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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

उदय और आम्रपाली के साथ छुक-छुक गाड़ी में--- ललित शर्मा

अभनपुर जंक्शन
भाई दूज मनाने का चलन बढा, जब से गाँव के घर-घर में गाड़ियाँ हुई, लोग पहुंच जाते हैं बहन-बेटियों के घर। हाल चाल के साथ साक्षात्कार भी हो जाता है, बहन-बुआ भी खुश कि पीहर से भाई-भतीजा आया है मिलने। बेटी माई की लगन पीहर के लिए सदा लगी रहती है, भावनात्मक रिश्ता सदियों से कायम है, जब-जब कोई त्यौहार आता है तो इनकी याद आ ही जाती है, बचपन के दिन बरबस याद आ जाते हैं, जब साथ मिल कर त्यौहार मनाते थे। पीहर के लिए बेटियों का हृदय उमड़ता रहता है, माता-पिता भाई-भौजाई से मिलने की आस लगी रहती है। कुछ दिनों पहले मेरी मुलाकात मेरे दादा की 107 वर्षीय बड़ी बहन से हुई, पापा की तरह हम भी उन्हे बुआ ही कहते हैं। कहते हैं कि जब तक माँ-बाप हैं तक ही मायका है, उसके बाद तो कोई आए-जाए वही बड़ी बात है। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो खाट से उठ कर मेरे पास आकर बैठ गयी, पता चला कि मेरे पहुंचने पर कई दिन बाद खाट से उठ कर चली हैं। मायके से पोते की आने की खुशी ने उनमें फ़ुर्ती भर दी। उन्होने मेरा दुलार किया और मेरे साथ आने का बाल हठ करने लगी। उन्हे इस अवस्था में घर तक लाना मुश्किल काम था, लेकिन मायके को देखने की ललक कायम थी, उन्होने मुझसे पुरे परिवार के विषय में जानकारी ली। बड़ा अच्छा लगा उनसे मिलकर और स्नेह पाकर। बड़ी बुआ, बुआ, बहन और बेटियाँ चार पीढियाँ मौजूद हैं।

खुली खिड़की
जब से होश संभाला, तब से देख रहा हूँ ,मेरे घर के बगल से छोटी रेलगाड़ी को आते-जाते। जब कोयला वाले इंजन हुआ करते थे, छुक-छुक करती रेल जब सीटी बजाती थी हम दौड़ कर रेल देखने पहुंच जाते थे, सवारियों को हाथ हिला कर टा टा बाय बाय करते, इंजन भी हमें देख कर ढेर सारा धूंवा उगल कर अभिवादन स्वीकार करता। काली टोपी लगाए ड्रायवर और कोयला डालने वाला भी बेलचा थामे हाथ हिलाता। प्रतिदिन का ही काम था, ड्रायवर भी पहचानने लगे थे। कभी एक दो पैसे का सिक्का पटरी पर रख कर उसकी गति भी देखते थे, सिक्का फ़ैल कर चिकना हो जाता। रेल्वे स्टेशन के पास एक ईमली का पेड़ था, कभी स्कूल से बंक मारकर ईमली तोड़ने पहुंच जाते, एक दो पत्थर स्टेशन मास्टर की कुटिया की छत पर गिरते तो वह बाहर आकर चिल्लाता तथा कमरे में बंद करने की धमकी देता। हम डर कर भाग जाते, अगले दिन फ़िर वही हरकतें शुरु हो जाती। स्टेशन मास्टर के बच्चे भी हमारे साथ पढते थे, इसलिए स्टेशन मास्टर उत्पात झेल लेते थे। 112 साल से लगातार इस रेल लाईन पर गाड़ी चल रही है। सड़क मार्ग से साधन होने के कारण ट्रेन में दो-चार बार ही यात्रा करना नसीब हुआ। रायपुर से धमतरी, राजिम के लिए यह छोटी रेल चलती है, अभनपुर आकर एक लाईन धमतरी और दूसरी राजिम के लिए विभाजित हो जाती है, इसलिए अभनपुर जंक्शन रेल के मानचित्र में प्रमुखता से दिखाई देता है। कुछ दिनों बाद यह रेल बंद हो जाएगी, इसकी जगह बड़ी लाईन बनने वाली है।

छोटी गाड़ी का डिब्बा
बच्चे रोज रेल को देखते हैं, लेकिन इन्हे इसकी सवारी करने का कभी मौका नहीं मिला। लोग टॉय ट्रेन की सवारी करने मेले ठेले में जाते हैं, हमारे घर के पास से गुजरी ट्रेन में कभी बच्चे बैठे नहीं यही सोचकर निर्णय लिया कि भाई दूज के दिन बुआ जी के घर धमतरी चला जाए, भाई दूज भी मन जाएगी और बच्चे भी छुक-छुक गाड़ी की सैर कर लेगें। अभनपुर से धमतरी पहुंचने में 2 घंटे लगेगें, इसके हिसाब से बच्चों के लिए नाश्ता-पानी रख लेगें। शाम को तय हुआ कि बच्चा पार्टी और मैं सुबह 8 बजे वाली गाड़ी से धमतरी जाएगें और शाम 6 बजे धमतरी से आने वाली ट्रेन से वापसी करेगें। इस तरह एतिहासिक गाड़ी का सफ़र हो जाएगे। पुराने भूले बिसरे स्टेशनों एवं पैसेंजर हाल्ट की याद भी ताजा हो जाएगी। 1985 के आस-पास भाप के इंजन बदल गए, तब से डीजल इंजन चल रहे हैं। गाड़ी की स्पीड भी बढी है, जब डीजल इंजन प्रारंभ हुए थे तब अभनपुर से रायपुर पौन घंटे में पहुंच जाते थे। लेकिन पटरियों की जीर्ण हालत को देखते हुए गति कम कर दी गयी, अब सवा घंटा लग जाता है। ट्रेन भी स्टेशन तक न जाकर तेलीबांधा में ही रोक दी गयी है। बहुत कुछ बदलाव हो चुके हैं। अभनपुर से रायपुर का किराया 5 रुपया और धमतरी का किराया 7 रुपए है।

हनी
सुबह जल्दी उठने के बाद बच्चा पार्टी को जगाने लगा। कोई जागने को तैयार नहीं था, आदि ने आँख खोल कर देखा और जाने से मना कर दिया और फ़िर आँखे बंद कर ली। श्रेया-श्रुति के कान पर जूँ नहीं रेंगी, खूब जगाने पर भी नहीं जागी। उदय जाग गया एक आवाज में और तैयार होने बाथरुम में घुस गया। हनी भी जाग गयी, लेकिन हनी को ले जाने से परेशानी होनी थी, वह सुबह से शाम तक बिना श्रेया-श्रुति के नहीं रह सकती थी, मुझे हलाकान करती, उसे मना कर फ़िर सुला दिया, अब उदय और मुझे ही जाना था। स्टेशन पर पहुंच कर टिकिट ली, उदय की आधी और मेरी पुरी टिकिट 11 रुपए की आई। सोचा था कि ट्रेन में भीड़ नहीं होगी, लेकिन भाई दूज का असर इस ट्रेन पर भी दिखा। पहले इस ट्रेन में सिर्फ़ दो डिब्बे ही लगते थे, इसलिए इसे ग्रामीण दूडबिया गाड़ी कहते थे, अब 6 डिब्बे लगते हैं। एक डिब्बे में बैठने की जगह मिल गयी, उदय ने भी खिड़की की सीट संभाल ली। खिड़की से खेत खलिहान, नदी नाले देखने का मजा बच्चों को बहुत आता है, इसलिए खिड़की की सीट पर बैठना उन्हे अच्छा लगता है। उदय नजारों का मजा लेगा और मैने अपने साथ वैशाली की नगरवधू अम्बपाली को ले लिया,डेढ दो घंटे का सफ़र मजे से कट जाएगा।

स्टेशन पर भाई दूज
धमतरी,राजिम और रायपुर से आने वाली ट्रेन एक साथ ही स्टेशन पर पहुंचती है। दो महिलाएं धमतरी वाली ट्रेन से उतरी और दो पुरुष रायपुर वाली ट्रेन से, स्टेशन पर जय जोहार हुई भाई बहनों में। स्टेशन की बेंच पर बैठाकर बहनों ने भाईयों को तिलक निकाल कर मि्ठाई खिलाई, स्टेशन पर ही भाई दूज मनी देख कर बम्बई की आपा-धापी याद आ गयी, अब गाँवों पर भी शहरों का असर हो रहा है, समय कम होने पर परम्पराओं के कायम रखने की खुशी भी हैं। ट्रेन स्टेशन तो छूटी तो एक जोड़ा बच्चे सहित ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ने लगा। उन्हे देख कर गार्ड ने ट्रेन रुकवा दी। इस ट्रेन में टी-टी नहीं हैं, गाड़ी संचालन खर्च कम करने के लिए टी टी और क्रासिंग के गेट मेन हटा दिए, जब ट्रेन क्रासिंग पर पहुंच कर रुकती है तो एक गेट मेन ट्रेन से उतर कर गेट बंद करता है तब ट्रेन आगे बढती है। रायपुर से धमतरी तक सभी क्रासिंग पर यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस ट्रेन के संबंध में एक बार इंडिया टूडे में छपा था कि एक सब्जी वाली का टोकरा गिर जाने के कारण लोको पायलट ट्रेन को 7 किलोमीटर रिवर्स ले आया था। यात्री सेवा की इतनी बड़ी मिसाल पुरे भारत में कहीं नहीं मिलेगी। फ़िर भी लोग रेलसेवा को कोसते हैं।:)

जानकी बाई
ट्रेन चल पड़ी, उदय खिड़की से नजारे देख रहा था, भीड़ की धका पेल जारी थी। मेरे सामने एक वृद्धा बैठी थी, उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था। थोड़ी देर में दिमाग की बत्ती जल गयी, ह्म्म, ये तो फ़लाने सेठ की नौकरानी जानकी है, दांत झर गया है इसलिए पहचान नहीं पाया, उसने भी मुझे बचपन में देखा था इसलिए वह भी नहीं पहचान पाई, उससे बातचीत चली तो पहचान कर खुश हो गयी, अपने द्वारा सेठ के घर में 40 सालों तक किए गए काम का बखान करने लगी। उसकी यादों के पुराने पन्ने खुल चुके थे, उसके मोहल्ले के आस-पास के पुराने लोगों की चर्चा होने होने लगी। पहला स्टेशन चटौद आ चुका था, गाड़ी रुकी, सवारियाँ चढी और फ़िर चल पड़ी, अगला स्टेशन सिर्री था, साहू बाहुल्य बड़ा गाँव है, कुरुद ब्लाक का। थाना अभनपुर लगता था, शायद अब बदल कर कुरुद या भखारा हो गया हो गया होगा। जानकी बाई की कथा जारी थी, सेठ का गुणगान जारी था। सिर्री से गाड़ी आगे चलने पर एक गाँव अछोटी में गाड़ी के ब्रेक लग गए, यहाँ स्टॉप तो नहीं था पर सवारी को विशेष सुविधा देने के लिहाज से उसके उतरने तक गाड़ी रोक दी गयी। इस रुट पर गाड़ी गार्ड और पायलट की मर्जी से चलती है, रेल्वे के सारे कानून और नियम बस्ते में बंद रहते हैं।

