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मंगलवार, 6 सितंबर 2016

श्रीपुर की महारानी वासटा की शिलालेखीय आज्ञा


छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध 7वीं शताब्दी ईस्वीं में ईष्टिका निर्मित मंदिर (लक्ष्मण मंदिर) का निर्माण महारानी (राजमाता) वासटा ने करवाया था। मंदिर निर्माण एवं उसकी व्यवस्था को लेकर एक शिलालेख खंडित मंदिर का मलबा साफ़ करते हुए प्राप्त हुआ था। 

महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा मगध के राजा सूर्यवर्मा की पुत्री थी। इस शिलालेख में लिखा है कि अपने वैष्णव पति की स्मृति में राजमाता वासटा ने हरि (विष्णु) मंदिर का निर्माण कराया। 

इस शिलालेख की प्रशस्ति रचना करने वाले का नाम कवि ईशान उल्लेखित है जिसका उपनाम चिंतातुरांक था। इस लेख में 26 पंक्तियाँ और छंदबद्ध 42 श्लोक रचे गए हैं।
प्राचीन राजधानी सिरपुर
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, जिसका निर्माण महारानी वासटा ने कराया था

मैं विशेष रुप से मंदिर की संचालन व्यवस्था की जानकारी हेतु इसका उल्लेख कर रहा हूँ। प्रशस्ति के उत्तरार्ध में मंदिर के प्रतिपालन एवं प्रबंधन के लिए की गई व्यवस्था का उल्लेख है। 

बताया गया है कि तोडंकण, मधुवेढ, नालीपद्र, कुरुपद्र और वाणपद्र नामक पाँच गांव मंदिर में दिए गए थे। उन गाँव से होने वाली आय को चार भागों में विभाजित किया गया था। 

इसमें से एक-एक भाग मंदिर में आयोजित सत्र (सामूहिक भोजन), मंदिर चालू मरम्मत, और पुजारी के परिवार के पोषण हेतु क्रमश: दिया गया था। 

आय का चौथा हिस्सा बचाकर उसके बराबर पन्द्रह भाग किए गए और 1- त्रिविक्रम, 2-अर्क, 3-विष्णुदेव, 4-महिरदेव, इन चारों ॠग्वेदी ब्राह्मणों, 5- कर्दपोपाध्याय, 6- भास्कर, 7-मधुसूदन तथा 8- वेदगर्भ, इन चार यजुर्वेदी ब्राह्मणों, 9- भास्कर देव, 10- स्थिरोपाध्याय, 11-त्रैलोक्यहंस तथा 12- मोउट्ठ, इन चार सामवेदी ब्राह्मणों तथा 13 - स्वस्तिकवाचक वासवनन्दी, 14 - वामन एवं 15 - श्रीधर नामक भागवत ब्राह्मणों को एक-एक भाग दान दिया गया था। 

यह आय उनके पुत्र-पौत्रों को भी प्राप्त होते रहने की व्यवस्था की गई थी। यदि वे लोग भी छ: अंग युक्त और अग्निहोत्री रहें तथा जुआ, वेश्यागमन आदि के व्यसनी न हों और न ही किसी की चाकरी करें।



यदि कोई इसके विपरीत आचरण करे अथवा कोई निपूता मर जाय तो उसके स्थान पर विद्या और वय से वृद्ध संबंधी को सम्मिलित कर लेने की व्यवस्था कर दी गई थी। किन्तु यह चुनाव उपर्युक्त ब्राह्मणों की सहमति से ही हो सकता था, राजाज्ञा से नहीं। 

ब्राह्मण अपने भाग को न तो किसी को दान में दे सकते थे, न बेच सकते थे और न ही गहन धर सकते थे। इन सबके भोजन की भी व्यवस्था की गई थी और महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रशस्ति के लेखक आर्य गोण्ण के भोजन की व्यवस्था भी की गई थी।

एक अन्य ग्राम वर्गुल्लक भगवान के लिए बलि, चरु, नैवेद्य तथा सत्र के लिए अलग से दिया गया था। इसका प्रबंध पुजारी, मुख्य मुख्य ब्राह्मणों की सलाह से करता था। 

भावी राजाओं से प्रार्थना की गई है कि वे इस स्थिति का पालन करेगें। इसके साथ ही मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर केदार के नाम का उल्लेख है। 

परन्तु कारीगर के जीविकोपार्जन के लिए क्या व्यवस्था की गई है, इसका उल्लेख नहीं मिलता। ईष्टिका निर्मित यह भव्य मंदिर आज भी शान से अटल है और दर्शनीय है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. "कारीगर के जीविकोपार्जन के लिए क्या व्यवस्था की गई है, इसका उल्लेख नहीं मिलता।" इन पंक्तियों से आपके मन में व्याप्त शिल्पकारों के जीविकोपार्जन सम्बंधित चिंता स्पष्ट दिखाई देती है, ये सवाल आज के संदर्भ में भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना तब था। शिलालेखीय आज्ञा की बहुत ही विस्तृत जानकारी व शानदार चित्र हेतु बहुत-बहुत आभार

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  2. शिलालेख में 26 पंक्तियाँ संस्कृत में हैं या हिंदी में इसका उल्लेख संभव हो तो बताएगा, मन जिज्ञासु हुआ .........
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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