आत्मकथा कहना "खांडे की धार" पर चलना है। सच है आत्मकथा लिखना किसी "बिगबैंग" से कम नहीं है।अगर विस्फ़ोट कन्ट्रोल्ड हो तो गॉड पार्टिकल मिल जाता है और विस्फ़ोट अनकंट्रोल्ड हो तो समाज के समक्ष जीवन भर का बना हुआ प्रभामंडल छिन्न-भिन्न हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दो पहलू होते हैं, पहला वह जिसे प्रकाश में लाना चाहता है और दूसरा वह जिससे प्रकाश में न लाकर प्रकाश में रहना चाहता है। बिरला ही कोई आत्मकथा लिखने का साहस कर पाता है और उसके साथ न्याय भी। "कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" का नायक एक संयुक्त परिवार हिस्सा है, संयुक्त परिवार के फ़ायदे भी है तो नुकसान भी। आत्मकथा लेखन के दुस्साहस को रेखांकित करते हुए नायक कहता है कि -" आत्मकथा नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक कार्य है।" लोग बड़े-बड़े लेखकों, विचारकों, नेताओं, अभिनेताओं की आत्मकथा पढ़ते हैं। उन्होने कभी सोचा भी नहीं होगा कि किसी आम आदमी की आत्मकथा भी हो सकती है। इस आत्मकथा का नायक लॉ ग्रेजुएट होने के बाद भी स्वयं को पेशे से हलवाई कहता है। क्योंकि उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी उसे पुस्तैनी पेशे को ही अपनाना पड़ा। वह कुछ प्रश्न भी छोड़ता है जिसके उत्तर कहीं पर खुद देता है, कहीँ पर जिज्ञासा प्रकट करता है।
आत्मकथा के प्रारंभ में वह कहता है - " किसने भेजा मुझे इस नक्षत्र में … नहीं मालूम!" यहाँ से कथा आगे बढ़ाते हुए वह स्वयं से प्रश्न करता है- "तीन दंडाधिकारियों के तले मेरा बचपन अक्सर सिसकता रहता था, 'इस दुनिया में क्यों आया मैं?" इसका उत्तर आगे चलकर आत्मकथा में ही मिलता है - "समय ने पासा फ़ेंका और मैं उसका मोहरा था।" कथा का नायक फ़िल्मों का बेहद शौकीन है, कथानक कि माँग के अनुसार फ़िल्मों का भी वर्णन करता है। आज भी बच्चों के द्वारा फ़िल्में देखने को माँ-बाप अच्छा नहीं मानते, उनका मानना है कि फ़िल्मों से बच्चे बिगड़ते हैं। परन्तु कथा का नायक फ़िल्मों को अपनी जीवन-यात्रा में महत्वपूर्ण स्थान देते हुए कहता है - "मेरा मानना है कि मेरा व्यक्तित्व गढ़ने में जितना हाथ परिवार का रहा होगा, उतना उन फ़िल्मों का भी था, जिन्हें मैने अपने अल्हड़पन में देखा था। उन फ़िल्मों ने मुझे प्रारंभिक तौर पर समझाया कि मुझे कैसा होना चाहिए और वैसा कैसे बनना चाहिए?"