सरसोंपुरी स्टेशन
कुरुद से चलकर सरसोंपुरी फ़िर संबलपुर फ़िर डेढ घंटे के भीतर गाड़ी धमतरी पहुंच चुकी थी। धमतरी स्टेशन पर उतर कर बुआ जी के घर पहुंचे। कुछ देर बाद याद आया कि डीआईजी हिमांशु गुप्ता जी भी धमतरी में ही हैं, उन्हे फ़ोन लगाया तो पता चला कि कुछ तबियत नासाज है, मैने फ़िर कभी धमतरी आने पर मिलने का वादा किया। अम्बपाली वैशाली के कानून को धिक्कृत कर रही थी, वैशाली के कानून धिक्कृत कहने के कारण संथागार में उत्तेजना फ़ैली हुई थी, वैशाली ने जनपद कल्याणी का पद ग्रहण करने के लिए तीन शर्तें रख दी थी। उसके पिता महानामन भरी सभा में अपनी बात रख रहे थे। नगर के श्रेष्टी और युवा अम्बपाली के शर्तों को मानने के लिए तैयार थे। गणपति ने आखरी शर्त में संसोधन के साथ अम्बपाली की शर्ते मान ली और महाबलाधिकृत क्रोध के मारे अपने पैर पटक रहे थे। वाद-विवाद के पश्चात महाबलाधिकृत अम्बपाली को शर्ते मानने की सूचना देने नीलपद्मप्रासाद में पहुंच गए। अम्बपाली उनकी खबर ले रही थी और मुझे नींद आ गयी।

भाई दूज
शाम 5 बजे नींद खुलने पर पता चला की अम्बपाली की शोभायात्रा सप्तप्रसाद पहुंच रही है, उसका जनपद कल्याणी के पद पर अभिषेक कर दिया गया। इधर हमारी भी वापसी का समय हो रहा था। बुआ जी ने तिलक लगा मौली बांध कर भाई दूज की परम्परा का निर्वहन किया। उदय भी बुआ जी के घर पहली बार पहुंचा था। छुक छुक ट्रेन के माध्यम से मिलन संभव हुआ। स्टेशन पर ट्रेन लग चुकी थी। मै गार्ड से कुछ जानकारी ले रहा था, तभी गोविंद दारु के नशे में हिलते डुलते पहुंचा, मेरे से पा लागी किया और गार्ड को नमस्कार और बोला - पहचाने क्या आप मुझे? गार्ड ने इंकार किया, तो बोला लखन के बहिन दमांद हंव। तो मैने कहा फ़िर टिकिट लेने की क्या जरुरत हैं, बैठो गाड़ी में, पहचान तो बता ही दिए हो। वह ट्रेन में बैठ लिया। भारतीय रेल इस तरह छोटी गाड़ी की सेवा बेरोकटोक 112 वर्षों से दे रही है, जो टिकिट ले उसका भी भला, जो न ले उसका भी भला। गंतव्य तक साधुभाव से बिना किसी भेदभाव के पहुंचा रही है। ईंजन ने सीटी बजा दी मैं, उदय और अम्बपाली चल पड़े गंतव्य की ओर............।

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

जब तक दीए में तेल-तब तक चलता रहे खेल --- ललित शर्मा

दीवाली से दो चार दिन पहले सुवा नाचने वाली बालिकाओं एवं महिलाओं के दल आने शुरु हो जाते हैं। साहित्य जो स्थान कोयल को प्राप्त है, वही स्थान छत्तीसगढ में सुवा को मिला हुआ है, विरहणी सुवा के माध्यम से अपना प्रेम संदेश परदेशी पिया तक पहुंचाती है, एक टोकरी में धान के उपर मिट्टी के सुवा (तोते) बना कर रखकर सुवा गीत गाते हुए उसके ईर्द गिर्द परम्परागत नाच किया जाता है। गेट पर सुवा नाचने वाली बालिकाएं उसे बंद देखकर वापस जाने लगती लगती है, अचानक मेरी निगाह उन पर पड़ती है और उन्हे भीतर बुलाता हूँ- "बने असीस देवो भई, कैईसे जात हव", सुनकर वे खुश हो जाती हैं, और अपनी टोकरी जमीन पर रख कर होम धूप देकर सुवा गीत के साथ नाच प्रारंभ करती हैं। घर से उन्हे उपहार स्वरुप चावल और नगद पैसे दिए जाते हैं और हमारी दीवाली शुरु हो जाती है, सुवा नृत्य के साथ। सब तरफ़ आधुनिकता की मार से परम्पराएं घायल हो रही हैं,वर्तमान में परम्पराओं को जीवित रखना भी कठिन हो गया है। जब तक चल रहा है तब तक अपनी परम्पराओं के साथ जीने का आनंद लिया जाए।

एक तरफ़ नकली खोवे के हल्ले ने बाजार की मिठाईयों की वाट लगा दी, दूसरी तरफ़ ड्रायफ़्रूट वाले चाँदी काटते रहे। दीवाली के गिफ़्ट के रुप में ड्रायफ़्रूट का लेन-देन फ़ैशन बन गया है। मंत्रियों-संत्रियों के यहाँ तो इतना माल जमा हो गया कि एक दुकान ही खुल जाए, चचा बोले कितना खाओगे यार, डायबिटिज से लेकर हायपरटेंशन तक हाऊस फ़ुल है, अधिक होने पर हौसखास होकर हौस गायब हो सकता है। लेकिन क्या करें दिल मानता ही नहीं है, मामला सात पुश्तों का है, हमारी संस्कृति में पूण्य,पाप एवं कमाई सात पीढी तक चलने की मान्यता है, अब नेता भी इसमें पीछे क्यों रहें, एक बार कूर्सी पाओ और सात पुश्तों तक दीवाली पर तर माल का इंतजाम हो जाना चाहिए, नहीं तो आने वाली औलादें कोसेंगी। सात पुश्तों तक का इंतजाम करने के कारण चौराहे पर मुर्ती लगने की गारंटी रहती है, मुर्ती से प्रेरणा पाकर आदर्शों पर चलने की लोग कोशिश करते हैं, कोई एकाध बंदा ही इसमें सफ़ल हो पाता है। वही सच्चा अर्हत कहलाता है जिसने पिता की उपसम्पदा प्राप्त कर ली।

रेल्वे ब्रिज पर चढ रहा था, मेरे से दो पैड़ी पहले सफ़ेदपोश नेता जी भी चढ रहे थे। उपर से आने वाले दो लड़कों ने उन्हे देख कर "पाय लागी भैया, बने बने" कहा। नेता जी ने खुश हो कर उन्हे बड़ा लम्बा आशीर्वाद दिया,"खुस राह, बने बने, अउ तोर बाबू के का हाल-चाल है, लड़कों ने कहा -"जम्मो हां बने हे। वार्तालाप होते-होते नेताजी उपर की पैड़ी पर पहुंचे और दोनो लड़के मेरे बराबर में। लड़के ने कहा -" साले नेता बने हे :)" क्या जमाना आ गया, सफ़ेदी कभी शुचिता की परिचायक थी, उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, वहीं अब भ्रष्ट्राचार का प्रतीक बन गयी है, जनता के दिल में अब इसके प्रति सम्मान का भाव नहीं रहा। अगर सामने तारीफ़ तो पीठ पीछे गालियों प्रसाद मिलना तय है। इसका कारण नेताओं के झूठे वादे और सात पीढी तक का इंतजाम करने की प्रवृत्ति है। ये नहीं सुधरेगें और हम भी नहीं बदलेगें।

झंगलु सुबह से ही मालिक के दरवाजे पर मड़िया कर (घुटने मोड़े) बैठा है, मालिक पूजा पाठ करके बाहर आएं तो वह भी मजदूरी के रुपयों से कुछ बच्चों के लिए खरीदे, त्यौहार तो सबके लिए  हैं। दोपहर को मालिक के दर्शन होते हैं, मालिक ने बैठक में आते ही झंगलु के आने के कारण पूछा तो झंगलु ने मजदूरी के बारे में कहा। मालिक का कहा- आज तो लक्ष्मी पूजन है, इसलिए किसी को आज रुपया पैसा देने का विधान नहीं है और कल गोवर्धन पूजा, इसलिए परसों आकर ले जाना। झंगलु ने गरीबी बता कर असमर्थता जतायी, अगर रुपए नहीं देगें तो वह त्यौहार कैसे मनाएगा? मालिक उठकर भीतर गए और कागज में लपेट कर एक बोतल लेकर आए, बोतल देखते ही झंगलु की आँखों में चमक आ गयी, अब उसकी दीवाली तो मन गयी, बीबी-बच्चे जाएं भाड़ में। वह मालिक की जै-जै कार करके चला गया घर की ओर।

गोवर्धन पूजा से मुटरु यादव का गाड़ा बाजा शुरु हो जाता है, सोहाई बांधने से लेकर जोहारने तक चलता है, जो राऊत दल अधिक मंहगा बाजा लगाता है उसे बड़ा समझा जाता है, जब से मैने देखा है तब से मुटरु का दल बड़ा और बजनियों की संख्या भी अधिक होती है, तीन-तीन मोहरी वाले साथ चलते हैं। घरों घर जब जोहारने का सिलसिला चलता है तो रंग देखते ही बनता है। सभी मस्ती में मस्त रहते हैं, इन दिनों दूध मंहगा और दारु सस्ती होती है क्योंकि पीएगें नहीं तो नाचेगें कैसे? मुटरु शेर-मसाला का इंतजाम देवारी के पहले से ही कर लेता है, दूध की गंगा की जगह दारु की श्यामा बहने लगते है। फ़िर चलता है दोहा बोलने के साथ जोहारने का सिलसिला, जितना मंहगा बाजा, उतनी बड़ी बख्शीश की मांग मालिक से की जाती है, मनवांछित बख्शीश मिलने पर मुटरु खुश होकर असीस देने लगता है, "जैइसन तोर लिए दिए वैसे देबो असीस, रंग महल में बैईठो मालिक जियो लाख बरीस" फ़्रिर चलते-चलते छानी के कवेलु में एक लाठी मार ही देता है, 10-20 कवेलु फ़ूट जाते हैं।

दीवाली धीरे-धीरे आई और गुजर गई, जैसे एक तूफ़ान गुजर गया हो। फ़ुलझड़ी की रोशनी जैसे लगता है सब, दो पल की चकमक और फ़िर वही अंधियार। दीवाली सदा नहीं होती, कुछ पल के लिए आकर खुशियों का अहसास कराती है भले ही खुशियाँ कृत्रिम हों। हँसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना तभी होता है जब जेबें भरी हों, वरना मुस्कुराहट भी दर्द भरी हो जाती है। दीवाली चली गयी, हर आदमी से औकात से अधिक खर्च करा गयी। अब समेटने हैं यत्र-तत्र बिखरे हुए अवशेष। बदलते हुए परिवेश ने दीवाली को दीवाला बनाकर रख दिया। दीवाली अब सिर्फ़ अमीरों का वैभव प्रदर्शन बन कर रह गया है। सोने-चांदी से लेकर गाड़ी-मोटर तक सब अमीर ही खरीदते हैं। गरीब को तो जिस दिन पेट भर खाना खाकर फ़ुटपाथ पर चैन की नींद आ जाए उस दिन को ही वह दीवाली समझ लेता है। जिस दिन जनता हवलदार एक-दो डंडे मारकर पिछवाड़ा गर्म न करे तो दीवाली मना लेता है। किसी ने लाख रुपए के पटाखे चलाए कोई एक फ़ूलझड़ी के लिए तरस रहा है, दीवाली फ़िर भी दीवाली है, जब तक दीए में तेल रहेगा तब तक दीवाली भी चलती रहेगी।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

गृहलक्ष्मी का उल्लू......

