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सोमवार, 27 अगस्त 2012

चैतुरगढ: मैं कहता हौं आँखन की देखी -- ललित शर्मा

पंकज सिंह
पाली शिवमंदिर में चैतुरगढ जाने वाली सड़क की स्थिति की पूछताछ करने पर संतोष त्रिपाठी ने कहा कि सड़क की स्थिति तो खराब है। बरसात होने के कारण सड़क जगह-जगह से कट गयी है। चैतुरगढ में पहाड़ी पर चलभाष भी काम नहीं करता। वहां केन्द्रीय पुरातत्व विभाग का जो कर्मचारी है उसे जब भी बात करनी होती है तो नीचे आकर सम्पर्क करता है। अभी उससे सम्पर्क भी नहीं हो पाएगा, अन्यथा मार्ग की दशा का पता कर लेते। चैतुरगढ जाने की योजना पर पानी फ़िरते दिखाई दे रहा था। अगर रास्ता ही खराब है तो जाने से तेल फ़ूंकने के अलावा कुछ हासिल नहीं होने वाला। हम आपस में विमर्श करने लगे कि क्या करें, क्या न करें? जाएं की नहीं? तभी संतोष ने कहा कि जाईए, विलम्ब न करें। माता का नाम लेकर आगे बढिए, दर्शन होना लिखा है तो होकर ही रहेगा। उनकी बात हमें जंच गयी और हम अविलंब आगे बढ गए।

रफ़्तार में जंगल
पाली से चैतुरगढ लगभग 30 किलोमीटर है। 22 किलोमीटर कोलतार की सड़क पर चलने के बाद 8 किलोमीटर कच्ची सड़क पर चलना पड़ता है। अब हमने तय ही कर लिया जाने का तो जो होगा वह देखा जाएगा। झा जी की खुमारी अभी तक उतरी नहीं थी। सुबह से ही अलसाए पड़े थे, दोपहर के भोजन के बाद खुमारी द्विगुणित हो गयी। कार चल रही थी और मैने कैमरा साध लिया, जंगल का रास्ता है कब क्या दृश्य देखने मिल जाए और उसे कैद करने का अरमान अधूरा रह जाए। इसलिए हथियार हमेशा हाथ में लेकर सजग रहने की आवश्यकता थी। जंगल के रास्ते पर चलना सुखदायी रहता है। अधिक ट्रैफ़िक भी नहीं रहता और प्राकृतिक छटाएं मन को शांति देती हैं। शहरवासी प्रकृति के निकट आकर सुकून पाता है। प्रकृति से जुड़ाव महसूस करता है। हमारे साथ चलते साल के वृक्षों के बीच से लहराती बलखाती सड़क इठला रही थी। नालों में बहता बरसाती जल अपने जीवित होने को प्रमाणित कर रहा था। वातावरण में ठंडक देख कर पंकज एसी बंद कर देता है।

जंगल में रफ़्तार
FM रेडियो की तरंगे यहाँ पर मिल रही थी, चैनल बदल-बदल कर हम पुराने गीत ढूंढ रहे थे। तभी एक चैनल ने बजाया, सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया होतो हर कोई बांचे, भाग न बांचै कोय। सजनवा बैरी हो गए हमार। वाह! प्रकृति के साथ संगीत की ताल और लय मिल जाना रोमांचित कर जाता है। कहाँ सजनवा और कहाँ सजनी? कोयलिया की कूक भी सुनाई देने लगी। सोचने लगा कि अभी कौन से आम बौराए हैं जो कोयलिया कूक रही है। विहंग को कौन बांध पाया है? वे कोई मानव नहीं? किसी प्रांत के एपीएल, बीपीएल कार्डधारी लाभार्थी नागरिक नहीं। जो किसी के बंधन में बंध कर परतंत्र हो जाएगें। इनका तो जीवन स्वतंत्र है। स्वतंत्र जन्मे और स्वतंत्र मरें। परतंत्रता तो इन्हे पल की नहीं सुहाती। न ही सीमा पार करने के लिए किसी सरकार के अनुज्ञा-पत्र की दरकार होती है। जब चाहें तब पंख फ़ड़फ़ड़ाए और उड़ जाते हैं। जब मन में आए तो गाने लगते हैं। काश! विहंग सा जीवन ही क्षण भर को मिल जाए तो मन करता है पूरा एक जीवन ही जी लूं।

