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बुधवार, 19 जनवरी 2011

पैमाना लबालब न भरा हो तो कैसी तृप्ति?

“मन लागो मेरो यार फ़कीरी में” – फ़कीरी का आनंद अलमस्ती में है। शाम के धुंधलके में एक-एक कर प्रकाशित होती दीप मालिकाएं तम हरण की भरपूर कोशिश में है।

कार में बजता हुआ स्टिरियो ले जा रहा है मुझे फ़कीरी की ओर। शब्द–शब्द अंतर पर चोट कर रहे हैं। बस मैं हूँ और तू है। दूसरा कोई नहीं।

कबीर के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा। बाहर जो बज रहा है वह अनहद बन कर अंतर में भी बज उठा होगा। अंतर भी बज उठा होगा। अनहद नाद के साथ हजारों दीपों का सूर्य सा प्रकाश अंतर को आलोकित कर गया होगा। कुछ ऐसी ही अनुभूति होने लगी। 

तेरे साथ बिताए कुछ पलों का स्मरण आते ही। गर्दन पर झुरझुरी होने लगती है। एक थरथराहट के साथ गर्दन को झटकाता हूँ। सामने से आती वाहनों की हेड लाईटें सुहाती नहीं हैं। जैसे पार्क के किसी कोने में बैठे होने पर जनता हवलदार डंडा हाथ में लिए आते दिखाई देता है।

ध्यान भंग होने लगता है। आनंद के सागर में गोते लगाते हुए एक कड़ुवाहट सी मुंह में आ जाती है। इन वाहनों में हेड लाईटें क्यों हैं? बिना लाईट के वाहन क्यों नहीं चलते? क्यों न मैं अपनी कार की हेड लाईटें बंद कर लूँ?

अंधेरा सुहाना लगता है तो कभी डरावना भी। किसी से टक्कर हो सकती है? लेकिन लाईटें क्यों बंद हों? वे तो अंधेरे के विरुद्ध लड़ाई में सैनिक सी डटी हैं। अंधेरा दूर करने का संकल्प जो किया है।

बाहरी दुनिया को देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। हम अंधेरे में भी देखना चाहते हैं प्रकृति के विरुद्ध। अंधेरा होना भी आवश्यक है। अंधेरा न होगा तो प्रकाश का मोल कौन समझेगा?

दु:ख न होगा तो आनंद उत्सव का मोल कौन समझेगा? अंधेरे की दुनिया भी अलग ही है। जो प्रकाश में नहीं मिल पाता वो अंधेरे में मिल जाता है।

खुली आँखें होते हुए भी हम देख नहीं पाते। जब आँखें बंद करते हैं तो सब कुछ दिख जाता है। एक चलचित्र सा चलता हुआ। भूत-भविष्य और वर्तमान। जहाँ खुली आँखों से पहुंचना संभव नहीं। वहाँ हम बंद आँखों से घूम आते हैं। कितना विस्मयकारी है। बंद आँखों से देखना।

प्रकृति के विरुद्ध भी हम चलना चाहते हैं। हमारी फ़ितरत है यह। हम अपने आपको सर्वशक्तिमान समझते हैं। हमारी मेधा के आगे सब बौने हैं। लेकिन कभी उस ओर भी झांकने की कोशिश की?

जहाँ से मेधा आई है। नहीं, गदह पचीसी से अवकाश मिले तब न। प्रकृति से बड़ा कोई नहीं। उसे हमारी छेड़ छाड़ पसंद नहीं है। हम अपने कबीले का कानून बना लेते हैं और उसके सहारे दुनिया को चलाने की कोशिश करते हैं।

 बस यहीं मुंह की खा जाते हैं। जिस सर्वशक्तिमान प्रकृति के कानूनों के आगे किसी भी कबीले का कानून नहीं चलता। वह बौना है इसके सामने। आनंद में यही बाधा है, हम प्रकृति को अपने अनुरुप चलाना चाहते हैं।

शाम ढलने लगती है। सोचता हूँ कि वह बाट देख रही होगी।  आज न मिलुं तो कैसा रहेगा? कल ही तो मिला था। प्रतिदिन की मुलाकातें आनंद में बाधा है।

व्यग्रता न हो मिलन की, अधीरता न हो, तो कैसा प्रेमानंद? बाट तो देखना ही है। पैमाना लबालब न भरा हो तो कैसी मयकशी? कैसी तृप्ति?

