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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

सायकिल चलाना जिम्मेदारी का अहसास करना है

सायकिल चलाना सीखने के बाद अब मेरे पंख लग गए थे. कुछ महीनों बाद सायकिल मैं अच्छे से चला सकता था। कभी छोटे भाई को बैठा कर चलाने का प्रयास भी कर लिया करता था।

स्कूल में सबको पता चल गया कि मैं अब सायकिल चलाना सीख गया हूँ, लेकिन मैंने कभी सायकिल सड़क पर नहीं चलाई थी।

हमारे घर के सामने से रायपुर से विशाखापत्तनम नेशनल हाईवे गुजरता है उसपे वाहनों का आवागमन अधिक है, जिसके कारण सड़क पर सायकिल चलाने की अनुमति नहीं मिली थी। 
सायकिल
अभनपुर का बस स्टैंड तिराहा
एक दिन दोपहर में सायकिल लेकर सड़क पर आ गया। घर से बस स्टैंड आधा फर्लांग पर है। सोचा कि बस स्टैंड के तिराहे का एक चक्कर काट कर वापस आया जाए,

मैं सायकिल लेकर सड़क पर पहुंचा और चलानी शुरू की। बस स्टैंड तक सही सलामत पहुँच गया. जैसे ही वापस हो रहा था एक आदमी सामने आ गया,

बहुत कोशिश की मेरे से ब्रेक नहीं लगा दोनों टकरा गए। सायकिल के हैंडिल से उस आदमी की छाती में लगी मैं भी गिर गया।

आदमी छाती पकड़ कर बैठ गया। दोनों उठे एक दुसरे को देखा तो मुझे वो पहचान गया और बोला "सायकिल घर में चलाए करो", मैं घर आ गया।

सायकिल
मेरा स्कूल
हमारे मध्य प्रदेश में पांचवी की बोर्ड परीक्षा होती थी. पढाई जोर शोर से चल रही थी. परीक्षा केंद्र हमारे  घर से लग-भग दो किलो मीटर दूर था। अब वहां परीक्षा देने जाना था।

व्यवस्था हुई कि एक नौकर सायकिल पर लेकर जायेगा और परीक्षा होते तक खड़ा रहेगा, फिर वही वापस लेकर आएगा। लेकिन मैं स्वयं सायकिल लेकर जाना चाहता।

यह प्रस्ताव मैंने दादी को सुनाया और कहा कि मेरी बात पापा जी तक पहुंचा दी जाए। दादी ने मेरी तरफ से वकालत की और उनकी दलीलें काम आई। 
सायकिल
इस तरह से मुझ पर पहली बार विश्वास करके पूरे घर वालों ने सायकिल बाहर ले जाने की छूट दी। एक तरह से जिम्मेदारी का परमिट दिया।

मैं सायकिल लेकर शान से स्कुल गया और मेरे मन में एक जिम्मेदारी का अहसास उस दिन पहली बार हुआ। अब अपने आपको,

सायकिल को, सड़क पर चलने वालों को एवं बड़ी गाड़ियों से खुद को बचाना मेरी जिम्मेदारी थी.

जिस विश्वास के साथ मुझे सायकिल दी गई थी उसे भी टूटने से बचाना था अर्थात सायकिल चलाना चौतरफ़ा जिम्मेदारी थी।

इसलिए मेरे लिए वह सिर्फ लौहे सायकिल ही नहीं एक जिम्मेदारी भी थी जिसे निभाकर घर के लोगों का विश्वास अर्जित करना और बनाए भी रखना था.

9 टिप्‍पणियां:

  1. वैसे मैं काल एक बात अपन लिखे हंव तोर साइकल चलाये के बारे मा महू खैरागढ़ तहसील के पांडादह गाँव मा पढों बाद मुश्कुल ले सीखेंव सायकल अउ ओही मा अपनममा के आदेश मा ८ किलोमीटर खैरागढ़ जान. अस्पताल बर दवाई लाये बर. शायद चौथी या पांचवी मा रहेवं . वाकई जिम्मेदारी बहुत बड़े चीज होथे. ये सब बात ला ब्लॉग मा लिखना एक अच्छा सुरता देवाय के तरीका आय. बहुत बढ़िया

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  2. हम सायकिल चलाना सीखे तब नवीं कक्षा में पढ़ते थे।

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  3. बहुत सुन्दर संस्मरण है ललित जी!

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  4. सादर वन्दे
    वो तो भला हुआ कि लड़ने वाले सज्जन बुजुर्ग नहीं थे नहीं तो ...हा हा हा
    बहुत ही अच्छा संस्मरण, मुझे बचपन में पढ़ी "साईकिल कि सवारी" वाली कहानी याद आ गयी.
    रत्नेश त्रिपाठी

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  5. बढिया संस्‍मरण .. पुरानी बाते कितनी सुखद अहसास देती हैं !!

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  6. रोचक, बिना लाग लपेट, सहज-सरल भाषा में लिखे इस संस्‍मरण के लिये ललित भाई को धन्‍यवाद.

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  7. आखिर आपने सायकल चलाने का परमिट ले ही लिया !!! सावधानिया और कई हिदायतों के बाद !!!

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