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सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

करवा चौथ, बुलंद मंहगाई और बुधियारिन दाई का पसरा-- ललित शर्मा

सुनीता शर्मा जी एवं अश्विनी शर्मा जी
हमारी संस्कृति उत्सवी संस्कृति है, सप्ताह में 8-10 त्यौहार आ जाते हैं। त्यौहारों का जोर पहले ब्लॉग पर दिखाई देता था, अब फ़ेसबुक पर दिखता है। श्रीमती जी ने दो दिन पहले ही करवा का इंतजाम करने कह दिया था, रायपुर से मंगवाना पड़ा। सुबह चौथ की कहानी से सूर्य देवता को अर्घ्य दिया गया और चाँद का इंतजार होने लगा। शाम से ही भूखी प्यासी व्रती नारियों के साथ चाँद ने भी खूब आँख मिचौली खेली। चाँद दिखने के अपडेट फ़ेसबुक पर आते रहे। हमारे यहाँ चाँद तो 7-45 पर दिख गया था और व्रत हथौड़े से तोड़ा गया (बकौल अन्ना भाई, फ़ेसबुक पर) पर मुंबई में माल ताकरे के डर से देर से निकला, कहीं उसकी वक्र दृष्टि पड़ गयी तो दुबारा दिखना संभव न हो। आशंकाओं की बदली ने चाँद को ढक लिया। 10 बजे तक दर्शन जी को चाँद ने दर्शन नहीं दिए फ़ेसबुक (सबसे तेज चैनल) से उन्हे पता चला कि मुम्बई में चाँद निकल आया है :) उधर चौथ पूजा हुई और इधर पूजा करने के सबूत के साथ फ़ोटो फ़ेसबुक पर चिपक गयी। सुनीता शर्मा जी का अपडेट तुरंत आ गया, पता चल गया कि रायपुर में चांद निकल गया पर परदेश (जर्मनी) में नहीं निकला। जय चौथ माता की।

शाम को साप्ताहिक बाजार में सब्जियों के दाम आसमान छूते दिखे, बरबट्टी 80 रुपए किलो, टमाटर 40 रुपए किलो, गोभी 50 रुपए, बंद गोभी 30 रुपए किलो, कहने के मतलब है कि एक वक्त की सब्जी के लिए 100 रुपए खर्च करने ही पड़ेगें। सब्जी बाजार में भ्रमण करते हुए गुलाबचंद कंडरा मिल गए। हाई स्कूल तक मेरे साथ पढे थे, मैं भी बरसों के बाद बाजार में पहुंचा था। हाल-चाल पूछा। उसने बताया कि अभी सूपा झंऊहा बनाने का काम बंद है। थोड़ी बहुत खेती है, उसमें ही काम चल रहा है, दीवाली के बाद नया बांस आएगा तब सूपा, झंऊहा और बहारी का काम शुरु होगा। प्लास्टिक का सूपा, धमेला (तगाड़ी) बहारी आने के कारण कंडरा लोगों का पुश्तैनी काम कम हो गया है। नए लड़के पढ-लिख गए हैं इसलिए पुश्तैनी काम करने में शर्म महसूस करते हैं। बचे-खुचे पुराने लोग ही इस काम को कर रहे हैं, आने वाले समय में शायद ही कोई कंडरा सूपा, टोकनी आदि बनाता दिख जाए। सरकार ने इनके लिए बांस का कोटा निर्धारित कर रखा है और वन विभाग ने कम कीमत पर बांस खरीदने हेतू इन्हे पहचान पत्र दे रखे हैं। लेकिन बांस का सामान बनाने के बजाए ये बांस को बेच देते हैं। गुलाब कह रहा था कि हरी सब्जी इतनी मंहगी हो गयी है कि अब आलू-प्याज और मिर्चा से ही काम चलाना पड़ेगा। गरीब और अमीर बच जाता है, मध्यम वर्ग मारा जाता है। सबसे अधिक मंहगाई का असर इस पर ही होता है।

