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गुरुवार, 1 सितंबर 2011

मृत्यु का उत्सव -- पंछी उड़ जाना ---- ललित शर्मा,


कफ़न बढा तो किसलिए नजर तू डबडबा गई, सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यूँ लजा गई.
न जन्म न मृत्यु बस इतनी सी बात है, किसी की आँख खुल गई किसी को नींद आ गई


मृत्यु पर किसी का बस नहीं चलता, होश संभालने के बाद यही सुना पढ़ा और समझा है. दुनिया इसे ही शास्वत सत्य बताती है. एक दिन इसका आना तय है. किस दिन आएगी यह तय नहीं है. लेकिन आएगी जरुर ये मानते है. मृत्यु ही एक ऐसी शै है जिसका भय ही मनुष्य और पशु को अलग करता है, ग़ालिब ने कहा है - मौत ने कर दिया लाचार वगर्ना इंसा, है वो खुदबी के खुदा का भी कायल न होता. मनुष्य और पशु के जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया एक जैसी है. मनु स्मृति कहती है- जन्मने जायेते शुद्र: संस्कारात द्विज उच्यते.... संस्कार मिलने के पश्चात ही मनुष्य कहलाया है. जिसे मृत्यु का बोध हो गया. मृत्यु क्यों और कैसे होती है? विभिन्न धर्म दर्शनों में स्वमतानुसार उल्लेख है. पर मृत्यु आती है यह सभी मानते हैं. देह का अवसान होता है. कहते हैं जरा के पश्चात मृत्यु आती है और कभी-कभी आकस्मिक रूप से भी घट जाती है. इसलिए राजकुमार सिद्धार्थ को जरा एवं मृत्यु के दर्शन नहीं कराए. एक दिन उन्होंने ने जरा एवं मृतक दोनों को देख लिया और बुद्ध हो गए. वैराग आ गया. सिद्धार्थ का वैराग स्थायी था. पर श्मशानी का वैराग अस्थायी होता है.. 

कभी कभी ऐसे वाकये घटते हैं कि कठिन प्रश्नों के जवाब सरलता से मिल जाते हैं. मित्र  के पिताजी गुजर गए थे और मुझे सुबह समाचार मिला. अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने पंहुचा. वे अपने कार्य से सेवानिवृत हो चुके थे. कैंसर से उनकी मृत्यु हुयी. सारे नाते रिश्तेदार जार-जार रो रहे थे. कोई दहाड़ें मार कर छाती कूट रहा था. हम उन्हें सभालने में लगे थे. मित्रों का काम यही होता है, जो सुना सुनाया, रटा रटाया था, वही उनको कह कर दिलासा दे रहे थे. पंडित जी के आने के बाद कार्यवाही प्रारंभ हुयी. अर्थी उठा कर श्मशान में पहुचे. सभी गंभीर मुद्रा में मृतक के परिजनों से सहानुभूति रख रहे थे. तभी राम नाम सत्य की जोरदार आवाजें आने लगी. देखा तो एक और अर्थी पहुच रही है. वे कह रहे थे-- "राम नाम सत्य है, खाया पीया मस्त है." मैंने इस तरह का उद्घोष पहली बार सुना था जीवन में. न जाने कितनो की अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. लेकिन इस तरह नाद नहीं सुना था. पता चला कि किसी जवान की ही अर्थी थी. आश्चर्य चकित रह गया. एक तरफ लोग वृद्ध की अर्थी पर अभी तक रोये जा रहे हैं. दूसरी तरफ जवान की मृत्यु पर उत्सव जैसा माहौल है.

देखने से लग रहा था कि छोटे तबके के लोग हैं. सभी खा पीकर दारू की बोतले साथ में लेकर साथी के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे. मै बैठे बैठे सोचने लगा कि इन्होने ही मृत्यु के रहस्य को पाया है. जीवन अगर उत्सव है तो मृत्यु भी उत्सव होना चाहिए. जिसकी जितनी साँस थी इस दुनिया में उसने अपनी सांसे पूरी कर ली. फिर किस चीज का शोक मनाना? उसकी जीवन यात्रा का उत्सव मनाना चाहिए. जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना. सभी का अपना अपना दृष्टिकोण है. कोई डूबते सूरज को देख कर रोता है और कोई हँसता है. रोने वाला सोचता है कि जिंदगी का एक दिन कम हो गया. हंसने वाला सोचता है कि जिन्दगी का एक दिन और अच्छे से जी लिया, ईश्वर तुम्हे धन्यवाद है, तुम्हारा आभार है. यही मृत्यु के शोक पर प्रगट होता है. कुछ लोग सोचते हैं कि कुछ दिन जीवन का उपभोग और कर लेते. जल्दी चले गए दुनिया से. कुछ लोग सोचते हैं कि सांसारिक जीवन का उपभोग अच्छे से कर लिया. अब चला भी जाये तो कोई अफ़सोस नहीं है. साथियों को उत्सव मनाना चाहिए. 

