बसंत का आगमन हो चुका है, पुराने जख्म फ़िर कुरेद रहा हूँ यानी की दैनन्दिनी के पन्ने पलट रहा हूँ। बांच रहा हूँ, कुछ पुरानी यादें जिसमें तुम टुबलाकड़ी की तरह जगमगा रही हो। मेरे दिल की धड़कने भी घरघंटी सी पीस रही हैं पुराने सूखे गुलाब को इत्र बनाने के लिए। जिससे महक उठे सारा वजूद। सामने झूल रहा है छीका, जिसमें रखा है यादों का स्नेह। वह छलक रहा है धीरे-धीरे। दूर कहीं सन्नाटे को चीरती नगाड़े की आवाज में स्वर उभर रहा है गायक का, :-
पृष्ठ 47 दिनांक 2 मार्च 1969
धीरे बहो नदिया धीरे बहो, धीरे बहो
धीरे बहो नदिया धीरे बहो
राधा जी उतरैं पार
नदिया धीरे बहो
काहेन के तोरे नाव-नउलिया काहेन के पतवार
कौन है तोरे नाव खिवैया कौने उतरै पार
नदिया धीरे बहो
अगर-चंदन के नाव-नउलिया सोनेन के पतवार
कृष्णचन्द्र हैं नाव खिवैया राधा उतरै पार
नदिया धीरे बहो
धीरे बहो नदिया धीरे बहो, यौवन की रुपी नदी की तीव्रता, चपलता एवं चंचलता विध्वंसक होती है। उछलती-उफ़नती, पहाड़ों को काटती, वनों को चीरती, हुई बेखौफ़ अल्हड़ सी आगे बढती है। चाहे जो भी सामने आ जाए, उसे ठिकाने लगा ही देती है। लेकिन जब यौवन का ज्वार उतरता है तो चूक सामने दिख ही जाती है। इसलिए नदिया धीरे बहो, बाद पछताना ठीक नहीं है। मेरी सलाह मानो तो जरा आँखें खोल लो।
पृष्ठ 74 दिनांक 8 मार्च 1973
होली का मौसम है, मौसम न सर्द है न गर्म है। गुलाबी ठंड है बासंती रंग में रंगी हुई। कल्पना में खोया हुआ हूँ। कल्पनाओं को रचने के लिए भी समय और एकांत चाहिए। आम के तले खाट पर पड़ा हुआ आँखें बंद कर लेता हूँ। यहाँ इसलिए कि व्यवधान न हो, आँखे बंद करते ही चलचित्र प्रदर्शित होता है। कल्पनाएं तुम्हारे साथ होली खेलने को मचलती हैं। रंगों का चयन करता हूँ जिससे रंगने के बाद तुम अलग ही नजर आओ और उस पर दूजा रंग न चढे। तैयार हूँ मैं, तभी एक सन्यासी कवि का गीत गूंजने लगता है-
एक थी लड़की मेरे गाँव में चंदा उसका नाम था
वह थी कली अछूती लेकिन हर भंवरा बदनाम था।
महानदी-सी लहराती थी
जैसे उसकी चाल में
पवन हठीला ज्यों थिरका हो
नौंकाओं की पाल में
प्रश्न चिन्ह सी लचक कमर में आगे पूर्ण विराम था
वह थी वनवासिन सीता-सी बिछड़ा जिसका राम था
उसकी गागर की लहरों से
सागर भी शरमाता था
गोरी पिंडलियों को धोने
पनघट तक आ जाता था
वह नदिया थी हर प्यासे को छलना उसका काम था
वह ढाला करती थी लेकिन खाली रहता जाम था।
गीत गूंजता अमराई में
चरवाहे की तान से
छंद-पंक्ति सी वह बलखाती
आंगन में अभिराम से
उमर दिवस की घटने लगती चढ़ता आता घाम था
उसका सपना देहरी पर बेसुध करता आराम था।
वह रुकती थी हाथ जोड़ कर
मलयालिन रुक जाता था
तुलसी की मंजरियों का
बोझिल मस्तक झुक जाता था
उसके चरणों में अर्पित सूरज का नम्र प्रणाम था
स्वपनिल चिंतन में उतराता मेरा दिवस तमाम था।
उसकी खोज में बाग का पंछी
बना हुआ बनजारा है
जब से वह ससुराल गयी है
मेरा गाँव कुंवारा है
उसका प्यार लूटने वाला हर प्रयत्न नाकाम था
मुझे स्मरण दहला देता है उस अंतिम शाम का।
पड़े-पड़े यही सोचता हूँ। एक तरफ़ पढाई का मौसम और दूसरी तरफ़ बासंती होली का धमाल। गत वर्ष तो एक घर में पहुंचा रंग खेलने तो खेलावन भैया होली खेलने के डर से घर की दीवाल कूद कर बाहर भाग गए और भौजी फ़्रंट में आ गई………….।
(नोट- चंदा उसका नाम था गीत आदरणीय संत पवन दीवान जी का है)
आदरणीय संत कवि को 1971-72 में अकलतरा में यह गाते हुए पहली बार सुना था, तब से चर्चा तो कई बार हुई, लेकिन गीत अब फिर से मिला, वाह.