भी देवताओं एवं देवियों के पास निजी वाहन हैं, वाहन के विषय में सबकी अपनी-अपनी पसंद है। किसी को गरुड़, किसी को भैंसा, किसी को शेर, किसी को चूहा,  किसी को नंदी बैल, किसी को मोर, किसी को एरावत पसंद है। संसार को चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है और धन की देवी लक्ष्मी को उलूक वाहन पसंद आया। तब से उल्लू की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गए। उल्लू धन की देवी के सानिध्य में रहकर प्रतिष्ठा पा रहा है। उल्लू के साथ उल्लू का पट्ठा और फ़िर उसका पट्ठा अर्थात पूरा खानदान ही धन तक पहुंचने का स्रोत बन गया। धन तो हर किसी को चाहिए। किसी बड़े मंत्री-संत्री का चालक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि सबसे नजदीक और विश्वसनीय वही होता है। अगर किसी को कोई काम हो मंत्री संत्री से तो उस तक पहुंचने का उपयुक्त साधन निश्चित ही चालक है। अगर किस्मत ने साथ दिया तो बड़े-बड़े कार्य भी चालक के माध्यम से सध जाता है। लक्ष्मी जी का वाहन स्वचालित है उसके लिए चालक की आवश्यकता नहीं। इसलिए विचार करके जब से लक्ष्मी ने उल्लू को अपना वाहन बनाया। तब से उल्लू भी उलूकनाथ देव हो गए। चतुर देव उल्लू बनाकर अपना मतलब साध रहे हैं। लक्ष्मी स्तूति के साथ उलूक स्तुति भी हो रही है।

लक्ष्मी को उल्लू पसंद आने का प्रमुख कारण उसका उल्लू होना है। प्रत्येक गृहलक्ष्मी को स्वचालित उल्लू ही पसंद है, जो उंगली के इशारे पर नाचता फ़िरे। अलाद्दीन के चिराग के जिन्न की तरह "क्या हुक्म है मेरे आका" की तर्ज पर हाजिर रहे। गृहलक्ष्मी चाहती है कि उसका उल्लू सिर्फ़ उसके लिए ही उल्लू हो, पर संसार के लिए न हो। उल्लू के गुण उसे गृहलक्ष्मी के प्रिय बनाते हैं। सिर्फ़ सुनने वाले और जवाब न देने वाले उल्लू की बाजार में मांग अधिक है। बाजार में उल्लुओं की लाईन लगी है, दीवाली डिस्काऊंट पर मनचाहा उल्लू किश्त में भी बुक कराया जा सकता है, लेकिन उल्लू की डिलवरी देव उठनी एकादशी के बाद प्रारंभ होती है। क्योंकि एकादशी के पूर्व सभी साक्षी देव निद्रा में होते हैं और साक्ष्य होश-ओ-हवास में लिया-दिया जाता है। ताकि सनद रहे वक्त जरुरत पर काम आवे। उल्लू के कार्यों को देखते हुए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इसकी पूजा का विधान भी बनाया गया है। साल भर पूजा न हो पर करवा चौथ के दिन सभी गृहलक्ष्मियाँ अपने-अपने उल्लू की दीर्घायु की कामना करते हुए पूजा कर लेती हैं। इससे उल्लू भी निहाल हो जाते हैं और गृहलक्ष्मी भी प्रसन्न, चलो एक बार फ़िर उल्लू को खुश करके उल्लू बनाया।

कुछ उल्लू बने बनाए होते हैं, कुछ बनाने पड़ते हैं। सूर्योदय होते ही उल्लू बनने और बनाने का सिलसिला प्रति दिन शुरु हो जाता है। दूध वाला पानी मिला कर ग्राहक को उल्लू बना जाता है, जब तक दूध में से मेंढक निकल कर बाहर नहीं आए तब तक पता नहीं चलता कि दूध वाला उल्लू बना गया। काम वाली बाई डुबकी मार जाती है तो गृहलक्ष्मी बड़बड़ाती है कि आज फ़िर उल्लू बना गयी। दफ़्तर में बाबू सोचता है कि साहब एक दो फ़ाईलों पर बिना पढे ही साईन कर देते तो कुछ नगद का इंतजाम हो जाता। बस कंडक्टर को सवारी उल्लू बनाने के चक्कर में रहती है तो दुकानदार ग्राहक को डुप्लीकेट सामान थमा कर। ग्राहक दुकानदार को चूरन नोट देकर उल्लू बनाने की कोशिश में रहता है। लड़का बाप को उल्लू बना जाता है, स्कूल में फ़ंक्शन के नाम पर पैसे वसूल कर दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा होता है। लड़की सहेली के घर जाने के नाम पर मुंह पर स्कार्फ़ बांध कर अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ लांग ड्राईव पर निकल जाती है। सब्जी वाला कम तोल कर ग्राहक को उल्लू बनाता है तो ग्राहक भी सब्जी वाले को फ़टा नोट पकड़ा कर उल्लू बनाने के जुगाड़ में रहता है।

उल्लू बनना बनाना सतत चलने वाली प्रक्रिया है। कुछ उल्लू होने के स्वाभाविक गुणों के कारण बड़े -  बड़े पदों पर विराजमान हैं। अगर उल्लूपना नहीं होता तो उनकी सात पुश्तें भी कुर्सी पर बैठना तो दूर,  उसके नजदीक भी नहीं फ़टक सकते थे। राजनीतिज्ञों की भी प्रिय पसंद उल्लू ही हैं। जो भी आदेश मिले पार्टी का, उसे शिरोधार्य करके काम में लग जाओ। अगर किसी बिना तनख्वाह के उल्लू ने उल्लूपना छोड़कर बंदा बनने की कोशिश की तो उसको ऐसा वनवास दिया जाता है कि वापसी की सम्भावनाएं ही खत्म हो जाती हैं। उल्लू बनने के लिए लोग तैयार खड़े हैं बस बनाने वाला चाहिए। देश की जनता तो 60 बरस से उल्लू बन रही है, मंहगाई कम करने का वादा करके 10 गुनी मंहगाई बढा दी जाती है। उल्लू बनाकर नेता अपना घर भर रहे हैं, सरकार भी दो चार नेताओं को जेल में डाल कर जनता को उल्लू बना रही है। जनता उल्लू जैसे आँखे फ़ाड़ कर देख रही है दिल्ली की तरफ़, इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं है। उल्लू बनना जो किस्मत में लिखा है।

कोई उल्लू बनाने में कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहता। विभिन्न उत्पादों के उल्लू बनाने वाले विज्ञापन अखबारों से लेकर चौक चौराहे पर लगे हुए हैं। दीवाली के अवसर पर लोग उल्लू बनने सज-धज के बाजार में निकलते हैं, आधे से अधिक लोगों को विज्ञापन ही घर से बाहर खरीदी के लिए निकालते हैं। कभी जरुरत होने पर ही सामान खरीदे जाते थे, अब गृहलक्ष्मी उल्लू को उल्लू बनाने लिए कुछ भी खरीद लाती है और एक के साथ एक या दो सामान फ़्री में मिलता हो तो फ़िर क्या कहने। रुमाल की जरुरत हो तो फ़्री में पाने के लिए साड़ी खरीद लो, बैग की जरुरत हो तो सूटकेश खरीद लो। टूथ ब्रश की जरुरत होतो, पेस्ट खरीद लो, कैमरे की जरुरत हो तो लैपटॉप खरीद लो, बेचारा उल्लू क्या करेगा? बस आँखे फ़ाड़-फ़ाड़ कर देखेगा। बर्दास्त से बाहर हो जाएगा तो फ़ेसबुक पर दो लाईन लिख कर भड़ास निकाल लेगा या ब्लॉग पर एक पोस्ट लगा लेगा। हमने भी आपको उल्लू बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, अपने उल्लू होने का प्रमाण देते हुए एक फ़ालतू सी पोस्ट लिख कर उल्लू बना कर पढवा दी। कोई कितना भी उल्लू बनने से बचना चाहे पर लेकिन लक्ष्मी की कृपा से उल्लू बनने और बनाने का सिलसिला जारी रहेगा।

दीपावली की हार्दिक शु्भकामनाएं, ज्योति पर्व आपके जीवन में उल्लास, समृद्धि, शांति, धन-धान्य लेकर आए।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

टंकी की नौंटकी मोबाईल टावर तक ---- ललित शर्मा

जादी के लिए नेताओं ने खूब अनशन किए पर प्रेमिका को पाने लिए अनशन का अविष्कर्ता वीरु को ही माना जाता है,वीरु ने टंकी पर नौटंकी की बसंती को मनाने के लिए, उसके अनशन से प्रभावित होकर सारा रामगढ उमड़ आया, कहीं हादसा न हो जाए। दर्शकों ने खूब मजा लिया वीरु के टंकीरोहण का। आज भी लोगों की जबान पर से वीरु के संवाद नहीं उतरे हैं। एक तरफ़ा प्रेम करने वालों को वीरु ने एक नया आईडिया दिया। अब तक न जाने कितने लोग अपनी मांग मनवाने के लिए टंकी पर चढे होगें? उस जमाने में गाँव में टंकियां नहीं होती थी। शोले फ़िल्म से सरकार ने प्रेरणा लेकर गाँव-गाँव में नल-जल योजना के तरह टंकी का निर्माण करवा दिया। अब प्रत्येक गाँव में एक अदद टंकी है। अगर प्रेमी या प्रेमिका नहीं मन नहीं रहे हैं तो शान से टंकी पर चढ कर मान-मनौवल हो जाता है। बसंती भी खुश और मौसी भी खुश। दोनों के सर से भार उतर जाता है। यह टंकी की ही महिमा है जो दो प्रेमियों को मिला देती है, अगर न मिल पाए तो हवालात की हवा खाने का शौक पूरा हो ही जाता है।

समय के साथ टंकी के अनशन की महत्ता कम होती जा रही है, क्योंकि टंकी उंचाई कम होती है। छोटी टंकी पर चढ कर आत्मोसर्ग की धमकी देने पर खतरा रहता है कि कोई पीछे से चढ कर उतार न ले। बंसती भी हाथ से चली जाएगी और जेल में चक्की पीसींग एन्ड पीसींग एन्ड पीसींग हो जाएगा। सरकार ने टंकियों की जगह गाँव-गाँव में मोबाईल के टावर खड़े कर दिए। पहले एक ही टंकी होती थी, अब हर कस्बे में 5-6 मोबाईल टावर तो होते ही हैं। जिसका भी नेटवर्क बढिया हो उसी टावर पर बेझिझक चढा जा सकता है। जो जितने बड़े टावर पर चढता है वह उतनी ही उच्च कोटि का प्रेमी या प्रेमिका समझा जाता है। अगर चचा आज के जमाने में होते तो उन्हे काजी की अदालत में पेश होना नहीं पड़ता। टावररोहण से ही मामला निपट जाता। नगरवासियों की सहानुभूति भी मिल जाती। आम के आम और अचार के भी दाम, मामला फ़िट समझो। किसी नवाब से वजीफ़े में 10-20 उम्दा बोतलें अलग से मिल जाती बख्शीश के रुप में। टेलीफ़ोन टावर ने टंकी की महत्ता को कम कर दिया।

नर और नारी एक समान का नारा जब से चला है तब से नारी भी पुरुषोचित कार्यों में पीछे नहीं हैं।  बराबरी का जमाना जो है। क्यों किसी से कम रहें। धौलपुर के खिरोड़ा गाँव की शादीशुदा बसंती टेलीफ़ोन टावर पर चढ गयी और वहीं से अपने प्रेमी को हांक लगाई। टावर पर चढे-चढे ही चेताया कि उससे शादी करले वर्ना टावर से कूद कर जान दे देगी। मौसी तो थी नहीं, पर वहाँ के एस डी एम तक खबर पहुंच गयी। अधिकारियों के हाथ-पैर फ़ूल गए, वे दौड़े-दौड़े आए। मान मनौवल मनुहार होने लगा। झूठा आश्वासन दिया गया सच्चे जैसा। हामी भी भरी गयी शादी करवाने की। लड़की चाहती थी कि टावर पर चढे चढे ही फ़ेरा हो जाए, पर पंडित तैयार नहीं हुए रिस्क लेने के लिए। बुढौती में टावर से गिर कर बोलो राम हो गया तो उसके बच्चों को कौन पालेगा? आखिर बसंती मान ही गयी। टावर से उतर आयी। मौसी ने खुश होकर उसे नारी निकेतन भेज दिया और वीरु जेल की हवा खा रहे हैं।

