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बुधवार, 27 जुलाई 2016

उज्जैन कुंभ, क्षिप्रा नदी उत्पत्ति, स्नान महत्व पौराणिक आख्यान

आरंभ से पढें
उज्जैन कुंभ में आज हमारी दूसरी रात्रि गुजर रही थी, बिस्तर लेट हुए अनुज साहू जी के साथ प्रश्नोत्तरी जैसी ही चल रही थी। वे कुछ पूछते और मैं जवाब देता। उनके साथ सत्संग से ज्ञानरंजन हो रहा था। अनुज भाई भी हमारी बिरादरी के हैं अर्थात घुमक्कड़ प्रवृति के। कम से कम खर्च में अधिक से अधिक घुमक्कड़ी करते हैं। ठहरने के लिए बाबाओं के आश्रम एवं धर्मशालाओं के साथ भोजन के लंगर, भंडारे को प्राथमिकता देते हैं। लम्बी दूरी की यात्रा भी सामान्य डिब्बे में कर लेते हैं। इस तरह भारत के लगभग सभी प्रमुख तीर्थों की यात्रा कर चुके हैं। उन्होंने ने पूछा कि "कुंभ काबर होथे ग?" (कुंभ क्यों  होता है?)
उज्जैन कुंभ में संतों के पंडाल
मैने कहा कि  - कुंभ, सामान्य जन एवं साधू संतों के मिलन का स्थल है, जहाँ भक्त अपने गुरुओं के साथ मिलकर ज्ञानरंजन करते हैं और उनसे शास्त्र के उपदेश सुनकर अपने कंटकाकीर्ण जीवन को सफ़ल बनाते हैं। यह पर्व देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधता है। देखो यहाँ भारत के सभी प्रांतों के साधू संत एवं आम जनता पहुंची हुई है। विभिन्न संस्कृतियों, भाषा भाषियों का मिलन कुंभ में ही संभव है और इस आयोजन को प्रारंभ करने का उद्देश्य भी यही रहा होगा। आदि शंकराचार्य ने इस परम्परा को आगे बढाया वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी प्रमुख रहा है। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट
शास्त्रों ने कहा है कि - कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।  हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है। ब्रह्मा कहते हैं-हे मनुष्यों! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं। वस्तुतः वेदों में वर्णित महाकुम्भ की यह सनातनता ही हमारी संस्कृति से जुड़ा अमृत महापर्व है जो आकाश में ग्रह-राशि आदि के संयोग से मनाया जाता है। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट के पीपा पुल पर स्नानार्थी
उज्जैन के कुंभ ल सिंहस्थ काबर कहिथे? (उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ क्यों कहते हैं?) अनुज भाई ने पूछा। मैने कहा कि - शास्त्रों में इसके लिए शुभ लक्षण बताते हुए तिथि का निर्धारण किया गया है। जब बैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तिथि हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तभी उज्जैन में कुंभ भरता है। वृहस्पति के सिंह राशि में आने के कारण इसे सिंहस्थ कहा जाता है। अर्थात वृहस्पति का सिंह में स्थित हो जाना। मान्यता है कि इस दिन उज्जैन में क्षिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा लोग मोक्ष की कामना से उज्जैन में क्षिप्रा स्नान करते हैं। 
शिप्रा किनारे स्नान घाट
क्षिप्रा की उत्पत्ति स्कन्द पुराण में वर्णन देखने से प्रतीत होता है कि पुराण के रचयिता या सम्पादक ने क्षिप्रा सम्बन्ध तत्युगीन प्रायः सभी प्रचलित मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में समाहित कर लिया था। सम्भवतः यही कारण है कि पुराण में क्षिप्रा उत्पत्ति सम्बन्धी आख्यान एक नहीं अनेक हैं। उत्पत्ति सम्बन्धी गाथाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न है- एक समय शिवजी ब्रह्म-कपाल लेकर भिक्षार्थ भगवान विष्णु को अँगुली दिखाते हुए भिक्षा प्रदान की। शंकर यह सहन न कर सके और उन्होंने तत्काल ही अपने त्रिशूल से उस अँगुली पर प्रहार कर दिया, जिससे रक्त धारा प्रवाहित होने लगी। वही धारा क्षिप्रा नदी के रूप में प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार त्रैलोक्य पावनी क्षिप्रा बैकुण्ठ से अद्भुत हो तीनो लोकों में प्रसिद्ध हो गई।
शिप्रा किनारे स्नान घाट पर भक्तों का उमड़ता रेला
नदी के तट पर उज्जैन नगर बसा होने से विशेष पवित्र माना जाता है। क्षिप्रा का ऐसा महत्व है कि इसके समान पावन करने वाली कोई नदी नहीं है और दूसरा स्थान नहीं है। उज्जयिनी में 12 वर्ष में एक बार सिंहस्थ कुम्भ महापर्व का मेला क्षिप्रा तट पर लगता है। उस समय शिप्रा स्नान का विशेष महत्व वर्णित है। क्षिप्रा मालव देश की सुप्रसिद्ध और पवित्र नदी है। तेज बहने वाली नदी होने के कारण इसका नाम क्षिप्रा पड़ा। स्मृतियों पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों में तो नारायण शब्द के मूल में जल की स्थिति ही प्रतिपादित की गई है। ऐसी ही शान्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाली तथा संस्कृति का इतिहास रचने वाली नदी है ’क्षिप्रा’। जिसके सम्बन्ध में समुचित ही कहा गया है- क्षिप्रायाश्च कथां पुण्यां पवित्रं पापहारिणीम्। यह पवित्र नदी वैकुण्ठ में क्षिप्रा, स्वर्ग में ज्वरन्ध्री, यमपुरी में पापाग्नि तथा पाताल में अमृतसम्भवा वराह कल्प में ’धेनुजा’ नाम से विख्यात है।
शिप्रा किनारे स्नान घाट पर जल शुद्धि उपकरण
शास्त्रों में कुंभ स्नान करने के फ़ल भी बताए हैं, आज तो हमारे पास तीव्रगामी आवागम के साधन हैं, परन्तु सहस्त्रों वर्षों पूर्व लोग दूर-दूर से कई महीनों तक की कठिन पद यात्रा करते हुए कुंभ स्थल तक पहुंचते थे और कुंभ पर्व में सम्मिलित होते थे।  विष्णु पुराण में कुम्भ के महात्म्य के संबंध में लिखा है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञों का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल होता है, वही फल कुम्भ के केवल एक स्नान का होता है। इस तरह हमें चर्चा करते हुए नींद आ गई…… जारी है आगे पढें……

1 टिप्पणी:

  1. सिंहस्थ का महत्त्व और कुंभ की महत्वपूर्ण जानकारी। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इतनी तकलीफ उठाकर, इंसानों के मेले से सकुशल वापसी और इतना सुंदर जीवन्त वृत्तान्त लिखना। बहुत बहुत आभार व शुभकामनाएं...

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