बाजार से घर आया तो बुधियारिन दाई अपना पसरा फ़ैला कर आंगन में बैठी थी। पसरा में चना, मुरमुरा, तिली लाड़ू, मुर्रा लाड़ू सजा रखे थे। लगभग 75 बरस की हो गयी है पर शरीर में मजबूती उतनी ही है जितनी मैने बचपन में देखी थी। 3 किलो मीटर से सिर पर पसरा धरे खाई-खजानी लिए चली आती है। होश संभाला तब से इसे देख रहा हूँ, स्कूल के बाहर पसरा लगा कर बैठना और बच्चों के लिए मौसम के अनुसार चना-चबेना लेकर आना। बेर का मुठिया, ईमली का लाटा, पगुवा बोईर  (सूखे बेरों को उबाल कर उसमें नमक, गुड़ मिलाकर) लाती थी, कभी चना-चटपटी के साथ गुपचुप भी। भक्का लाड़ू (धान की खील से बनने वाला), तिली लाड़ू (तिल से बनने वाला), मुर्रा लाड़ू (चावल के मुरमुरा से बनने वाला), राजगीरि के लाड़ू मेले ठेले में बच्चों की खाई खजानी होते हैं। बुधियारिन दाई का सफ़र जारी है, इसके पास नाप-तोल के लिए गुड़ाखु की डिब्बी से लेकर पैली (एक किलो का डिब्बा) तक है। पहले भी यही साधन था। छोटी डिब्बी में नाप कर पांच पैसा का चना देती थी और साथ में 10-20 दाना पुरोनी का अलग से। सामान लेने के बाद पुरोनी मांगते आज भी बाजार में लोगों को देखता हूँ। यहाँ तक कि सीडी प्लेयर खरीदने के बाद एक सीडी कैसेट तो पुरोनी में ले ही जाते हैं।

स्कूल जाते थे तब खाई-खजानी के लिए 10 पैसा ही बहुत होता था, रिसेस में पाँच पैसे की चना चटपटी और भक्का लाड़ू आ जाता था। स्कूल जाते समय 10 पैसा दादा जी से और 10 पैसा मुनीम जी से ले ही लेता था, जिस दिन चार आने मिल जाते कहीं से उस दिन तो दीवाली जैसी ही होती थी। चार आने लेकर दुकान से 5-5 पैसे छुट्टा लिए जाते थे, और शान से दिन भर खर्च किए जाते, पाँच पैसे में 3 स्लेट पेंसिल आती थी और पाँच भक्का लाड़ू। बंगाली शरणार्थियों को छत्तीसगढ के माना और पखांजुर, उड़ीसा के मलकान गिरि में बसाया गया। जब शरणार्थी आए तो इन्हे सरकार राशन और कपड़े लत्ते से लेकर मिट्टी का तेल और साबुन तक देती थी। इतनी अधिक गरीबी थी कि अगर कोई मर भी जाता था तो चुपचाप दफ़ना देते थे और किसी को खबर नहीं लगने देते थे, नहीं तो मृतक नाम के राशन मिलना बंद हो जाता। एक बंगाली "मदन कुटकुटी" नाम की मिठाई बेचने आता था। जिसे गुड़ से पकाकर बनाता था। छोटी परात में जमा कर उसे 2 पैसा , 5 पैसा की छेनी-हथौड़ी से तोड़ कर बेचता था। बुधियारिन दाई के कुछ ग्राहक उसके पास चले जाते थे। तो वह बकती थी "कहाँ ले आगे रोगहा बंगाली मन, मोरे धंधा ला ढप करे बर?" उत्सुकतावश बच्चे नयी चीज की तरफ़ दौड़ जाते थे। कुछ दिनों बाद उस बंगाली ने आना बंद कर दिया। बुधियारिन दाई के ग्राहक लौट आए। 

लक्ष्मी पूजन के लिए धान की खील अत्यावश्यक होती है, इसे ही लक्ष्मी पूजन का प्रसाद माना जाता है। दीवाली पर खील लाने का काम बुधियारिन की जिम्मेदारी है, हम लोग बेफ़्रिक रहते हैं कि खील घर तक पहुंच जाएगी। आदिम काल के नाप पैली में देगी, पहले एक पैली खील 5 पैसे की आ जाती थी, अब वही पैली 5 रुपए की आती है। बुधियारिन दाई का कहना है कि 500 का धान खरीद कर 150 का छेना-लकड़ी लगाने के बाद 300 रुपए बच जाता है। लूरसिंग (बुधियारिन का बेटा) के बारे में पूछने पर बताती है कि उसकी पत्नी देहांत हो गया, उसका लड़का बड़ा  हो गया है, राजधानी में कमाने जाता है और 150 रुपया रोजी में। इस साल उसकी शादी कर दूंगी। मेरे से रांधना-गढना नहीं होता है। जब तक जांगर (शरीर) चल रही है तब तक काम कर लेती हूँ। जाते-जाते मया के साथ उदय को तिली का दो लाड़ू देकर जाती है, मेरे मना करने पर कहती है -(मोर नाती हे महाराज, खावन दे ना) मेरा पोता है, खाने दो। जब तक बुधियारिन दाई है तब तक खील के लिए बाजार जाने की जरुरत नहीं, सोचता हूँ कि कहां मिलेगें, आगे ऐसे लोग? बुधियारिन दाई तो अपना चरिहा मूड़ पर धर के चल दी। बाजार की मंहगाई ने वापस खेती की तरफ़ जाने का मन बना दिया। अब समय आ गया है कि जिसके पास दो-चार एकड़ खेत होगा, वही पेट भर खा सकता है। हरी सब्जियाँ भी उसे ही मिल सकती है। यही सोचते-सोचते मैं राम गोपाल के पास पहूंच गया। क्रमश:

27 टिप्‍पणियां:

  1. महंगाई की मार ने मध्यम वर्ग पर अतिरिक्त बोझ डला है , यह सही कहा है कि आने वाले समय में जिनके पास कृषि योग्य जमीन है , वही बचे रहेंगे !

