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बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

सिरपुर के बाजार की यादगार सैर ......Sirpur Chhattisgarh...... ललित शर्मा

राजमहल से महानदी का दृश्य 
प्राम्भ से पढ़ें 
विश्रामगृह से हम सिरपुर के ढाई हजार वर्ष पुराने मुख्य व्यापार केंद्र के लिए चल पड़े। बाजार में पहुँचते ही दुकानदारों-ग्राहकों का शोर सुनाई देने लगा। लोग-बाग़ हमे कौतुहल से देख रहे थे कि  किस नए ग्रह के प्राणी यहाँ आ टपके। ले जाइये ले जाइये 5 सेर धान में 1 सेर गुड ले जाइये। दीवाली छुट का भरपूर लाभ उठाइए। कपड़ों की दुकानों पर भीड़ नजर आ रही थी। रंग बिरंगे कपडे दुकानों की परछी में लटके हुए थे। चिमटा, चकला, बेलन ले लो, भिन्डी-भिन्डी दो सेर में पांच सेर,दो सेर में पांच सेर। बैगन का भाव कम हो गया है 1 सेर में 5 सेर लो, रस्ते का माल सस्ते में, रेलम-पेल मची थी। नाई, धोबी, मोची, सौन्दर्य प्रसाधन, मिठाई, सब्जी, पुस्तकों इत्यादि की दुकाने देखते हुए हम थोडा आगे बढे ही थे कि तीन मूंछ वाले पगड़ीधारियों ने घोड़ों पर आकर हमें आ घेरा। एक ने कडकती आवाज में मूंछे तान कर राजीव पर सवाल दागना शुरू कर दिया ........ कहाँ से आए हो, श्रीपुर में नए दिख रहे हो। मुसाफिरी दर्ज करवाई कि नहीं? मैं लेखक हूँ, कुछ माह पहले ही मेरी पुस्तक "आमचो बस्तर" आई है, जिसका विमोचन दिल्ली में मुख्यमंत्री ने किया है। आप मुझे नहीं पहचानते क्या? ...... राजीव ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया।

राजमहल के राजकुमार द्वय 
हम नहीं जानते किसी "आमचो बस्तर" और मुख्यमंत्री को। हमारे राज्य में तो सिर्फ राजा और प्रधानमंत्री होता है, समझे। बात न बनाओ, अपना परिचय पत्र दिखाओ, नहीं तो सड़ा दूंगा कारागार में। प्रहरियों की धमकी सुनकर प्रभात सिंह ने मोबाईल निकाल लिया, मैं समझ गया था कि अरुण शर्मा जी को फोनिया रहे हैं, दो तीन बार प्रयास करने के बाद फोन नहीं लगा ....... मोबाईल का टावर भी संकट के समय धोखा देता है। प्रहरियों का सवाल जवाब सुनकर आदित्य सिंह को गुस्सा चढ़ गया। वे भी राज परिवार से सम्बन्ध रखते हैं और प्रहरियों की बदतमीजी से क्रोध आना स्वाभाविक ही था। तुम लोगों की खाल खिंचवा कर भूसा भरवा दूंगा। मेरा भी नाम कुँवर आदित्य सिंह है। जाकर तुम्हारे कोतवाल को बता देना। मेरे मेहमानों की पूछताछ करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? ...... कहकर आदित्य सिंह ने अपनी खड्ग खींच ली।

 बाजार में ब्लॉगर 
ये लो हो गया पंगा। जहाँ जाओ वहीँ कुछ न कुछ हो जाता है। हम कहाँ बाजार घुमने आए थे और यहाँ तलवार बाजी शुरू हो गयी। मैंने बीच बचाव करते हुए कहा- सुनो हवलदार साहेब ! काहे फालतू मगजमारी करते हो, दो-चार रुपए पकड़ो चाय-पानी के लिए और अपने रास्ते लगो। हवलदार के चहरे पर चमक आ गयी दो-चार रूपये का नाम सुनकर। कोने में ले जा कर मैंने उसे 5 रुपए दिए और कहा - ये रखो 5 रुपए और इन दोनों प्रहरियों को हमारी सुरक्षा में लगा दो, बाजार में दादा लोगों का बहुत खतरा है। हवलदार ने कुटिल नागरी मुस्कान फेंकते हुए कहा- हम तो आपकी मूछों की कदर करते है। जब तक आप श्रीपुर में रहेगे, दोनों  प्रहरी आपकी सेवा में रहेगें, अन्य कोई सेवा हो तो कलदार के साथ संदेसा भेजिएगा, सेवा में हाजिर हो जाऊंगा। जरुर- जरुर, तुम कलदार की चिंता मत करना, जितना चाहिए उतना मिलेगा पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। अब दो प्रहरियों की सुरक्षा में हम बाजार भ्रमण करने लगे, एक प्रहरी भाला लेकर अगुवाई और दूसरा खड्ग लेकर पिछुवाई कर रहा था।

बाट जोहती युवतियाँ 
राजीव ने कहा कि किसी मूर्तियों कि दुकान में ले चलो, मुझे वहां अपनी उपन्यास की नायिका के आभूषणों चयन करना है। प्रहरी मुख्य मार्ग से उत्तर दिशा में चलकर एक दुकान से सामने खड़े हो गए। दुकान भव्य और दुमंजली थी। सामने मोटे कपडे की परछी में कुछ कारीगर मूर्तियों को झाड- पोंछ रहे थे। बड़ी सी मारवाड़ी पगड़ी बांधे अधेड़ श्रेष्ठी गद्दी पर बैठा हुआ था, पास ही बैठा मुनीम तख्ती पर हिसाब लिख रहा था।  प्रहरी के साथ हमें देख कर बाहर निकला और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तथा  प्रहरी को बोला - क्या गलती हो गयी हवलदार साहब जो आपको यहाँ तक आना पड़ा, किसी से कहलवा दिया होता तो मैं स्वयं चौकी में हाजिर हो जाता। गलती कुछ नहीं हुयी है, हमारे राज्य में वीआईपी मेहमान आए हैं इसलिए इनके साथ हमें आना पड़ा। आप इन्हें मूर्ति दिखाइए। श्रेष्ठी ने तत्परता से हमे आसन दिया और परिचारक को कहा कि - छोटी श्रेष्ठनी से बढ़िया गुलाब वाली लस्सी बनवा कर लाओ।

दर्जी को नाप जोख के साथ कपडे देते हुए 
हम मूर्तियाँ देखने लगे, राजीव ने एक मूर्ति उठाई, उसके अलंकरण प्रभावशाली थे। मूर्ति एकाध हाथ लम्बाई की रही होगी। आभूषणों से किसी अप्सरा की प्रतिमा मालूम हो रही थी। माथे पर टीका, कानों में खिनवा, नाक में फुल्ली, माथे पर टिकुली, गले में लछमी हार, जुड़े में खोपा फुंदरा, कलाइयों में बघमुही, अंगुलियों में मुंदरी,   भुजाओं में नागमोरी, कमर में करधन, पैरों में कटहर तोड़ा, पैर की अँगुलियों में कोतरी पहने अप्सरा वस्त्राभूषण से कोसल प्रदेश की कोई अनिन्द्य सुंदरी दिख रही थी। प्रभात सिंह ने एक प्रतिमा हाथ में लेकर बताया कि यह बौद्धों की देवी हारिति हैं, महिषासुरमर्दनी, अम्रिका, तारा, चामुंडा, गौरी के साथ अन्य यक्ष एवं यक्षणियों प्रतिमाएं भी उपलब्ध थी। राजीव को अप्सरा की ही प्रतिमा पसंद आई। श्रेष्ठी ध्यान से देख रहा था जैसे ही उसे लगा कि प्रतिमा पसंद आ गयी और ग्राहक फंस गया है, उसने तुरंत हांक लगाई ........ अरे! अभी तक लस्सी नहीं लाया कितनी देर हो गई, जल्दी ला।

