कलाओं का वर्णन हमारे प्राचीन ग्रंथों में विस्तार से किया गया है। कलाओं की गणना में सबसे अधिक प्रसिद्ध संख्या चौसठ है। शुक्र नीति एंव तंत्र ग्रंथों में कलाओं की संख्या चौसठ ही दी गई है। ललित विस्तार में पुरुषकला के रुप में छियासी नाम गिनाए गए हैं और कामकला के रुप में चौसठ नाम। वात्सायन से लेकर अन्य आचार्यों ने भी कलाओं की संख्या चौसठ ही गिनी है। कला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ॠग्वेद में ही मिलता है - यथा कलां यथा यथा शफ़म् यथा ॠणं संनयामसि। आचार्य वात्सायन कहते हैं - जिस क्रिया से, जिस कौशल से कामनियाँ प्रसन्न हों, वशीभूत हो जाएं, वही कला है।" नागरिक के लिए वात्सायन चौसंठ कामकलाओं में शिक्षित होने बात कहते हैं। वात्सायन कहते हैं कि - कामकला की शिक्षा प्राप्त करने के बाद चतुर्वण को दान, वीरता, व्यवसाय एवं श्रमादि द्वारा धनार्जन करना चाहिए और इसके उपरांत ही विवाह करना चाहिए। इससे ज्ञात होता है कि कामकला का चित्रण शैक्षणिक दृष्टिकोण से किया जाता था।
नायिका - शाल भंजिका |
कामकला एक ऐसा विषय है जिस पर सार्वजनिक चर्चा करना वर्तमान में असभ्यता माना जाता है। पर गुह्य संभाषण करना हर स्त्री पुरुष चाहता है क्योंकि विषय ही रसदार है। मनुष्य के जीवन से जुड़ा हुआ है। भोजन क्षुधा के अतिरिक्त मनुष्य को संसर्ग क्षुधा ही सताती है। कई वर्षों पूर्व डिस्कवरी चैनल पर महाद्वीपों का डोंगी से सफ़र करने वाले व्यक्ति से सफ़र सम्पन्न होने के उपरांत पत्रकार ने पूछा - आप छ: महीने से एकल डोंगी का समुद्र में सफ़र कर रहे हैं, घर पहुंचने के पश्चात वह पहला काम बताईए जिसे आप प्राथमिकता में प्रथम रख कर करना चाहेंगे। उसने जवाब दिया - घर पहुंचने पर मैं सबसे पहले एकांत वातावरण में अपनी पत्नी के साथ चर्मसुख का आनंद उठाना चाहुंगा। यह घटना याद आने का कारण कोणार्क की भित्तियों में उत्कीर्ण कामकेलि की विभिन्न मुद्राएं हैं, जिन्हें सार्वजनिक रुप से प्रदर्शित किया गया है।
नायिक - शुक सारिका |
विदेशी पर्यटक मिथुन प्रतिमाओं को आश्चर्य मिश्रित भावों से देखते हैं कि भारत में यौन शिक्षा प्राचीन काल से ही चली आ रही है और इसे सार्वजनिक तौर पर महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वरना पाश्चात्य देशों में भारत के विषय में सिर्फ़ यही धारणा है कि यह जादू टोने, साधू संतों एवं सांपो का देश है। इससे सीधा अर्थ लगा लिया जाता है असभ्य है और सभ्यता का ठेका तो पाश्चात्य देशों के पास है। वात्सायन कहते हैं पति-पत्नी को धार्मिक और सामाजिक नियमों की शिक्षा कामसूत्र के द्वारा मिलती है। जो दम्पति कामशास्त्र के मुताबिक अपना जीवन व्यतीत करते है उनका जीवन यौन-दृष्टि के पूरी तरह सुखी होता है। ऐसे दम्पति अपनी पूरी जिंदगी एक-दूसरे के साथ संतुष्ट रहकर बिताते हैं। कामसूत्र द्वारा ऐसी बहुत सी विधियां बताई जाती है जो स्त्री और पुरुष को आपस में ऐसे मिला देती है जैसे कि दूध में पानी।
नायिका-पुत्र वल्लभा |
