नहीं खरीदी थी। यह सब खरीदने का काम मालकिन का ही है, हमारे बस का नही। दुकान वाले ने सूती की बहुत सारी साड़ियां दिखाई, पर समझ नहीं आया क्या लें और क्या न लें। बिकाश बाबू कुछ कुछ मामलों में हमारे जैसे ही हैं। आखिर वाट्सअप काम आया। हमने साड़ियों की फ़ोटो खींच कर वाट्सअप पर भेज दी, उसकी दुकान में नेट कुछ धीमा चल रहा था। फ़ोटो आदान प्रदान एवं स्वीकृति में ही आधा घंटा लग गया। आखिर एक साड़ी पैक करवा कर नोट दिए और बाहर आ गए। चलो कुछ तो खरीदा, वरना यहां से भी हाथ हिलाते निकलते।

इस इलाके के आस-पास स्ट्रीट फ़ूड की बहुत सारे ठेले हैं, सब जगहों के स्ट्रीट फ़ुड की अपनी विशेषता होती है। हमने गोलगप्पे का आनंद लिया, बाकी पकोड़े वकोड़े मकोड़े तो हमको जमते नहीं है। वैसे भी सफ़र में सबसे अच्छा और बिना मिलावट का खाना दो ही मानता हूँ, पहला केला, दूसरा अंडा और तीसरा नारियल पानी। तीनों ही हाईजेनिक हैं, कोई मिलावट नहीं और दुनिया में सब जगह मिलते हैं अगर वहाँ भाषा भी नहीं आती तो लोग इशारे से समझ जाते हैं और काम बन जाता है। अब यहाँ से ऑटो पकड़ कर फ़िर अपने मोहल्ले सांतरापुर पहुंच गए। 

हम जिस होटल में भोजन करते थे वह पहले तल्ले पर था और नीचे मिठाईयों की दुकान। जिसमें तरह-तरह की मिठाईयाँ सजी हुई थी। बिकाश बाबू मिठाईयों के दास है और हम उदास। मिठाईयाँ देख कर इनके गाल फ़ड़कने लगते हैं। भोजन करके मिठाईयों की दुकान में घुस गए और लगे छेने की मिठाईयां झाड़ने। आखिर जोर कर हमको छेने की बिना शक्कर की मिठाई खिला ही दी। वैसे भी उड़ीसा की छेने की मिठाईयों का कोई जवाब नहीं, छेना गाजा, छेना पोड़ा और भी न जाने क्या क्या। बिकाश बाबू ने बहुत सारी मिठाईयों का स्वाद चखा, हम देखते रहे। मिठाईयाँ खाकर रुम में पहुंच गए क्यों कि कल सुबह जगन्नाथ पुरी जाने की तैयारी करनी थी। दो दिन पुरी के नाम हैं…… जारी है, आगे पढें…। 