"नवानि देहानि जीर्णानि विहाय" जब भगवान ने गीता में उपदेश दिया है कि "नैनम छिदंति शास्त्राणि नैनम दहति पावक: न क्लैदयन्ति राप: न शोषयति मारुत:" आत्मा अजर अमर अविनाशी है. उसे शरीर बदल कर फिर आना है. जब फिर आना है तो शोक किस चीज का मनाते हैं. नवीन देह को प्राप्त करने का उत्सव होना चाहिए. रो कर विदा करने की बजाये  हंस कर विदा करने. हम नए कपडे धारण करते हैं तो उत्साह और उत्सव होता है. जीर्ण देह को छोड़ कर नवीन देह को प्राप्त करने का उत्सव होना चाहिए. यह भी वैसी ही प्रक्रिया है जैसे हम अपने ब्लॉग का टेम्पलेट बदलते हैं. हमारा शरीर भी ब्लॉग जैसा ही है. जिसमे बहुत सारे गजट और विगेट लगे हैं. जब कोई विगेट काम करना बंद कर देता है तो उसे हम हटा देते हैं, नया लगा लेते हैं या उस विगेट के बिना ही काम चला लेते हैं. अगर टेम्पलेट में कोई समस्या आती है तो हम तुरंत टेम्पलेट बदल लेते हैं. पुराने टेम्पलेट का कोई शोक नहीं करते. नया टेम्पलेट लगा कर मित्रों को दिखाते हैं उसकी सुन्दरता के विषय में पूछते हैं. 

जीवन और मृत्यु के साथ भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए. जितने दिन जीये, रज्ज के जीये. मस्ती से जीये, मित्रों से, परिवार से मिलजुल के जीयें. ईश्वर की बनायीं सुन्दर सृष्टि के कण-कण का आनन्द लें. फूलों की महक से लेकर चिड़ियों की चहक तक. झरनों की कल-कल से लेकर मस्त पवन के झकोरों तक, बछड़े की उछल कूद से लेकर बाल गोपालों की लीला तक प्रकृति का सौंदर्य बिखरा पड़ा है. इतना अद्भुत सौदर्य है कि आंखों में भी नहीं समाता. अपलक देखते रहते हैं उस अद्भुत कारीगर की कारीगरी को, चित्रकारी को. बड़े-बड़े राजपाट धराशायी हो गए. अपने को चक्रवर्ती राजा साबित करने वाले नहीं रहे. जो अच्छा था उसे अभी सहस्त्राब्दियों बाद भी याद किया जाता है, जो बुरा था उसे भुला दिया जाता है, वैसे भी हमारी संस्कृति में मरने के सारे अवगुण माफ़ कर दिये जाते हैं. अगर कोई कीड़े पड़ के भी मरता है तो उसके नाम के साथ स्वर्गवासी ही लिखा जाता है. भले ही उसके सारे कार्य नरकगामी हों. जाने के बाद भी यादें मधुर हों. कटुता न हो, उत्सव हो. धन, पद, प्रतिष्ठा सब धरी रह जाती है. कौन कितना मिलनसार और जिंदादिल था यही सभी को याद रहता है. यदि कभी किसी को याद कर दिल में हूक उठे. तो समझो उसका जीवन सार्थक रहा और मृत्यु भी उत्सव.... 

कुछ विचारों की तरंगे उठी और उन्हें लिखता गया. इस पोस्ट को लिखने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है. खालिस खाली खोपड़ी की मगजमारी है. दिल पे मत लो यारों, वैसे भी मैं बड़ा सेंटी हूँ, बस मौजा ही मौजां  जीवन के दिन चार पंछी उड़ जाना, कर ले जतन हजार पंछी उड़ जाना. अरे भाई उड़ने के लिए उड़नतश्तरी भी चाहिए...........       
(फोटो-गूगल से साभार )  

35 टिप्‍पणियां:

  1. कभी श्‍मशान वैराग्‍य, कभी अन्‍त्‍येष्टि दर्शन.

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  2. मौत का भय तो सभी पशुओं में होता है .. पर मनुष्‍य में यह भय अधिक होने का कारण परिवार के लोगों की एक दूसरे पर अधिक निर्भरता है .. परिवार के लोगों के लिए किसी की मौत की कल्‍पना भी भयावह है .. वैसी परिस्थिति आ जाने पर इससे जुडे आध्‍यात्मिक विचार ही दिल को तनिक शांति देते हैं!!

