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गुरुवार, 26 मई 2011

है किसी के दिमाग में फितूर-हिमाचली धाम ---ललित शर्मा

आरम्भ से पढ़ें  आज ५ मई २०११ दिन गुरुवार है. एक हिमाचली शादी का निमंत्रण मिला है. हमने रेडियो स्टेशन के पास से बस पकड़ी, हमारे साथ कालेज के विद्यार्थी भी थे. बस चल पड़ी कांगड़ा की ओर, रस्ते में एक गाँव है सकोह. केवल ने बताया की हमें वहीँ जाना है. सकोह पहुँच कर दो मकानों के बीच की सकरी गली में चढ़ाई करते हुए एक मैंदान में पहुंचे. जहाँ गेहूं की फसल सीढ़ीदार खेतों में लहलहा रही थी. अगर किसी ने खेतों को सोना उगलते नहीं देखा हो तो यहाँ देख सकता है. हरियाली के बीच सोने जैसी आभा लिए गंदुम के खेत आँखों को भा रहे थे. फसल पक चुकी थी और काटने की तैयारियां हो रही थी.

एक सीमेंट की पतली पगडण्डी गाँव की ओर जा रही थी. रस्ते में कुछ पक्के मकान थे तो एक जगह साँझा चूल्हा भी देखने मिला. शायद सांझे चूल्हे से ही सहकारिता प्रारंभ हुयी होगी. एक ने तंदूर लगाया और आस पास के घरों की सभी ने रोटियां सेंक ली. लेकिन जब से परिवार का विघटन हुआ है, तब से लोगों में समाई (धैर्य) तिरोहित हो गया. सबको अपनी ही पड़ी है. साँझा चूल्हा गया भाड़ में. यह साँझा चूल्हा भी अपने बीते स्वर्णिम काल को याद करके धाड़ें मार-मार कर रो रहा है. उसकी धाड़ें कोई सुनने वाला नहीं है. जिस तरह खाट पर पड़ा बूढ़ा दिन रात पुकारता रहता है. लेकिन आस-पास से गुजरने वाला भी नहीं सुनाता. कौन परवाह करता है बीते हुए ज़माने की.

लो जी आ गया शादी वाला घर. यह भी एक टीले पर ही है. जैसे राजस्थान में ढाणी होती है ठीक वैसे ही एक परिवार का ही मोहल्ला है. पक्के घरों के साथ कुछ परम्परागत पुराने पहाड़ी घर भी दिखाई दे रहे हैं. जिनकी छतें स्लेट पत्थरों की है. एक ऐसी ही छत मेरे पापा जी ने भी बनवाई थी. हमारे यहाँ ऐसे स्लेट पत्थर तो होते नहीं इसलिए वह लकड़ी की थी. कितनी ही बरसात हो उससे एक बूंद पानी नहीं चुहता था. पापा जी ने फ़ौज में रहते हुए जीवन के कई बरस इधर ही काटे थे. यहाँ आकर मुझे पता चला कि लकड़ी के छोटे-छोटे स्लेट के आकार के फट्टों की छत बनाने का आइडिया उन्होंने यहीं से लिया था. यह छत बहुत मजबूत होती है.इसके नीचे सहारे के लिए बांस का उपयोग किया गया था.

शादी पूर्व पारिवारिक भोज (जिसे कुछ इलाकों में मेल कहा जाता है) को यहाँ धाम कहते हैं. पहुचने पर लड़की के पिताजी आकर मिले. राम राम हुयी. सुदर्शन व्यक्तित्व था उनका. फिर एक मूंछ वाले मर्द को देखकर प्रसन्नता ही हुयी. कभी दिनों के बाद किसी बराबरी के आदमी से मुलाकात हुयी थी. संतोष हुआ मन में. प्राम्भिक जल-पान के बाद खाना तैयार था. टाट पट्टी बिछ चुकी थी..भोजनाग्रह पर हम टाट पट्टियों पर जम गए. पत्तलें बिछाई गयी और सबसे पहले चावल परोसा गया. फिर छोले की सब्जी. मैं इंतजार करते रहा की और भी सामान आये तो भोजन शुरू किया जाय. जब सामने देखा तो लोग शुरू हो चुके थे.

