तीरथगढ कुटुमसर (गुगल के सौजन्य से) |
कांगेर घाटी में स्थित तीरथगढ़ दक्षिण पश्चिम दिशा में जगदलपुर से केशलुर 18 किलोमीटर और फ़ारेस्ट नाका 18 किलोमीटर फ़िर तीरथगढ 6 किलोमीटर है। कुटुमसर गुफ़ा यहाँ से 12 किलो मीटर है। अगर तीरथगढ जाना है तो जगदलपुर से 42 किलो मीटर जाना होगा और कुटुमसर जाना है तो 48 किलोमीटर जाना होगा। फ़ारेस्ट नाका में कुटुमसर जाने के लिए लाईट और गाईड का इंतजाम होता है उसके लिए अलग से चार्ज देना पड़ता है। तीरथगढ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति 25 रुपए की टिकिट और वाहन के लिए 50 रुपए अलग से देय है। टिकिट लेकर हम तीरथगढ चल पड़े। तीरथगढ के लिए घुमावदार घाट वाला रास्ता घने जंगल से होकर जाता है। कई जगह अंधे मोड़ हैं, 5 किलोमीटर चलने पर रास्ते में एक स्कार्पियो गाड़ी खड़ी थी, दो लोग चेहरे खून पोंछ रहे थे। उनकी गाड़ी पहाड़ से टकरा गयी थी। तीरथगढ के रास्ते में बटरफ़्लाई जोन भी पड़ता है। वहाँ रंग-बिरंगी तितलियाँ देखी जा सकती हैं। बरसात होने के कारण हम वहाँ रुके नहीं और तीरथगढ पहुंच गए। हमने नदी पार करने की बजाए पुल के पहले ही गाड़ी रोक ली और वहीं से जलप्रपात की ओर बढ गए।
सामने तीरथगढ मार्ग |
तीरथगढ जल प्रपात मुंगाबहार नदी से बनता है, यहाँ शिवरात्रि का मेला भी लगता है। यहाँ पहुंचने पर प्रकृति के मनोरम स्वरुप के दर्शन हुए। काफ़ी उंचाई से गिरने के कारण झरने की कल कल की आवाज दहाड़ में बदल गयी। जहाँ मैं खड़ा था वहाँ से झरने की गहराई लगभग 300 फ़िट है। उपर से झरना देखना खतरनाक भी कई लोग यहां अपने प्राण गंवा चुके हैं। हल्की हल्की बरसात हो रही थी। बूंदा-बांदी के बीच सैलानीयों की भीड़ खूब थी। लोग वहीं पर नव वर्ष मना रहे थे। टूरिस्ट बसों की लाईन लगी हुई थी। हमें रास्ते में हाट बाजार में बेचने के लिए बकरे और मुर्गे ले जाते लोग मिले। कर्ण ने कहा कि अंकल जैसे ही कोई त्यौहार आता होगा तो बकरे और मुर्गे सहम जाते होगें। त्यौहार इंसान मनाता है और शामत इन मूक पशुओं की आ जाती है। मुझे भी सोचने पर मजबूर होना पड़ा। पर बस्तर की यही संस्कृति है, मुर्गा, बकरा और महुआ की दारु के बिना यहाँ त्यौहार और पर्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसी तरीके यहां भी नव वर्ष का स्वागत किया जा रहा था।
डिस्कवरी फ़ोटोग्राफ़र मोनु |
मोनु अपने हैंडी कैम से तस्वीरें लेने लगी। पेड़ की डाल पर बैठा लाल मुंह का बंदर पहले डालियाँ हिला रहा था फ़िर नीचे उतरकर मोनु के तरफ़ बढा, वह सहम गयी, मैने बंदर को भगाया। अगर बंदर के डर से पीछे भागी तो सीधे 300 फ़िट गहरी खाई में। हड्डी पसली भी नहीं मिलने वाले। झरने की गहराई देखकर तो दिल के कमजोर आदमी के पैरों की पिंडलियाँ कांपने लगती हैं। अदभूत दृश्य था झरने का। प्रकृति से बड़ा कोई शिल्पकार नहीं। उसने जो गढा अदभुत ही गढा। इन जगहों को देखने के बाद प्रकृति की ताकत और निर्माण के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। बड़े से बड़ा नास्तिक भी प्रकृति में छिपे ईश्वरीय स्वरुप को मानने लगता है। 300 फ़िट की उंचाई से गिरता दूधिया जल सहज ही आकर्षित करता है। अगर पंख होते तो घाटी में उड़ कर देखता उसके अदभुत सौंदर्य को। आज यहाँ पर खड़े हुए मन की उड़ान के साथ उड़ रहा था। मन की उड़ान के लिए पंखों की आवश्यकता नहीं होती। बिना पंखों के लिए परवाज किया जा सकता है।