एक चोर-पुलिस की प्रेम कहानी घट गयी, चोर और पुलिस का चोली दामन का साथ है, अगर चोर न हो तो पुलिस को कौन पूछे, चोरों ने ही आज तक पुलिस का अस्तित्व कायम रखा है। इनके कुनबे के डकैत, गिरहकट, ठग इत्यादियों से पुलिस रोजी-रोटी चल रही है। एक चोर किसी के घर में चोरी करने घुसा, घर मालिक ने उसे पहचान लिया, दौड़ाने पर वह टेलीफ़ोन के टावर पर चढ गया। वहीं से धमकी देने कि वह सत्यवादी हरिश्चंद्र है, अगर उसे ईमानदारी का प्रमाण पत्र नहीं दिया गया तो वह टावर से कूद जाएगा। तमाशबीनों के हुजूम के साथ अधिकारी भी पहुंच गए। उनके सामने अगर कोई चोर भी आत्महत्या कर ले तो मानवाधिकार का मामला बन जाता है। चोर की सेवा पानी होने लगी, साईक्रीन से भी मीठी बोली में पुलिस वाले मनाते रहे। दण्डाधिकारी भी अपने डंडे को झुकाए मनुहार करते रहे। टीवी चैनल वालों को टीआरपी बढाने का मौका मिल गया, टावररोहण की खबर दिखाई जाने लगी। चोर के हौसले बुलंद हो गए,पुलिस चुपचाप सुनती रही, चोर वाट लगाता रहा। टावर के पावर से गरियाता रहा, आखिर उसने बात मान ली और टावर से उतर आया, उतरते ही पुलिस ने झप लिया और हवालात के हवाले किया। 

मांगे मनवाने के लिए टावर अनशन से कारगर कोई दूसरा उपाए नहीं है। एक झटके में ही टीआरपी मिल जाती है। मीडिया को काम मिल जाता है और निठल्लों को मुफ़्त का तमाशा। वीरु ने भी न सोचा होगा कि उसका फ़ार्मूला इतना कामयाब होगा? फ़िल्म की रायल्टी मिले ना मिले पर टंकीरोहण की रायल्टी पर उसका हक निश्चित ही बनता है। टंकी का टावर के रुप में उन्नयन हो चुका है। अनशन के लिए सर्वोचित माध्यम के रुप में टावर अपनी प्रतिष्ठा बनाने में कामयाब हो गए। लोकपाल बिल के लिए टंकी अनशन करने की बजाए टावर अनशन किया जाता तो सफ़लता मिलने की सौ प्रतिशत गारंटी थी। मामला टंकी अनशन होने के कारण टांय टांय फ़िस्स होता दिखाई दे रहा है। इसलिए वीरु को टंकीरोहण के आईडिया के लिए रायल्टी देकर अनशन के लिए मनचाही कम्पनी के टावर पर चढा जा सकता है। चचा अब टावर अनशन की योजना बना रहे हैं, जिस दिन बोतलों का वजीफ़ा आ जाएगा उस दिन एक बोतल लेकर टावर पर ही मिलेगें। 

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब' -- ललित शर्मा

जीभ गई स्वाद गया, आँख गयी संसार गया। संसार को देखने के लिए आँखों की जरुरत है। जिसकी आँखें नहीं उसे लाचारी का जीवन जीते देखा है, वह कहीं न कहीं कि्सी और पर आश्रित होकर जीवन बिताता है। किसी की आँखे जन्म से ही नहीं होती, वह संतोष कर लेता है कि ईश्वर को यही मंजूर था, जिसकी आँखे थी और किसी की लापरवाही से उसकी रोशनी चली गयी तो उसका जीवन कंटकाकीर्ण हो जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ छत्तीसगढ के बालोद नेत्र शिविर में। ज्ञात हो कि छत्तीसगढ स्वास्थ्य संचनालय द्वारा 1 सितम्बर से 30 सितम्बर तक प्रदेश स्तर पर "नेत्र ज्योति मेले" का आयोजन किया गया था। यह मेला सभी ब्लॉक मुख्यालयों पर आयोजित था। नेत्र शिविर में मरीजों की नेत्र जाँच से लेकर मोतियाबिंद का आपरेशन भी किया गया। एक नेत्र चिकित्सक मित्र को फ़ोन लगाया तो उसने कहा कि "अभी सीजन है, लूवाई (फ़सल कटाई) चल रही है।" कहने का तात्पर्य यह था कि वह आँखों के आपरेशन में व्यस्त है।

नगर के धर्मादा संस्थाओं एवं शासकीय सहयोग से नेत्र शिविर का आयोजन होता है। जिसमें गरीब तबके लोग आँखों का इलाज कराने आते हैं। उनके पास निजी अस्पतालों में जाकर इलाज कराने के लिए धन नहीं होता। इसलिए नेत्र शिविर से लाभ उठाते हैं। बालोद के नेत्र शिविर में चिकित्सकों  की लापरवाही से लगभग 40 मरीजों की आँख की रोशनी चली गयी। उनकी आँख में संक्रमण होकर मवाद भर गया। अब बिगड़ी हुई आँख का कहीं इलाज संभव नहीं है। इसका दुखदाई पहलू यह है कि शासन इस आँख फ़ोड़ू काँड को गंभीरता से नहीं ले रहा है। लापरवाह चिकित्सकों को बचाने की कोशिश उच्च स्तर पर जारी हैं। गरीब का हर जगह मरण है। तीन चार डॉक्टर मिल कर दो दिवसीय शिविर में 300 से अधिक आँखों का आपरेशन कर डालते हैं। तो इसे लुवाई की संज्ञा देने में कोई बुराई नहीं है। संक्रमित शल्य उपकरण जब एक आँख से दूसरी आँख में लगेगें तो उसका दुष्परिणाम सामने आएगा ही।

डॉक्टरों को सरकार ने प्राईवेट पैक्टिस करने का अधिकार दे रखा है, अधिकांश डॉक्टरों ने अपने परिजनों के नाम से निजी नर्सिंग होम खोल रखे हैं और सरकारी नौकरी करते हुए धड़ल्ले से निजी पैक्टिस जारी है। सरकारी अस्पताल को खाला का घर समझ रखा है, जब मनचाहे आओ और जाओ। तनखा तो पक ही जाएगी। कुछ डॉक्टर मंत्रियों के चहेते हैं, हमेशा शहर में ही पदस्थ रहना चाहते हैं। उच्चाधिकारियों के नोटिस और मेमो का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। "सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का होए"। एक उच्चाधिकारी ने कहा कि - मास्टर और डॉक्टर का ट्रांसफ़र करना सबसे कठिन होता है। क्योंकि इनके संबंध किसी न किसी नेता या उच्चाधिकारी से होते हैं। इन पर हाथ डालते ही तुरंत उनकी पैरवी आ जाती है। इसलिए इन्हे न छेड़ें तो ही ठीक है।

लापरवाही से 40 गरीब मरीजों की आँख की रोशनी चली गई, इसके लिए अभी जिम्मेदारी तय नहीं हुई है। लापरवाही से इलाज करके किसी का अंग-भंग कर देना बड़ा अपराध है। मरीज डॉक्टर पर विश्वास करके अपनी जान उसके हाथ में सहर्ष सौंप देता है। प्राण बचाने वाला भगवान समझ कर उसकी वंदना भी करता है। पर पैसे की पीछे भागते डॉक्टरों ने लोगों का यह भ्रम तोड़ दिया। अब इन्हे भगवान समझने वाला जमाना चला गया। एक हाथ दे और एक हाथ ले। लापरवाही का आचरण करने वाले इन चिकित्सकों पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अंग-भंग का अपराध दर्ज कर इन्हे जेल भेजा जाना चाहिए और प्रभावितों को उचित मुआवजा इनके वेतन से दिया जाना चाहिए। जिससे अन्य लापरवाह डॉक्टरों को सबक मिल सके। भविष्य में लापरवाही के प्रति सचेत रहें।

ताजा अपडेट


सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

करवा चौथ, बुलंद मंहगाई और बुधियारिन दाई का पसरा-- ललित शर्मा

सुनीता शर्मा जी एवं अश्विनी शर्मा जी
हमारी संस्कृति उत्सवी संस्कृति है, सप्ताह में 8-10 त्यौहार आ जाते हैं। त्यौहारों का जोर पहले ब्लॉग पर दिखाई देता था, अब फ़ेसबुक पर दिखता है। श्रीमती जी ने दो दिन पहले ही करवा का इंतजाम करने कह दिया था, रायपुर से मंगवाना पड़ा। सुबह चौथ की कहानी से सूर्य देवता को अर्घ्य दिया गया और चाँद का इंतजार होने लगा। शाम से ही भूखी प्यासी व्रती नारियों के साथ चाँद ने भी खूब आँख मिचौली खेली। चाँद दिखने के अपडेट फ़ेसबुक पर आते रहे। हमारे यहाँ चाँद तो 7-45 पर दिख गया था और व्रत हथौड़े से तोड़ा गया (बकौल अन्ना भाई, फ़ेसबुक पर) पर मुंबई में माल ताकरे के डर से देर से निकला, कहीं उसकी वक्र दृष्टि पड़ गयी तो दुबारा दिखना संभव न हो। आशंकाओं की बदली ने चाँद को ढक लिया। 10 बजे तक दर्शन जी को चाँद ने दर्शन नहीं दिए फ़ेसबुक (सबसे तेज चैनल) से उन्हे पता चला कि मुम्बई में चाँद निकल आया है :) उधर चौथ पूजा हुई और इधर पूजा करने के सबूत के साथ फ़ोटो फ़ेसबुक पर चिपक गयी। सुनीता शर्मा जी का अपडेट तुरंत आ गया, पता चल गया कि रायपुर में चांद निकल गया पर परदेश (जर्मनी) में नहीं निकला। जय चौथ माता की।

शाम को साप्ताहिक बाजार में सब्जियों के दाम आसमान छूते दिखे, बरबट्टी 80 रुपए किलो, टमाटर 40 रुपए किलो, गोभी 50 रुपए, बंद गोभी 30 रुपए किलो, कहने के मतलब है कि एक वक्त की सब्जी के लिए 100 रुपए खर्च करने ही पड़ेगें। सब्जी बाजार में भ्रमण करते हुए गुलाबचंद कंडरा मिल गए। हाई स्कूल तक मेरे साथ पढे थे, मैं भी बरसों के बाद बाजार में पहुंचा था। हाल-चाल पूछा। उसने बताया कि अभी सूपा झंऊहा बनाने का काम बंद है। थोड़ी बहुत खेती है, उसमें ही काम चल रहा है, दीवाली के बाद नया बांस आएगा तब सूपा, झंऊहा और बहारी का काम शुरु होगा। प्लास्टिक का सूपा, धमेला (तगाड़ी) बहारी आने के कारण कंडरा लोगों का पुश्तैनी काम कम हो गया है। नए लड़के पढ-लिख गए हैं इसलिए पुश्तैनी काम करने में शर्म महसूस करते हैं। बचे-खुचे पुराने लोग ही इस काम को कर रहे हैं, आने वाले समय में शायद ही कोई कंडरा सूपा, टोकनी आदि बनाता दिख जाए। सरकार ने इनके लिए बांस का कोटा निर्धारित कर रखा है और वन विभाग ने कम कीमत पर बांस खरीदने हेतू इन्हे पहचान पत्र दे रखे हैं। लेकिन बांस का सामान बनाने के बजाए ये बांस को बेच देते हैं। गुलाब कह रहा था कि हरी सब्जी इतनी मंहगी हो गयी है कि अब आलू-प्याज और मिर्चा से ही काम चलाना पड़ेगा। गरीब और अमीर बच जाता है, मध्यम वर्ग मारा जाता है। सबसे अधिक मंहगाई का असर इस पर ही होता है।

