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शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

प्राचीन काल के शिल्प में शय्या/खाट अंकन

प्राचीन शिल्प में विश्राम हेतु बाजवट/खाट या शय्या प्रयोग दिखाई देता है। खाट या शय्या का मनुष्य के दैनिक जीवन में कब से प्रवेश हुआ, इसकी जानकारी तो स्पष्ट रुप से नहीं है, परन्तु शिल्पांकन में अवश्य दिखाई देती है।  
खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की भित्ति शिल्पांकन में शय्या।
भूमि पर शयन करने से जहरीले कीटों के दंश का भय रहता है। इसलिए भूमि से कुछ दूरी बनाकर शयन करने के लिए शय्या का निर्माण हुआ। शय्या निर्माण करने वाले वर्धकी (बढ़ई) का उल्लेख कई स्थानों पर आता है।

मनुष्य अपने जीवन का एक तिहाई समय शयन कक्ष में व्यतीत करता है। इस बात को प्राचीन काल के मनुष्यों ने पहचाना, सुरक्षित एवं भय रहित निद्रा लेने के लिए उपयुक्त लकड़ी की पहचान की। 

प्राचीन काल में काष्ठ शय्या बनाने के लिए बहुत सावधानी बरती जाती थी। विशेषत: हारिद्र, देवदारु, शाल, चंदन, स्यंदन के काष्ठ का प्रयोग शय्या निर्माण में किया जाता था तथा काष्ठ की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान रखा जाता था। 

वृहत संहिता ग्रंथ कहता है कि शय्या के लिए काष्ठ चुनाव करते समय विशेष ध्यान रखा जाता था कि वह किसी ऐसे वृक्ष से न लिया गया हो जो वज्रपात से गिर गया हो, या बाढ़ के धक्के से उखड़ गया हो, या गजों प्रकोप से धूलिलुण्ठित हो गया हो, या वह ऐसी अवश्था में काटा गया था जब वह फ़ूल एवं फ़ल से लदा हो, या पक्षियों के कलरव से मुखरित था, या चैत्य या श्मशान से लाया गया था या सूखी लता से लिपटा हुआ था। उपरोक्त प्रकार के काष्ठ को अमंलकारी माना जाता था तथा इसे गृह के सुकुमार कक्ष में नहीं रखा जाता था। 
कोणार्क के सूर्य मंदिर की भित्ति में शय्या एवं मच्छरदानी अंकन
इससे आगे बढकर वराह मिहिर कहते हैं कि राज्य का सुख गृह है, गृह का सुख शयन कक्ष (कलत्र) एवं शयन कक्ष का सुख सुकोमल मंगलजनक शय्या है, इसलिए शय्या को गृह का मर्म स्थल माना गया है। चंदन काष्ठ की शय्या सर्वोत्तम मानी गई है। 

मिश्रित काष्ठ से शय्या निर्माण के प्रति भी विशेष सावधानी बरती गई है। तिंदुक, शिंशपा, देवदारु एवं असन के काष्ठ अन्य वृक्षों के काष्ठ के साथ नहीं मिलाए जाते थे। शाल एवं शालक शुभ माने गए परन्तु चार से अधिक काष्ठों का मिश्रण सही नहीं माना गया। 

शय्या में गजदंत लगाना शुभ माना जाता था, गजदंत का पत्र काटना बड़ा सावधानी का कार्य माना जाता था। गजदंत पत्र को काटते समय भिन्न भिन्न चिन्हों से मंगल एवं अमंगल काअनुमान किया जाता था। खाट के पायों में छेद या गाँठ बहुत अशुभ समझे जाते थे। 

गरुड़ पुराण में पुरोहित को दान करने के लिए खाट का सुंदर वर्णन किया गया है, उसमें दान के लिए शीशम की सोने चांदी की झालर से अलंकृत एवं कोमल रेशम के तंतुओं से बुनी हुई खाट ही उपयुक्त मानी गई है। इस प्रकार एक सुख एवं मंगलकारी खाट का निर्माण कठिन समस्या ही हुआ करती थी। 

कोणार्क के सुर्य मंदिर की एक प्रतिमा में जोड़े को सुंदर खाट पर मिथुनरत दिखाया गया है। इस खाट की पाटियां सुंदर पत्रावलियो एवं बेलबूटों से अलंकृत है तथा मच्छरदानी (कीट रक्षिका) का प्रयोग भी दिखाई देता है। शिल्पकार ने अपने शिल्प में दिखाया है कि तत्कालीन समय में लोग मच्छरदानी का प्रयोग करते थे। मच्छरदानी भी सुंदर सूत्र के गुच्छों से अलंकृत दिखाई देती है तथा उसके उपर दो चूहे भी घूमते दिखाई दे रहे हैं। यह शिल्पांकन का सबसे सुंदर पक्ष है। 
गंडई छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिर में शय्यारत स्त्री का शिल्पांकन।
वृहत संहिता से यह भी पता चलता था कि सभी व्यक्तियों के लिए एक जैसी खाट या शय्या का निर्माण नहीं होता था। भिन्न भिन्न पद एवं मर्यादा के व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न नाप की खाट बनती थी तथा शय्या के कुर्च थान (सिरहाने) पर व्यक्ति के इष्ट देव की कलात्मक प्रतिमा रखने का भी चलन था तथा खाट को पुष्पों से अलंकृत भी किया जाता था। 

वर्तमान में इस ज्ञान का लोप हो गया। अब इस प्रकार के काष्ठ ही नहीं बचे कि शास्त्रों में निर्धारित किए गए मानों के आधार पर खाट का निर्माण हो।

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