केश कर्तनालय 
परदे के पीछे से आवाज आई ......अभी लाया। थोड़ी देर में परदा हिला ...... नौकर एक बड़े सागर में लस्सी भरकर लाया, साथ में मिटटी के भिगाए हुए कुल्हड़ भी। कुल्हड़ों में सबको लस्सी दी गयी, आ हा लस्सी में गुलाब की सुवास के साथ गुड के मिठास के कहने ही क्या हैं, आ हा की ध्वनि सुनकर पर्दा हिला, रूपसी का चेहरा दिखा, समझ गया कि यही छोटी श्रेष्ठनी है, लस्सी की तारीफ सुनने झांक रही है,...... बहुत ही जायकेदार लस्सी बनी है देवी ........धन्य हो तुम - मेरे ऐसा कहते ही श्रेष्ठी ने परदे की तरफ देखा और चिल्लाया - कितनी बार कहा है तुमसे की ग्राहकों के सामने न आया करो, चलो यहाँ से। परदा धीरे से हिला और श्रेष्ठनी शायद चली गयी। कम उम्र की ही लगी, तभी श्रेष्ठी को अधिक चिंता थी ग्राहकों की। दाम बताइए, बहुत विलम्ब हो गया है हमे। अभी तीवरदेव विहार भी जाना है। सारा समय बाजार में ही व्यतीत हो जायेगा तो रात का खाना तुम खिलाने से रहे- आदित्य सिंह ने कहा।

चरण पादुका चिकित्सालय 
इस मूर्ति के दाम 80 खंडी धान है-श्रेष्ठी ने कहा। राजीव ने कहा- हम परदेशी कहाँ धान-वान लेकर घूमेंगे। रुपए बताओ कितने लोगे? मुनीम ने हिसाब लगा कर बताया की 4 रुपए लगेंगे। ये तो मौज हो गयी, 4 रुपए देकर मूर्ति अपने झोले के हवाले की और जैसे ही मैं जाने के लिए मुड़ा गवाक्ष से झांक रही श्रेष्ठनी पर दृष्टि पड़ ही गयी। चलो रे भाई अभी तो यहाँ से, फिर कभी आयेगे, अपना दाना-पानी लिखा है लगता है श्रेष्ठनी के हाथ का। मैंने श्रेष्ठी से पूछ ही लिया कि ये मूर्तियाँ यहीं तैयार होती हैं क्या? नहीं! मैं इन्हें शिल्पकारों से खरीदता हूँ और इसके बदले उन्हें कच्चा माल देता हूँ। शिल्पकारों के घर चौराहे के समीप है। वहां तीन-तीन मंजिल के जो घर दिखाई देंगे वाही शिल्पकारों के है। प्रथम तल में कारखाना है और ऊपर निवास। हमने श्रेष्ठी से विदा ली, प्रहरी ऊँघ रहे थे। हमारे दुकान से निकलते ही सजग हो गए। हम नदी की तरफ चल पड़े।

मिठाई खाई-खजानी की दुकान 
महानदी किनारे पर बहुत सारी छोटी डोंगिया एवं बड़ी नौकाएँ खड़ी थी, नौकाओं से यात्री उतर रहे थे, मालवाहक नौकाओं से सामान उतारा जा रहा था। खूब रेलम पेल मची थी। सडक के किनारे कुछ बौद्ध भिक्षु बैठ कर मन्त्र जाप वाली चकरी फिरा रहे थे। एक जगह भीड़ लगी थी, कुछ लम्बे चोगे पहने सिर पर कपडे को रस्सी से बांधे लोग दिखाई दिए। ऐसी  पोशाक को अरब के देशों में पहनी जाती हे, ये सिरपुर में क्या कर हैं? पास ही डोंगी में बोरियां लाद रहे मजदूर ने बताया कि अरबी लोग यहाँ से चावल इत्यादि लेकर जाते हैं, ये चावल के व्यापारी हैं। अपनी नौकाओं में नमक, खजूर का गुड इत्यादि भरकर लाते हैं। मजदूर से बातें हो रही थी, इसी बीच घंटा बजने की ध्वनि सुनाई दी। प्रहरी ने बताया कि श्रीपुर में प्रति पहर घंटा बजा कर समय की सूचना दी जाती है। यह व्यवस्था राज्य शासन की तरफ से है। सूरज के घोड़े पश्चिम की तरफ दौड़ रहे थे, राजीव ने 2-2 रुपए प्रहरियों को भेंट किए और उन्हें जाने को कहा। देखो कोई भी जमाना हो कलदारों की मधुर खनक कौन नहीं सुनना चाहेगा, 9 रूपए में मौज हो गई न - मित्रों से कहा। काका बड़ा न भैया-सबसे बड़ा रुपैया ......... प्रत्येक काल में मानव का सच्चा साथी।
कम्पनी वाली बाई और हिरामन 
बाजार में रौनक लगी हुयी थी, इक्के वाले, घोड़े वाले, रथ वाले, गाड़ीवान बाजार के बीच में बने पड़ाव में डेरा डाले चोंगी धूक रहे थे। फुरसतिया निठाल्लाई चल रही थी, इन्हें देख कर मुझे फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम के पात्र हिरामन का स्मरण हो आया पर कम्पनी वाली बाई नहीं दिखी। हम तीसरी कसम की चर्चा कर ही रहे थे तभी दो सजी-धजी युवतियां एक चाकर के साथ प्रगट  हुयी। उन्हें देखते ही सभी लोगों ने झुण्ड लगा दिया। आखिर एक रथवान से किराया तय हो गया। मैंने प्रभात सिंह से इनके विषय में पूछा तो उसने बताया कि ये किसबिन डेरा की सवारी है। शाम के वक्त वहाँ खूब रौनक रहती है। नाच-गान मनोरंजन के साधन तो मन बहलाने के लिए हर युग में होते हैं। किसबिन डेरा यहाँ से लगभग 10 मील की दुरी पर है। हमारा भी ज्ञानवर्धन हुआ। सफ़र में एकाध ज्ञानी भी रहना आवश्यक होता है, बहुत सारी समस्याओं का हल एवं जिज्ञासाओं का समाधान स्वमेव निकल आता है। किसबिन डेरा फिर कभी चलेंगे आदित्य सिंह ने आश्वासन दिया। मेरा दिल-ओ-दिमाग गुलाब की लस्सी से तर हो चुका था। रह-रह कर होठों पर लस्सी की मिठास आ रही थी।

परम्परागत शिल्पकार - लोहार 
चौराहे के समीप ही भव्य तीन तल्ला भवन था, जिसके प्रथम तल में कारखाना चल रहा था। घनो एवं हथोडों की लयबद्ध ध्वनि वातावरण में मधुरता घोल रही थी। पसीने से तरबतर लोहा गलाने की 4 भट्ठियों पर कारीगर कार्यरत थे। कुछ कारीगर सामने परछी में छोटी भट्ठी में औजार बना रहे थे। हल के फाल, सुमेला, धूरी, असकुड, रांपा, कुदाली, गैंती, हंसिया, चिमटा, चाकू, छूरी, तलवार, भाला, तीर, बघनखा, शिरस्त्राण, कवच, जंजीरें इत्यादि सामानों का ढेर लगा था। परछी के सामने ही बड़ा सा पानी का हौद था, जिसमे लोहे के सामान को गर्म करके पजाया (टेम्पर) दिया जा रहा था। उन्होंने बताया कि तलवार को कई पानी दिया जाता है फिर कई बार पीट कर स्वरूप में लाया जाता है। ऊपर वाले तल पर युद्ध सामग्री का भंडार था। सैनिक सामान यही पर मिलता है, कई सैनिक दिखाई दिए जो स्वयं के लिए उपयुक्त हथियारों की तलाश में आए थे। आयुध भंडार में मुझे आश्चर्यचकित करने वाली चीज दिखाई दी। मुख्य कारीगर से पूछने पर उसने बताया कि इसे शतघ्नी कहते हैं।इसका अविष्कार हमारे कारखाने में हुआ है, युद्ध के लिए बहुत ही संहारक एवं प्रहारक आयुध है। राजीव ने कहा कि यह तो वर्तमान ज़माने की तोप है। इतिहासकार कहते हैं कि तोप का अविष्कार अरब देशों में हुआ। पर यह तो शतघ्नी के रूप में श्रीपुर में दिखाई दे रही है।