भारतीय दर्शन में उपदेश किया गया है कि मनुष्य को जीवन काल में पुरुषार्थ चतुष्टय को धारण करना चाहिए। धर्म अर्थ काम मोक्ष द्वारा ही जीवन सुखमय और आनंददायक होकर अंतिम मंजिल को प्राप्त करता है। इसमें काम का महत्व धर्माचरण के इतना ही पवित्र रखा गया है। जिस प्रकार आहार त्याग देने या पौष्टिक पदार्थों के न खाने से शरीर सूख कर कांटा हो जाता है, इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं, क्षुधा-पिपासा शरीर को सोखने लगती है, उसी प्रकार काम निरोध से भी हानि होती है, अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियाँ पकड़ लेती हैं। ऐसी स्थिति में सारांश यह निकलता है कि बलात निर्यंत्रण या अतिशय भोग ये दोनो ही उपाय हानिकर हैं। इनकी उपाय पूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। वात्सायन कहते हैं कि इन्हें इस प्रकार प्राप्त करें कि एक पुरुषार्थ दूसरे पुरुषार्थ का बाधक न बने।
नायिका मुग्धा |
प्राचीनकाल में अभिजात्य नागरजनों एवं साहित रसिकों तथा विलासप्रियों के लिए नायिका रसानुभूति का माध्यम एवं मनोरंजन का कलापूर्ण साधन भी रहा है। भित्ति प्रतिमाओं में शिल्पकारों ने नायिका यथा, गणिका, शुक सारिका, आंजना, शाल भंजिका, रमणिका, अभिसारिका, मुग्धा एवं अन्य को भित्तियों में स्थान दिया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ नायिकाओं को ही स्थान दिया जाता था, समाज में नायक भी होते थे, भरत ने नायक के चार भेद किए हैं- धीरललित, धीरप्रशान्त, धीरोदात्त, धीरोद्धत। ये भेद नाटक के नायक के हैं। "अग्निपुराण" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ। ये भेद स्पष्ट ही शृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। मनोरंजन की दृष्टि से इनका चित्रण भी मंदिरों की भित्तियों पर किए जाने की परम्परा रही है।
नायक - धीरललित |
मंदिरों में उत्कीर्ण मैथुन प्रतिमाओं के द्वारा हमारे पूर्वज कुछ गूढ़ संदेश आने वाली पीढ़ी के लिए संकेत के तौर पर देकर गए हैं। यह भोग विलास का कोरा प्रदर्शन नहीं है। स्त्री-पुरुष संयोग को प्रतिमाओं में प्रदर्शित करते हुए यह भी दर्शाया गया है कि "अङादङात सम्भवसि हृदयादधि जायसे। आत्मा वै पुत्रानामासि सजीव शरद: शतम्॥ (निरुक्त निघंटु कांड 3/1/4) तू मेरे अंग प्रत्यंग से प्राप्त हुआ है, तू मेरे हृदय से उत्पन्न हुआ है और मेरा ही पुत्र संज्ञक स्वरुप है। ऐसा तू सौ वर्षों तक जीवित रह।" मानव शरीर को अमरावती कहा गया। इसे अमरावती कहने का कारण है कि शरीर के द्वारा नए शरीर की उत्तप्त्ति होती है, इस शरीर द्वारा सतत उत्पन्न होक मानव युगों युगों तक जीवित रहता है। इस दृष्टि से परम्परागत शरीर नष्ट नहीं होता। इसलिए अप्रमत्त होकर इसकी रक्षा करनी चाहिए। यही संसार का अंतिम सत्य है, जो जहाँ से शुरु होता है वहीं समाप्त भी होता है। जारी है… आगे पढ़ें।
विषय रोचक है । और रसदार भी।हम आजाद जरूर हो गए है पर अभी भी सेक्स के विषय पर मुंह सिकोड़ते नजर आते है । विदेश में ये सेब खुला है किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता पर हमारे समाज में आज भी सेक्स बन्द दरवाजे का मोहताज़ है।
जवाब देंहटाएंअभी हमारा समाज इस सबकी इजाजत नहीं देता । पर जल्दी ही ये संकोच की दीवारे गिर जायेगी मुह लगता है।सिकोड़तेव्नजर आते है
मनोरम वर्णन !
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