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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सावधान! ॠतुराज बसंत पधार चुके हैं

बसंत आ गया, आना ही था, ॠतुराज को कौन रोक सकता है? इसके भी आगमन का इंतजार करना पड़ता है आनंदोत्सव हेतु। बसंतोत्सव की कुछ दिनों की खुशियों के लिए पतझड़ एवं लू से झुलसना पड़ता है, फ़िर पूरे 12 महीने इंतजार करने के पश्चात बसंत का आता है।

तन-मन उपवन महकाता है और जाता है तो झुलसाता हुआ, धूल का गुबार उड़ाता चला जाता है निर्दयी बेरहम होकर। ऐसा नहीं हो सकता था कि पहले पतझड़ आता फ़िर उसके बाद बसंत।
झुलसी हुई गात पर मरहम लगाता। तन-मन को हरषाता। नहीं हो सकता । यह मनुष्य की फ़ितरत है कि अधिक खुशी और आनंद सहन नहीं कर पाता।

हृदय पर बोझ आते ही हृदयाघात का खतरा मंडराने लगता है। बसंत भी जानता है, उसे कब आना है। आने से पहले बरस भर तैयारी करनी पड़ती है। तब लवा-जमा लाव-लश्कर के साथ आता है।

राजे-महाराजों के लिए तो बारहों महीने बसंत है। केवड़ा, गुलाब, चमेली, खस की सुवास मिले जल का छिड़काव होते ही बसंत की बयार आ जाती है।

चेटी, बांदी की सेवाओं के साथ नृत्यांगनाओं के नृत्य बसंत को आने के लिए लुभा ही लेते हैं। संगीत की स्वर लहरियाँ झूमने को उत्साहित कर देती हैं। मृदंग एवं तबले की थाप सुन कर पैर थिरकने लगते हैं। मधुर पायल की ध्वनि चीर देती है वातावरण के सन्नाटे को।

बसंत का यहां स्थाई डेरा है। जब चाहो तब हाजिर। अकुलाहट बसंत के हृदय में भी है, वह कैद हो गया चांदी की दीवारों में। आजाद होना कौन नहीं चाहेगा?

बसंत भी आजाद होना चाहता है। जब वह कैद से आजाद हो जाता है तो आ जाता है अपनों के बीच। तब हम कहते हैं कि बसंत आ गया।

आम जन बसंत के स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देता है। उन्मुक्त सुवासित पवन बहने लगती है। मंद-मंद शीतलता सुवासित समीर के साथ आम जन को भी राजा बना देती है। क्योंकि बसंत आ गया है।

बसंत सभी के जीवन में आता है। तन-मन हरषाता है, प्रकृति बसंत का स्वागत करती है। भौंरे गुनगुनाते हैं, कोयल कुकती है, पलाश खिल जाते हैं, अमिया बौरा जाती है, तितलियाँ रंगबिरंगे वसन धारण करती हैं, इंद्रधनुषी छटा चहूं ओर बिखर जाती है। ॠतुराज बसंत पधार चुके हैं अपने लाव लश्कर के साथ, आईए स्वागत करें। एक गीत के साथ।


सरसों  ने  ली अंगडाई गेंहूँ की बाली डोली
सरजू ने ऑंखें खोली महुए ने खुशबु घोली

अमिया पर यौवन छाया जुवार भी गदराया
सदा सुहागन के संग गेंदा भी इतराया
जब रजनी ने फैलाई झोली 
गेंहूँ की बाली डोली

रात-रानी के संग गुलमोहर भी ललियाया
देख महुए की तरुणाई पलास भी हरषाया
जब कोयल ने तान खोली
गेंहूँ की बाली डोली

बूढे पीपल को भी अपना आया याद जमाना
ले सारंगी उसने भी छेडा मधुर तराना
जब खूब जमी थी टोली
गेंहूँ की बाली डोली

गज़ब कहर बरपा है महुए के मद का भाई
आज चांदनी बलखाई बौराई थी तरुणाई
खुशियों की भर गई झोली
गेंहूँ की बाली डोली

13 टिप्‍पणियां:

  1. गीत ने तो सचमुच बसंत ला दिया.

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  2. चलिए आप भी मान गए कि बसंत आ गया ..एक एक कर सब मानते जा रहे हैं -मगर हम लोग तो शायद उसी कटेगरी के हैं जहां हर पल बसंत है! अब कोई मार्क्सवादी माने कि बसंत आ गया है मैं तो तभी मानूंगा!

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  3. @Arvind Mishra

    हम सभी वाद से अलहदा हैं।
    आज सिर्फ़ और सिर्फ़ बसंत का स्वागत है।

    शुभकामनाएं

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  4. वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं .
    वसंत के रसभीने मौसम के स्वागत में सदा-सुहागन, सरसों , गोंदा,गेंहूँ और महुए के रंगों में भीगी रसीली कविता के साथ इस सुंदर आलेख के लिए भी बधाई और आभार.

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  5. आज तो आचार्य द्विवेदी जी का निबन्ध पढ़ने को लालायित कर दिया..

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  6. @ अरविंद जी,यहाँ तो बंसत को ही मार्क्सवादी बना दिया है ललित भाई ने, देखिए-
    "अकुलाहट बसंत के हृदय में भी है, वह कैद हो गया चांदी की दीवारों में। आजाद होना कौन नहीं चाहेगा? बसंत भी आजाद होना चाहता है।"

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  7. बढ़िया गीत है,वसंत-पंचमी की शुभकामनाएं !

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  8. वसंत को याद करने के लिए वासंतिक मन से शुभकामनाएं| बसंत ना हो तो आदमी संत बनने हिमालय पर चढ़ जाए|

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  9. सचमुच बसंत आ गया है ... बहुत सुन्दर प्रस्तुति... खासकर रचना बढ़िया भाव लिए है ... शुभकामनाएं ...

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  10. इसी बसंती पोस्ट का बसंत पर हार्दिक स्वागत करते हुये आपको बसंत की एकदम बसंती बधाई.

    रामराम.

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