तीरथगढ झरना |
झरने में नीचे उतरने के लिए सीढियाँ बनी हुई हैं। पहले जब आया था नीचे उतर कर झरने में नहाया था। बड़ी फ़िसलन थी झरने के नीचे। एक दो लोग तो गिरे भी थे। जगह खरतनाक है, सभल कर ही चलना चाहिए, जहां झरने का पानी गिरता है वहाँ 40 फ़िट की गहराई का कुंड बन गया है। मतलब थाह भी लेना मुस्किल है। कुंड से एक झरना फ़िर नीचे गिरता है और उसके बाद एक झरना और है जो नीचे घाटी में गिरता है। इस प्रकार उपर से देखने पर तीनों झरने दिखाई देते हैं। घाटी के उपर में एक विव प्वाईंट भी बना है जिससे देखने पर तीनों झरने दिखाई देते हैं। इस झरने में असावधानी के कारण इंजिनियरिंग कालेज के कुछ लड़के बह भी चुके हैं। हमने समयाभाव के कारण नीचे उतरने का मोह त्याग दिया। क्योंकि चढने उतरने में ही दो घंटे लग जाते। आगे कुटुमसर भी जाना था इसलिए कुछ चित्र लेकर हमने कुटुमसर की ओर चल पड़े। प्लास्टिक की थैलियों एवं डिस्पोजल बर्तनों ने यहाँ भी कहर ढा रखा था। जंगल में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है। फ़ारेस्ट वालों को चाहिए कि नाके पर ही चेता दें कि जो खाने का सामान अपने साथ ले जा रहे हैं उसकी पैकिंग और प्लास्टिक का सामान अपने साथ वापस लाएं। जिससे पर्यावरण प्रदूषित न हो सके।
तीरथगढ़ का विहंगम दृश्य |
वर्तमान में लोग नेट से ही सूचना लेकर अपने घूमने का कार्यक्रम बनाते हैं। मोनु ने अपने मोबाईल पर सर्च किया तो बहुत सारे स्थान बस्तर पर्यटन में दिख रहे थे। वह बताती जाती थी लेकिन सभी जगह जाना संभव नहीं था। उसने बारसूर की रट लगा रखी थी। बारसूर में प्रस्तर की विशाल गणेश प्रतिमाएं हैं। हमने अगली बार देखेंगे कह कर टाल दिया। जब कुटुमसर कांगेर वेली के गेट पर पहुंचे तो उन्होने बताया कि बरसात होने के कारण कुटुमसर बंद कर दिया है। अगर कल बरसात नहीं होगी तो खोला जा सकता है। यहाँ से हमे मायूस होकर लौटना पड़ा। मोनु कहने लगी पहले से प्लान बनाकर चलना चाहिए। कहाँ क्या देखना है और कहाँ रुकना है। कहना उसका सही था पर इधर घुमने का कार्यक्रम अचानक ही बना था और सभी स्थान देखने के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय होना चाहिए बस्तर कोई छोटा सा स्थान नहीं है जहाँ दो दिन में घूम लिया जाए।
कुटुमसर बंद होने पर मुंडा खराब |
रास्ते में साप्ताहिक हाट बाजार लगे थे। जहाँ ग्रामीण अपनी आवश्यकता की चीजें खरीदने एवं बेचने आते हैं। बस्तर के हाट में घर गृहस्थी का सभी सामान मिलता है। महुआ मंद से लेकर नमक तक, इलेक्ट्रानिक के सामान से लेकर कपड़े तक। यहाँ आम के पेड़ पर रहने वाले माटरा (लाल मकोड़े, चापड़ा, माटा) अंडे सहित बेचे जाते हैं। जिसे दो रुपया दोना के हिसाब से बेचा जाता है। आदिवासी इसे अंडो समेत खाते हैं, टमाटर और मिर्च डालकर इसकी चटनी भी बनाई जाती है। इसका कभी स्वाद लेने का मौका तो मिला नहीं पर खाते हुए देखा है। हाट में केकड़े, मुर्गे, मछली, बकरा, महुआ की मंद, सल्फ़ी, ताड़ी, कंद इत्यादि मिलते है। मंद, सल्फ़ी और ताड़ी को दोने (पत्ते के कटोरा) में पीया जाता है। हम भी ताड़ी का स्वाद लेना चाहते थे। लेकिन समय अधिक हो गया था। बताते हैं कि ताड़ी को सुर्योदय से पहले ही पीना चाहिए, सुर्य की किरणे पड़ने के बाद उसमें खट्टापन आ जाता है। ताड़ी सेवन फ़िर कभी पर टाल कर हम आगे की यात्रा पर बढ लिए। अब हमें जाना था चित्रकूट जलप्रपात.........................