बाजार से घर आया तो बुधियारिन दाई अपना पसरा फ़ैला कर आंगन में बैठी थी। पसरा में चना, मुरमुरा, तिली लाड़ू, मुर्रा लाड़ू सजा रखे थे। लगभग 75 बरस की हो गयी है पर शरीर में मजबूती उतनी ही है जितनी मैने बचपन में देखी थी। 3 किलो मीटर से सिर पर पसरा धरे खाई-खजानी लिए चली आती है। होश संभाला तब से इसे देख रहा हूँ, स्कूल के बाहर पसरा लगा कर बैठना और बच्चों के लिए मौसम के अनुसार चना-चबेना लेकर आना। बेर का मुठिया, ईमली का लाटा, पगुवा बोईर  (सूखे बेरों को उबाल कर उसमें नमक, गुड़ मिलाकर) लाती थी, कभी चना-चटपटी के साथ गुपचुप भी। भक्का लाड़ू (धान की खील से बनने वाला), तिली लाड़ू (तिल से बनने वाला), मुर्रा लाड़ू (चावल के मुरमुरा से बनने वाला), राजगीरि के लाड़ू मेले ठेले में बच्चों की खाई खजानी होते हैं। बुधियारिन दाई का सफ़र जारी है, इसके पास नाप-तोल के लिए गुड़ाखु की डिब्बी से लेकर पैली (एक किलो का डिब्बा) तक है। पहले भी यही साधन था। छोटी डिब्बी में नाप कर पांच पैसा का चना देती थी और साथ में 10-20 दाना पुरोनी का अलग से। सामान लेने के बाद पुरोनी मांगते आज भी बाजार में लोगों को देखता हूँ। यहाँ तक कि सीडी प्लेयर खरीदने के बाद एक सीडी कैसेट तो पुरोनी में ले ही जाते हैं।

स्कूल जाते थे तब खाई-खजानी के लिए 10 पैसा ही बहुत होता था, रिसेस में पाँच पैसे की चना चटपटी और भक्का लाड़ू आ जाता था। स्कूल जाते समय 10 पैसा दादा जी से और 10 पैसा मुनीम जी से ले ही लेता था, जिस दिन चार आने मिल जाते कहीं से उस दिन तो दीवाली जैसी ही होती थी। चार आने लेकर दुकान से 5-5 पैसे छुट्टा लिए जाते थे, और शान से दिन भर खर्च किए जाते, पाँच पैसे में 3 स्लेट पेंसिल आती थी और पाँच भक्का लाड़ू। बंगाली शरणार्थियों को छत्तीसगढ के माना और पखांजुर, उड़ीसा के मलकान गिरि में बसाया गया। जब शरणार्थी आए तो इन्हे सरकार राशन और कपड़े लत्ते से लेकर मिट्टी का तेल और साबुन तक देती थी। इतनी अधिक गरीबी थी कि अगर कोई मर भी जाता था तो चुपचाप दफ़ना देते थे और किसी को खबर नहीं लगने देते थे, नहीं तो मृतक नाम के राशन मिलना बंद हो जाता। एक बंगाली "मदन कुटकुटी" नाम की मिठाई बेचने आता था। जिसे गुड़ से पकाकर बनाता था। छोटी परात में जमा कर उसे 2 पैसा , 5 पैसा की छेनी-हथौड़ी से तोड़ कर बेचता था। बुधियारिन दाई के कुछ ग्राहक उसके पास चले जाते थे। तो वह बकती थी "कहाँ ले आगे रोगहा बंगाली मन, मोरे धंधा ला ढप करे बर?" उत्सुकतावश बच्चे नयी चीज की तरफ़ दौड़ जाते थे। कुछ दिनों बाद उस बंगाली ने आना बंद कर दिया। बुधियारिन दाई के ग्राहक लौट आए। 

लक्ष्मी पूजन के लिए धान की खील अत्यावश्यक होती है, इसे ही लक्ष्मी पूजन का प्रसाद माना जाता है। दीवाली पर खील लाने का काम बुधियारिन की जिम्मेदारी है, हम लोग बेफ़्रिक रहते हैं कि खील घर तक पहुंच जाएगी। आदिम काल के नाप पैली में देगी, पहले एक पैली खील 5 पैसे की आ जाती थी, अब वही पैली 5 रुपए की आती है। बुधियारिन दाई का कहना है कि 500 का धान खरीद कर 150 का छेना-लकड़ी लगाने के बाद 300 रुपए बच जाता है। लूरसिंग (बुधियारिन का बेटा) के बारे में पूछने पर बताती है कि उसकी पत्नी देहांत हो गया, उसका लड़का बड़ा  हो गया है, राजधानी में कमाने जाता है और 150 रुपया रोजी में। इस साल उसकी शादी कर दूंगी। मेरे से रांधना-गढना नहीं होता है। जब तक जांगर (शरीर) चल रही है तब तक काम कर लेती हूँ। जाते-जाते मया के साथ उदय को तिली का दो लाड़ू देकर जाती है, मेरे मना करने पर कहती है -(मोर नाती हे महाराज, खावन दे ना) मेरा पोता है, खाने दो। जब तक बुधियारिन दाई है तब तक खील के लिए बाजार जाने की जरुरत नहीं, सोचता हूँ कि कहां मिलेगें, आगे ऐसे लोग? बुधियारिन दाई तो अपना चरिहा मूड़ पर धर के चल दी। बाजार की मंहगाई ने वापस खेती की तरफ़ जाने का मन बना दिया। अब समय आ गया है कि जिसके पास दो-चार एकड़ खेत होगा, वही पेट भर खा सकता है। हरी सब्जियाँ भी उसे ही मिल सकती है। यही सोचते-सोचते मैं राम गोपाल के पास पहूंच गया। क्रमश:

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

निगाह जलती हुई ढिबरी पर -- ललित शर्मा

कनागत (पितृ पक्ष) समाप्त होते ही घरों में साफ़-सफ़ाई का कार्य प्रारंभ हो जाता है। दीवाली ही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें घरों की सालाना मरम्मत होती है, छबाई-मुंदाई के साथ-साथ लिपाई पोताई। सभी घरों में एक साथ ही काम चलता है। इसके साथ फ़सल पकने का समय भी आ जाता है, खेत में पानी पलाने से लेकर, पैरा डोरी (धान का बोझा बांधने की रस्सी) बांटने का काम द्रुत गति से जारी रहता है। हरुना धान (जल्दी पकने वाला) आने के कारण भराही गाड़ा भी चलता है। किसान भी चाहता है कि दीवाली से पहले कुछ धान घर में आ जाए तो बेचकर दीवाली का त्यौहार ठीक-ठाक सामर्थ्य के अनुसार मना लिया जाए। चारों तरफ़ काम बोझ, मजदूरों के अभाव में निठल्लों की मौज हो गयी, काम कम और दाम अधिक, रामराज्य के 2 रुपए चावल का असर इतना अधिक हुआ कि दीवाली पर साफ़ सफ़ाई करने के लिए मजदूर ही उपलब्ध नहीं हैं। एकाध मिल गया तो बड़ी बात। अब लगता है कि अपना हाथ जगन्नाथ ही ठीक है।
वाश बेसिन का नल खराब हो गया, चूड़ी जाम होने के कारण मेरे से खुला नहीं। उसे अब काट कर निकालना पड़ेगा। तीन दिनों से प्लम्बर को ढूंढ रहा था। शाम को वह एक दुकान में बैठा मिल गया। बोला कि कल सुबह मुझे मोबाईल पर मिस काल कर देना पहुंच जाऊंगा। इधर व्यस्तता बढने के कारण सुबह उसे मिस काल नहीं दे पाया। शाम को फ़ोन लगाने पर उसने बताया कि ड्रिंक कर लिया हूँ, पीछे से मुर्गों के बासने की आवाज आ रही थी। मैने कहा कि त्यौहार की तैयारी हो गयी क्या? मुर्गे को झटका देने का टैम आ गया? बोला कि- अब काम में नहीं आ सकता, एक जगह दस हजार में ठेका लिया था, काम पूरा होने के बाद भी मजदूरी नहीं दे रहा है, दो दिन से साहब को बोल रहा हूं, मजदूर सिर पर चढाई कर रहे हैं। इसलिए आज उनकी सेवा (दारू सेवा) कर दिया। दो चार दिन सेवा का असर रहेगा तब तक मजदूरी मिल जाएगी। वाश बेसिन का नल निर्बाध चल रहा है। :)

पेंटर के पहुंचने पर पेंटिग का सामान लेने गया। उसका बताया सामान लेकर आया। हॉल में बरसों से एक ही रंग लग रहा है। दूकानदार से वाईल्ड लीलाक कलर मांगा। एसियन पेंट का डिब्बा उसने थमा दिया, दो लीटर के पैक पर 1188 रुपए मूल्य लिखा था, उसने मेरे से 120 रुपए लिए, मैने सोचा की माल सस्ता हो गया है। घर लाने पर पेंटर ने देखा कि रंग तो पहले लगे रंग से मैच नहीं कर रहा था। उसे लौटाने के लिए फ़िर जाना पड़ा। मैने दुकानदार से कहा कि - सब नकली माल रख रखा है, वह बोला असली ही है, बड़े पालिथिन पैक की पैकिंग फ़ूट गयी इसलिए 2-2 किलो के डिब्बे में डाल दिया था। अब असलियत सामने आ गयी। एसियन पेंट के डिब्बे में नकली माल धड़ल्ले से बेचा जा रहा है। मैने दूसरा डिब्बा लिया, वो एसियन का ट्रेक्टर ब्रांड था, डिब्बा पहचान में आ गया, यही लगता है हमेशा। मतलब दीवाली के नाम पर धड़ल्ले से ठगी जारी है। उसे दो-चार गालियाँ दी कि-तुम सुधरने वाले नहीं हो।

बाड़े में घास अधिक हो गयी, लगातार बरसात होने के कारण उसका उपाय नहीं हो सका, कुछ कांग्रेस घास(गाजर घास) के बीच भी बह कर आ गए और घर के आस-पास उग गए। उदय इनके बीच ही सायकिल चलाता है, मना करने पर भी नहीं मानता, पिछले हफ़्ते रोज रात को खांसता था, एक दिन कहने लगा कि डकार नहीं आ रही, बड़ा व्याकुल दिखा, उसे डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि एक फ़ेफ़ड़े में कफ़ जमा हो गया है। 5 दिन दवाई लेने के बाद ठीक हुआ, यह गाजर घास का दुष्प्रभाव था, लगभग डेढ एकड़ की घास साफ़ करने के लिए मजदूर तो मिलना मुश्किल था, इसलिए घास खत्म करने वाली दवाई छिड़कने के लिए एक मजदूर बुलाया, दवाई कुछ मंहगी है पर घास का उपचार अच्छी तरह से कर देती है। बस छिड़कने के बाद दो-चार घंटे तक बरसात नहीं होनी चाहिए, दवाई छिड़कने का शुरु हुआ तो एक घंटे बाद ही जमकर बरसात हुई, दवाई सब धुल गयी। मतलब गयी भैंस पानी में। करलो खेती, भर लो दंड। आस पास की गाजर घास की छिलाई करवानी पडी, अब फ़िर किसी दिन दवाई का उपयोग किया जाएगा।