परम्परागत शिल्पकार - तमेर (ताम्रकार)
चौक के परली तरफ बहुत सारे हंडे, थाली, कटोरे, कचोले, बटलोही, इत्यादि एक दुकान में रखे हुए थे। यहाँ बर्तन बनाने के कारखाना चल रहा था। दो तमेर तांबे की चादर को पीट कर बढ़ा रहे थे, हथोड़े की मार से गर्म चादर फैलते जा रही थी। फिर उसे लोहे के दो बेलनो के बीच दबाव गुजारा गया। फिर उसे "गेज" से नाप कर देखा गया। कारीगर ने बताया कि इस पर राजाओं की प्रशस्तियाँ लिखी जाती हैं, राजाज्ञा भी इन्ही ताम्रपत्रों पर टंकित होती है। हम ताम्रपत्र बनाने के साथ इस पर अंकन भी करते हैं। बहुत काम बाकी है, फिर कभी अवकाश मिलने पर चर्चा करेंगे कह कर तमेर ने हम निठल्लों से पीछा छुड़ाया। प्रभात सिंह ने बताया कि महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र और मुहरें यहीं तैयार होती हैं। वह नंदी के साथ गज लक्ष्मी के चित्र वाली बड़ी मुहर यही बनी थी। तभी तमेर बड़े ठसके में था, सीधे राजा के ही सम्पर्क में रहने से इतनी  ठसक तो बनती है।

प्राचीन युद्ध कला का प्रदर्शन 
बाजार से नगर की और लौटते हुए रास्ते में दो बरगद के वृक्ष दिखाई दिए, यहाँ भिक्षुओं की रेलमपेल मची थी। कुछ वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये निर्वाण की मुद्रा में बैठे थे। कषाय वस्त्रों में घुटे हुए सिर सूरज की पश्चिमामुख आभा से दमक रहे थे। एक तरफ युवा बौद्ध साधू युद्ध विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे। प्रभात सिंह ने बताया कि इस वृक्ष की कलम बोधगया से लाकर किसी भिक्षु ने इस स्थान पर लगाई थी। तब से यह पवित्र वृक्ष बौद्धों की श्रद्धा एवं आस्था का केंद्र बना हुआ है। अन्य प्रदेशों से आने वाले बौद्ध इस वृक्ष का दर्शन करना नहीं भूलते। वृक्ष के समीप ही कुछ चित्रकारों की दुकाने सजी थी। वे बरगद के पत्तों पर भगवान बुद्ध का चित्र बनाकर बेच रहे थे। मैंने प्रभात सिंह से कहा कि भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति तो पीपल के वृक्ष के नीचे हुयी थी और यहाँ बरगद का वृक्ष बता रहे हैं। सर ! बरगद हो या पीपल हैं तो एक ही प्रजाति के, दोनों की ही मान्यता हिन्दू धर्म शास्त्रों में एक जैसी ही है। बरगद की छाँव में भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है। धर्म और आस्था बहस का विषय नहीं, मान्यता का है ..... राजीव ने फुलझड़ी छोड़ी।

पंच कर्म - आयुर्वैदिक चिकित्सा 
पास ही बड़े से घर के बाहर बड़ी-बड़ी खरल रखी थी, उनमे कुछ लोग जड़ी-बूटी खरल कर रहे थे। प्रथम दृष्टया ही लग गया कि यह भैषेजिक केंद्र है। मरीजों की भीड़ थी, कुछ विदेशी भी दिखाई दे रहे थे। हम भी कौतुहलवश जा पहुचे। तो वहां के प्रहरी ने बताया कि यहाँ रसकर्म, पंचकर्म, आर्युवैदिक स्नान, शल्य क्रिया द्वारा रोगों का शमन किया जाता है। यहाँ के भैषजाचार्य अत्याधुनिक पद्धति से समस्त रोगों की चिकित्सा करते हैं। विदेशियों के विषय में पूछने पर बताया कि अरबदेश, इजिप्त, मेसोपोटामिया, बाली, जावा, सुमात्रा इत्यादि से रोगी आकर चिकित्सा लाभ लेते हैं तथा चिकित्सा पद्धति का अध्ययन भी करते हैं, यहाँ के स्नातक विदेशो में अपनी सेवाए दे रहे हैं। मैंने राजीव से चित्र लेने कहा तो उसके कैमरे की बैटरी ने धोखा दे दिया। मुझे अत्यधिक खेद हुआ, अन्यथा सभी चित्र आपको देखने मिलते। टहलते हुए बाजार क्षेत्र से हम अपनी कार तक पहुच गए। अब यहाँ से हमें तीवरदेव विहार जाना था। जारी है .......... आगे पढ़ें .........

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

आनंदप्रभ कुटी विहार सिरपुर ...Sirpur Chhattisgarh............. ललित शर्मा

यायावर - चित्र - प्रभात सिंह 
 प्रारंभ से पढ़ें  
भोजनोपरांत कुछ देर का ब्रेक लेने  लिए रेस्ट हाउस पहुंचे, भोजन की खुमारी कान में कह रही थी, देह कुछ देर का विश्राम चाहती है, देह है तभी देहि है, देह विश्राम न करे तो देहि पूर्ण विश्राम की और बढ़ जाता है। नदी का बहता जल बहुत दूर तक चला जाता है फिर हाथ नहीं आता। अंजुरी में जल ठहर जाए तो अर्पण-तर्पण कौन करे। संसार तो पत्थरों से घर भर लेना चाहता है। सिरपुर के सभी घर पत्थरों से भरे है। जिस घर को भी देखो वह पत्थरों का ही बना है। पता नहीं किस गंगु तेली के घर में राजमहल की ड्योढ़ी का पत्थर लगा है, जिसके सामने कभी उसे किसी ने खड़ा होने नहीं दिया। यह समय की बात है, काल का पहिया रुका कब, उसे तो चलते ही रहना है। प्रत्येक के नसीब में नहीं होता कि उसकी कीर्ति युगों-युगों तक अमर हो, ऐसे लोग बिरले ही होते हैं। कहावत है ना " माई तू एह्ड़ा पूत जण, कै दाता कै सूर। या तो तू रह बाँझड़ी, मति गंवावे नूर।। यहाँ कुछ ऐसे सूर-वीर पैदा हुए जिनकी कीर्ति आज तक गायी जा रही है और हम उसके साक्षी अनायास ही बन रहे हैं। 

युद्ध रत स्त्री पुरुष 
रेस्ट हाउस के बिस्तर पर लेटते ही विचारों की श्रृंखला शुरू हो जाती है। जैसे यह बिस्तर नहीं राजा विक्रमादित्य का सिंहासन बत्तीसी हो गया हो। फोन से विचारों की तन्द्रा से बाहर आता हूँ, प्रभात सिंह रायपुर से लौट आए हैं, राजीव और आदित्य सिंह कैंम्प चले जाते हैं, मैं बिस्तर पर ही पड़ा रहता हूँ। झपकी आने को चल पड़ी, जैसे ही उसने दिमाग के दरवाजे पर दस्तक दी, एक बार फोन फिर से बज उठा, लो हो गया सत्यानाश, दोपहर की झपकी बहुत ही शर्मीली है, जरा सी आहट पर लौट जाती है, फिर तो मनुहार करने से भी नहीं आती ........... हेलो ..........कौन?........ रांग नंबर ..... सत्यानाश जाये तुम्हारा, सामने होता तो मुर्दा और खटिया भी रेंगा देता रांग नंबर के साथ। घर से बाहर होने पर मोबाइल का गला भी नहीं घोंट सकता, न जाने कब आपातकालीन सेवा की जरुरत पड़ जाये मालकिन को। पराधीन सपनेहु सुख नाहि। 

