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बुधवार, 1 जनवरी 2014

सिंहासन बत्तीसी पर यायावर

लाव की बिखरी हुई लकड़ियों को एकत्र कर हवा देने पर कोयले धधक उठे। धधकते हुए कोयले आग से बाहर निकाल कर उन पर केटली रख दी।
सर्द मौसम में नदी किनारे अलाव पर चाय बनाना और उसकी गर्म भाप से भीतरी दुनिया को सिकता हुआ महसूस करना अलौकिक अनुभव होगा।
अदरक की कमी खल रही थी। अगर अदरक होती को गुड़ की चाय का स्वाद कई गुना बढ जाता। शिलारुपी सिंहासन बत्तीसी पर बैठ कर देख रहा था आकाश की ओर बढती हुई अग्निशिखाएं को नर्तन करते हुए, लग रहा था कि कोई निपुण नर्तकी उत्कृष्ट कला प्रदर्शन कर रही हो।
लकड़ियाँ अलाव के लिए क्या समेटी, जैसे मैने यादों को ही समेट लिया हो। जरा सा एकातं का पवन क्या चला, भीतर बहुत कुछ धधकने लगा। अग्निशिखाओं ने आकृतियाँ बनानी प्रारंभ की, भिन्न-भिन्न आकृतियाँ बन रही थी चलचित्र की मानिंद। 

अग्निशिखाओं ने वृत्त प्रदर्शन प्रारंभ किया, जीवन वृत्त लघु होतो तो लघुअग्निशिखा ही प्रदर्शित कर देती, पर उन्होने बडा रुप ले लिया।
जीवन वृत्त के लिए कैनवास बड़ा होना चाहिए। यायावर की जीवन यात्रा के प्रदर्शन के लिए परदा भी बड़ा होना चाहिए। तभी जीवन यात्रा सार्थक होगी।
अग्निशिखाओं की चंचलता कभी-कभी किसी फ़्रेम को बिगाड़ कर विकृत कर देती हैं, मुखाकृति कुरुप दिखाई देती है। अग्निशिखाएं जान बूझ कर नहीं कर रही, आज इन्होनें ने दर्पण का रुप ले लिया। ऐसा चमत्कारी दर्पण जो वर्तमान को भूल कर अतीत की यात्रा करवा रहा है।
अपनी गलतियों का परिणाम तो स्वयं ही भुगतना पड़ेगा। ग्रहण तो सूर्य को भी लगता है। चाँद भी एक पखवाड़े अंधकार में डूब जाता है। फ़िर मैं मानव हूँ, जिसे त्रुटियों का, कमजोरियों का पुतला कहा जाता है।

चाय उबलने लगी है, भाप के साथ बुलबुले केटली के बाहर निकल कर अग्नि को शांत करने लगे। जल का अग्नि के साथ सदैव विरोध रहा है।
शीतल जल अग्नि का बैरी तो है ही पर गर्म जल भी अग्नि को शांत करने में सक्षम है। तासिर बदलने के बाद भी जल की प्रवृत्ति नहीं बदलती है।
ठीक मनुष्य भी ऐसा ही है, रुप बदलने पर प्रवृत्ति नहीं बदलती। कभी अवसर आ ही जाता है जब उसका असली रुप सामने दिखाई दे जाता है। न चाहते हुए भी उसका मुखौटा उतर जाता है।
देव स्वरुप का मुखौटा उतरने पर दानवी चेहरा सामने दिखाई देने लगता है। ईश्वर की बनाई सृष्टि में सबका पात्र निर्धारित है। संसार रुपी रंग मंच पर उसे अपना पात्र निभाना ही पड़ता है।
निर्देशक जब सर्वशक्तिमान हो तो क्या मजाल है कहीं चूक हो जाए। पात्र के अभिनय के अनुसार उसे पारितोषिक मिल जाता है। यही कर्मफ़ल का सिद्धांत है।

केटली में चाय तो बन गई, अब इसे छानने की जुगत लगानी होगी। चायछलनी तो सामान में रखी ही नहीं। अगर धूले हुए रुमाल से छान लेता हूँ तो 1 रुमाल का सत्यानाश हो जाएगा। चलो आज ऐसे ही निथार कर पी ली जाए।
आदिम परिवेश में आदिम भी होकर देखना चाहिए। भाप के साथ चाय की पत्ती भी तल में बैठ गई, केटली की टोंटी से कटोरी में सिर्फ़ तरल ही बाहर आ रहा है। अपने हाथों से बनाई चाय का मजा ही कुछ और है।
पता नहीं कहाँ से कूं कूं करता एक स्वानपुत्र भी चला आया अलाव के पास। थोड़ी देर तो उसने अपनी देह को चाट कर साफ़ किया, फ़िर अलाव के समीप आकर भूमि को पूंछ से झाड़कर साफ़ किया और आराम से बैठकर मेरी ओर देखने लगा।
"ठंड है मित्र, तनिक तुम भी ऊष्मा सेवन कर लो, चाय पीनी है" सुनकर वह पूंछ हिलाता है। " अरे! गर्म चाय पीएगा तो जीभ जल जाएगी और फ़िर मुझे श्राप देगा" मैने उठकर बैग से निकाल कर उसे 4 "मैरी" बिस्किट दिए। पहले उसने बिस्किटों की खुश्बू लेकर गुणवत्ता परखी, फ़िर उसे मुंह से लगाया। 

