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रविवार, 17 जुलाई 2016

ग्वालियर की ओर चलत मुसाफ़िर

यात्रा काल - 9 से 13 अक्टूबर 2015 
ध्यप्रदेश का बंटवारा जब नहीं हुआ था तब हम मध्यप्रदेश के ही अंग थे। हमारी शिक्षा-दीक्षा तत्कालीन मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) में ही हुई। पढाई के इतर मैं खेलखूद का शौकीन भी रहा हूँ और व्हालीबाल, बैडमिंटन इत्यादि निरंतर खेलता रहा। व्हालीबाल तो मैने नगर स्तर से लेकर राज्य स्तर तक खेला। जब संभाग स्तरीय मैच होते थे तो उनमें ग्वालियर संभाग की टीम भी मैच खेलने आती थी। कुछ खिलाड़ी अच्छे मित्र भी बने। परन्तु हजारों बार रेलमार्ग से गुजरने के बाद भी ग्वालियर भ्रमण नहीं हुआ। इस बार मौका मिल गया। स्पंदन संस्था द्वारा जीवाजी विश्व विद्यालय में नदियों के संरक्षण पर दो दिवसीय सेमीनार का आयोजन 10 से 11 अक्टुबर 2015 को किया गया था। सेमीनार के साथ ग्वालियर भ्रमण का उद्देश्य भी जुड़ गया। 
ग्वालियर की ओर लौहपथ गामिनी
मेरी रुचि सदा ही भमण इतिहास, पुरातत्व एवं सांस्कृतिक अध्ययन में रही है। इसलिए मैं किसी भी स्मारक एवं स्थान को गहरी दृष्टि से देखता हूँ, आम पर्यटक की तरह खाना-पीना और घूमना नहीं होता। ग्वालियर के हम गोंडवाना एक्सप्रेस से रायपुर से चले। एसी 2 में रिजर्वेशन था। दिन तो जैसे तैसे कट गया। परन्तु रात होते ही ठंड लगने लगी। रात को दो कम्बल ओढने पड़े। लग रहा था कि वाताकूलन अधिक हो गया और कोच ठंडा हो गया। हमारी ट्रेन का ग्वालियर पहुंचने का समय रात पौने तीन बजे था अर्थात रात को ही हमें जीवाजी विश्व विद्यालय के गेस्ट हाऊस तक जाना था। हम ग्वालियर पहुचं कर ऑटों से जीवाजी विश्वविद्यालय के गेस्ट हाऊस पहुंचे और कमरे जाकर सोने का प्रयत्न किए। 
सेमीनार 
परन्तु तबियत कुछ नासाज सी लग रही थी। हमने दो दिन सेमीनार के एवं एक दिन भ्रमण के नाम से रखकर तीन दिन पश्चात का लौटने का आरक्षण करवाया था। सेमीनार सुबह ग्यारह बजे से प्रारंभ था। हम तैयार होकर सेमिनार में सम्मिलित हुए और नदियों के संरक्षण एवं पुनर्जीवन पर धुंआधार विचार विमर्श हुआ। इसके पश्चात सांझ को ग्वालियर के किले में लाईट एन्ड साऊंड कार्यक्रम दिखाने/सुनाने के लिए ले जाया गया। अमिताभ बच्चन की गंभीर आवाज में ग्वालियर का इतिहास बताया जाने लगा। मानमंदिर के ईर्द गिर्द रंगीन रोशनियां झलकी मारती और आडियो के साथ संबंधित स्थानों को रोशन करती । यह कार्यक्रम आधे घंटे तक चला। किले की ऊंचाई से झिलमिल करती शहर की रोशनी वातावरण को और भी रंगीन बना रही थी। इसके बाद हम अपने ठिकाने पर लौट आए।
मानमंदिर महल ग्वालियर
रात को मैने देखा कि रुम के एसी का रिमोर्ट कंट्रोल नहीं है। एसी सोलह में चल रहा था। इसलिए मुझे ठंड लगने लगी। थोड़ी देर बाद बहुत अधिक ठंड लगी तो दो कंबंल ओढ कर सो गया। इसका फ़ल सुबह ये मिला कि तबियत अत्यधिक खराब हो गई और हालात ये  हो गए कि सेमीनार स्थल तक जाना मुस्किल हो गया। मेरे रुम मेट चेतन भट्ट ने सुबह का नाश्ता रुम पर ही ला दिया। फ़िर दोपहर का खाना भी रुम पर ही खाया। रात का खाना भी वहीं हुआ। 
मानमंदिर महल ग्वालियर ध्वनि प्रकाश कार्यक्रम
बाजार से कुछ दवाईयां मंगाई थी उनका सेवन हो रहा था लेकिन कुछ फ़र्क दिखाई नहीं दे रहा था। 24 घंटे से अधिक हो गए कि मैं रुम से ही बाहर नहीं निकल सका। जिन मित्रों को मुझसे मुलाकात करनी थी वे रुम पर ही आ गए। सेमिनार समाप्ति के बाद जिनकी टिकिट थी वे लौट गए और हमारे जैसे अगले दिन की टिकिट वाले बच गए। रात दवाईयों का असर कुछ हुआ।  इस समय स्वाईन फ़्लू का भी जोर चल रहा था। इसलिए थोड़ा सा हिदायत बरतनी पड़ रही थी। अगर कहीं जाकर तबियत नासाज हो जाए तो सारा मजा किरकिरा हो जाता है, घर में हो तो तीमारदारी भी हो जाती है और बाहर मुश्किल खड़ी हो जाती है। ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ था। 
मानमंदिर महल ग्वालियर ध्वनि प्रकाश कार्यक्रम
मन में विचार उठा कि कहीं ट्रेन में दिए गए कम्बल से ही फ़्लू के जरासिम मुझ तक नहीं पहुंच गए। क्योंकि मैने कभी ट्रेन का कंबल नहीं ओढा था, उस रात ठंड लगने के कारण जबरिया ओढना पड़ा। न जाने कौन-कौन इन कंबलों को ओढता है। कभी धुलते हैं कि नहीं, ये भी पता नहीं। किसी संक्रामक रोगी के सम्पर्क में आया कम्बल तो बीमार कर ही सकता है। ऐसे विचार इस लिए उठ रहे थे कि ट्रेन में कंबंल ओढने के बाद रात को तबियत नासाज हुई थी और अगले दिन फ़्लू के वायरस का प्रकोप बहुत अधिक बढ गया। दवाईयों ने कुछ असर किया। राम राम भजते रात कटी…… जारी है आगे पढें।

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया कि ट्रेन में मिलने वाली कम्बलों से भी संक्रमण हो सकता है। आभार।

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  2. आप दूसरे दिन के सेमिनार में भाग न ले सके यह दुखद बात है रही बात रेल्वे की तो कम्बल खाना स्टेशन की हालत गंभीर है बरसाती दिनों में किसी-किसी स्टेशन पर तो मानो आक्सीजन माक्स लगाने की जरूरत आन पडे इतनी गन्दगी होती है वहां

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  3. बहुत बुरा लगता है जब हम घर से बाहर जाकर बिमार हो जाते है, ट्रैन के कम्बल के ऊपर का कवर तो वैसे हर यात्रा के बाद धुलता होगा, पर मैन कम्बल कब धुला होगा यह तो रेलवे ही बता सकता है।

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