बाज़ार क्षेत्र से प्राप्त धातु प्रतिमा 
बिस्तर छोड़ दिया मैंने और कैम्प का रुख किया। कैम्प वह जगह है जहाँ अरुण कुमार शर्मा जैसे पुराविद ऋषि रहते हैं तो वहां आरुणि जैसे प्रभात शिष्य भी मिलते हैं। जिस गाँव में डॉक्टर की सुविधा नहीं है, जहाँ दिन में एक बार ही रायपुर के लिए बस चलती है, जहाँ शाम होते ही आस-पास के खेतों के कीड़े आकर घर में भर जाते हैं, जहाँ बरसात में सांप बिछुओं की भरमार है, वहां ऋषितुल्य इच्छा शक्ति का धनी व्यक्ति ही अडिग रह कर कार्य कर सकता है। कार्य करने वाले की आलोचनाएँ समालोचनाएँ होती है। अरुण कुमार शर्मा लगभग 80 बसंत देख चुके हैं, उनमे अभी भी एक नौजवान से अधिक उर्जा है, पिछली बार जब आया था तो उन्होंने बताया कि कैम्प में रोज़ जहरीले सर्प घुस आते हैं उन्हें किसी तरह टोकरी में दबा कर बाहर फेंक आता हूँ, "जाओ इधर तुम्हारा कोई काम नहीं है।" ऐसा कह कर भगा देता हूँ। जंगल में रहने पर तो सभी तरह के जीव जन्तुओं से पाला पड़ता है।

ताले,कुल्हाड़ी
कैम्प में पहुचने पर राजीव, आदित्य सिंह, प्रभात सिंह वहीँ मिल जाते हैं, उत्खनन में प्राप्त मूर्तियों के विषय में प्रभात सिंह जानकारी दे रहे थे। राजीव रंजन चित्र ले रहे थे। उत्खनन में प्राप्त  लोहे के औजार दीवार पर टंगे हुए हैं, जिनमे ताले, संसी, शिरस्त्राण, कुल्हाड़ी, चाकू, हल के फाल एवं अन्य बहुत सारी चीजे भी हैं। तालों के प्राप्त होने से सीधा-सीधा ही अनुमान लग जाता है कि उस ज़माने में चोर भी होते थे। तभी उनसे बचने के लिए तालों का प्रयोग होता था। ऐसे ही ताले मेरे घर में भी थे, ढाई हजार वर्ष बाद भी ताले बनाने की तकनीक नहीं बदली। मेरे सामने ही खोला गाँव का लोहार फिरतु कई ताले बनाकर लाया था। इस बात को लगभग 30 बरस हो गए। ताले मजबूत थे, पता नहीं फिरतु अब जिन्दा है भी कि नहीं, बरसों हो गए उससे मुलाकात हुए। प्रचलन में नहीं होने एवं मशीनों का बना सामान सुलभ होने के कारण परम्परागत कारीगरी लुप्त हो गयी। अब इस कार्य को नयी पीढ़ी करना भी नहीं चाहती।

मुहर
व्यापार क्षेत्र के ताम्रकार के घर से मिला ताम्रपत्र लेख भी हमें देखने मिला। इसमें मुहर भी बनी हुई है। सातवीं सदी के बालेश्वर महादेव मंदिर में बहुत सारी मूर्तियाँ उत्खनन में प्राप्त हुयी हैं, इन शिलाओं में दोनों तरफ मूर्तियाँ गढ़ी गयी हैं। समाज में घट रही घटनाओं का भी अंकन शिल्पकार ने अपनी मूर्तियों में किया है।  मूर्ति में एक व्यक्ति अपनी पत्नी को पीट रहा है, दोनों एक दूसरे से गुत्थम गुत्था दिखाई दे रहे हैं। पति ने पत्नी का गला पकड रखा है तो पत्नी ने भी लातें फंसा रखी है। बाजार क्षेत्र के एक भवन से धातु की 80 मूर्तियाँ प्राप्त हुयी हैं। लगभग 2000 से अधिक वस्तुएं उत्खनन में निकली हैं, जिनमे धातु प्रतिमा, आभूषण बनाने के औजार, लोहे के अनके प्रकार के बर्तन, कीलें, जंजीर, सिलबट्टा, दीपक,पूजा के पात्र, घड़े, मिट्टी के मटके, कांच की चूड़ियाँ, मिट्टी की पकी मुहरें एवं खिलौने तथा तीन सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इनमे से एक सिक्का शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का है, दूसरा कलचुरी शासक रत्नदेव के समय का है, तीसरा महत्वपूर्ण सिक्का चीनी राजा काई युवान (713 से 741 ईस्वी) के समय का है।

आनंदप्रभ कुटी विहार
शाम होने को थी, हमे और भी स्थान देखने थे, हम आनंदप्रभ कुटी विहार पहुचे।सिरपुर में उत्खनन के दौरान दो बौद्ध विहार प्रकाश में आए हैं। विहारों के निर्माण में मुख्य रूप से ईंटों का प्रयोग हुआ है। अधिकांश ईमारतों में ईंटों का प्रयोग यह दर्शाता है कि महानदी के कछार की मिट्टी से मजबूत ईंटें बना करती थी। विहारों में भिक्षुओं के अध्ययन अध्यापन के साथ निवास की व्यवस्था थी। यहाँ के मुख्य विहार से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि महाशिवगुप्त बालार्जुन के राज्यकाल में आनन्द प्रभ नामक भिक्षु ने इसका निर्माण कराया था। यह विहार दो मंजिला था। विहार के सम्मुख तोरण द्वार था जिसके दोनों तरफ द्वारपालों की प्रतिमाएं रही हैं। अभिलेख के आधार पर इस विहार का नाम  आनंदप्रभ कुटी विहार किया गया है। इसके निकट एक विहार और प्रकाश में आया है जिसे तल योजना के अनुसार स्वस्तिक विहार के नाम जाना जाता है। यहाँ भी भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है।

कचरियाँ
आनंदप्रभ कुटी विहार की घास काटी जा रही थी, मुझे कुछ पकी हुयी कचरियाँ दिखाई दी, मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। सोचा कि आज लहसुन के साथ इसकी चटनी बनवायेंगे और रात के भोजन में प्रयोग करेंगे। कचरी को स्थानीय बोली में बुंदेला कहते हैं, साथ ही इसे इन्द्रायण भी कहा जाता है। मैंने कचरियाँ इकट्ठी करके कार में रखवा दी। अब हम तीवरदेव महाविहार देखने चल पड़े। यहाँ आने पर अँधेरा हो चुका था। इसलिए तीवरदेव विहार देखने का कार्यक्रम रद्द कर रेस्ट हाउस पहुच गए। रात का खाना प्रभात सिंह के सौजन्य से था। उन्होंने कहा था कि खाना मैं बना कर लाऊंगा। रात हमने खाना साथ ही खाया। दूसरे दिन सुबह 6 बजे से सिरपुर भ्रमण करने की योजना बना कर आदित्य सिंह और प्रभात सिंह अपने निवास को प्रस्थान कर गए। हम अपनी सिंहासन बत्तीसी पर ढेर हो गए। ...... आगे पढ़ें .........