जा रे मेरा संदे्शा ले जारे
नदी-नाले, पहाड़, वन, समुद्र में ऐसा आकर्षण है कि जो मुझे हमेशा अपनी ओर खींचते हैं। मन गोह बनकर यहां चिपक जाता है, छोड़ना ही नहीं चाहता इन्हें। बस यहीं एक कुटिया हो जाए और रम जाएं। भौतिकता से उबने पर आध्यात्म जागृत होता है। चिंतन चलते रहता और हाथ में कैमरा धरे-धरे ही भीतर उतर जाता हूँ। न सड़क दिखाई देती है और न सहयात्री। सहसा तंद्रा टूटती है, रेड़ियो पर गाना बजते-बजते प्रहसन सुनाई देने लगता है। पंकज एसी को फ़िर से चालु कर देता है। हल्की सी उमस होने लगी। पहाड़ों पर घटांए उमड़ने-घुमड़ने लगी। घटाटोप अंधकार छाने लगा। वृक्षों के तनों पर, जंगल में पड़ी हुई सूखी लकड़ियों पर हरी काई जमी हुई है। यहाँ तक की मील के पत्थरों को भी काई ने ढक लिया है। मील के पत्थर अब मंजिल का पता नहीं देते। इससे अहसास होता है कि जंगल में बारिश लगातार हो रही है और महीनों से धूप नहीं निकली है। अन्यथा मील के पत्थरों पर काई नहीं जमती।

लकड़ी की घंटी
पहले वनों में जंगली जानवर दिन में ही दिखाई दे जाते थे। अब रात में भी नहीं दिखते। मानव ने वनों का बेतहाशा नुकसान किया। वनों की समाप्ति पर जानवरों का प्राकृतिक रहवास खत्म हो गया। इससे साथ-साथ जानवर भी खत्म होने के कगार पर हैं। जंगली वृक्षों एवं वनस्पतियों की एवं वनचरों की कई प्रजातियाँ तो विलुप्त ही हो गयी। एक दिन ऐसा आएगा जब वन भी दिखाई नहीं देगें। फ़िर कभी अगले जन्म में मेरे जैसा कोई यायावर यहाँ आएगा तो जो कुछ मैने यहाँ देखा है उसे वह दिखाई नहीं देने वाला। गोधूलि वेला होने को है, वनों में चरने गए पालतु पशु लौट रहे हैं। गायों के गले में बंधी काठ की घंटियों से मधुर स्वर लहरियां निकल रही हैं। साथ में चरवाहा भी कमर में बांसुरी खोंसे हुए सिर पर खुमरी ओढे पीछे-पीछे चला आ रहा है। न चरवाहे के पास घड़ी है न गायों के पास। समय की जानकारी देने के लिए सिर पर सूरज भी नहीं। इनकी जैविक घड़ी ही घर लौटने का समय बताती है और ये सब घर को लौट चलते हैं।

चैतुरगढ का मार्ग
हमें पक्की सड़क पर चलते हुए एक तिराहा दिखाई दिया। जहाँ से दांए तरफ़ कच्चा रास्ता जाता है। वहीं पर एक सूचना फ़लक लगा है जिस पर लिखा है, चैतुरगढ दूरी 8 किलोमीटर। हम सही रास्ते पर थे। तिराहे पर एक किराने की दुकान है, जहाँ युवा दुकानदार अपनी मोटर सायकिल में पैट्रोल डाल रहा था। वहीं पर एक बाबा अपनी पोती के साथ खड़े थे। मैने उनसे आगे के रास्ते की दशा पूछी तो कहने लगे की गाड़ी जा सकती है। रास्ता को खराब दिख रहा था, परन्तु हमें चैतुरगढ जाने की जिद थी। आगे बढने पर सड़क पर बड़े-बड़े बोल्डर पड़े दिखे और साथ में गड्ढे भी।

बाबा और नातिन
कमांडर जीप दिखाई दी। ड्रायवर ने बताया कि उनकी जीप ही बड़ी कठिनाई से निकल कर आ रही है। आपकी वेरना तो नहीं जा सकती। हाँ जहाँ तक कार जाए वहां तक आप चले जाईए और वहाँ से आप पैदल जा सकते हैं। कई लोग गाड़ी खड़ी करके पैदल जा रहे हैं। अधिक रात होने पर भालुओं का खतरा है। हमने ठान लिया कि जहाँ तक कार जाएगी वहाँ तक जाएगें, फ़िर आगे पैदल जा सकते हैं। लेकिन चैतुरगढ आज जाना ही है।हम उबड़-खाबड़ रास्ते पर नयी-नवेली कमसिन नाजुक वेरना के साथ जोर-जबरदस्ती करते हुए अपनी जिद में आगे बढ गए। दो किलोमीटर चलने के बाद आसमान में एक बार फ़िर से अंधेरा छा गया। लगने लगा कि जम कर बरसात होगी।

नाले से लौटते हुए
सुबह के झगड़े और शाम की बारिश का पता नहीं कब तक चले? 4 किलोमीटर जाने पर एक छोटा नाला दिखाई दिया, वहीं पर कार रोकनी पड़ी। पंकज और अरविंद गाड़ी निकालने का रास्ता देखने लगे और मैं फ़ोटो लेने लगा। वहीं पास के साल वृक्ष पर सुंदर आर्किड लगे थे। दोनो अभियंताओं नें आकर निर्णय दिया कि कार वहाँ से आगे नहीं निकल सकती। फ़ावड़ा होता तो एक बार रास्ता बनाया जा सकता था। बरसात होने लगी थी, हमने भारी मन से लौटने का फ़ैसला किया। इतनी दूर आने के बाद भी चैतुरगढ के एतिहासिक स्थल को न देख पाने हमें खेद रहेगा। लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी। तिराहे पर वापस आकर दुकानदार से उसकी बाईक मांगने का इरादा बनाकर हम तिराहे की तरफ़ लौट गए। आगे पढें……

11 टिप्‍पणियां:

  1. यह हासिल भी क्‍या कम है, बाकी फिर कभी.

