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बार-नवापारा के जंगल में कांसा पठार एवं रमिहा पठार के बीच में हटवारा पठार स्थित है। इस पठार को सिंघा धुरवा कहा जाता है। मान्यता है कि जंगल में स्थित पठार पर वन देवी चांदा दाई का वास है। यहाँ तक पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता ग्राम अवंरई होकर जाता है तथा दूसरे रास्ते से सघन वन से होकर नाले को 7 बार पार करने के पश्चात पहुंचा जाता है। इस पहाड़ी पर प्राचीन किले के अवशेष मिलते हैं तथा वन में बस्ती के अवशेष मिलते हैं। जहाँ पर प्राचीन ईंटों से बनी संरचना धरती की सतह पर दिखाई देती है। हो सकता है कि यहाँ प्राचीन काल में कोई नगर या बसाहट रही होगी। ईंटों का आकार वही है जैसा सिरपुर में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुई हैं। यहाँ की भौगौलिक स्थिति से प्रतीत होता है कि यह कोई राजधानी रही होगी। जो वर्तमान में प्रकाश में नहीं आई है।
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सिंघा धुरवा का गुगल चित्र |
ग्रामीणों से सिंघा धुरवा के विषय में चर्चा करने पर एक किंवदंती सुनने में आई। कहते हैं कि इस किले में कोई "चोरहा राजा" निवास करता था। जो अमीरों को लूटकर उनका माल-असबास और धन गरीबों में बांटता था। अर्थात राबिन हुड जैसा ही कोई पात्र था। "चोरहा राजा" की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह पाँव-पाँव जाता था और पाँव-पाँव ही लौटता था। उसके पैरों के चिन्ह आते हुए के तो दिखते थे परन्तु लौटते हुए के पद चिन्ह नजर नहीं आते थे। वह इतना सिद्धहस्त था कि अपने पैरों के पड़े हुए चिन्हों पर उल्टा लौटता था, जिसके कारण उसके लौटते हुए के पदचिन्ह नजर नहीं आते थे और पकड़ा नहीं जाता था। किंवदंतियों के मूल में भी कुछ सच होता है बस जरुरत होती है सच पर सदियों के लगे गर्द को झाड़ने की।
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सिरपुर का गुगल दृश्य |
इसके लिए हमें इतिहास की ओर मुड़ना होगा। वर्तमान छत्तीसगढ याने प्राचीन दक्षिण कोसल के इतिहास में शरभपुरीय वंश का जिक्र आता है। शरभपुरियों की 8 पीढियों ने 11 दशकों तक शासन किया था। इन्होने अपने अधिकांश ताम्रपत्र शरभपुर से जारी किए हैं। जाहिर है कि शरभपुर इनकी राजधानी रही होगी। लेकिन अभी तक शरभपुर की पहचान नहीं हो पाई है कि शरभपुर कहाँ पर स्थित था। शरभपुरियों का शासन का सही काल निर्धारण नहीं हो पा रहा है क्योंकि इन्होने अपने ताम्र अभिलेखों में सन् या संवत का प्रयोग नहीं किया है। इन्होने न ही अपना नया संवत जारी किया और न ही गुप्त संवत का प्रयोग किया। शरभपुरीयों की यह बहुत बड़ी चूक है जिसके कारण उनका काल निर्धारण नहीं हो पा रहा है। प्रसिद्ध इतिहासकार स्व: श्याम कुमार पाण्डेय इनका शासनकाल 342 ईं से प्रारंभ मानते वहीं पी.एल.मिश्रा 470 ईं वी मानते हैं।
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सिंघा धुरवा के द्वार का पुराना चित्र |
शरभवंश का संस्थापक शरभराज को माना जाता है। कहते हैं ये स्थानीय थे,जो पहले वाकाटक राजाओं के अधीन सामंत रहे। फ़िर वाकाटक राजाओं के आपसी झगड़े का लाभ उठाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफ़ल रहे। शरभपुरीय वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, ताम्रपत्र में इन्होने ने स्वयं को परमभागवत अंकित किया है। शरभपुरियों की राजमुद्रा गजलक्ष्मी थी, इसे ताम्रपत्रों एवं सिक्कों में अंकित किया गया है। ताम्रपत्रों के माध्यम से राजा दान देता था जिससे इनके इतिहास का पता चलता है। शरभपुरीय शासक जयराज ने अपने नाम के आगे "महा" लगाकर "महागजराज" नाम का प्रयोग किया। इसके बाद के शासकों ने अपने नाम के साथ "महा" शब्द का प्रयोग किया। यथा महादुर्गराज, महासुदेवराज, महाप्रवरराज, आदि आदि।
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सिंघा धुरवा की पहाड़ी पर ब्लॉगर |
शरभपुरीय वंश के शासक नरेन्द्र का ताम्रपत्र पीपरदुला (सारंगढ) से प्राप्त होता है जिससे ज्ञात होता है कि वह शरभ राज का पुत्र था। यह दान पत्र शरभपुर से जारी किया गया है। शरभपुरीय राजवंश के शासकों द्वारा अधिकांश ताम्रपत्र, सिक्के शरभपुर से जारी किए गए हैं। इनके सिक्कों पर प्राकृत भाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। नरेन्द्र ने अपने शासन काल में कुरुद (महासमुंद) से अपने शासन काल के 24 वें वर्ष में ताम्रपत्र जारी किया। इससे प्रतीत होता है कि इसने दीर्घकाल तक समृद्धिपूर्वक शासन किया। इसका शासन छत्तीसगढ के विशाल भूभाग के अलावा वर्तमान उड़ीसा के कुछ भूभाग पर भी था। नरेन्द्र के पश्चात प्रसन्न मात्र गद्दी पर बैठा। इसका नरेन्द्र से संबंध ज्ञात नहीं होता। उड़ीसा के कटक क्षेत्र से लेकर महाराष्ट्र के चांदा तक प्रसन्न मात्र के सोने के सिक्के प्राप्त होते हैं।