दीवाली चोरों के लिए भी है, चोरी उनकी पेट रोजी है, जो भी मिल जाए दीवाली के समय, उठाओ और चलो। पुलिस को दीवाली खर्चा उपर तक पहुंचाना पड़ता है। पिछली दीवाली पर शाम को मैं कहीं गया हुआ था, शालिगराम जी आए थे, जब घर वापस आया तो वे गेट के बाहर खड़े मिले। मुझे किसी अनिष्ट की आशंका हुई, पहुंचने पर उन्होने बताया कि बाड़े में चोर घुसे और कार की हेडलाईट निकाल रहे थे, खट-पट की आवाज सुनकर माता जी बाहर आई तो वे भाग गए, देखा तो कार की लाईट सलामत थी पर स्कूटर की हेडलाईट गायब थी। छोटी सी चोरी के लिए क्या पुलिस थाना जाएं, लोग बड़ी-बड़ी चोरी होने पर नहीं जाते, कौन झमेला करे? थ्री चीयर्स के बाद चोरों के मोहल्ले में ही पहुंच गया। चोरों के सरदार की खबर ली और कहा कि सुबह तक स्कूटर की हेडलाईट कौन ले गया है? मुझे खबर कर देना। सुबह जब सो कर उठा तो गेट के सामने स्कूटर की हेडलाईट लिए दो बंदे खड़े थे, उनका मुखिया बोला- माफ़ कर देना महाराज, ये मेरा दामाद है, अनजाने में इधर चोरी करने घुस गया, कुछ दीवाली खर्चा-पानी निकालने।

थाने के मुंशी को चोरों के ठिकाने का पता था और याराना भी, क्योंकि मुखबिरी भी इनसे ही करानी पड़ती है। एक बार दीवाली पर छेदक चोरहा का दांव कहीं नहीं लगा। दीवाली सूखी ही जा रही थी, मुंशी रोज पहुंच जाता था दीवाली खर्चा के लिए, कभी सिपाही भेज देता था। हलाकान होकर छेदक ने मुंशी के घर पर ही हाथ साफ़ कर दिया। मुंशी चोर ढूंढता रहा, उसे पता ही नहीं चला किसने चोरी की। छेदक के घर पहुंचा, वहाँ जुआ की महफ़िल जम गयी, मुंशी भी ढिबरी की लाईट में दांव पर दांव लगाने लगा। अचानक उसकी निगाह जलती हुई ढिबरी पर पड़ी, उसने पहचान लिया कि ढिबरी तो उसी के घर की है :), छेदक से पूछताछ की तो उसने बता दिया कि उसी के घर का माल है। मुंशी उसे पकड़ कर थाने ले गया तो दरोगा साहब से छेदक चोरहा ने सच-सच बता दिया कि मुंशी और सिपाही रोज हलाकान करते थे तो मुझे मजबूरी में मुंशी की वाट लगानी पड़ी। मतलब यह है कि दीवाली पर काम के साथ खर्च भी बढ जाता है। खर्च पूरा करने के लिए इंतजाम तो करना पड़ता है।


शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भूभल: सामाजिक चेतना की आंच का प्रज्जवलन -- ललित शर्मा

सुस्थापित रचनाकार मीनाक्षी स्वामी का उपन्यास ‘भूभल’ हाल ही में मुझे पढ़ने को मिला। यह बलात्कार के कानूनी पहलू पर केन्द्रित है। यही इसकी सार्थकता और अनूठापन है क्योंकि इस पहलू को केंद्र में रखकर लिखा गया यह संभवतः पहला उपन्यास है। कानून जैसे शुष्क विषय के बावजूद इसमें सरसता और रोचकता इतनी सहजता से गुंथी हुई है कि एक बार हाथ में लेने के बाद पूरा पढ़कर ही छूटता है। यह रचनाकार के भाषा, शिल्प कथानक, संवाद और प्रस्तुति का कौशल है। मनुष्य अपने मन की अवस्थाओं को प्रकृति से जोड़ता है। खास तौर पर गुलमोहर के बिम्ब का पूरे उपन्यास में सहजता से चलना इसे अद्भुद कृति बना देता है। गुलमोहर, कंचन के सुख, दुख, संघर्ष, सफलता और विफलता का साक्षी है। प्रकृति के ऐसे साक्षी भाव की औपन्यासिक कृति हिंदी में यदा-कदा ही देखने को मिलती है। इसलिए यह बेजोड़ साहित्यक कृति बन गई है। कानून और न्याय व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों का मार्मिक और तार्किक शब्दांकन मीनाक्षी जी ने बड़े ही कौशल से उकेरा है। जैसे ममता, रिया और उर्मिला का प्रकरण। इनके माध्यम से कानून के इस कड़वे पहलू से उपन्यास इस तरह परिचित कराता है कि दिल धक से रह जाता है, पैरों तले की धरती खसक जाती है और स्त्री के पक्ष में दिखने वाले कानून का असली छद्म खुलकर सामने आ जाता है।


उपन्यास की नायिका है कंचन। वह स्वाभिमानी, आत्मविश्वास से लबरेज, उसूलों की पक्की, अन्याय और भेदभाव से अपने दृढ़ चरित्र व मनोबल के सशक्त और तेजस्वी अस्त्र से जूझने वाली है। बाल्यावस्था से ही शोषण के विरूध्द अपनी आवाज बुलंद करने वाली कंचन शिक्षा पूरी करके न्यायाधीश के रूप में स्थापित होती है। यहीं से आरंभ होती है कंचन की मुख्य यात्रा जिसमें प्रभाव है, प्रवाह है, संघर्ष है, सामाजिक और मुख्य रूप से कानूनी विवशताएं हैं, जटिलताएं हैं। कंचन इनसे जूझती है, टकराती है मगर न तो टूटती है न ही बिखरती है। वरन् अपने भीतर मौजूद चेतना की अग्नि से इनके प्रवाह को मोड़कर अपने समय और समाज के बीच, उस लौ को प्रज्जवलित रखती है। यही स्त्री चेतना है जिसे अपने दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति से वह सामाजिक चेतना में बदल देती है। दूसरे उपन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है स्त्री पुरूष को साथ लेकर चलने का आग्रह। स्त्री विमर्श का आशय, जो वैचारिक संक्रमण के चलते, पुरूष विरोध के दुराग्रह में बदल गया है, उसका विरोध दर्ज कराते हुए उपन्यास में सबको, समूचे समाज को साथ लेकर चलने का आह्वान है। यह सुखद संकेत है जो क्षमाशीलता, उदारता जैसे स्त्रियोचित संस्कारों में भी प्राण फूंकता है जो तथाकथित नारीवादी आग्रह के चलते कुचले जा रहे हैं। यह नारीवाद और स्त्री विमर्ष के नए आयामों को प्रस्तुत करता है और खांचे में बंटते समाज को पुनः जोड़ कर सशक्त बनाना चाहता है। उपन्यास समाज के इस भ्रम को दूर करता है कि कई समस्याएं केवल समाज की आधी आबादी की है। वरन् स्त्री की समस्या से पुरूष भी पीडि़त होता है याने समस्या पूरे समाज की है। जैसे कि ‘‘पर ये भी तो है कि दोनों से मिलकर समाज बना है, एक को पीड़ा हो तो दूसरा भी पीडि़त होता है।’’ (पृष्ठ 183) इससे जाहिर है कि यह बनी-बनाई नारीवादी फैशन की लीक से हट कर समाज की समस्याओं का वास्तविक आकलन करते हुए अनुभव की आंच से तपकर निकली कृति है।

तीसरी और महत्वपूर्ण खासियत है तथाकथित आधुनिकता, प्रगतिशीलता के नाम पर वर्जनामुक्त होती युवा पीढ़ी को इस कड़वी सच्चाई से परिचित कराता है कि कानून वर्जनाहीनता के पक्ष में नहीं है। खासकर बलात्कार की शिकार पीडि़त स्त्री के चरित्र की व्याख्या करते हुए । यदि वह अपना कौमार्य भंग कर चुकी है चाहे प्रेम संबंधों के चलते भी, तो भी वह अक्षम्य अपराधिनी है, दुष्चरित्र है और इसी आधार पर उससे बलात्कार करने वाला अपराधी बाइज्जत बरी होने का अधिकार और स्वंय के सच्चरित्र होने का प्रमाणपत्र पा लेता है । युवा पीढ़ी को तथाकथित आधुनिकता के विकृत परिणामों का वीभत्स चेहरा दिखाकर भ्रमित और पथभ्रष्ट होने से रोकने के प्रयत्न में लेखिका पूरी तरह सफल हैं। इस सच्चाई को जानना युवा पीढ़ी के लिए अनिवार्य है और मेरी राय में उन्हें इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। नारी अस्मिता और स्वतंत्रता से जुड़ा अहम प्रश्न है दैहिक स्वतंत्रता का, जिसमें निरंतर एक ही सवाल उठता है कि स्त्री अपने चाहने पर किसी पुरूष से संबंध बना पाती है या नहीं। मगर इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे स्त्री विमर्ष के दौरान उपेक्षित ही छोड़ दिया जाता है, यह अहम प्रश्न है कि अपने न चाहने पर स्त्री किसी पुरूष को संबध बनाने से रोक पाती है या नहीं ? यह स्त्री की गरिमा, मर्यादा और अस्मिता से जुड़ा अहम वैश्विक प्रश्न है। उपन्यास इस केन्द्र के इर्द-गिर्द घूमता है और स्त्रियों के शिकार में जाने-अनजाने शामिल हर पक्ष को कठघरे में खड़ा करता है।

इसका सामाजिक पहलू तो कड़वा है ही, कानूनी पहलू स्त्री के पक्ष में खड़ा होने के बावजूद उसे शिकार बनाने के इस खेल में अनजाने ही शामिल हो जाता है। उपन्यास में इस कड़वे निर्वसन सत्य को बेबाकी से सामने रखा है। हृदय विदारक हादसों की अनुगूंज और पीडि़त स्त्रियों की कराहें पूरे उपन्यास में ध्वनित होती हैं जो पाठक के मन मस्तिष्क को इस तरह झकझोर कर रख देती हैं कि उसका मन समाज के अंतर्विरोधों से उद्वेलित हो जाता है, उसकी आत्मा करूण क्रंदन करने लगती है। न्यायतंत्र के विरोधाभासों को लेखिका ने इस कौशल से उकेरा है कि पाठक आक्रोशित हो कुछ कर गुजरने को बेचैन हो जाताहै। भाषा में बिम्ब के साथ लेखकीय चिंतन का विनियोग है । इससे कई बार पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए जो दलीलें दी गई हैं, वे पाठकों के विचारों को उद्वेलित करके विचार विमर्ष को जन्म देती हैं। जैसे ‘‘ममता का भंग कौमार्य उसके प्रेम संबंध का परिणाम है न कि चरित्रहीनता का ।’’(पृष्ठ 133) ‘‘स्त्री के दर्द से  साथ जुड़ा पुरूष भी तो घायल होता है,इसीलिए तो पुरूष से बदला लेने के लिए संबंधित स्त्री के साथ जबरदस्ती करना...ओह...!’’ (पृष्ठ 183) भाषा पात्रों के अनुरूप है। जैसे ‘‘रामकिशोर खींसे निपोरकर बोला ‘अरे वो हम भी जानते हैं। चाल-चलन खराब होता तो तुम्हें जोर-जबरदस्ती की जरूरत ही क्यों पड़ती ? फिर तो मामला यूं ही फिट हो जाता ना है ना!’’(पृष्ठ 150)