सोमवार, 23 नवंबर 2015

सम्राट अशोक से एक मुलाकात - कलिंग यात्रा

भुवनेश्वर एक ऐसा नगर है जहाँ हम कोई भी सड़क पकड़ कर किसी भी तरफ़ निकल जाएं दर्शनीय एवं पुरातत्वीय स्मारकों के दर्शन हो जाएगें। अब हम धौली जा रहे थे, जो भुवनेश्वर से लगभग किमी की दूरी पर है। चलते मेरे ध्यान में ध्यान में नहीं था कि यह महत्वपूर्ण स्थान है और इसके बिना मेरी भुवनेश्वर यात्रा अधुरी रह जाएगी। यह एक टेकरी/ डूंगरी पर स्थित है। ऑटो वाले ने डूंगरी से थोड़ी दूर पर ही उतार दिया। पैड़ियों से ऊपर जाने पर  स्तूपनुमा इमारत दिखाई दी। यह नई बनी प्रतीत हो रही थी। इसकी चारों दिशाओं में बुद्ध को विभिन्न आसनों में दिखाया गया है। पहली प्रतिमा धम्म परिवर्तन मुद्रा, दूसरी प्रतिमा भूमि स्पर्श मुद्रा, तीसरी प्रतिमा गणिका द्वारा खीर प्रदान करते हुए, चौथी प्रतिमा अभय मुद्रा, पांचवी प्रतिमा निर्वाण मुद्रा में स्थापित की गई है। इस स्तूप का निर्माण बौद्ध धर्मावलम्बियों द्वारा कराया गया है। बड़ी संख्या में लोग इस स्थान का भ्रमण करने आते हैं।
धौली स्तूप भुवनेश्वर 
धूप सिर पर चढ रही थी और भूख का समय भी हो गया था। शरीर की उर्जा चूक रही थी। इसलिए हमने लौटने की योजना बना ली। जल्दी ही ऑटो तक पहुंच गए। पहाड़ी से उतरते समय बांए तरफ़ एक स्थान को फ़ेंसिग से घेरा गया देख कर मैने ऑटो रुकवा लिया। उतरने पर देखा कि वहाँ पुरातत्व सर्वेक्षण का सूचना फ़लक लगा हुआ है अर्थात यह स्थान महत्वपूर्ण है इसे देखना जरुरी है। पता चला कि यहाँ सम्राट अशोक का शिलालेख है। बस इतना जानना था कि शरीर में चूकी हुई उर्जा पुन: आ गई और हम टेकरी पर चढ गए। यहाँ एक चट्टान को काटकर हाथी का शिरोभाग निर्मित किया गया है और इसी चट्टान पर एक बड़ा शिलालेख अंकित है। शिलालेख को कांच से ढक दिया गया है जिससे फ़ोटो स्पष्ट नहीं ली जा सकती। 
अशोक शिलालेख धौली 
यह शिलालेख सवा दो हजार वर्ष पूर्व  मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक द्वारा अंकित करवाया गया था। उसके कुल ३३ अभिलेखों में से यह एक प्राप्त अभिलेख हुआ हैं। इसे ब्राह्मी शिलालेख अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफ़ाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाया था। अशोक के शिलालेख आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं। इस ब्राह्मी शिलालेख को 1837 में लेफ़्टिनेंट मार्कम किट्टो द्वारा ढूंढा गया था। इस शिलालेख में अशोक के चौदह अनुशासनों में से 11 को लिपिबद्ध किया गया है। कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ, उसने जनसाधारण पर अपनी सहृदयता की छाप छोड़ने के उद्देश्य से इस आदेश का प्रचार करवाया। इसमें लिखा है कि - 
कांच से घिरा हुआ शिलालेख 
1 - किसी पशु का वध न किया जाए और राजकीय पाकशाला एवं मनोरंजन उत्सव न किए जाएं। 
2 - मनुष्यों एवं पशुओं के चिकित्सालय खुलवाए जाएं एवं उसमें औषधि की व्यवस्था की जाए। मनुष्यों एवं पशुओं की सुविधा के लिए मार्ग में छायादार वृक्ष लगवाए जाएं एवं राहगीरों के लिए जल की व्यवस्था कुंए खुदवा कर की जाए। 
3 - राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिया गया कि प्रति पांच वर्ष पश्चात धर्म प्रचार के लिए जाएं। 
4 - राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिया गया कि व्यवहार के सनातन नियमों यथा नैतिकता एवं दया का सर्वत्र प्रचार किया जाए। 
5 - धर्ममहामात्रों की नियुक्ति एवं धर्म एवं नैतिकता का प्रचार प्रसार किया जाए। 
6 - राजकीय पदाधिकारियों को स्पष्ट आदेश है कि सर्वलोकहितकारी कुछ भी प्रशासनिक सुझाव एवं सूचना मुझे प्रत्येक स्थान एवं समय पर दें।
7- सभी जाति एवं धर्मों के लोग सभी स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे आत्म संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं।
8-राज्याभिषेक के दसवें वर्ष अशोक सम्बोधि (बोध गया) की यात्रा कर धर्म यात्राओं का प्रारंभ किया जाए। ब्राह्मणों एवं श्रमणों का दर्शन एवं गरीबों के नैतिक कल्याण का प्रचार किया जाए।
9- दास तथा अनुचरों के प्रति शिष्टाचार का पालन करें, जानवरों के प्रति उदारता एवं ब्राह्मणो तथा श्रमणों के प्रति उचित व्यवहार करने का आदेश दिया गया।
10- अशोक ने घोषणा कि यश एवं कीर्ति के लिए नैतिकता होनी चाहिए।
11- धर्म प्रचारार्थ अशोक ने अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर शिलाओं पर धम्म लिपिबद्ध कराया जिसमें धर्म संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाओं का वर्णन है।
राजा एवं राणा  सम्मुख 
एक अन्य पृथक शिलालेख ;में अशोक तोशाली के महामत्तों को आदेश देता है कि सभी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिए इच्छा करता हूं कि इहलोक एवं परलोक में उनकी सुख समृद्धि हो,उसी प्रकार सम्पूर्ण प्रजा के लिए मेरी यही इच्छा है। बिना उचित कारण के किसी को शारीरिक दंड, ईर्ष्या, क्रोध आदि दुर्गुणों से रहित निष्पक्ष मार्ग का अनुशरण करने का आदेश देता हूँ। तोशाली के महामात्रों को आदेश है कि सीमांत राज्यों के लोगों के हित - कल्याण को ध्यान में रखा जाए एवं उनपर अनुग्रह की नीति अपनाई जाए। -  इस तरह सम्राट अशोक से भेंट हो गई शिलालेख के माध्यम से, अब हम धौली से चलकर भुवनेश्वर अपने डेरे में पहुंच गए। जारी है आगे पढें…॥