जवाब देंहटाएंटुबलाकड़ी ??
जवाब देंहटाएंदोनों गीत बहुत ही अच्छे लगे ...!
वाह ललित भाई
जवाब देंहटाएंक्या लालित्य पेश किया है
पुरानी विचार धन संपदा संजो रखी है
सब बाहर आ जानी चाहिए
खूब आनंद मिलता है नॉस्टेल्जिया मे।
अच्छे लगे गीत!
जवाब देंहटाएंholi or pdhaayi kaa sngm pdhaayi men dhm dham achchaa vrnn he . akhtr khan akela kota rasjthan
जवाब देंहटाएंजब से वह ससुराल गयी है
जवाब देंहटाएंमेरा गांव कुंवारा है
वाह भईया मन मतौना मात गे मया म, चंदा के आगू का शीला अउ मुन्नी...........जब सन्यासी के कविमन जागथे ओरिजनल मउहां के रस लगथे मया गीत, होली के माहौल बनत हे
तब और अब, कितना भाता है इन लहरों में उतराना।
जवाब देंहटाएंपुरानी मधुर यादों में खो जाने का भी अपना एक अलग आनंद है. सुंदर प्रस्तुति. आभार .
जवाब देंहटाएंआपकी डायरी और आपकी शायरी दोनों कमाल है ...दोनों गीत भाव पूर्ण है
जवाब देंहटाएंआपका डायरी के पन्नो बहुत कुछ छुपा है मै भी पढने को लालायित हूँ
जवाब देंहटाएंआपको फालो कर रहा हूँ
अतीत में झांकना कई बार सुखद होता है।
जवाब देंहटाएंसंत कवि की यह कालजयी रचना है। इसे यहां प्रस्तुत करने के लिए आपके प्रति आभार।
का भैया फागुनवा देखि के बोरागए का | रोमांटिक गीत बहुत बढ़िया लगा | धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंगूंगे को गुड़ जैसा आनन्द मिल रहा है..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जी, अजी पुरी डायरी ही हमे भेज दो फ़ुरसत मे पढेगे :)
जवाब देंहटाएंजारी है…………जारी रहे ........यादों का यह सिलसला कभी ना रुके ।
जवाब देंहटाएंललित भाई ,
जवाब देंहटाएं2 मार्च 1969 को लिख पाये 47 पृष्ठ और ठीक 4 साल 6 दिन बाद लिखने की स्पीड का फर्क दिखाई दिया यानि कि 8 मार्च 1973 को लिख चुके कुल 74 पृष्ठ :)
दोनों ही पृष्ठों पर कविता ही लिखी और 47 बनाम 74 का भी अजब संयोग है :)
बसंत आपका कभी साथ ना छोड़े बस यही शुभकामनायें हैं :)
@अली भैया
जवाब देंहटाएंडायरी में सन् बदला करते हैं और पृष्ठ उतने ही रहते हैं।:)