मीनाक्षी स्वामी ने अपने लेखकीय कौशल से पात्रों का मनोविश्लेषण बहुत गहराई से किया है। जैसे ‘‘ऐसी पूछताछ तो गैर करते हैं। अपने तो भरोसा करते हैं, कुछ नहीं पूछते ।’’(पृष्ठ 239) समग्र रूप में ‘भूभल’ उपन्यास के अर्थ में एक ऐसा दस्तावेज है जो जनचेतना, जनशक्ति से सामाजिक क्रांति का विश्वास जगाता है, शंखनाद करता है। ‘‘कोमल और नन्हीं बूंदें जब संगठित होती हैं तो चट्टानों को भी काटकर रख देती हैं।’’(पृष्ठ 255) ‘‘जनमत ने दांतों तले उंगली दबा ली। इतनी ताकत है उसमें और वही अनभिज्ञ था अपनी ताकत से।’’ (पृष्ठ 256) मीनाक्षी स्वामी ने जीवन की विसंगतियों को समाजशास्त्रीय आंख से देखकर, उन्हें संवेदनाओं के संश्लिष्ट स्वरूप में कायान्तरित करने का कौशल एक नितांत असंक्राम्य मुहावरे में अर्जित किया है। वे अनुभवों को संवेदनाओं के ऐसे संभव और संप्रेष्य रूप में अभिव्यक्ति करती हैं कि पाठक अविकल सतत पाठ के लिए विवश हो जाते है। यही कौशल उनके इस उपन्यास ‘भूभल’ में भी दिखाई देता है। इस साहसिक, विचारोत्तेजक और मार्मिक कथ्य की संवेदनशील और कलात्मक प्रस्तुति के लिए मीनाक्षी स्वामी बधाई की पात्र हैं।आग के बने रहने में गहरा प्रतीकार्थ है। भीतर की आग ही मनुष्य को कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करती है। यह आग उपन्यास में अंत तक प्रज्जवलित है और पाठक के मन में भी प्रज्जवलित हो जाती है, यही सिध्दहस्त लेखिका की सफलता है। उपन्यास का अंश यहाँ पर है.......।


समीक्षित उपन्यास - भूभल
लेखिका - डॉ. मीनाक्षी स्वामी
प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य - तीन सौ साठ रूपए


शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

इनकी उनकी नाक कटन्ना, उनने इनकी नार हरन्ना -- ललित शर्मा

जय लंकेश
गतांक से आगे
रावण को मैदान में छोड़कर मैं घर चले आया। उदय ने मुझसे कहा कि-"पापा सोनपत्ती तो आप लाए ही नहीं, फ़िर से जाओ और रावण जलने के बाद सोनपत्ती लेकर आना।" अब पुत्र का आदेश मानना ही पड़ा। दुबारा रावण भाटा जाकर रावण के मरने का इंतजार करने लगे। इस दौरान कुछ लोग चर्चा कर रहे थे कि इस बार का रावण दुबला नजर आ रहा है। पिछले साल तो अच्छा मोटा तगड़ा था। रमेसर ने कहा कि- "26 रुपया में तो रावण इतना ही मोटा होगा। अगर अधिक मोटा और बड़ा करना है तो आलुवाले से बात करो, कुछ गरीबी रेखा की राशि बढे तो इसका भी खर्चा चले।" माहौल कुछ शांत होने पर चचा भी घर से चले आए। तो उनसे पता चला कि रावण बनाने के लिए उन्हे 1500 रुपए दिए थे कमेटी वालों ने। एक बार तो गाय रावण के 4 सर फ़ोड़ गयी और दुसरी बार उसका पैजामा खा गयी। दो सौ रुपए जेब से भरने के बाद रावण तैयार हुआ। अब इतने कम बजट में तो रावण ऐसा ही बनेगा। अब रावण की सेहत की असलियत सामने आ गयी थी। राम दल और रावण सेना के मंच पर आने में देरी थी। इस बीच मैं उदय को घर से ले आया गोल गप्पे खिलाने के लिए।

राजु गुप्ता - सिमरन चाट सेंटर
सार्वजनिक उत्सवों के स्थल पर एक छोटा-मोटा मेला लग जाता है। गुब्बारे वाले, चाट वाले, पान वाले, मिठाई वाले, साईकिल स्टैंड वाले अपनी दुकान लगा लेते हैं। लोग भी तफ़री के साथ मुंह का स्वाद बदल लेते हैं। उदय को लेकर राजु के गोलगप्पे के ठेले पर पहुंचा और उसे गोलगप्पे खिलाने को कहा। इस बार इसके रेहड़ी की रौनक बदल गयी। सब कुछ नया और साईन बोर्ड के साथ "गुप्ता चाट भंडार" से नाम बदल कर "सिमरन चाट सेंटर" रख दिया था। पहले तो मुझे शक हुआ कि कहीं इसने दीवाला तो नहीं निकाल दिया है। फ़िर सोचा कि इसके पास इतनी सम्पत्ति तो है नहीं कि दीवाला निकाल सके। जब सेठों के पास धन होता है तभी दीवाला निकालते हैं और एक बेटी की शादी का जुगाड़ हो जाता है। लाला जी ने मुझे एक बार बताया था कि उन्होने 5 बार दीवाला निकाल कर 8 बच्चों की शादी कर दी थी। जब किसी के यहाँ लड़की का रिश्ता लेकर जाते थे तो संबंधी सबसे पहले यही पूछता था कि-" लाला जी कै बार? तो लालाजी गर्व से बताते 5 बार। बस तुरंत रिश्ता तय हो जाता। क्योंकि संबंधी इससे अंदाजा लगा लेता था कि एक बार के दीवाले में सेठ जी ने कितना माल अंदर किया है। तुम्हारी भी जय जय हमारी भी जय जय।

भीषम-गोपाल-गोबरधन
राजु के ठेले के बगल में भीषम ने अपनी नयी मुंगफ़ली की दुकान लगा थी, उसके बगल मे गोबरधन ने पुरानी मुंगफ़ली की दुकान लगायी थी। शांति लाल मुंगफ़ली सेकने के लिए पंखा हिला-हिला कर सिगड़ी सिलगा रहा था पर लकड़ी कच्ची होने के कारण धूंवा दे रही थी। भीषम बचपन से ही बस स्टैंड में अपना पसरा (दुकान) लेकर बैठता था, जिसमें उबली हुई शकरकंद एवं चना-चबेना रख कर बेचता था। जब हम प्रायमरी स्कूल में पढते थे तो वह रोज 5-7 रुपया कमा लेता था। हमारी दृष्टि में वह उस समय पैसा वाला था। कभी अपने साथ होटल में समोसा भी खिला देता था। वह आज भी नहीं बदला, बिलकुल वैसा ही है, मेरे पहुंचते ही लड़के को बुलाकर मेरे लिए पान मंगवाया। कहने लगा, महाराज के स्वागत मे कोई कमी नहीं होनी चाहिए। गोबरधन मेरे से उम्र में बड़ा है। यह बस स्टैंड पर कांच की बरनी में संतरे की टिकिया लेकर बसों में बेचता था अब दारु भट्टी के सामने फ़ल्ली और मौसमी चखने की दुकान लगाता है।

गुब्बारे वाले, मेले की शान
पिछले बरस के बाद आज गांव के सार्वजनिक कार्यक्रम में पहुंचा था। सभी पुराने मित्र लोग यहीं मिल रहे थे और उनसे मिल कर आनंद भी आ रहा था। मुझे सामने से प्रताप सिंह लंगड़ाते हुए आता दिखाई दिया। आँखों पर मोटा चश्मा लगा रखा था। जय जोहार होने के बाद उससे हाल-चाल पूछा तो कहने लगा कि शुगर की बीमारी हो गयी है और इसके कारण किडनी खराब हो गयी और आंखों में मोतियाबिंद उतर आया। खेत बेचकर इलाज करवाया है, अब ठीक है। एक बेटे और दो बेटियों की शादी कर दिया, एक बेटा और बचा है कुंवारा, अब के सीजन में उसकी भी शादी करना है। जब हम आठवीं में पढते थे तो प्रताप की शादी हो गयी थी और नवमी पहुंचते-पहुंचते एक बेटा भी। जब ग्याहरवीं पास हुए तब तक प्रताप तीन बच्चों का बाप बन चुका था। एक तरह कुछ जल्दी ही बूढा हो गया। मैने उससे घर आकर ठीक से मिलने का वादा किया। अब उसने पान गुटखा खाना भी बंद कर दिया है। डॉक्टर ने कहा है कि अब खाएगा तो दुनिया की कोई दवाई उसे नहीं बचा सकती।

रंग बिरंगी मिठाई
मिठाई वाले की दुकान में रंग बिरगीं मिठाईयाँ सजी थी। नारियल की बरफ़ी, खाजा, पेठा, शक्करपारे, सलोनी, सेव भुजिया, जलेबी, बालुशाही आदि। साथ में गुटखे भी बेच रहा था, बगल में उसकी बीबी ने अलग दुकान लगा रखी थी। बेटे की बहू दोनो दुकानों में काम देख रही थी। एक ग्राहक के पूछने पर उसने जलेबी का मुल्य 20 रुपए पाव बताया। मंहगाई बहुत बढ गयी, दो साल पहले ही 30 रुपए किलो जलेबी आती थी। बस एक मिठाई से ही बाकी का अंदाजा लग गया। तभी कहीं से तितलियों का एक झुंड उड़ कर आया और मिठाईयों पर छा गया। बस फ़िर दुकानदार व्यस्त हो गया। किसी ने शक्करपारे लिए तो किसी ने बालुशाही। मेले की असली मौज तो यही है जो अच्छा लगे खाओ और खरीदो बिंदास होकर। मिठाईयों में रंग बहुत अधिक डाल रखा था। दूर से ही देख कर मन ललचा जाए खाने को, पर सेहत का भी ध्यान रखना पड़ता है। रंग सेहत को नुकसान पहुचाते हैं।

रावण है तैयार - जय लंकेश
कुछ हो हल्ला होने लगा, बैलगाड़ियों पर सवार रावण सेना नगर भ्रमण कर आयोजन स्थल पर पहुच रही थी, बैलगाड़ियों को देखकर भीड़ ने रास्ता बना दिया। रावण की सेना के पीछे-पीछे राम की सेना भी पहुंच गयी। माईक पर उद्घोषणा होने लगी, शीघ्र ही रामलीला शुरु हो रही है। मैं जब स्टेज पर पहुंचा तो रावण और राम की सेना आमने-सामने विराजमान हो चुकी थी। विदूषक रामायण जी की आरती कर रहे थे। रावण महाराज अपने दसशीश को गोद में रखे बैठे हुए थे। मेरे आग्रह करने पर उन्होने शीश धारण किया जिससे मैं फ़ोटो ले सका। सामने के मंच पर राम दल था। राम और लक्ष्मण शांत नजर आ रहे थे पर हनुमान एवं अंगद उछल कूद कर रहे थे। अंगद का पात्र मेरा पुराना मित्र है। बचपन से राम लीला में अपनी भूमिका निभाता है। माईक पर घोषणा हो रही थी कि अहिरावण वध, अंगद रावण संवाद, और लंका विजय के पश्चात ही रावण दहन होगा।