अग्निशिखाएं शीतल हो चुकी थी, तुम्हारी अनुपस्थिति में इस सर्दी में इन्होनें खूब साथ निभाया। ऊष्मा से धरती गर्म हो गई थी। लग रहा था कि ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा हूँ।
हाँ! ज्वालामुखी। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को विराट स्वरुप दिखाया तो उसे कृष्ण देह के स्थान सारा ब्रह्माण्ड दिखाई दिया। जब देव ब्रह्माण्ड को देह में धारण कर सकते हैं तो देवांश मनुष्य क्यों नहीं।
सभी की क्षमतानुसार उसके भीतर ब्रह्माण्ड होता है। जब ब्रह्माण्ड है तो सृजन का द्योतक ज्वालामुखी भी होना तय है।
अब विज्ञान भी मान रहा है कि "बिग बैंग (महाविस्फ़ोट)" से ही ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ। देखा है ज्वालामुखी फ़ूटते हुए? कितना अधिक दवाब होता है मुहाने पर।
निर्धारित दबाव से थोड़ा सा ही अधिक होने पर हो जाता है महाविस्फ़ोट, और बह निकलता है लावा। धातूएं आ जाती हैं सतह पर। जन्मने लगता है नया ब्रह्माण्ड।

सिंहासन बत्तीसी पर बैठते ही चिंतन की धारा बहने लगती है। अभी तो मैं ही जागा हूँ, बत्तीसों पुतलियाँ विश्रामानंद में है। विक्रम राजा से इन्होनें बहुत सवाल किए थे। उसी थकान ने इन्हे शिथिल कर रखा है।
जब जागेंगी तो मुझ पर सवालों के गोले दागने लगेगी। सोच रहा हूँ सवाल करने वाले बत्तीस और जवाब देने वाला सिर्फ़ मैं अकेला। कैसे झेल पाऊंगा इनके सवालों को।
मैं कोई विक्रम राजा जैसे विद्वान तो नहीं हूँ। एक अदना बंजारा यायावर हूँ, कभी तंबू यहाँ लगा लेता कभी वहाँ। साथ रहता है तो सिर्फ़ स्वानपुत्र का, यह मनुष्य का साथ कभी नहीं छोड़ता। मित्रता भी रज्ज के निभाता है जीवनपर्यंत।
तभी तो चौरासी लाख योनियों में यह प्रथम योनि में हैं जो सशरीर पाण्डवों के साथ स्वर्ग भोग आया। अब मेरे सामने बैठा होठों पर जीभ फ़िरा कर अलाव की गर्मी के साथ "मैरी बिस्कुट" के स्वादानंद में डूबा हुआ है।

सूर्य का रथ धरा पर उतरने के लिए रास्ता तलाश कर रहा है, पर कोहरे ने आज उसे हराने का मन बना लिया। प्रकृति का नियम है, जो सर्वथा विजयी होता है उसे भी एक दिन पराजित होना पड़ता है। चाहे सूर्य ही क्यों न हो। आज अदने से कोहरे से इसे हारता हूआ देख रहा हूँ।
बड़ी बात है मेरे लिए सूर्य की पराजय का साक्षी बन रहा हूँ। यह घटना रोमांचित करने वाली है। कटोरी में चाय निमड़ रही है, आखरी घूंट के साथ कटोरी का तल भी दिखाई देने लगा। लो चाय खत्म हो गई।
स्वानपुत्र विश्राम मुद्रा में मेरी ओर देखते हुए पूंछ हिला कर शायद कह रहा है "यह कटोरी है मुसाफ़िर, कोई समुद्र नहीं, जिसका कभी अंत न होगा।
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बैठे-बैठे समुद्र का जल भी खत्म हो जाता है।" सहमत हूँ स्वानमित्र, अब प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उद्योग करना चाहिए, बैठे रहने से कोई लाभ नहीं।
यायावर को निरंतर चलते ही रहना चाहिए……… संसार को नापने के लिए मेरे साथ सिर्फ़ दो पद ही तो हैं,  नाप लूंगा कदम दर कदम एक दिन इस धरा को।

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, शानदार. लंबे समय बाद फार्म में वापस आए हैं. साल भर ऐसा ही सिलसिला बना रहे.

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  2. हो जग का कल्याण, पूर्ण हो जन-गण आसा |
    हों हर्षित तन-प्राण, वर्ष हो अच्छा-खासा ||

    शुभकामनायें आदरणीय

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  3. यात्रा वर्णन पढ़ पर अपने कलेजे पर सांप लोट जाते हैं... कभी ये सुसरी यायावरी अपन से नहीं हो पायी.

    बहरहाल, २०१४ की राम राम स्वीकार करें.

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  4. एक चिंतक का व्याख्यान!! नव-वर्ष की मंगलकामनाएँ!

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  5. ललित भाई यूँ ही नहीं है नाम "ललित आपका" आपकी कल्पना की उड़ान की कोई मिसाल नहीं.....नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाओं सहित आपकी चंद पंक्तियाँ यहाँ रखने से रोक नही पा रहा हूँ " तासिर बदलने के बाद भी जल की प्रवृत्ति नहीं बदलती है। ठीक मनुष्य भी ऐसा ही है, रुप बदलने पर प्रवृत्ति नहीं बदलती। कभी अवसर आ ही जाता है जब उसका असली रुप सामने दिखाई दे जाता है। न चाहते हुए भी उसका मुखौटा उतर जाता है।"

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  6. चाय ऐसे बनाई जैसे कि जिंदगी !
    रोचक वर्णन , मगर है कहाँ का !!

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