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सिंघा धुरवा के द्वार की वर्तमान स्थिति |
प्रसन्न मात्र की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र जयराज सिंहासनारुढ हुआ। इसके बाद मानमात्र गद्दी पर बैठा। इसके पुत्र महासुदेवराज के ही सबसे अधिक 8 ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं। जिनमें 6 शरभपुर से और 2 सिरपुर से जारी किए गए हैं। अनुमान है कि शरभपुरियों ने शरभपुर के पश्चात अपनी राजधानी सिरपुर विस्थापित की हो। सुदेवराज का आरंग पर अधिकार था इसलिए राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से सिरपुर को दूसरी राजधानी बनाया गया हो। सुदेवराज के पश्चात उसका छोटा भाई प्रवरराज शासक हुआ। उसने शरभपुर के स्थान पर अपने भाई द्वारा स्थापित सिरपुर को राजधानी बनाया। उसने ताम्रपत्रों में अपने को मानमात्र का पुत्र बताया है। इसने अपने भाई व्याघ्रराज को सिरपुर में सर्वराकार के रुप में नियुक्त कर दिया। डॉ श्याम कुमार पाण्डेय के अनुसार 510 से 515 ईस्वी के बीच शरभपुरीय राजवंश का अवसान हो गया। पाण्डुवंशियों से शरभपुरियों के निर्णायक युद्ध में कोसल से इनका शासन समाप्त हो गया।
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सिंघा धुरवा पर प्रतिमावशेष |
शरभपुर की पहचान पर इतिहासकार एक मत नहीं हैं। अलेक्जेंडर कनिंघम ने प्रथम महाराष्ट्र के वर्धा जिले आर्वी को फ़िर सम्बलपुर को शरभपुर माना। रायबहादुर हीरालाल ने श्रीपुर को ही शरभपुर बताया। पं लोचनप्रसाद पाण्डेय ने इसे उड़ीसा के शरभगढ से जोड़ा। एम जी दीक्षित इसे सिरपुर के समीप ही मानते हैं। डॉ श्याम कुमार पाण्ड़ेय के अनुसार मल्हार ही शरभपुर है। डॉ पीएल मिश्रा सिरपुर के आस-पास ही शरभपुर मानते हैं। डॉ विष्णु सिंह ठाकुर सिरपुर के पास ही शरभपुर मानते हैं। अरुण कुमार शर्मा ने गत वर्ष संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित सेमिनार में कहा था कि हमने शरभपुर ढूंढ लिया है वह सिरपुर के पास ही जंगलों में है। सिंघ धुरवा को डॉ एल एस निगम शरभपुर नहीं मानते।
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प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के साथ प्रसन्नता के पल |
सिंघा धुरवा के शरभपुर होने न होने पर विद्वानों में मत भिन्नता है। लेकिन इस इलाके की भौगौलिक स्थिति एवं वहाँ बिखरी हुई पुरातात्विक सामग्री को देखते हुए यह तो तय है कि यह कोई महत्वपूर्ण प्राचीन नगरी रही होगी। इसके साथ ही किंवदंतियों एवं ग्रामीणों द्वारा सिंघा धुरवा की पहाड़ी के नीचे की संरचनाओं को हटवारा एवं किसबिन डेरा कहना यह साबित करता है कि कभी यह इलाका आबाद था। जहाँ बाजार लगता था और गृहस्थी के उपयोग की वस्तुओं की खरीदी बिक्री होती थी। सिंघा धुरवा की पहाड़ी पर स्थित द्वार इसका प्रमाण हैं कि कभी यहाँ पर किसी ने अपनी सुरक्षा के लिए गढ का निर्माण किया था। उस काल में गढ का निर्माण भी वही करेगा जो शासक होगा। जिस तरह से शरभपुरियों ने सिरपुर एवं शरभपुर दोनो स्थानों से ताम्रपत्र जारी किए उसे देखते हुए अनुमान है कि यही शरभगढ हो सकता है। इसकी प्रमाणिकता उत्खनन में प्राप्त सामग्री एवं अभिलेखों से ही सिद्ध होगी। तब तक शरभपुर इतिहास के नक्शे से गायब ही रहेगा। … जारी है …
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चन्द्रगुप्तकालीन इतिहास..उसमें कोसल का तो विवरण आता है, दक्षिण कोसल का नहीं..
जवाब देंहटाएंशुक्ष्म विवेचना के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंललित भाई आपके लेखों के माध्यम से अन्छुये स्थल के बारे में जानने को मिलता है।
जवाब देंहटाएंगजब यायावरी चल रही है महाराज , आप तो हमारे निजि डिस्कवरी चैनल से हो रिए हैं जी । बहुत ही खोजपूर्ण और रोचक जानकारियों से भरी हुई पोस्ट । यायावरी जिंदाबाद
जवाब देंहटाएंप्राचीन इतिहास के संजोये जाने योग्य धुँधले पृष्ठों को प्रकाशित कर रहे हैं आप !
जवाब देंहटाएंशरभपुर, प्रसन्नपुर की पहचान के लिए शायद अभी और प्रमाणों की जरूरत है.
जवाब देंहटाएंगहन विश्लेषण ...लोहिड़ी व मकर संक्रांति पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंशरभपुर बरनन अति सुन्दर। इतिहास ज्ञान का ललित सिकंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ललित भाई बढ़े चलो ....
इतिहासकार की बारीक नजर
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