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

गंधर्वेश्‍वर मंदिर..... Sirpur Chhattisgarh ............ललित शर्मा

महानदी के किनारे सुबह 
प्रारंभ से पढ़ें  
प्रभात सिंह की आमद आहट से प्रभात हुई। वे चाय बनाकर ले आए थे। मैंने घड़ी की तरफ देखा, 6 बजा रही थी, मतलब प्रभात सिंह वादे के पक्के हैं, ये तो मानना पड़ेगा। एक रात और गुजर गई सिरपुर में, पर यह न पूछो कैसी गुजरी? रेस्ट हाउस विदेशी गोरों एवं देशी गोरों की ऐशगाह हुआ करते थे। राजीव रंजन "आमचो बस्तर" के पृष्ठ 243 में लिखते हैं ...... 
छोटा सा कॉटेज था। तीन कमरों के इस कॉटेज को अंग्रेज अफसरों के लिए विश्राम गृह बनाया गया था। बाहर कुर्सियां लगी हुई थी। जिस पर थानेदार और उसके चारों सिपाही पसरे हुए थे। आवाज ही बता रही थी कि उन सभी पर नशा हावी है।
"अन्दर अंग्रेज इंजिनियर साहब बैठे हैं। तेरा हिंगा उनके साथ ही काम कर रहा है। जा वो ही तुझे सब कुछ बताएँगे।" थानेदार ने एक कमरे की तरफ इशारा किया। नीरो हिचक गयी, उसने मासा की तरफ देखा, वह नजरें झुकाए खड़ा हुआ था।
'अरे जा ना! इस बार थानेदार ने डांट दिया था। 
नीरो की श्वांस ही रुक गई। उसके डरे हुए कदम कमरे की और बढे। धीरे से उसने कमरे का दरवाजा खोला। भीतर एक विलायती लालटेन जल रही थी, जो शाम के धुंधलेपन से लड़ रही थी। एक और कुर्सी पर अंग्रेज बैठा था। वह दरवाजे पर ही ठिठक गई।
'अन्दर आओ'  अंग्रेज इंजिनियर ने अपना हिंदी ज्ञान बघारा।
'हिंगा .......!' नीरो की आवाज हलक में ही अटक गई।
'अन्दर आओ, मैं जानता हिंगा किधर। अंग्रेज के स्वर में प्रलोभन था।
नीरो टस  से मस नहीं हुई। तभी किसी ने पीछे से उसे कमरे के भीतर ढकेल दिया।दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया।
'झांकता क्या है मिश्रा, इधर  आ जा।' थानेदार ने दरवाजे में आंख लगाये खड़े सिपाही को इशारा किया।
'साले गोरे होते तो जानवर ही हैं'. सिपाही मिश्रा एक कुर्सी पर आकर पसर गया।
नीरो के चीखने की आवाजें सन्नाटे को चीर रही थी। उसके स्वर में रह-रह कर उभर रहा दर्द और कराह यह बता रहे थे कि  अंग्रेज केवल .........को उतारू नहीं है। घंटे भर बाद कमरे का दरवाजा खुला और अंग्रेज ने नीरो को बाहर ढकेल कर दरवाजा बंद कर लिया।--------------------

महानदी के किनारे ब्लॉगर 
ऐसी है कहानी इन रेस्ट हाउसों की। कहाँ नींद आनी थी? पता नहीं कितनो की चमड़ी यहाँ बुलाकर हंटर से उधेडी गयी होगी। कितनो को फांसी पर टांगा गया होगा। कितनो की हड्डियाँ इस धरती के नीचे दफन होंगी जो आज भी कह रही हैं उनका क्या कसूर था। निरपराधों की आत्माएं आज भी चलो छोड़ो, सुबह-सुबह मैं भी क्या लेकर बैठ गया। बहुत काम बचा है, नहाने धोने के साथ नाश्ता पानी भी। लगभग 7 बजे हम तैयार होकर गंधर्वेश्‍वर मंदिर चल पड़े। गंधर्वेश्वर मंदिर महानदी के किनारे पर है। हमने उत्तर के दरवाजे से प्रवेश किया। प्रवेश द्वार के दांयी तरफ एक बड़ा बरामदा है, जिसमे पशुओं ने डेरा जमा रखा है। 

गंधर्वेश्वर मंदिर का स्तम्भ लेख 
परिसर में ढेर सारा गोबर और गंदगी फैली है। इस मंदिर का संचालन ट्रस्ट करता है, जिसमे कलेक्टर भी शामिल होते हैं। यह सतत पूजित मंदिर है। यहाँ से नदी का दृश्य सुहाना दिखाई देता है। किनारे पर नहाते लोग, जल किलोल करते बच्चे, नदी की रेत पर गायों का झुण्ड, नदी पार के जंगल और भी न जाने क्या क्या। प्रकृति का स्वर्गिक आनंद यही पर आकर मिलता है। कुछ देर हमने आम की छाँव में बैठ कर गुजारा। नदी किनारे बैठ कर प्रकृति का आनन्द लिया। हजारों बरसों से महानदी  प्रवाहमान है। प्राणदायिनी बनकर धरा को सिंचित करते हुए किसानो की कोठी को धन धान्य  से भर रही है।

गंधर्वेश्वर मंदिर एवं उर्ध्व लिंग नटराज
मंदिर में प्रवेश करते ही बांयी तरफ उर्ध्व लिंग नटराज की विलक्षण प्रतिमा लगी हुयी है। इसका निर्माण प्राचीन विहारों एवं मंदिरों से प्राप्त स्थापत्य सामग्री से किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। स्तम्भों पर कारीगरी की गयी है। दो स्तम्भों पर लेख भी मिलते हैं। ये अभिलेख महाशिवगुप्त बालार्जुन के काल के हैं। यहाँ राजा ने मालियों को आदेश दिया है कि  वे कर के रूप में प्रतिदिन मानवाकर पुष्पाहार भगवान को अर्पित करें। मंदिर के स्थापत्य से पता चलता है कि यह मंदिर भी प्राचीन है। मंदिर के परिसर में बहुत सारी मूर्तियाँ रखी हुयी है, बरसों पहले जब यहाँ आया था तो मूर्तियों का संरक्षण देख कर इसे ही संग्रहालय मान बैठा था।

नास्तिकता और आस्तिकता के बीच उन्मुक्त ठहाका 
मंदिर के परिसर में एक स्थान पर बुद्ध के साथ शिवलिंग भी दिखाई दिया। दो विपरीत विचार धाराएँ एक साथ दिखाई दी। एक पूर्णत: नास्तिक एवं एक पूर्णत: आस्तिक। इस वृक्ष के नीचे बाद में किसी ने दोनों विग्रह एक साथ रख दी होंगे। राजीव इस स्थान पर एक चित्र चाहते थे। हमने चित्र को चित्रित कर लिया, मतलब कैमरे में कैद कर लिया। मंदिर का मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख है। जिस पर आधुनिक निर्माण दिखाई देता है। मुख्यद्वार पर नंदी आरूढ़ शिव पार्वती विराजमान है। मंदिर परिसर में पुजारी परिवार भी निवास करता है। कहते है कि यहाँ नागा अखाड़े के कोई संत रहते थे, फिर उन्होंने गृहस्थी डाल ली। ये सभी उन्ही का परिवार है। नदी के किनारे पर पहुच कर चित्र ले रहे थे तभी आदित्य सिंह भी पहुच गए, इनकी गाड़ी 3 घंटे विलम्ब से चलने के कारण नदी प्लेटफार्म पर पहुची। हमे गंधर्वेश्वर मंदिर से अब विशेष क्षेत्र में जाना था। जहाँ जाने पर सिरपुर का वैभव दिखाई देता है। जारी है .... आगे पढ़ें ..................