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  3. ये जीवन का इकलौता सच है जिसे हर कोई जानता है। बाकि सब तो छ्लावा मात्र है। जय भोले नाथ।

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  4. इस पहलू को लोग समझते ही नहीं इसीलिये खून खराबा है दुनिया में. दूसरा लोग जाने वाले के प्रेम से विछोह के दुख में रोते हैं, उस प्रेम की भरपाई संभव कहां.

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  5. भरे दिमाग की जानकारी से भरी उपज कुछ सच्ची बातों का जिक्र , आभार .......

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  6. मृत्यु का चिन्तन जीवन को सुधारने लगता है।

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  7. याद आ गया यह गीत-
    ये जिंदगी के मेले
    दुनिया में कम न होंगे ,
    अफ़सोस ,हम न होंगें !
    -- चिंतन प्रधान सार्थक आलेख के लिए आभार.

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  8. मौत से किसकी यारी है....
    आज किसी की तो कल किसी की बारी है ।
    आभार आपका....

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  9. बात केवल मृत्यु की ही नहीं किसी के साथ बहुत-दिनों तक रहे तो उसके बिछड़ने का भी गम होता है... फिर यह तो इस जन्म में हमेशा के लिए बिछड़ना होता है और अगले जन्म की किसको खबर, क्या होगा?

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  10. mutyu aek atalsaty hei ..aek din hum sabko jana hei ..isliae huch achhe kaam kiae jae...

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  11. चिंतन सटीक है मधुशाला मे तो गजब का अध्यात्म है बच्चन साहब ने ने कमाल लिखा है उसका उल्लेख न होना थोड़ा खला

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  12. श्मशानी का वैराग अस्थायी होता है..

    @ सही कहा आपने|जब भी किसी की अंतिम यात्रा में श्मशान गए है तब अकस्मात वैराग्य पनपता है पर श्मशान छोड़ने के बाद वैराग्य भी वही छूट जाता है|

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  13. म्रत्यु का अर्थ इस जन्म में हमेशा के लिए बिछड़ना है, लेकिन आपकी इस बात से भी सहमत हूँ-
    यदि कभी किसी को याद कर दिल में हूक उठे. तो समझो उसका जीवन सार्थक रहा और मृत्यु भी उत्सव...

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  14. "सत्य" का सुंदर ढंग से चित्रण। वह क्षण, जब किसी व्यक्ति के प्राण विहीन हो जाने पर मरघट मे सब लोग जमा होते हैं, सचमुच ही क्षण भर के लिये ही सही, वैराग्य तो उत्पन्न हो ही जाता है। किंतु ईश्वर ने हमे ऐसा बनाया है कि माया और मोह दोनो से निजात पाने मे बिरले ही लोग सक्षम हो पाते हैं…कह सकते हैं प्रकृति का चक्र है। वैसे ललित भाई मुझे अपने एक मित्र के इस कथन की ओर अक्सर ध्यान जाता है……"मरने वरने का गम ज्यादा दिन तक किसी के पास नही रहता…।पत्नी भी 13 दिन तक रोती है फिर सब अपने अपने काम मे लग जाते हैं…।गम हल्का करने के लिये "आंसू" रूपी औजार जो है… "कुछ विचारों की तरंगे उठी और उन्हें लिखता गया. इस पोस्ट को लिखने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है. खालिस खाली खोपड़ी की मगजमारी है. दिल पे मत लो यारों, वैसे भी मैं बड़ा सेंटी हूँ, बस मौजा ही ही मौजां जीवन के दिन चार पंछी उड़ जाना, कर ले जतन हजार पंछी उड़ जाना. अरे भाई उड़ने के लिए उड़नतश्तरी भी चाहिए..........."………बहुत खूब। जय गणपति बप्पा।

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  15. किसी की आँख खुल गई किसी को नींद आ गई....
    वाह वाह... कितनी सुन्दरता से शास्वत को बयाँ कर दिया अपने...
    सादर बधाई...

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  16. मृत्यु के बारे अच्छा चित्रण किया है । एक बार महाभारत मे यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा इस संसार मे सबसे बड़ा सत्य क्या है ?( पृथिव्या म महदाश्चर्यम किं अस्ति ? ननु मृत्यु । )इस पर महात्मा युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि मृत्यु ही सत्य है । उसी सत्य को यहां आपने उघाड़ा है । धन्यवाद
    सत्यस्य अप्रियस्य वक्ता श्रोताश्च दुर्लभाः।
    सत्य के कहने और सुनने वाले बहुत कम लोग ही होते है ।

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  17. हरयाणा के महान कवि लख्मीचंद जी ने कहा है कि "लख चौरासी खत्म हुयी ना बीत कल्प युग चार गए , नाक मे दम आ गया क्या मरते मरते हार गए । आए थे भोगा नै भोगन भोगा नै हमको भोग लिया ।"

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  18. सच को प्रतिबिम्बित करती पोस्ट...