हमने भी भोजन शुरू कर दिया. थोड़ी देर दूसरी राजमा की सब्जी आ  गयी. फिर मुंग की दाल. फिर चने की दाल, फिर और फिर पनीर की सब्जी. मतलब अब समझ में आया कि हमें चावल के साथ ८-१० तरह की सब्जियां ही खानी है. बाकि कुछ नहीं मिलेगा. सामने बच्चे बैठे थे. वो सब्जी इकठी करते जा रहे थे. पनीर की सब्जी से पनीर गायब कर रहे थे. मैं उनका खाना देख कर मजे ले रहा था. फिर किसी ने एक हरी मिर्च लाकर दी. चावल खाकर पेट भर चूका था. अंतिम में बंसती मीठे चावल दिए गए थोड़े से. केवल ने बताया की अब यह फिल्म का क्लाइमेक्स है. इसके बाद जय राम जी की ही है. मतलब मीठे चावल आ गए तो दावत संम्पन्न हो गयी. खास बात देखने में यह थी कि सभी सब्जियां सूखी थी, हरी सब्जी कोई भी नहीं थी और कड़े तेल (सरसों) में ही बनायीं गयी थी. बरसों के बाद सरसों के तेल में बना साग खाया.

अब चलने की बारी थी. चलते-चलते मेरी निगाह पाषण युग के यंत्र पर पड़ती है. शायद इस यंत्र को इस स्थान पर रखे सदियाँ बीत गयी. सदियों से यह परिवार के पेट भरने का साधन बना हुआ है. धनकुट्टी मशीन आने के बाद भी इसकी उपयोगिता यहाँ बने रहना आश्चर्य की बात है. हमारे छत्तीसगढ़ में धान कूटने के लिए ढेकी होती है. अब यह भी गाँव में एकाध घर में मिल जाती है. बाकि तो सब धनकुट्टी में धान कुटा लाते हैं. हिमाचल के घरों में अभी तक इसका उपयोग हो रहा है. जब धाम में चावल ही परोसा गया तो मुझे इसकी उपयोगिता का पता चल गया था. मैंने यादगार स्वरूप इसकी एक फोटो ली. किसी ज़माने में यह महत्वपूर्ण यंत्र था. जो आज भी उपयोग में लाया जा रहा है. 

मेहमान किसके-खाए पिए खिसके. हम भी खिसकने की तैयारी में थे. मेजबान से विदा लेकर पुन: उसी रास्ते से गुजरते हुए सड़क पर आ गए. औरों को धर्मशाला जाना था और हमें कांगड़ा फोर्ट. हम सडक के इस तरफ खड़े थे. और विद्यार्थी उस तरफ. तभी सामने गली से एक वीर बहादुर आ रहे थे चिल्लाते हुए."है किसी के दिमाग में फितूर, फाड़ के रख दूंगा." मैंने सोचा कि इसे भरी दुपहरी में क्या हो गया? कहीं गर्मी तो दिमाग में नहीं चढ़ गयी? जब वह नजदीक आया तो दिखा कि आनंद आश्रम से आ रहा है, इसलिए गर्मी कुछ ज्यादा ही चढ़ गयी थी उसके दिमाग में. वह फिर बोला "बता दो अगर किसी के दिमाग में कोई फितूर हो तो, फाड़ के रख दूंगा." अब कोन फितूर बताकर फडवाये, जहाँ परदेश में सिलवाने के लिए दरजी का भी पता न हो. हाँ एक मोची जरुर था. हा हा हा. हमारी बस आ गयी थी. कांगड़ा का धाम खा कर हम चल पड़े कांगड़ा फोर्ट की ओर.....   आगे पढें  

19 टिप्‍पणियां:

  1. राजस्थान की गरिष्ठ दावतों का भोजन गटक करने के बाद ऐसी दावत का अपना अलग आनंद रहा होगा .. ...बिहार में भी कई शादियों में पुलाव और मीट का भोजन ही देखा शादी की दावतों में ,शाकाहारियों के लिए सूखी सब्जी , बस ..
    पुराने घरों में यह उपकरण पाया जाता था , अब तो बस लापतागंज में नजर आता है ..
    रोचक ...

