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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जीने के लिए समर जारी है यहाँ

घर गृहस्थी चलाना एक गृहस्थ का कर्तव्य माना गया है। इस जिम्मेदारी को व्यक्ति स्वयं धारण करता है और परिवार का पालन-पोषण करता है। लेकिन जब वह अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाता है तो फ़िर घर की महिलाओं को जिन्दगी के मैदान-ए-जंग में आना पड़ता है और लड़ाई लड़नी पड़ती है।

ऐसा ही मैने देखा है, एक गुमटी चलाने वाला लड़का जब अपनी जिम्मेदारी से विमुख होकर दिन भर दारु पीकर घुमता है तो उसकी जगह उसकी पत्नी को लेनी पड़ती है। आखिर घर गृहस्थी चलाना है परिवार का भरण-पोषण करना है।

बरसों से देखता था कि एक मोची का लड़का बस स्टैंड में अपनी दुकान लगाता था। उसकी दुकान भी अच्छी चलती थी। दिन में बढिया कमाई हो जाती थी। लेकिन उसे दारु का चस्का लग गया।

कभी जूते पॉलिश करने भेजता था तो वह दुकान से गायब रहता था। पूछने पर पता चला कि काम करने के बाद जब उसके पास दारु खरीदने के पैसे हो जाते हैं तो पहले दारु ही पीता है फ़िर कहीं पड़ा रहता है। लेकिन काम बंद कर देता है। इस तरह उसकी दुकान ठप्प हो गयी।

कल जब मैं वहां पहुंचा तो उसकी पत्नी को काम करते देखा। आस पास वालों से पूछने पर पता चला कि वह लड़का तो महीनों से नहीं आ रहा है। उसकी पत्नी ही इस काम को कर रही है।

मैं दूर खड़ा देखता रहा उसे। वह बड़ी कुशलता से जूते में टांका लगा रही थी। सिलाई कर रही थी। उतनी कुशलता से ही रांपी से चमड़ा काट रही थी। शायद उसे सिद्ध होने में कुछ समय तो अवश्य ही लगा होगा। ग्राहक भी उसकी दुकान पर दिख रहे हैं।

बच्चे स्कूल जा रहे हैं, बसें घर्र घर्र करती जा रही हैं सामने से। कोट पैंट वाले बाबूजी की निगाहें तलाशी ले रही हैं। बगल में खड़ा सिपहिया डंडा घुमा रहा है,उसकी पान की पीक का भित्ति चित्र सड़क पर प्रदर्शित है, बगल में झबरा कुत्ता झपट्टा मार रहा है, बस से फ़ेंकी हुई पालीथिन पर,यहां जीने के लिए समर जारी है।

जीजिविषा से उसकी लड़ाई प्रत्येक टांके के साथ चल रही है। निरंतर ब्रश के एक घिस्से के साथ गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर लाने की जद्दोजहद जारी है। शायद इसी से उसकी जिन्दगी में जूते की “टो” जैसी चमक आ जाए। अमरीका स्कूल ससुराल चली जाए, बड़कु बाबु साहब बन जाए।

दारु छोड़ कर धनिया सुधर जाए,बस यही उद्देश्य है जीवन का। जिस विकास के सूरज की किरणों के उजास की प्रतीक्षा सदियों से थी, वे गरीबों की झोपड़ी में उजास नहीं फ़ैला पाई हैं।

शायद सदियाँ और गुजर जाएं इसके चेहरे पर मुस्कान आने में। जो कैद है कलदार की खनक में सदा की भांति। उसे अभी तक रिहाई नहीं मिली है,रिहाई बाकी है। रिहाई जारी है...................?

24 टिप्‍पणियां:

  1. इस जिम्मेदारी को व्यक्ति स्वयं धारण करता है और परिवार का पालन-पोषण करता है। लेकिन जब वह अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाता है तो फ़िर घर की महिलाओं को जिन्दगी के मैदान-ए-जंग में आना पड़ता है और लड़ाई लड़नी पड़ती है.....ऐसा क्यों ?.........मैंने भी ऐसी कई महिलाओं को देखा है कभी विस्तार से लिखना होगा मुझे भी ...आभार आपका.....

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  2. ये नशा भी एक विडम्बना ही है न जाने कितने घरों को बरबाद कर रहा है ये !!

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  3. बहुत अच्छा शब्दचित्र अपनी अपनी मजबूरी और समस्याओं से जूझने का !