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

लक्ष्मण मंदिर सिरपुर ......Sirpur Chhattisgarh..............ललित शर्मा

संग्रहालय की कुछ मूर्तियाँ और  लक्ष्मण मंदिर
प्रारंभ से पढ़े  
सकुड़ से लौटते हुए रास्ते में मख्मल्ला और खरखरा नामक दो नाले मिले, बरसाती खेती में नालों का भी सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण योगदान रहता है। यहाँ से लौटते हुए हमें लक्ष्मण मंदिर देखना था। जो हमारे रास्ते में ही था। मंदिर के मुख्य द्वार पर गाड़ी लगाने के बाद हमने मंदिर में प्रवेश किया। सामने ही अद्भुत दृश्य था, जिसे देखने के लिए देश विदेश के पर्यटक आते हैं। सिरपुर में अथाह पुरा सामग्री है, जिसे एक दो दिन में देखना संभव नहीं है। लगभग 48 जगह पर उत्खनन हो चूका है। हम लक्ष्मण मंदिर पहुचे, यह ईंटों का बना खूबसूरत भव्य मंदिर है। 7 फुट ऊँची चूना पत्थर (लाइम स्टोन) की जगती पर पर स्थापित है। जगती में लेट्राईट का भी इस्तेमाल हुआ है, ऐसे लेट्राईट ब्लॉक के बने मकान मैंने कोंकण के रत्नागिरी इलाके में देखे थे।

लक्ष्मण मंदिर - सिरपुर
लक्ष्मण मंदिर का निर्माण मगध के राजा सूर्य वर्मन की पुत्री, श्रीपुर के प्रतापी नरेश महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता, हर्ष गुप्त की पत्नी महारानी वासटा ने ईस्वी 650 में कराया था। मंदिर के मुख्य द्वार पर शेषशैया में विष्णु प्रदर्शित है, कहते हैं जिस देवता को मंदिर मंदिर समर्पित किया जाता था उसे द्वार शीश पर उत्कीर्ण किया जाता था। द्वार पर विष्णु के अवतार, कृष्ण लीला के दृश्य, मिथुन दृश्य एवं द्वारपालों का अंकन है। द्वार के दोनों तरफ चौखट में नृत्य करते मयूर अंकित होना मौर्यों की उपस्थिति को प्रदर्शित करता है। मंदिर के गर्भ गृह में नागराज शेष की बैठी हुयी सुन्दर रखी हुयी है। बाहरी दीवारों पर कूटद्वार, वातायन आकृति, गवाक्ष, भारवाहकगण, गज, कीर्तिमुख एवं आमलक प्रदर्शित हैं। 

लक्ष्मण मंदिर - सिरपुर एवं कंठी ध्रुव 
यहाँ पर हमारी भेंट 62 वर्षीय कंठी ध्रुव से होती है। ये लक्ष्मण मंदिर के केयर टेकर है, आदित्य सिंह ने बताया की जितना सिरपुर के विषय में कोई पुराविद नही जानता उससे अधिक कंठी ध्रुव जानते हैं, यह अतिश्योक्ति नहीं है। कंठी के पिताजी श्रवण ध्रुव मंदिर उत्खनन के प्रारंभिक दिनों से ही यहाँ चौकीदार थे, उनकी जगह पर कंठी को नौकरी दी गयी है। गुटखा चबाते हुए कंठी बताते है कि  - मंदिर उत्खन से पहले यहाँ घना जंगल था। यह मंदिर टीले में दबा हुआ था। मेरी जानकारी में है जब इसकी खुदाई हुयी थी। तब से मैं यही पर रहता हूँ। सिरपुर का मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देख-रेख में है। मंदिर के समीप जल का विशाल कुंड है। लक्ष्मण मंदिर 1952 में प्रकाश में आया था। श्रीपुर नगर का उल्लेख व्हेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में किया है। मंदिर स्थल पर पेड़-पौधे रोप कर सुन्दर बगीचे का निर्माण किया गया है। भारतियों के प्रवेश के लिए 5 रूपये एवं विदेशियों के लिए 2 डालर का टिकिट रखा गया है।

राजिवादित्य 
ईंटो से बना यह मंदिर भारत में पुरातत्व की दृष्टि से विशिष्ट स्थान रखता है। मंदिर निर्माण के विषय पर चर्चा हो रही थी। मुझे प्रतीत होता है कि मंदिर निर्माण के पश्चात् ईंटों पर कलाकृतियाँ नहीं उकेरी गयी हैं। पहले इसका प्रतिरूप बना कर मंदिर आकृति की मांग के अनुसार सांचों में ईंटे ढाली गयी होंगी। उसके बाद मंदिर की परिकल्पना के अनुसार उन्हें जोड़ा गया होगा। मंदिर निर्माण के पश्चात  ईंटों को घिस कर वर्तमान स्वरूप दिया होगा। क्योंकि ईंटो पर खुदाई करना असंभव है, यदि लगी हुयी ईंटों पर खुदाई के दौरान कोई चूक हो जाये तो उसे खोद कर निकलना पड़ेगा और इससे समय के साथ आर्थिक नुकसान भी होगा। लक्ष्मण मंदिर के वास्तुविद ने कमाल का काम किया है। डॉ हेमु यदु की किताब में महारानी वासटा को मंदिर का शिल्पी बताया गया गया है। यह तो तय है की महारानी वासटा के धन से मंदिर का निर्माण हुआ होगा पर मंदिर का शिल्पी होने की बात हजम नहीं होती। मैं मानता हूँ कि मंदिर को मूर्त रूप देने वाला वास्तुकार और शिल्पकार कोई अन्य ही होगा, जिसका नाम प्रकाश में नहीं आया है। 

फोटो पॉइंट की यायावरी खोज 
मंदिर के पीछे दो संग्रहालय है, जिनमे सिरपुर से उत्खनित मूर्तियाँ रखी हुयी हैं, राजीव ने लगभग सारी मूर्तियों के ही चित्र ले लिए। जिसमे शिव लिंग पर उकेरी गयी 4 देवी, महिषासुरमर्दनी, बुद्ध, विष्णु, नरसिंह, रथारूढ़ देव एवं अन्य ढेर सारी प्रतिमाएं रखी हुयी है। मुझे पहाड़ को खोद कर उसमे बनायीं हुयी गुफाओं का प्रतिरूप बहुत पसंद आया। जिस तरह रामगढ की पहाड़ी पर सीता बेंगरा बनी हुयी है वैसा कुछ दृश्य उसमे दिखाई देता है। संग्रहालय से निकलते हुए सूरज सिर पर चढ़ चुका था।  संग्रहालय लौटते हुए मुझे फोटो के लिए एक लोकेशन दिखाई दे गया जहाँ से विष्णु मंदिर के साथ व्यक्ति की भी फोटो आ सकती है। बगीचे में डली बेंच पर बैठ कर मैंने राजीव से चित्र लेने कहा। दो-तीन बार में जैसा चाहता वैसा ही चित्र मिल गया। यहीं पर मैंने राजीव का भी चित्र लिया। बहुत ही सुन्दर चित्र आया। भूख जोरों की लग चुकी थी, सिरपुर के एकमात्र होटल में फोन करके आदित्य सिंह ने  भौजी को खाना बनाने के लिए कह दिया था। यहाँ से निकल कर हम अब सोनवानी भौजी के होटल में ही रुके। 