सुंदर चित्रों के साथ रोचक विवरण अब तक मूड ठीक हुआ की हैं ?
जवाब देंहटाएंसुन्दर दृश्य भारत में बिखरे पड़े हैं।
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर देश के खूबसूरत अनछूए से पर्यटन स्थलों की रोचक जानकारी मिलती है ...कितना सौंदर्य है इस देश की धरती पर ..
जवाब देंहटाएंरोचक !
अच्छी जानकारी रोचक अंदाज़ मे ...पोस्ट शुरू करने से पहले एक पैरा स्थान के बारे मे सामान्य परिचय भी लिख दिया करें ताकि लोग इसे आगे इस सूचना का उपयोग कर सकें
जवाब देंहटाएंयाद आ गया चापड़ा चटनी का स्वाद, लाजवाब.
जवाब देंहटाएंयहाँ आम के पेड़ पर रहने वाले माटरा (लाल मकोड़े) अंडे सहित बेचे जाते हैं। जिसे दो रुपया दोना के हिसाब से बेचा जाता है। आदिवासी इसे अंडो समेत खाते हैं, टमाटर और मिर्च डालकर इसकी चटनी भी बनाई जाती है।
जवाब देंहटाएंकीडे मकोडे खाने की बात चीन वालों की ही सुनी थी .. चीन से भी आगे हैं हमारे आदिवासी !!
sahi baat hai taadi subah subah hi pe leni chaahiye.........
जवाब देंहटाएं@Rahul Singh
जवाब देंहटाएंअपडेट कर दिया हूं, माटरा के साथ (चापड़ा और माटा)
सुन्दर दृश्यों के चित्र और यात्रा का रोचक वर्णन ..
जवाब देंहटाएंआदिवासियों के भोजन के बारे में भी जानकारी मिली .
रोचक जानकारी. पहले इन जगहों के बारे में सुना भी नहीं था, अच्छा लगा जानकर.
जवाब देंहटाएंशीर्षक पढ़कर लगा था की मटर की चटनी होगी .
जवाब देंहटाएंखैर , हम तो खेलते हैं , कम्बोडिया में क्रिकेट खाते भी हैं .
जल प्रपात बड़ा सुन्दर लगा . लेकिन थोडा दूर से देखा जाए तो बेहतर है .
माटा को पत्ते के दोनों में बेचते है.माटा को दोने में रखने के लिए उन्हें एक डब्बे में भर खूब हिलाया जाता है जिससे माटा परेशान हो एक दुसरे को काट लेते है काटने से निकले फोरमिक एसिड के प्रभाव से वे सुस्त हो जाते है भागते नहीं और दोनों में भरे जाने लायक हो जाते है.
जवाब देंहटाएंआप खुद नहीं घूम रहे ... हमें भी सैर करवा रहे हैं...
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी दी है आपने ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
badhiya jaankaari pahuncha rahe hain sirji...ee mudva theek kar lijiye..waise kharab mood me bhi jabar lag rahe ain...
जवाब देंहटाएंखूब बढिया यात्रा रही। भारत की सुन्दरता के क्या कहने। बस घूमते रहिए और आनन्द उठाते रहिए।
जवाब देंहटाएं"प्रकृति से बड़ा कोई शिल्पकार नहीं। उसने जो गढा अदभुत ही गढा। इन जगहों को देखने के बाद प्रकृति की ताकत और निर्माण के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। बड़े से बड़ा नास्तिक भी प्रकृति में छिपे ईश्वरीय स्वरुप को मानने लगता है।"
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह गये, ललित भाई जी।
"फ़ारेस्ट वालों को चाहिए कि नाके पर ही चेता दें कि जो खाने का सामान अपने साथ ले जा रहे हैं उसकी पैकिंग और प्लास्टिक का सामान अपने साथ वापस लाएं। जिससे पर्यावरण प्रदूषित न हो सके।"
जवाब देंहटाएंव्यवहारिक समाधान।
इस विराट सौंदर्य के दर्शन कराने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंफ़िर कभी पर टाल कर हम आगे की यात्रा पर बढ लिए???
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