अब अंगद है तैयार - दिया रावण को ललकार
कुछ वर्षों से नयी परम्परा चली है कि रावण का वध राम के द्वारा न हो कर रामलीला के मुख्यातिथि के द्वारा किया जाता है। रावण वध का अधिकार राम से कब छिन गया पता ही न चला उसे। अब पुतले में आग लगाने के लिए मंत्री-संत्री का इंतजार किया जाता है। पुलिस संरक्षण में प्रतिवर्ष रावण को मारा जाता है पर किसी पर कोई कार्यवाही नहीं होती। भाऊ बोले कि- पिछले साल रावण एवं रामलीला कमेटी की मांग पर मंत्री जी ने चबुतरा बनाने की घोषणा की थी पर अभी तक चबुतरे का निर्माण नहीं हो पाया है। अरे भैया, सरकारी काम सरकारी जैसे होता है। मंत्रियों का काम तो घोषणा करना है। घोषणा करने के लिए तो इन्हे मंत्री बनाया जाता है। राम लीला सम्पात्ति की ओर थी। मुख्यातिथि का कहीं पता नही। पब्लिक घर वापस जाने लगी। इस बीच हम भी एक चक्कर घर का लगा आए। फ़ेस बुक पर एक फ़ोटो चेप कर ताजा अपडेट दे आए रामलीला मैदान का मित्रों को।

राधाकृष्ण टंडन- अशोक बजाज- किसन शर्मा
आखिरकार चचा की मेहनत रंग लाई। उन्होने मंच पर जाकर रामलीला को थोड़ा विस्तार दिया,जिससे समय व्यतीत हो सके। मंत्री जी न आने पर रावण दहन के लिए अशोक भाई को फ़ोन लगाया। वे दुसरे शहर में रावण दहन कर रहे थे। सूचना मिलते ही तत्काल पहुच गए। उनकी शुभकामनाओं के साथ रावण का दहन हुआ। ग्रामवासियों ने लंका विजय का उत्सव मनाया। एक दुसरे को सोन पत्ती भेंट पर यथा योग्य आशीर्वाद लिया और विजयादशमी पर्व की बधाई दी। रावण दहन का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद भी चचा के मत्थे एक उलाहना मढ ही दिया गया कि रावण के पुतले में पटाखे कम डाले गए। पटाखों के पैसे चचा अंदर कर गए। हमने चचा का पक्ष लिया। जब दिल्ली में बैठे नेता लाखों करोड़ रुपए जनता का खा गए तो चचा ने इतनी मंहगाई में दो-चार पटाखे कम लगा कर कौन सा गुनाह कर डाला। कैसे भी हो, विजयादशमी का उत्सव तो मनवा दिया, रावण का दहन तो करवा दिया अन्यथा साल भर फ़िर रावण से हलकान होना पड़ता। चचा कह रहे थे - राम रवन्ना दुय जानना, एक क्षत्रिय, एक बम्हन्ना, इनकी उनकी नाक कटन्ना, उनने इनकी नार हरन्ना,फ़िर दोनों में हुई लडन्ना, तुलसीदास ने रची पोथन्ना। चचा ने सभी पाठकों को विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं देने कहा है, चचा की शुभकामनाएं ग्रहण कर ली तो अब हमारी भी बधाई स्वीकार करें।


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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

चचा पंचायती लाल मुहल्ले वाले --- ललित शर्मा

चचा पंचायती लाल मुहल्ले के एक ऐसे पात्र हैं, जिनके बिना कोई सामाजिक एवं सार्वजनिक कार्य के सम्पन्न होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। समाज सेवा करना इनका बचपन का शौक है और बढ-चढ कर भागीदारी निभाते हैं। नवरात्रि पक्ष शुरु होने वाला था, मोहल्ले में कई वर्षों से दुर्गा स्थापना नहीं हो पा रही थी। इसका मुख्य कारण चचा का इस आयोजन से अलग हो जाना ही था। चचा दुर्गा स्थापना के आयोजन से अलग नहीं होते, अगर उनके गले खर्च की उधारी नहीं पड़ती। कमेटी के सदस्य चंदे का रुपया हजम कर गए और उधारी चचा के गले पड़ गई। बीबी के गहनों को गिरवी धर कर उधारी चुकानी पड़ी। तब से चचा ने कान पकड़ कर तौबा कर ली कि मोहल्ले के छोकरों के चक्कर में नहीं पड़ेगें। इस वर्ष मोहल्ले के छोकरे चचा को फ़ांसने का उद्यम कर रहे थे। चचा को जाकर उन्होने मनाया कि आपके अलग होने से मोहल्ले की शान खराब हो रही है। दुसरे मोहल्लों में दुर्गा स्थापना का आयोजन हो रहा है और आपके रहते हमारा सूना पड़ा है। चचा पुरानी बातों को भूल कर एक बार फ़िर चने के झाड़ पर चढ गए। उन्हे दुर्गोत्सव कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया और दुर्गा स्थापना की कार्यवाही शुरु हो गयी।

चचा की खासियत है कि जिस काम को हाथ में लेते हैं उसे जिम्मेदारी से करते हैं, चाहे बेगारी हो। सामाजिक कार्य के लिए चंदा मांगने इन्हे कोई शरम नहीं आती। चंदा मांगने के लिए एक से बढ कर एक दोहे गढ रखे हैं। जिस किसी के पास चंदा लेने जाते हैं उसे गरुड़ पुराण की तरह पहले दोहे सुनाते हैं और फ़िर दूहते हैं। कहते हैं - मांगन से मरनो भलो, जो मांगु अपने तन के काज, परमारथ के कारने मोहे न आवे लाज। जब लाज ही त्याग दी तो चंदे का जुगाड़ तो होना ही था। मोहल्ले के लड़के इनके संग चल कर चंदा उगाही में साथ दे रहे थे। परमेश्वर को कोषाध्यक्ष बनाया गया। चंदे के रुपए उसी के पास जमा हो रहे थे। परमेश्वर किसी और ताक में लगा था। चचा सुबह से उसे ढूंढ रहे थे। परमेश्वर मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। होता तो मिलता, मौका और रुपए का सुयोग पाकर वह चंद्रिका के साथ फ़रार हो गया। अब मुर्ति वाला, टेंट वाला, माईक वाला, किराने वाला सबको पैसा चुकाना था। अगर दुर्गा स्थापना नहीं होती तो चचा की नाक कट जाती। कुछ लोग शब्दों की छूरी लेकर प्रतीक्षा में बैठे थे। जिन्होने चंदा दिया था वे चचा का धुर्रा बिगाड़ देते। अब मुड़ पकड़ कर बैठने अलावा चचा के पास दूसरा कोई चारा नहीं था।

संकट के समय अपना ही काम आता है, चचा अपने बचपन के मित्र (मितान) के पास पहुंचे और रोना रोने लगे। मितान ने चचा को दस हजार देते हुए कहा कि - रुपया पैसा की चिंता छोड़ो, पहले काम को निपटाओ, अन्यथा बेईज्जती हो जाएगी। परमेश्वर भाग कर कहाँ जाएगा, उसे एक दिन गाँव में वापस आना ही है। मिलते ही रुपए वसूल लेगें। मितान के एन वक्त पर काम आने से चचा की ठुकाई करने के मंसुबे पाले विरोधियों की योजना पर पाला पड़ गया। चचा ने धूम-धाम से दुर्गास्थापना की और पूजा पाठ चलते रहा। चचा भी सीना तान कर विरोधियों को चिढाते रहे। नवमी को दुर्गा विसर्जन के पश्चात दसमी को दशहरा मनाने की परम्परा है। इस दिन रावण का पुतला जला कर लंका लूटी जाती है। साल भर से लोग दशहरा के त्यौहार का इंतजार करते हैं। इस दिन रावण वध स्थल पर मेला भी भरता है। चाट-गोलगप्पे से लेकर मिठाई और खिलौनों की दुकाने सजती हैं। काफ़ी रौनक रहती है। दशहरा का रावण बनाने का जिम्मा भी चचा के ही गले पड़ गया। चचा चुनौतियों को स्वीकार कर लेते हैं बिना आगा-पीछा सोचे। यही उनकी खास बात है। दुर्गोत्सव में दस हजार की चपत लगने के बाद भी नहीं चेते। काकी ने बहुत समझाया कि इस पचड़े में मत पड़ो। पर चचा न जाने किस मिट्टी के बने थे। "चाहे जूते पड़े हजार, तमाशा घुस के देखेंगे।"

रावण का कद दिनों दिन बढते जा रहा है, हर साल रावण के पुतले का खर्च भी बढ जाता है। चचा ने सामान का जुगाड़ किया, बच्चे-कच्चे सब मिल कर रावण का पुतला बनाने लगे। 10 हंडिया लगा कर दशानन बनाया गया, उसे रंग पोत कर रावण की शक्ल दी गयी। घास फ़ूस भरकर रावण का धड़ भी बन गया। लाल-नीली-पीली पन्नियाँ लगा कर उसे भी स्वरुप दिया गया। अब फ़ायनल टच देना था, रावण के धड़ पर शीश लगाना था। तभी एक सांड गैइया को दौड़ाते हुए आया और गैइया दशानन के शीश उपर आकर गिर पड़ी। जिससे 4 हंडिया फ़ूट गयी। चचा की खोपड़ी भन भना गयी। बना बनाया रायता बिखर गया। सांड भी जान का दुश्मन बन गया। गैइया को दौड़ाना था तो थोड़ी देर बाद दौड़ा लेता, फ़िर रावण की तरफ़ ही दौड़ाने की क्या जरुरत थी। फ़ालतु काम बढा दिया। 4 मुड़ी फ़ूट गयी, फ़िर रोते गाते उन्हे तैयार किया और सुबह हो चुकी थी नहाने धोने चचा घर में घुस गए। रावण दुवारी मे खड़ा था। इधर पता नहीं कहाँ से गायों का झुंड फ़िर आ गया। चचा के आते तक रावण के पैजामे हो ही साफ़ कर गया। अब किस्मत ही खराब हो तो क्या किया जा सकता है।

चचा जब वापस आए तो रावन नंगा खड़ा था, माथा पीट लिया, रावण को नया पैजामा पहनाया गया। सवाल इज्जत का था। एक रात का जागरण करने के बाद रावण तैयार हुआ था। अब चचा ने सोच लिया कि इसे ठिकाने पर लगा दिया जाए। नहीं तो फ़िर कोई समस्या आ सकती है। रावण को मैदान के बीचों बीच खड़ा कर दिया और छुट्टी पाई, शाम को रावण दहन हो जाएगा सोच कर चचा सोने के लिए चले गए। चचा के सोते ही बरसात शुरु हो गयी। घनघोर बारिश हुई, एक घंटे में पानी ही पानी हो गया। रावण बरसात के पानी से भीग गया। शाम को लोग इकट्ठे होने लगे, भीगा हुआ रावण कैसे जलेगा? इस पर चर्चाएं होने लगी। चचा का विरोधी गुट इसे उनकी लापरवाही बता रहा था कि रावण को शाम को खड़ा करना था। तब तक किसी टीन शेड के नीचे रख कर दिया जाता तो भीगता नहीं। साल भर का त्यौहार अब कैसे मनेगा? रावण के भीगने की खबर चचा तक पहुंच गयी थी। वे अब घर से बाहर नहीं निकल रहे थे। विरोधी गुट के लड़के दारु पीकर चचा को गरियाते घूम रहे हैं कि मिल जाए तो उनकी मरहम पट्टी का इंतजाम किया जाए। चचा की खबर ली जाए, हम भी रावण भाटा में खड़े होकर रावण दहन का इंतजार कर रहे हैं। कुछ लोग चिल्ला रहे है कि एक कनस्तर मिट्टी तेल डाल कर रावण को आग लगा दी जाए। रावण को तो हर हाल में जलाना है। भले आतिशबाजी न हो। माहौल की दशा और दिशा सही नजर नहीं आ रही। इसलिए घर की तरफ़ खिसकने में ही भलाई है। आप भी चलिए, फ़ालतु तमाशे में क्या रखा है? बाकी समाचार कल के अखबार में पढ लेगें कि चचा और रावण का क्या हुआ? आखिर चचा पंचायती लाल फ़िर फ़ंस ही गए।

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