गर्मियों की छूट्टी के बाद स्कूल खुल गए हैं, सरकारी धूम धड़ाका भी प्रवेशोत्सव के नाम पर चल रहा है। गाँव में पंच-सरपंच एवं स्कूल की कमेटी के मेम्बरों को नैतिक दायित्व बताया गया कि कोई भी बच्चा शाला त्यागी न हो। सभी को समीप के स्कूल में भर्ती कराया जाए। गुलाल चंदन लगा कर मिठाई खिला कर स्कूल में शिक्षक उनका स्वागत करें। सरकारी स्कूलों में प्रवेशोत्सव जारी है साथ ही प्रायवेट स्कूलों के शिक्षक भी अपनी दर्ज संख्या बढाने के लिए घर-घर जाकर सर्वे कर रहे हैं। साथ ही सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी जारी है। नयी शिक्षा नीति के हिसाब से उन्हे ग्रेडिंग कर विद्यार्थियों को नम्बर देना सिखाया जा रहा है। वैसे शिक्षा विभाग में शिक्षकों का प्रशिक्षण तो बारहों महीने चलता है। प्रशिक्षण अधिक और पढाई कम। कभी उन्हे नाचना कूदना सिखाया जाता है तो कभी कठपुतली नचाना। एक तरह माने तो शिक्षा जगत एक प्रयोग शाला हो गया है। दिल्ली की सरकार बदलते ही पुरानी सभी नीतियां बदल जाती हैं और फ़िर नए सेटअप, नए नियमों, नए पाठ्यक्रमों से पढाई शुरु करने प्रशिक्षण दिया जाता है। यह प्रक्रिया सतत जारी रहती है, इसका खामियाजा विद्यार्थियों को ही भुगतना पड़ता है। वर्तमान में अच्छे स्कूल कालेजों (निजी स्कूल एवं कालेज) में प्रवेश प्रतिशत के आधार पर ही होता है। यह घड़ी विद्यार्थियों की परीक्षा के साथ उनके पालकों की परीक्षा की भी होती है।
विद्यार्थी को स्कूल में भर्ती कराने के लिए पालक को अपनी जेब और बचत खाते की ओर देखना पड़ता है। जिसके पास जितनी आमद है उसी के हिसाब से अपने पाल्य के लिए स्कूल का चयन करता है। सरकारी स्कूलों की गत यह है कि वहां कोई भी अपने बच्चे को पढाना नहीं चाहता। सरकार की गलत नितियों के कारण सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता जा रहा है। शिक्षकों को अब पांच अंको में वेतन मिलता है। उन्हे स्वयं ही अपने स्कूल के शिक्षा के स्तर पर विश्वास नहीं है। आज लगभग सभी शिक्षकों के बच्चे निजी स्कूलों में पढते हैं। जहां निजी स्कूल नहीं है वहां मजबूरन ये अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढते हैं। अन्यथा निजी स्कूल को ही प्राथमिकता दी जाती है मान्यता है कि अंग्रेजी बोलने समझने वाले विद्यार्थी लोग ही सिविल सर्विसेस में जाते हैं। बाकी हिन्दी पढने वाले कलम घिस्सू बाबु, पत्रकार या लेखक बन पाते हैं। अंग्रेजी स्कूलों का भूत सर चढ कर बोल रहा है। आज निजी स्कूलों के एक माह की इतनी फ़ीस हो जाती है कि उतने खर्चे में हमने पांचवी तक की पढाई कर ली थी और अच्छे नम्बरों से पास भी हुए थे। अच्छे नम्बर लाने का विद्यार्थी के कोमल मनोमस्तिष्क पर दबाव होता है और इसकी परिणीति कभी कभी जान लेवा भी हो जाती है।
आज देश में दो वर्ग स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। पहला वह है जिसे अंग्रेजी स्कूलों में पढ कर शासन करना है, दूसरा वह है जिसे हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में पढ्कर अपना शोषण करवाना है। शासक और शोषित दो वर्ग बन गए हैं। सरकारी हिन्दी स्कूलों में पढाना अब लोग अपनी शान के खिलाफ़ समझने लगे हैं। बस स्कूल के नाम के साथ कान्वेंट लगा होना चाहिए, चाहे उसका स्तर कैसा भी हो। पालक आँख बंद करके उस स्कूल में अपने पाल्य को भर्ती करवा देता है। इस मानसिकता की पुष्टि तब होती है जब वैदिक कान्वेंट स्कूल, बजरंगबली कान्वेंट स्कूल,दुर्गा पब्लिक स्कूल नाम धरे जाते हैं। प्रश्न यहां पर उठता है कि सरकारी स्कूलों पर से पालकों का विश्वास क्यों उठता जा रहा है। क्या सरकारी स्कूल में पढने वाले विद्यार्थी डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, अधिकारी नहीं बन सकते? आज से 25 वर्ष पूर्व सरकारी स्कूल से पढने वाले विद्यार्थी अच्छे नम्बर लाकर महाविद्यालयों में दाखिला पा लेते थे और सिविल सर्विसेस की परीक्षा पास कर उच्च पद भी प्राप्त कर लेते थे। इन्ही उच्च पद प्राप्त करने वालों की मानसिकता बन जाती है कि अपने बच्चों को मंहगे से मंहगे स्कूल में पढाना। जहाँ पढ कर वह सरकारी नौकरी में अच्छे पद को प्राप्त कर ले तो उसका जीवन सफ़ल हो जाए।