लक्ष्मण मंदिर - सिरपुर का मूर्ति शिल्प 
होटल झोपडी नुमा छोटा सा ही है, पर समय पर खाना मिल जाये वह बड़ी बात है। सुबह जब रेस्ट हाउस से चल रहे थे तो चौकीदार को दोपहर के खाने के लिए कहा तो उसने सिलेंडर ख़त्म होने की मज़बूरी बताई, बीमार केयर टेकर चन्दन साहू मजे से एक रूम  में बैठ कर संगी-साथियों के साथ ताश खेल रहा था। होटल में प्रवेश करते ही तीन लोग (दो वृद्ध एवं 1 महिला) भोजन करते दिखाई दिए। आधुनिकवसना प्रौढ़ युवती ने जींस-कुर्ती धारण कर रखे थे। नैनों में कजरे के साथ दिल्ली वाला पेसल जुड़ा भी बांध रखा था। उसकी खाने की प्लेट में एक सुग्गा भी समोसे में चोंच मार रहा था। लगा कि पालतु है, बड़े इत्मिनान से समोसे का भोग लगा रहा था। हाव-भाव से लगा कि आधुनिकवसना प्रौढ़ युवती कोई पत्रकार या ब्यूटी पार्लर की मालकिन होगी। क्योंकि सिरपुर में पत्रकारों की उपस्थिति होते रहती है, यह कोई नयी बात नहीं थी। हमने भी हाथ मुंह धोकर खाना लगाने का हुक्म दिया।

ग्रामीण होटल भोजन का इंतजाम 
खाना लगते तक मेरा ध्यान  सुग्गे की तरफ था। तभी आधुनिकवसना प्रौढ़ युवती का फोन बजा और उसने चर्चा शुरू की। दो लाइनों में ही खुलासा हो गया, वह ब्यूटी पार्लर वाली थी। कह रही थी गोल्डन फेशियल से अच्छा डायमंड फेशियल होता है। डायमंड फेशियल से चेहरे पर चमक आती है, दुल्हन के लिए यही ठीक रहता है। गोल्डन फेशियल थोड़ी अधिक उम्र वालियों के सही रहता है। इससे धीरे-धीरे स्किन टाईट होती है। डायमंड फेशियल थोडा महंगा है, लेकिन दुल्हन के लिए वही उपयुक्त है। मशरूम फेशियल और पर्ल फेशियल भी किया जा सकता है, ओके डायमंड फेशियल, फायनल करती हूँ, तुम बता देना रायपुर में कहाँ आना है? मैं............को फोन कर दूंगी वो मुझे लेने आ जायेगा, लेकिन जल्दी वापस आउंगी, उन्हें बिना बताए आना है न...... अब मोबाईल पर बता देना............ मैं चले आउंगी............. टेक केयर। पर्स से एक थैला निकाला, अपने रुमाल से सुग्गे की चोंच पोंछी, उसे सहलाया, "किस" किया, सुग्गे का चेहरा डायमंड फेशियल की चमक से चमाचम हो गया। उसे थैले में रखा सहेज कर और सुग्गा धन्य हो गया ऐसी मालकिन पाकर ............

सुग्गे वाली आधुनिकवसना प्रौढ़ युवती
लो जी अपनी भविष्यवाणी सत्य हो गयी बिना पतरा देखे ही। अरे भाई घुमक्कड़ी सब सिखा देती है, किसकी क्या पहचान होती है, व्यक्ति की शक्ल, खानपान बोली-भाषा और उसका पहनावा बता देता है कि वह किस प्रदेश का रहने वाला है और क्या काम करता है? अब ये न पूछना कैसे होता है सब? घुमक्कड़ी करो और खुद जान जाओ। हमारा भोजन लग चुका था, गरमा गरम रोटियां, तुअर की दाल के साथ लौकी चना दाल की सब्जी। भूख के समय यह किसी तसमई से कम नहीं लग रही थी। भोजनोपरांत हम रेस्ट हाउस की और थोडा आराम करने के लिए चला पड़े। डट कर खाने के बाद बिस्तर की जरुरत थी। मैंने कहा कि राजीव भाई कच्चे ब्लॉगर ही निकले। कैसे -राजीव ने पूछा। अरे भाई ब्लॉगर को अपने ब्लॉग के लिए हर जगह सामग्री मिल जाती है। अगर पक्के ब्लॉगर होते तो सुग्गे के साथ सुग्गे वाली की भी फोटो होती :).... देखो हमने फोटो ले ली, न तुम्हे पता चला न सुग्गे वाली को। ब्लोगिंग में स्टोरी के साथ सबूत चाहिए भाई........ ही ही ही ही (हँसी, महफूज अली से साभार) जारी है ..... आगे पढ़ें 

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

सिरपुर का सुरंग टीला .......Sirpur Chhattisgarh.............ललित शर्मा

महानदी का विहंगम दृश्य 
 प्रारंभ से पढ़ें 
भोर में ही नींद खुल गई, रेस्ट हाउस कुछ भुतहा सा लगा, हो क्यों न? जब सिरपुर में इतने मुर्दे उत्खनित होकर जीवंत  हो रहे हैं तो भुतहा लगना स्वाभाविक है। कोई चुड़ैल सपने में नहीं आई पर भारीपन अत्यधिक था। राजीव थक कर खर्राटे ले रहे थे, जैसे-तैसे 6 बजाए घड़ी ने तो थोड़ा उजाला हुआ। सुबह की चाय का इंतजाम आदित्य सिंह के घर से होना था, रेस्ट हाउस का चौकीदार उनके घर से चाय ले आया था। रेस्ट हाउस के प्रबंधन पर गुस्सा आ रहा था कि सुबह की चाय का इंतजाम भी नहीं कर सकते। चौकीदार ने चाय दी और हम बिस्तर से उठ गए। उसे नहाने के लिए गर्म पानी का हुकुम सुनाया तब तक राजीव के साथ गपशप चलती रही। कुछ दिनों पूर्व राजीव नालंदा और बोध गया घूम कर आए हैं, वहीं के किस्से चल रहे थे। राजीव ठन्डे पानी से नहाये और हम आदतानुसार गर्म पानी से। सामने ही चित्रोत्पला गंगा प्रवाहित हो रही थी पर ठंडे पानी में स्नान करने का मन नहीं बना।

सिरपुर भ्रमण की तैयारी 
चौकीदार को नाश्ते के लिए भेजा और हम आदित्य सिंह की प्रतीक्षा करने लगे। वे सुबह 7 बजे आने का अहद कर गए थे, पर पहुंचे नहीं। चौकीदार गर्म पकोड़े और समोसे लेकर आया, राजीव रंजन का उपवास था, नौरात्रि प्रारंभ हो चुकी थी राजीव ने पूरे नौ दिन फलाहार करने का व्रत ले रखा था। नास्ते और भोजन की डरकर हमें ही थी। नास्ता करने के बाद सुस्ती आने लगी, सोने का मन करने लगा। तभी आदित्य सिंह पहुच गए, प्रभात सिंह की जिम्मेदारी उन्हें ही संभालनी थी। हमने सिरपुर भ्रमण का श्रीगणेश सुरंग टीला से करना उपयुक्त समझा। सुरंग टीला रेस्ट हाउस से लग कर ही है।यह शिवालयों का समूह है, प्रथम दृष्टया क़रीब साढ़े चार मीटर ऊंचे अधिष्ठान पर स्थित सुरंग टीला मिश्र के किसी पिरामिड से कम नहीं लगता जिसने चित्रों में पिरामिड देखा है उसे वह उतना ही विशाल लगता है। यह पंचायतन शैली का पश्चिम मुखी मंदिर है। 