कथा का नायक जीवन यात्रा का साक्षी भी और कर्ता भी। वह साक्षी बनकर दुनिया को देखता है कि उसमें क्या घट रहा है, क्या परिवर्तन हो रहा है तथा दुनिया की एक इकाई होने के नाते कर्म भी करता है, सिर्फ़ साक्षी ही नहीं रहता। आजादी के 125 दिनों के बाद दुनिया में आकर वह होश संभालने के बाद वह समाज का एक अटूट हिस्सा रहा है। 1962 के चीन युद्द पर टिप्पणी करते हुए कहता है - "सदियों से रक्षा करने वाला हिमालय आधुनिक विज्ञान की आयुध तकनीक के समक्ष नतमस्तक होकर लहुलुहान हो गया। उस घटना से पूरा देश दहल गया, 'पंचशील के सिद्धांत भसक गए।" पाकिस्तान के साथ पैंसठ साला बैर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वह गंभीर बात कहता है - "मैं शिशु से वृद्ध हो गया, दोनो राष्ट्र अभी तक वयस्क नहीं हुए?" दोनों देशों के हुक्मरानों को एक आम आदमी से सीख लेनी चाहिए।
1975 का आपातकाल वास्तव में भारत के इतिहास का काला अध्याय है। जिसे पलट कर देखने में अब उनको भी शर्म आती होगी, जो इसका हिस्सा रहे हैं। इस पर बेबाक टिप्प्णी उन दिनों की भयावहता को दर्शाती है - "सम्पूर्ण भारत एक बड़ी जेल में तब्दील हो गया, कुछ देशद्रोही (?) सीखचों के भीतर थे, शेष खुली जेल में।" आगे टिप्पणी है - "आपातकाल में एक खास बात उभरी, जिसने देश के राजनैतिक प्रशासन को नया मोड़ दे दिया। उन इक्कीस महीनों में नौकरशाह अपनी शक्ति पहचान गए, इसलिए उन्होने अपनी भूमिका बदल ली, वे 'जन सेवक' से 'जन अधिकारी' में शिफ़्ट हो गए। परिणामत: जन प्रतिनिधि कमजोर पड़ गए और जनतंत्र की मूल भावना क्षीण होते गई।"
आत्मकथा का नायक कहीं से भी कृपण नहीं है और अंतर्मुखी भी नहीं - "बहिर्मुखी लोग अन्तर्मुखियों के मुकाबले अधिक पारदर्शी होते हैं, उनका जीवन खुली किताब की तरह होता है, जैसे चिता- उनका जीवन, चिता पर बिछी लकड़ियाँ- उनके जीवन की घटनाएँ और उठती हुई लपटें- उनके जीवन का खुलापन। वह शब्दों के माध्यम से तारीफ़ भी भरपूर करता है तो व्यवस्था को लानत-मलानत देने में भी कसर नहीं छोड़ता। दोनो पहलु प्रबल प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। महाविद्यालय के दिनों की सहपाठिका के प्रति वह कृतज्ञता अर्पित करते हुए कहता है - " माय एंजिल सफ़िया, तुम जहाँ कहीं हो … मेरा सलाम कबूल करो, तुम्हें लम्बी उम्र मिले।"
आत्मकथा का नायक पाठक को स्वयं के जीवन में झाँकने का अधिकार देता है। जीवन के वह ऐसे पहलु खोलता है जिसमें रहस्य, रोमांच, करुणा, यंत्रणा, प्रेम, शृंगार, यथार्थ तथा एक जिज्ञासा भी है। यह सत्यता है कि जीवन में उसे कल का पता नहीं रहता, क्या घटने वाला है। इसी जीजिविषा से जुझते हुए एक जीवन बीत जाता है। एक मंजे हुए लेखक की भांति प्रवाहमय शब्दों में अपनी बातें कहते हुए चलता है। यही प्रवाह आत्मकथा रोचक बनाता है। अगर इस आत्मकथा पर धारावाहिक बनाया जाए तो यह दशक का सबसे अधिक मनोरंजक, प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक एवं लोकप्रिय पारिवारिक धारावाहिक हो सकता है।
"कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" आत्मकथा के नायक बिलासपुर निवासी श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल दुनिया को अपनी खुली आँखों से देखते हुए जीवन का सफ़र तय कर रहे हैं। वर्तमान कानूनों पर वे कहते हैं - "अब नए कानून और भी घातक हो गए हैं, जैसे - आपकी बहू रुष्ट हो जाए तो सम्पूर्ण परिवार जेल में या अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति आपसे नाराज हो जाए तो आप जेल में। अब, ये तो हद हो गई, किसी लड़की को आपने घूरकर देख लिया या देखकर मुस्कुरा दिए और वह कहीं खफ़ा हो गई तो भी जेल! बाप रे …… भारत में रहना अब कितना 'रिस्की' हो गया है।" आत्मकथा का लेखक किसी की लेखन शैली का मोहताज नहीं है, न ही इस पर किसी की छाप और छाया है, उसकी अपनी ही शैली है, लेखन की बुनावट का इंद्रधनुषी सम्मोहन पाठक को बांधे रखता है। कथा के 66 साल के नायक ने आत्मकथा के माध्यम से अपने जीवन के तैंतीस वर्षों के अनुभव खोल कर समाज के सामने रख दिए, यही अनुभव इसे पठनीय बनाते हैं। क्या खोया? क्या पाया … मूल्यांकन पाठकों को करना है।
लेखक- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
प्रकाशक - डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा) लि
X-30 ओखला, इंडस्ट्रियल एरिया, फ़ेज -2
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