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  19. अभि कुछ दिन पहले डॉ अमर का केंसर से जाना.और ये आपकी पोस्ट. एक सच जो बेहद दुखद होता है.

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  20. ज़िंदगी तो बेवफ़ा है, एक दिन ठुकराएगी,
    मौत महबूबा है, जो साथ लेकर जाएगी,
    मरके जीने की जो अदा दुनिया को सिखलाएगा,
    वो मुकद्दर का सिकंदर, जानेमन कहलाएगा...

    अरे ललित भाई ये दर्शन की गूढ़ बातें कहां से करने लगे...

    जय हिंद...

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  21. इन्होने ही मृत्यु के रहस्य को पाया है. जीवन अगर उत्सव है तो मृत्यु भी उत्सव होना चाहिए. जिसकी जितनी साँस थी इस दुनिया में उसने अपनी सांसे पूरी कर ली. फिर किस चीज का शोक मनाना
    ..

    बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट ..आभार सुनीता जी का जो आज इस पोस्ट को चुना ..

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  22. सटीक बात कही है आपने . सार्थक पोस्ट हेतु हार्दिक शुभकामनायें ......

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  23. आज अचानक याद आया की आपको बहुत समय से नहीं पढ़ा है . देखा तो पता चला की आपने पिछली पोस्ट ५ दिन पहले ही तो लिखी थी . पांच दिन की अनुपस्थिति पांच महीने जैसी लगी .

    मृत्यु पर आपके प्रवचन किसी सिद्ध महात्मा से कम नहीं . क्रिया पाठ में प्रयोग करने लायक हैं .

    सही है हम खामख्वाह मुखौटे पहने रहते हैं . मूंह लटकाकर दुखी होने का नाटक करते हैं . जबकि जाने वाले को कुछ फर्क नहीं पड़ता .

    कोई तो समझे इन बातों को .

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  24. ये खुशदीप जी मेरा गीत पहले ही लिख जाये हैं क्या करू ...
    अभी पिछले दिनों समीर जी के ब्लॉग पे एक गीत गुनगुना ही रही थी की देखा खुशदीप जी पहले ही लिख चुके हैं ....

    क्षणिकाओं के लिए कितना इन्तजार करवायेंगे .....?

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  25. मैं इस पोस्ट पर कैसे नहीं पहुंचा .. ललित भाई आपकी बातो ने ओशो के रहस्य की याद दिला दी ,. वो कहते थे मैं मृत्यु सिखाता हूँ ..सत्य ही है , मृत्यु तो एक उत्सव ही है ...

    आपके लेखन को सलाम

    विजय

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  26. पढा.अच्छा लगा सच्ची.वैसे एक बात बताऊँ मैं आप लोगो की तरह ज्ञानी नही.सेंटी हूँ वो अलग पर...जाने क्तुं कोई माथे पर प्यार से हाथ भर फेर दे या किसी गाने को सुन कर आंसू रोक नही पाती किन्तु कोई मौत हो जाए शव के पास चुपचाप बैठी रहती हूँ.एक बूँद आंसू नही टपकता आँखों से.अपने पापा की बहुत लाडली थी उनसे बहुत पटती थी मेरी.वो गए.नही रोई.मम्मी को भाइयों को चुप कराती रही.इससे पहले अपना इतना निकट का और प्रिय ......जाते नही देखा.फिर भी ...नही रोई.जाती समाज,खानदान के लोग बाते बनाने लगे सबको उम्मीद थी बेटी है पछाड खा कर गिरेगी.पर...
    जो सत्य है वो है.ना कोई रहा है ना कोई रहेगा.सबको जाना है.असमय कोई ना जाये बस.छब्बीस साल का जवान भतीजा -जो भैया भाभी का इकलौता बेटा था- अचानक चल दिया.
    रौउन?या जाने वाले के मम्मी पापा,बहिन और बीवी को संभालू?
    जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आ जाती है तब मुझमे.वज्र-ह्रदय हो जाती हूँ.गीता के एक एक शब्द कानो मे गूजने लगते है.और.....मैं पत्थर-सी हो जाती हूँ.
    इस एक सत्य को हम जानते हुए भी स्वीकार नही करते.शायद मानव प्रवृति है...जिंदगी से प्यार करना इसी को कहते होंगे.क्या पता?
    ललितानंद जी महाराज आपने तो.....हा हा हा

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  27. बहुत सुन्दर लेख इसके लिए आपका आभार

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  28. kono ke kahe se ruka hai kaa yh panchhi? pinjare me kb tk kaid rhega ji.jana hai jayega furrrrrrrrrr aap to likho

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