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बुधवार, 16 दिसंबर 2015

प्राचीन मंदिरों के वास्तु शिल्प में नागांकन

सर्प एवं मनुष्य का संबंध सृष्टि के प्रारंभ से ही रहा है। यह संबंध इतना प्रगाढ एवं प्राचीन है कि धरती को शेषनाग के फ़न पर टिका हुआ बताया गया है। इससे जाहिर होता है कि धरती पर मनुष्य से पहले नागों का उद्भव हुआ। वैसे भी नाग को काल का प्रतीक माना जाता है। जो शिव के गले में हमेशा विराजमान रहता है। कहा गया है - काल गहे कर केश। इसके पीछे मान्यता है कि काल धरती के जीवों का कभी पीछा नहीं छोड़ता और हमेशा उसके गले में बंधा रहता है। इस मृत्यू के प्रतीक को मनुष्य ने हमेशा अपने समक्ष ही रखा और मानव जीवन में भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। 
राजा रानी मंदिर के द्वार पर स्थापित नागप्रहरी - भुवनेश्वर उड़ीसा
शासकों के कुल भी नागों से चले, नागवंशी, छिंदक नागवंशी, फ़णीनागवंशी इत्यादि राजकुलों की जानकारी हमें मिलती है। इसके साथ ही हमें मंदिरों के द्वार शाखा एवं भित्तियों पर अधिकतर नाग-नागिन का अंकन मिलता है। वासुकि नाग एवं पद्मा नागिन का पाताल लोक के राजा-रानी के रुप में वर्णन मिलता है। नागों को एक दूसरे से गुंथित या नाग-वल्लरी के रुप में दिखाया जाता जाता है भारतीय शिल्पकला में इन्हें देवों के रुप में प्रधानता से स्थान दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि मंदिर के प्रवेश के समय इनके दर्शन करना शुभ एवं सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप स्तंभ पर अंकित नागपाश

प्रागैतिहासिक शैलचित्र कला में नाग का चित्रण, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से प्राप्त मुद्राओं पर नागों का अंकन हुआ है, जो नागपूजा का प्राचीनतम प्रमाण माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव प्राचीन काल से नागपूजा कर रहा है। नाग का भारतीय धर्म एवं कला से घनिष्ठ संबंध रहा है। कहा जाए तो नागपूजा हड़प्पा काल से लेकर वर्तमान काल तक चली आ रही है। इसके पुरातात्विक एवं साहित्य प्रमाण प्रचुरता में मिलते हैं। मंदिरों की द्वार शाखाओं पर नागाकृतियों का उत्कीर्ण किया जाना, विष्णु की शैय्या के रुप में, शिव के गले में, बलराम एवं लक्ष्मण को शेषावतार के रुप में प्रदर्शित किया जाना। 

राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप के द्वार शीर्ष पर शेष शैया
वासुकिनाग का समुद्र मंथन के साथ उल्लेख, वराहावतार का प्रतिमा के साथ नाग का आबद्ध होना, भारतीय संस्कृति में नागपूजा एवं उसके महत्व को प्रदर्शित करता है। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ के साथ पांच फ़न एवं सप्तफ़न के नाग लांछन का प्रयोग किया जाता है, जो जैन संस्कृति में नाग के महत्व को उजागर करते हैं।
छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर सिरपुर से उत्खनन में प्राप्त जैन तीर्थांकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा

पूर्व मध्यकाल एवं उत्तरमध्यकाल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक ग्राम में नागदेवताओं की किसी न किसी रुप में पूजा की जाती है। इसकी प्रतिमाएं आज भी गांवों में मिलती है तथा नागपंचमी का त्यौहार तो वर्ष में एक बार मनाया ही जाता है। इस विषधर जीव की जितने मुंह उतनी कहानियां मिलती हैं। शायद मनुष्य ने भयभीत होकर इस काल के प्रतीक की पूजा प्रारंभ की होगी और कई परिवारों में इसे कुलदेवता के रुप में मान्यता मिली हुई है, मनुष्य आज तक इसके महत्व एवं उपस्थिति के साथ बल को नकार नहीं सका है।

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