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  2. @पहले वनों में जंगली जानवर दिन में ही दिखाई दे जाते थे। अब रात में भी नहीं दिखते। मानव ने वनों का बेतहाशा नुकसान किया। वनों की समाप्ति पर जानवरों का प्राकृतिक रहवास खत्म हो गया। इससे साथ-साथ जानवर भी खत्म होने के कगार पर हैं। जंगली वृक्षों एवं वनस्पतियों की एवं वनचरों की कई प्रजातियाँ तो विलुप्त ही हो गयी। एक दिन ऐसा आएगा जब वन भी दिखाई नहीं देगें।- एकदम सही लिखा है आपने .इस गंभीर विषय पर सबको गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है . छत्तीसगढ़ की अनमोल धरोहर है चैतुरगढ़ .उस पर केंद्रित आपका यह आलेख काफी दिलचस्प और ज्ञानवर्धक है.

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  3. इतने सुन्दर-सुन्दर मनोहारी दृश्य, प्रकृति का सानिंध्य किसी स्वतंत्र पंछी से कम आनंद थोड़े दे रहा होगा, ये भी किस्मत की बात है, दुर्लभ होता जा रहा है सब कुछ, आज जहाँ देखो कॉन्क्रीट के जंगल दिखाई देते हैं... सुन्दर आँखों देखी के लिए आभार

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  4. प्रकृति के करीब होने का रोमांच कुछ अलग ही होता है । बहुत अच्छा लेख है, इसके लिए आपको धन्यवाद ।

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  5. हमारे यहां जानवर के गले में इतना बड़ा लकड़ी का टुकड़ा तब बांधते हैं जब जानवर बहुत मरखना हो

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  6. मैं तो तस्वीरें ही देखे जा रहा हूँ.... :)

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  7. साथ चलते वृक्षों की सुंदर तस्वीरें।
    दार्शनिक भाव जाग गए हैं, यहां तक आते आते।
    अगला यायावर ब्लाग में देखेगा और पाएगा कि वो सब कहां खो गया, जो ब्लाग में है। यह बहुत दुखद स्थिति है।
    आपके चतुरगढ न जा पाने का खेद तो हमें भी हो रहा है।
    प्रवाह में हम भी साथ ही यात्रा कर रहे थे कि रास्ता बंद बता दिया। अब फिर कब...?

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  8. मै बचपन मे गया था चतुरगढ
    वाह जाते जाते हिरन या लक्ब्घा था शायद क्यूकी सुबह ठंड के karn bahoot kohra tha to thik se mai n dekh paya pr mery sath or bhi log the unhone btaya

    Hm log tata s me gai the
    Waha khub msti kiye pahle to waha gai fer waha piknik k leye jagha dhundhe ek mst jagah mil ge gya


    Jaha ham khan paka sakte

    Fer usk leye lkdi lane jangal me gai kribn jangl me bahoot dur nikl gye the


    Etna ghana jangal tha dophar hochuka tha pr suraj ko dekhe bhi n the



    Waha msti to full kiye kai photo sut kiye





    Fer sb log kha pi k upe mndir ki trf gai


    Waha raste me jate jate bahoot msti kiye


    fer talab k pash phoche to soche mst tair tair k achhe se nahayengy


    Or talab me 2-4 gubbary the jinko lane ki bed lgai the


    Wo gubbaara krib 500-1000m k bch me tha pr pani etna thandh tha ki halat kharab ho gya tha mai to n ja paya


    Pr mera dost tha wo gya jaa k laaya

    Fer jaise he shidhi py aaya wo pura thandh se aked gya tha


    Usko turant prathmik upchar kiye or unko unka enam bhi diye do char gali de k



    Fer mndir k andr gai waha mndir ush time reperin ho raha tha


    drshan krne k baad waha ek ldk k satb bijmentan khely unk puri famili the


    wo bhe hamary trf k thr to achhe se baat kiye or gadi me ek sath he ghar ko aane k le lawte



    Thoda rashta kharab hai pr wo sb waha jane k baad bhul gya





    Or khana to etna swadisht tha


    Sbji me chikan bnaye the




    Waha hamara frivar us time khajana khata tha (gutkha) to waha milega n krk 1 puda le k rkha tha usko dukan lagane tipe fulmsti kiye



    Sath me sb k photo leye vidio rikording bhi kiye



    Or mai ped k upr chadh k photo khichaya




    Or bahoot he jaada msti kiya c.g.ka sbse best jagha hai





    Mera name dev verma hai


    raipur .c.g. Se


    Mai chahta hu fer jau apne naye dosto k sath waha fer wahi msti kru or apni purani yade taja kru



    Ab to mera exam bhi khatam ho gya hai




    Sb dost jayengy khub msti kryngy



    Jai shri ganesh

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