सुरुर का अहसास रग रग में समाने लगा। रोम-रोम पुलकित होने लगा । आनंद का सागर हिलोरें लेता है। मांझी की नाव अंधेरे में उफ़नती हुई लहरों के बीच डूबती-उतराती पार जाना चाहती है। पार तो लगना ही है उसे एक दिन। मझधार में डूबने वालों को कौन याद रखता है?

मेड़ में छिपी बैठी फ़न फ़ैलाए काली नागिन उन्मत्त होकर लहरानी लगी। उन्मुक्त हो गयी  है अंधेरे में।कितना सौंदर्य है उसके बलखाने में? एक जोड़ी आँखे उसे ताक रही हैं। हाथ बढाते ही फ़ुफ़कार एक झपट्टा मारा उसने। मैने हाथ पीछे खींच लिया। बहुत सारा विष धरा पर फ़न मारते वमन किया उसने।

लेकिन आज मैं भी आर-पार की हद तक पहुंचना चाहता हूँ, विष को रगों में बहते हुए देखना चाहता हूँ। मेरी नजर चूकते ही, लिपट गयी वह देह से, ढेर सारा विष उसने उड़ेल दिया, मेरी रगों में बहने लगा। बेसुधी आने लगी, विषाक्त होकर भी आनंद आने लगा। विषाक्त होकर भी आनंदित होना पराकाष्ठा है।

प्रकृति ने विष दिया तो जीवनामृत भी। सूर्योदय होने लगा। क्षितिज पर लालिमा दिखाई देने  लगी। सुध आई तो नागिन बेसुध पड़ी थी। विष कोष रिक्त जो हो गया था।

मैं अपनी विषाक्त देह लिए चल पड़ा था कि फ़िर कभी नहीं आना है इस ओर। रमे रहना है फ़कीरी में, वही जीवन का शास्वत सत्य है। यही जीवन का शास्वत सत्य है। "तेरे ईश्क नचाया,करके थैया थैया"

14 टिप्‍पणियां:

  1. रात काली नागन सी हुई है जवां... लेकिन फिर हर अंधेरी, नशीली रात पर नया सवेरा.

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  2. एकदम से डूबकर लिखा गया पोस्‍ट .. अच्‍छी अभिव्‍यक्ति !!

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  3. llit bhaayi aek chhoti si yatraa kaa is qdr bhtrin alfazon men prstut vivrn shayd vishv ke kisi bhi lekhk ke bs ki bat nhin boht behtrin prstuti he mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthan

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  4. अंधेरा न होगा तो प्रकाश का मोल कौन समझेगा? दु:ख न होगा तो आनंद उत्सव का मोल कौन समझेगा?

    अद्बुत पोस्ट
    पढकर आँखें बंद कर ली और 1सैकिंड का चिन्तन किया

    प्रणाम

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  5. आप सूफी होते जा रहे है ... लगे रहिये ! जय हो !

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  6. लगता है आँखें बंद करके पोस्ट लिखी है :)एकदम डूब कर , चिंतन मनन करके.
    बहुत सुन्दर.

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. Sameer ji ko vimochan par bahut-2 badhaai.. bilkul faqeeri style lekhan hai.. aapko bhi sammanit hone par dher saari badhaai..

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  9. बहुत सुंदर जी, लगता हे मस्ती मे लिखी हे यह मस्त पोस्ट, धन्यवाद

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