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  4. रिहाई बाकी है। रिहाई जारी है........काश! मिल पाती जल्द!

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  5. एक व्‍यक्ति की लत से पूरे परिवार का जीवन तबाह हो जाता है !!

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  6. ललित जी इन निम्‍न आय वर्ग वाले परिवारों का यही हाल है, यहाँ अधिकांश महिलाएं ही काम करके परिवार का संचालन करती हैं। उनके दिमाग में आदमी की एक अलग ही तस्‍वीर है इसलिए वे रोना-धोना भी नहीं करती हैं। हमारे यहाँ हरिजन बैठकर दारू पीती है और उसकी पत्‍नी काम करती है। जब पत्‍नी काम करने लायक नहीं र‍हती तो दूसरी शादी कर लेता है और उसका दारू पीना बदूस्‍तर जारी रहता है। अजब दुनिया है यह।

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  7. क्या करे ...जब पति को जिम्मेदारी का ख्याल नहीं तो पत्नी को तो जिम्मेदारी उठाना ही होगा .

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  8. क्या करे ...जब पति को जिम्मेदारी का ख्याल नहीं तो पत्नी को तो जिम्मेदारी उठाना ही होगा
    bilkul sahi kaha hai kusum ji ne

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  9. अजीत जी ने सही कहा है ..इस वर्ग के पुरुष स्त्रियों पर ही आश्रित रहते हैं ...और अपना खर्चा चलाने के लिए दूसरी स्त्री को ले आते हैं ...यह रिहाई कब होगी ..होगी भी या नहीं ....

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  10. शायद सदियाँ और गुजर जाएं इसके चेहरे पर मुस्कान आने में। जो कैद है कलदार की खनक में सदा की भांति। उसे अभी तक रिहाई नहीं मिली है,रिहाई बाकी है। रिहाई जारी है...................?


    वो सुबह कभी तो आएगी...?

    ..

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  11. हर तरफ विडंवना ही विडंवना--- दारू औरत का रिश्ता कब खत्म होगा---

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  12. आपने सुन्दर तरीके से दारू से बर्बाद हुए घरों की ओर ध्यान दिलाया . औरतों को दोनों कन्धों पर घर उठाते हमने भी देखा है !

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  13. ललित भाई, देश की अधिकांश जनता ऐसे ही जूझती है रोज, जिंदगी के लिए।

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  14. जूझते जूझते जुझारू बन गए. लेकिन वो सुबह जरूर आएगी.

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  15. दूसरी पोस्ट पर विचरण करते करते जब आपकी पोस्ट पर आता हूँ तो वास्तविक धरातल पर पाता हूँ | आपकी पोस्ट समाज की कटु और वास्तविक तस्वीर होती है |

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  16. कैसी बिडम्बना है..पर सच ये भी है कि इस वर्ग का यही हाल है..

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  17. वास्तविक जिन्दगी का सजीव चित्रण किया है आपने आपको इसके लिए धन्यवाद

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  18. विडंवना ही विडंवना है, जूझती जिंदगी !

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  19. शायद सदियाँ और गुजर जाएं इसके चेहरे पर मुस्कान आने में। जो कैद है कलदार की खनक में सदा की भांति। उसे अभी तक रिहाई नहीं मिली है,रिहाई बाकी है। रिहाई जारी है...................?

    बहुत ही ठेक प्रश्न किया है आपने... क्या कभी ..?? मैं भी 'उन सब' से यही पूछना चाहता हूँ.

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  20. ... maarmik abhivyakti ... jvalant samasyaa - nashaa khoree ... behatreen post !!!

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  21. मार्मिक आलेख, सत्य ऐसा ही कडुआ होता है. जिससे हम आंखे फ़ेरकर चलते हैं.

    रामराम.

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  22. ऎसे पति को पकड के खुब मारो, ओर दो दिन तक खाना ना दो, जब कमा कर लाये तो ही खाये, ऎसे हरामी बहुत मिलते है, ओर गलती इन की मां की होती है जो बचपन मै इन्हे ज्यादा लाड प्यार मै बिगाड देती है, ओर बला किसी मासूम लडकी के गले बांध कर आप मर जाती है, ओर उस लडकी की जिन्दगी भी दुभर हो जाती है, बेचारी जाये तो कहां जाये?ललित जी इस नमुने को जरुर सबक सिखाओ.

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