यही सोच हमारे नेताओं की भी है। राजनीति रुपया छापने की मशीन हो गयी है। एन केन प्रकारेण धन एवं सम्पत्ति में वृद्धि हो रही है और ये भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढा रहे है। जब प्रवेशोत्सवों के कार्यक्रमों में जाते है तो सरकारी स्कूलों की जम कर तारीफ़ करते हैं। ग्रामीणों का आह्वान करते हैं कि वे अपने बच्चे को पढने के लिए भेजे। ऐसा सुनकर इनके दोगले पन का आभास होता है। इनके खुद के बच्चे तो निजी स्कूलों में पढ रहे हैं फ़िर किस मुंह से सरकारी स्कूलों की तारीफ़ के पुलंदे बांधे जा रहे है। जब सरकारी स्कूल तारीफ़ के काबिल हैं तो क्यों नहीं अपने बच्चों को नेता, अधिकारी, कर्मचारी सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलवाते? छत्तीसगढ प्रदेश में लगभग 6767 स्कूलों में एक ही शिक्षक हैं जो पाँच कक्षाओं को पढाता है। इसे एक शिक्षकीय शाला का नाम दिया गया है। कहीं स्कूल में पानी की व्यवस्था नहीं है तो कहीं शिक्षक की तो कहीं भवन की। सरकारी स्कूलों को सभी तरह की सुविधाएं एवं शिक्षक उपलब्ध कराए जाएं तो क्यों पालक मंहगे स्कूलों की तरफ़ अपना रुख करेगा? आजादी के 65 सालों में भी हम अपने बच्चों के पढने की उचित व्यवस्था नहीं कर पाए तो ऐसी आजादी के क्या मायने हैं?
अगर शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी स्कूलों को आगे लाना है तो उच्च पदों पर बैठे नेता एवं अधिकारियों को अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में पढाना चाहिए। जब सरकार के लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढाएगें तभी अन्य पालकों का विश्वास भी उस स्कूल के प्रति बनेगा और वह भी निजी स्कूलों की बजाए अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में दाखि्ला दिलाएगा। पिछले साल एक खबर अखबारों की सुर्खी बनी थी कि तमिलनाडु के एक पिछड़े ज़िले इरोड के ज़िलाधीश यानी कलेक्टर डॉ आर आनंदकुमार ने अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में भर्ती करवाया है तथा उन्होने अपने बेटी को अन्य पालकों की तरह कतार में खड़े होकर दाखिला दिलाया। डॉ आर आनंद कुमार ने एक आदर्श रखा है निजी स्कूल के हिमायती नेताओं और अधिकारियों के समक्ष। जिसका पालन नैतिकता के आधार पर सभी को करना चाहिए। जब नेताओं और बड़े अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिल होगें तो वहाँ शैक्षणिक कार्य भी गंभीरता से होगा। स्कूल में होने वाली समस्याओं से अधिकारी रुबरु होगें और उसका निदान करेगें। ऐसे स्कूल के अध्यापक चुस्त हो जाएगें कि पता नहीं कब कौन अधिकारी आ जाए अपने बच्चे को देखने या मिलने। सरकार के सेवा अधिनियम में यह भी जोड़ना चाहिए कि जो सरकारी नौकरी करेगा उसे अपने बच्चों को अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूल में पढाना पड़ेगा। जो भी पंच-सरपंच विधायक-सांसद, मंत्री पद पर रहेगा उसे भी अनिवार्य रुप से अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढाना होगा। देखिए फ़िर इस कदम के बाद सरकारी स्कूलों की शिक्षा में कैसे बदलाव नहीं आएगा। आवश्यकता है शुरुवात करने की, तो शुरुवात भी हो गयी, डॉ आर आनंद कुमार ने अपनी बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला दिला दिया।
दिनांक 25/6/12 सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ में यह पोस्ट ......