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शनिवार, 16 दिसंबर 2017

सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था वेंटीलेटर पर

शिक्षाकर्मियों की हड़ताल हुई और सारी शैक्षणिक व्यवस्था वेंटीलेटर पर चली गई। शिक्षा सत्र के मध्य में विद्यार्थियों की पढाई का नुकसान हुआ। सरकारी स्कूलों में पढाई के प्रति न सरकार गंभीर है, न शिक्षक।

शिक्षा सत्र आरंभ होने की सुगबुगाहट के साथ सरकार और मीडिया सभी एकाएक जाग उठते हैं, अखबार शिक्षा व्यवस्था की खामियाँ गिनाने लगते हैं तो सरकार गुणवत्ता सुधारने की कवायद का बखान करने लगती है।

आनन-फ़ानन में दो-चार आदेश जारी करने के बाद कर्तव्यों की इति श्री हो जाती है और व्यवस्था अपने उसी ढर्रे पर चलने लगती है। एक तरफ़ देखें तो सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में पढाई का स्तर नित्य ही गिरते जा रहा है, जिसके कारण निजी संस्थाएं चाँदी काट रही हैं।

कई संस्थाएं तो इतनी ऊंची पहुंच रखती हैं कि वे शासन के आदेशों की धज्जियां उड़ा कर अवमानना करते हुए मनमानी फ़ीस बढा कर अपनी मनमानी करते हैं। 

शिक्षा नित मंहगी होते जा रही है, अगर कहें तो आम आदमी के पहुंच के बाहर हो रही है। विद्यार्थी को नामी शिक्षण संस्था में प्रवेश दिलाने के लिए पालक का दम निकल जाता है। जिधर देखो उधर ही शिक्षा की दुकाने सजी हुई हैं।

सरकारी स्कूलों में कोई अपने बच्चे को पढाना नहीं चाहता। हर पालक चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढे। उच्च शिक्षा के लिए सरकारी महाविद्यालयों में उतना कोटा नहीं है जितने विद्यार्थी हैं। इसलिए इन्हें मजबूरन निजी शिक्षण संस्थाओं में मोटी फ़ीस देकर पढाई करनी पड़ती है। जिसका बोझ परिवार पर अतिरिक्त पड़ता है। 

जिसके पास काला-पीला धन या टेबल के नीचे की कमाई है, वह अपने बच्चे को निजी संस्थाओं में पढा लेता है, परन्तू उनका मरण हो जाता है जिनके पास बड़ी फ़ीस देने के लिए धन नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के नाम पर नित नए प्रयोग होते दिखाई देते हैं।

नई सरकारें सत्ता में आती हैं तो पाठ्यक्रम बदल दिया जाता है। वामपंथ, दक्षिणपंथ, उत्तरपंथ इत्यादि पथों का प्रभाव पाठ्यक्रम पर डालने का कार्य किया जाता है। जिसका असर विद्यार्थियों के मानस को दुषित करने के साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता को हानि पहुंचाता है। 

निजी स्कूलों के पीछे दीवानगी आलम यह है कि नेता, अधिकारी, कर्मचारी एवं सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने बच्चे को निजी स्कूलों में पढाना चाहते हैं। सरकारी तंत्र की अंतिम इकाई चपरासी का बच्चा भी आपको निजी स्कूलों में पढाई करता मिल जाएगा।

जो संस्था उन्हें रोजी-रोटी, रोजगार दे रही है, उसकी गुणवत्ता एवं कार्यक्षमता पर ही संदेह है। यही कारण है कि आम आदमी भी अपने बच्चे को निजी शिक्षण संस्थाओं में पढाना चाहता है क्योंकि सरकारी संस्थाओं की शिक्षा में लोगों को विश्वास नहीं रह गया और जनता में यह अविश्वास स्वयं कर्ताधर्ताओं ने फ़ैलाया है। 

अब स्पष्ट दिखाई देता है कि समाज में दो वर्ग पैदा हो गए हैं, एक वह जिसे अंग्रेजी बोलकर शासन करना है तथा दूसरा वह जिसे हिन्दी बोलकर जी हजूरी करनी है। शासक एवं शासित का विभाजन स्पष्ट दिखाई देने लगा है। यह खाई दिनों दिन और भी गहरी होती जानी है। इसका समय रहते उपचार करना होगा।

सरकार ने गरीब बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढाने की दिशा में आर टी आई एक्ट लागु किया है। जिसके तहत गरीब बच्चों को भी मंहगे निजी स्कूलों में पढाई करने का अवसर मिलेगा। प्रश्न यह उठता है कि कितने गरीब इस सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। सभी को निजी स्कूल दाखिला देने से रहे। 

शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने एवं धरातल पर अमीर गरीब की खाई मिटाने के लिए पहल करनी होगी। हमारे पास सरकारी स्कूलों के रुप में बहुत बड़ा अमला है, भवन हैं, अन्य सुविधाएँ भी दी जा रही है। परन्तू इनके प्रति लोगों का विश्वास खत्म हो रहा है। इस विश्वास को पुन: जगाना होगा।

यह प्रयोग केरल के एक कलेक्टर ने किया, उसने अपनी बेटी को सरकारी स्कूल में भर्ती कराया, जिससे सभी शिक्षक समय पर स्कूल आने लगे। नियत विषय को ईमानदारी से पढाने लगे। इससे उस स्कूल में शिक्षा का स्तर सुधरा। 

शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने के लिए सरकार को कड़ा कदम उठाकर एक आदेश अपने सभी मंत्रियों , विधायकों, अधिकारियों एवं कर्मचारियों को देना चाहिए कि वे अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में ही पढाएँ। इसका सकारात्मक प्रभाव शिक्षा व्यवस्था पर पड़ेगा और गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। यह शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम होगा तथा इससे सामाजिक सद्भवाना का पाठ विद्यार्थी होश संभालते ही पढने लगेगा.

जब मंत्री एवं आम आदमी तथा कलेक्टर और चपरासी के बच्चे एक ही स्थान पर बैठकर पढाई करेगें। शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों से बड़ी लकीर खींचनी होगी अन्यथा शिक्षा के नाम पर ढोल पीटना बेमानी है। 

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