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  2. थाली में सजे पकवान तो सबसे अधिक प्रिय हैं हमें।

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  3. Ye panch or das paise wali baat agar aaj kal ke bachho ko bataye to wo wiswas nahi karte hain.

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  4. महंगाई और त्यौहार ..मध्यम वर्ग पर पडती मार .....बहुत कुछ कह गए बुधियारिन दाई के बहाने ...!

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  5. ललितजी ..१० बजे जब छत पर पहुंची तो जनाब फिर बादलो में खड़े मुस्कुरा रहे थे .? पकड कर बाहर निकालना पड़ा --.बहुत मुश्किल से हाथ आए ..

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  6. बेर का मुठिया, ईमली का लाटा, पगुवा बोईर....बुधियारिन ल प्रणाम।मदन कुटकुटी ल सादर श्रद्धाजंलि...।
    चटपटा पोस्‍ट...!

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  7. "खाई-खजानी के लिए 10 पैसा ही बहुत होता था"

    हमें तो भैया, पुराना एक पैसा ही मिलता था, कभी-कभी अधन्ना, कभी विशेष अवसर पर इकन्नी ओर मेला-ठेला जाने के लिए चवन्नी। चवन्नी के ऊपर, याने कि अठन्नी और एक रुपया, की तो हम कभी सोच भी नहीं सकते थे।

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  8. छत्तीसगढ़ का चना मुर्रा खूब याद आता है. गुलाबचंद कंडरा को भी एक सब्जी की वेराइटी समझने की गलती कर दी थी.

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  9. बिलकुल सही है मंहगाई की मार से मध्यम वर्ग ही मारा जाता है। सबसे अधिक मंहगाई का असर इस पर ही होता है। बेचारा कहीं का नहीं रह जाता..और त्यौहार हैं इन्हें तो मनाना ही होता है...

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  10. महंगाई ने त्‍यौहारों को सिर्फ औपचारिकता बना कर रख दिया है।

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  11. बढिया पोस्ट। बुधियारिन दाई बहुत अच्छी लगी।

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  12. पता नहीं क्यों , पहले वाले चित्र में 'गुज़र चुके कार्यक्रम' के प्रति लगभग वितृष्णा (मरवा दिया भूखे मुझे) जैसे भाव नज़र आ रहे हैं :)

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  13. न जाने कहाँ से कहाँ तक की सैर करा लाती है आपकी पोस्ट.

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  14. व्यवस्थित साप्ताहिक बाजार बढ़िया लगा

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  15. पंडित जी , आप भी हर त्यौहार को मना डालते हो । :)
    लोकल मिष्ठान और पकवान देखकर मज़ा आ गया भाई ।

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  16. केंवटिन होगी, बुधियारिन दाई, आस्टि्रक-आग्‍नेय कुल की.

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  17. आधुनिक करवा चौथ से शुरू कर फेस बुक से होते सब्जियों के चाँद छूटे दाम से घर के आँगन में बैठी बुधियारण दाई से बतियाते आप बचपन की गलियों में घुमा लाये . बस एक साँस में पढ़ गयी ढेर से खट्टी मीठी यादों को ताज़ा करते हुए .

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  18. बुधियारिन दाई के विषय में पढ़कर बहुत अच्छा लगा...समाज के ऐसे पात्रों से जरूर परिचय करवाना चाहिए.

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  19. पुरौनी के बने बात करे हो गा
    हमन भी कई बार कही डाल्थ्स :-)

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  20. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  21. "इमली का लाटा"
    जिसने खाया वही जानता है इसका स्वाद
    पुराने दिन याद आ गए और स्वाद भी, अब तो वो सब नसीब नहीं
    हमारे स्कूल की " बुधियारिन दाई " तो अब रही नहीं
    :(

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  22. करवाचौथ से शुरू कर बुधियारिन दाई पर जा कर रुकी ... प्रभावशाली पोस्ट ...

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  23. अच्छा लगा पढकर।
    अच्छी प्रसतुती।

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  24. पढ़कर भावुक हो गया , सच लिखा है आपने ,बुधियारिन दाई जैसे कई दाई आराम करने की उम्र में भी बिना कोई सोंच के अपना काम करते आ रहे है ,और उनका ब्यवहार भी मीठा होता है |सच लिखा है आपने (सोचता हूँ कि कहां मिलेगें, आगे ऐसे लोग?)

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