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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक शिल्पाचार्य विश्वकर्मा

आज माघ सुदी त्रयोदशी है, इस दिन शिल्पाचार्य भगवान विश्वकर्मा की जयंती संसार में धूम धाम से मनाई जाती है. आज भारत के शिल्पियों को मेरा लेख समर्पित है. 

भारत में शिल्पकार्य का लाखों साल पुराना इतिहास है. आज जिसे हम इंड्रस्ट्रीज कहते हैं उसे वैदिक काल मे शिल्पशा्स्त्र या कला ज्ञान कहते थे। 

इसके जानने वाले विश्वकर्मा या शिल्पी कहलाते थे। उस समय हमारा विज्ञान चरम सीमा पर था. ग्रहों की चाल जानने के लिए वेध चक्र और तुरीय यन्त्र (दूरबीन) बनाया गया, 

इसी तरह इनके पास कम्पास भी था. कम्पास का सिद्धांत चुम्बक की सुई पर अवलंबित है.  

वैशेषिक दर्शन में कणाद मुनि लिखते हैं कि-- 
"मणिगमनं सू्च्यभिसर्पणमदृष्टकारणम् । "

अर्थात चुमबक की सुई की ओर लोहे के दौड़ने का कारण अदृष्ट है, यह लोह चुम्बक सुई के अस्तित्व का प्राचीनतम प्रमाण है। 

इस तरह हस्तलिखित शिल्प संहिता, जो गुजरात के अणहिलपुर के जैन पुस्तकालय मे है, उसमे ध्रुवमत्स्य यंत्र बनाने की विधि स्पष्ट रुप से लिखी मिलती है। इसके साथ ही इस शिल्प संहिता में  थर्मा मीटर और बैरो मीटर बनने की भी विधि लिखी है. वहां लिखा है कि--

" पारदाम्बुजसूत्राणि शुक्लतैलजलानि च। बीजानि पांसवस्तेषु।"  
अर्थात पारा, सूत, तेल और जाल के योग से यह यन्त्र बनता है. शिल्प संहिताकार कहते हैं कि इस यन्त्र के निर्माण से ग्रीष्म आदि ऋतुओं का ज्ञान होता था तथा जाना जाता था कि कितनी सर्दी और गर्मी है. इनका वर्णन सिद्धांत शिरोमणि में भी है. इसके अतिरिक्त वैदिक काल में धूप घडी, जल घडी और बालुका घडी का भी निर्माण कर लिया गया था.

ज्योतिष ग्रंथों में लिखा है कि- 

तोययंत्रकपालाद्यैर्मयुरनरवानरै:। ससूत्ररेणुगर्भश्च सम्यक्कालंअ प्रसाधयेत्।
जल यंत्र से समय जाना जाता है, मयूर,नर,वानर की आकृति के यन्त्र बनाकर उनमे बालू भरने और एक ओर का रेणु सूत्र दुसरे में गिरने से भी समय नापने का यन्त्र  बन जाता है. इस प्रकार के दूरबीन, कम्पास, बैरोमीटर,  और घडी आदि यंत्रों के बन जाने से प्राचीन काल में ग्रहों की चाल, उनसे उत्पन्न हुए वायु वेग की दिशा, गर्मी का पारा और समय आदि का ज्ञान संपादन करने में सुविधा होती  थी. 

इतना ही नहीं, किन्तु उन्होंने स्वयंवह नामक यन्त्र भी बना लिया था. जो गर्मी या सर्दी पाकर अपने आप चलने लगता था. इसका वर्णन सिद्धांत शिरोमणि में इस प्रकार आया है- 

तुंगबीजसमायुक्तं गोलयंत्र प्रसाधयेत्। गोप्यमेतत्  प्रकाशोक्तं सर्वगम्यं भवेदिह। 

अर्थात पारा भरकर इस गोल यन्त्र को बनावें. यह यंत्र थोड़ी सी भी हवा चलने से, गर्मी पाकर अपने आप ही चल पड़ता है था. तूफान और मानसून जानने के लिए आज तक जितने भी यंत्र बने हैं, इसकी खूबी को एक भी नहीं पकड़ पाया है. 

मेरा यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि भारत वैदिक काल में वैज्ञानिक प्रगति के उत्कर्ष पर था. जिसे इस स्थिति में पहुँचाने के लिए विश्वकर्मा के वंशजों ने अपनी सम्पूर्ण कार्य कुशलता का परिचय दिया तथा समाज को भौतिकता युक्त सभ्य बनने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. 

आज उन्ही भगवान विश्वकर्मा जी की जयंती है. जो माघ सुदी त्रयोदशी को मनाई जाती है. मेरा उनको शत-शत नमन है.

12 टिप्‍पणियां:

  1. विश्वकर्मा जयंती की शुभकामनाएँ.

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  2. अत्यन्त सुन्दर एवं जानकारीयुक्त लेख! आज नेट में हिन्दी को ऐसे ही जानकारीपूर्ण लेखों की अत्यन्त आवश्यकता है।

    विश्वकर्मा हमारे देवताओं के इंजीनियर थे और मय दानव राक्षसों के। अपने समय में दोनों अपना सानी नहीं रखते थे। इन्द्र की अमरावती का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था और रावण की लंका का मय दानव ने।

    यदि वैशेषिक दर्शन पर शोध किया जाये तो अवश्य ही हमारे देश के प्राचीन विज्ञान प्रकाश में आयेगा।

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  3. आज इस पोस्‍ट की सचमुच आवश्‍यकता थी .. प्राचीन भारत पूर्ण तौर पर संपन्‍न था .. इसी कारण कला का इतना विकास हो सका था !!

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  4. आपको भी माघ सुदी त्रयोदशी की हार्धिक शुभकामनाये !

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  5. सुंदर जानकारी
    शुभकामनाएँ विश्वकर्मा जयंती की

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  6. भगवान् विश्वकर्मा के बारे में अच्छी जानकारी मिली । आभार ।

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  7. आज पकड़ में आये। लीजिए संभालिये इस टिप्पणि को दो दिन से लादे फिर रहा हूं। जो आपकी पिछली छोटी-छोटी, छोटी-छोटी पोस्टों को देख कुलबुला रही है।

    "पोस्टें देख लग रहा है, जागे हो रात को" :) :) :)

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  8. यह अच्छी जानकारी है ..अन्यथा लोग 17 सितम्बर विश्वकर्मा पूजा को ही जयंती समझते हैं ।

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