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  2. सही रही दावत...जरा उसके आनन्द आश्रम का आनन्द तो दिलवा ही देते उतरते हुए. :)

    चलिये, अब सुनायें कांगड़ा फोर्ट का हाल!!

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  3. देशी शैली में बैठकर देशी खाना खाने का अंदाज ही कुछ और है।

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  4. तंदूर-भाड़ और दरजी-मोची लाजवाब. आपने बातों में ही टरका दिया, हम जोड़े को शुभकामनाएं भी देना चाह रहे थे. ''एक सीमेंट की पतली पगडण्डी'' जैसा प्रयोग पढ़ने में खटक रहा है. सीमेंट की एक पतली पगडण्डी या सिर्फ सीमेंट की पतली पगडण्डी, कहना पर्याप्‍त होता.

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  5. रोचक

    आनंद आश्रम के कलाईमैक्स से आनंद ही आ गया

    पहले चित्र में गगल लिखा देख मतिभ्रम ही हो गया कि कहीं गूगल तो नहीं लिखा हुआ? कोई भरोसा नहीं है ना आजकल :-)

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  6. वाह बिना टिकट आपके साथ यात्रा करने मे बड़ा आनंद आ रहा है कल फ़िर ले चलियेगा अगले पड़ाव मे खाली भोजन का विवरण विनोद दुआ के जायका इंडिया का टाइप कर देते तो स्वाद भी मिल जाता

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  7. ये सब ठीक है
    वहां मिली की नहीं
    शाम की संगिनी

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  8. "बता दो अगर किसी के दिमाग में कोई फितूर हो तो, फाड़ के रख दूंगा." आपको ललकारने की दुस्‍साहस .......... असंभव ।

    हम भात खवर्इया मन ल चावल खाय म पेट भर जाथे मन नई भरे ग ☺

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  9. रोचक विवरण .. हर जगह शादी की दावत अलग अलग तरह की होती है ..

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  10. सुन्दर यात्रा वृतांत और साथ में हिमाचली शादी के भोज का विवरण.... अच्छा लगा...

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  11. आपकी यात्रा से बड़ी रोचक और भिन्न जानकारियां मिल रही हैं.

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  12. rochak vivran....shadi me jameen par baith kar khana...ye bhi bhooli bisri bat ho gayee hai...

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  13. वाह बिना टिकट आपके साथ यात्रा करने मे बड़ा आनंद आ रहा है

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  14. दावत की बात जानकर तो हम सकते में आ गए । क्या आजकल भी ऐसा होता है जो यहाँ ६० साल पहले होता था ?

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  15. bahut maja aya padkar yatra vritant.......himachal ghumna hi padega ab

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  16. बाप रे...शुक्र मै आप के साथ नही था? वर्ना मुझे तो भुखा ही मरना पडता, चावल तो मै बिलकुल नही खाता, फ़िर यह सब दाले...राम राम, पनीर भी भारत मे मै नही खाता....

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  17. @ शायद सांझे चूल्हे से ही सहकारिता प्रारंभ हुयी होगी. एक ने तंदूर लगाया और आस पास के घरों की सभी ने रोटियां सेंक ली. लेकिन जब से परिवार का विघटन हुआ है, तब से लोगों में समाई (धैर्य) तिरोहित हो गया. सबको अपनी ही पड़ी है. साँझा चूल्हा गया भाड़ में. यह साँझा चूल्हा भी अपने बीते स्वर्णिम काल को याद करके धाड़ें मार-मार कर रो रहा है. उसकी धाड़ें कोई सुनने वाला नहीं है. जिस तरह खाट पर पड़ा बूढ़ा दिन रात पुकारता रहता है. लेकिन आस-पास से गुजरने वाला भी नहीं सुनाता. कौन परवाह करता है बीते हुए ज़माने की.--- ललित भाई ,आपकी इन पंक्तियों में यात्रा वृत्तांत के साथ समाज के लिए एक सन्देश भी है.यात्राएं तो सभी करते हैं ,लेकिन यात्रा के अनुभवों को सिलसिलेवार लिपिबद्ध करना हर किसी के वश की बात नहीं . पारखी नज़र और भावनाओं से परिपूर्ण अनुभवी कलम के धनी लेखक से ही यह संभव है. आपमें यह संभावना तेजी से साकार हो रही है. शुभकामनाएं .

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