सुरंग टीला 
इतिहास को समझने  में किंवदन्तियो, जनश्रुतियों एवं कहावतों की बड़ी भूमिका होती है। सुरंग टीला के विषय में किंवदंती है कि प्राचीन काल में यहाँ महल था, यहाँ की रानी नदी में प्रतिदिन कमल पुष्प पर बैठ कर नहाती थी। एक बार उसने प्रजा पर अनावश्यक कर लगा दिया। जिससे प्रजा परेशान हो गयी। दुसरे दिन जब वह नहाने गयी तो कमल पुष्प पर बैठते ही डूब गयी। उसके बाद शत्रु राजा ने आक्रमण करके सब तहस-नहस कर दिया। दूसरी किंवदंती थी कि इस टीले में इतना धन गड़ा है जिससे सारे संसार का ढाई दिन का खर्च चलाया जा सकता है। इसके बाद धन के लुटेरे इस टीले से धन प्राप्त करने की कोशिशो में लगे रहे। यह खबर रायपुर में स्थित अंग्रेज मिस्टर चिशाम तक पहुची। उसने मजदुर लगा कर इस टीले की खुदाई प्राम्भ की। वह टीले को बीच से गहरा करवाते रहा।टीला गहरा होने पर भीतर एक मजदुर की मौत हो गयी। घबरा कर चिशाम  ने खुदाई बंद करवा दी। कालांतर में वही गड्ढा सुरंग में तब्दील हो गया और लोग इसे सुरंग टीला कहने लगे।

मंडप एवं विष्णु-शिव तांत्रिक मंदिर 
मंदिर प्रांगण में पवेश करते ही 32 स्तंभों का विशाल महामंडप दिखाई देता है, इसके बाद अन्तराल एवं फिर 43 सीढियों की चढ़ाई चढ़ कर मंदिर समूह तक पंहुचा जाता है। इसका निर्माण 7वीं शताब्दी में यहां के प्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन ने कराया था। सामने से सीढियों को देखने पर अहसास होता है कि कभी यह मंदिर भूकंप आदि से ढहा होगा। लेकिन इसकी सीढियों की बनावट नौकाकार है, जिसके कारण दूर से सीढियाँ दबी हुई दिखाई देती हैं, काली मिटटी में नींव होने के कारण सामने की कुछ सीढियाँ धंस गयी होंगी, ऐसा मेरा अनुमान है। अंतराल में हाथी-घोड़े बांधने के लिए पत्थर के खूंटे लगे हैं। अधिष्ठान पर स्थित मंदिरों में 4 शिवलिंग हैं और 1 गणेश जी का मंदिर है। मंदिरों के स्तंभों पर सुन्दर मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं।यही के एक स्तम्भ पर कुटिल नगरी लिपि में शिल्पकार का नाम "ध्रुव बल" उत्कीर्ण है। यह मंदिर समूह तीन खंड में है लेकिन आपस में जुड़ा हुआ है।ऐसा इसे भूकंप से बचाने  के लिए बनाया गया है।

सुरंग टीला से पुजारी आवास एवं तालाब का दृश्य 
दक्षिण दिशा में पुजारी का घर है, जिसके पीछे तालाब है, वास्तु आधारित निर्माण में दक्षिण दिशा में पुजारी का घर एवं उसके साथ लगा हुआ कुआँ या तालाब होता है। आग्नेय कोण में पाकशाला है, साथ यहाँ पर एक ही अधिष्ठान पर युगल मंदिर भी स्थापित है, एक तरफ विष्णु एवं दूसरी तरफ शिवालय है, बीच के खाली स्थान में उत्खननकर्ता अरुण शर्मा ब्रम्हा का स्थान कहते है और इसे तांत्रिक मंदिर मानते हैं। शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के में मंदिर एक ही अधिष्ठान पर स्थापित होना बड़ी बात है। हो सकता है कि किसी ने बाद में विष्णु की मूर्ति ला कर स्थापित कर दी होगी। यदि हम तांत्रिक मंदिर मान भी ले तो शिव के साथ शक्ति की उपासना होती है। अघोरपंथी तांत्रिक क्रियाएं करते हैं, लेकिन वैष्णव संप्रदायी अपने को सतोगुणी मानते है और तंत्र क्रिया नहीं करते। छत्तीसगढ़ में गौरी के साथ गौरा की पूजा होती है। अनुमान है कि वहां शिव के साथ शक्ति रही होगी या फिर उसके तांत्रिक मंदिर होने का अनुमान गलत होगा।

ललितादित्य - राजीव रंजन सुरंग टीला पर 
प्रभात सिंह ने बताया कि जब इस टीले का उत्खनन प्रारंभ किया गया तो कोई भी मजदुर मृत्यु के भय से उत्खनन के लिए तैयार नहीं हुआ। तब अरुण कुमार शर्मा जी ने स्वयं कुदाल से खुदाई प्राम्भ की तब मजदूरों को विश्वास हुआ और यहाँ उत्खनन प्राम्भ हुआ। सुरंग टीले के पंचायतन शैली के मंदिर का निर्माण वास्तु शास्त्र मयमत्तम के आधार पर हुआ है, देव शिल्पी विश्वकर्मा के 5 पुत्रों (मनु,मय, त्वष्टा, देवज्ञ, शिल्पी ) में से दुसरा पुत्र मय कुशल शिल्पी था। इसने ही मयमत्तम नामक  शिल्पशास्त्र की रचना की थी। जिसे अब रावण के श्वसुर मय राक्षस के साथ जोड़ दिया जाता है। सुरंग टीला के स्तम्भों पर  नायिकाएँ, मिथुन युगल और लघुकाय द्वारपाल उत्कीर्ण हैं। एक स्तम्भ का निरीक्षण करते हुए मुझे गर्भवती स्त्री की मूर्ति प्राप्त हुई। इस तरह मूर्ति भोरमदेव एवं मदवा महल में भी दिखाई देती है। गर्भवती स्त्री को स्तम्भ में स्थान देने के पीछे शिल्पकार की क्या मंशा रही होगी इसका पता नहीं चलता है या उस समय की कोई महत्वपूर्ण घटना होगी जिसे शिल्पकार ने स्तम्भ में स्थान दिया है।

गर्भवती स्त्री की प्रतिमा, अप्सराएँ और योनी पीठ पर धारा लिंग 
सुरंग टीला से धारा लिंग (धाराशिव) के साथ अत्यंत दुर्लभ 16 कोणीय योनीपीठ मूल स्थिति में मिली है। पुरातत्वविद  ए.के. शर्मा ने बताया कि पुरातनकाल में भगवान शंकर की प्रतिमा नहीं बनाई जाती थी तथा शिवलिंग की ही पूजा की जाती थी. इसलिए, सिरपुर में भी उत्खनन से ज्यादातर शिवलिंग ही मिले है. वहीं, प्रतिमाओं में केवल भैरव व नटराज की ही मूर्ति प्राप्त हुई है. मयमत्तम के ग्रंथ का हवाला देते हुए ए.के. शर्मा ने बताया कि शिवलिंग का निर्माण 4 रंग के पत्थरों से किया जाता है. प्रथमत:  पत्थर पुरुष पत्थर होना चाहिए. पुरुष पत्थर से मतलब संबंधित चट्टान महीन कणों से बना हो तथा उसमें एकरुपता हो. पूरा पत्थर एक ही रंग का हो. उसमें यदि शिवलिंग के आकार की धारियां बनी हों, तो ज्यादा अच्छा है. उन्होंने बताया कि एक ऐसा विशाल काला शिवलिंग सिरपुर के एक शिव मंदिर से प्राप्त हुआ है. सफेद शिवलिंग की स्थापना ब्राह्मण, लाल रंग के क्षत्रिय, पीले रंग के वैश्य व काला शिवलिंग की स्थापना शुद्र करते थे. लेकिन, स्थापना के बाद सभी रंगों के शिवलिंगों की पूजा पूरा समुदाय करता है।पंचायतन शिवमंदिर याने सुरंग टीला की सैर के वक्त आदित्य सिंग ने हमारा बहुत ज्ञान वर्धन किया। यहाँ से उनके साथ हम "धसकूड़" की और चल पड़े। ...... जारी है ...... आगे पढ़ें 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

सिरपुर के शिल्पकार .....Sirpur Chhattisgarh......ललित शर्मा

लक्ष्मण  मंदिर 
प्रारंभ से पढ़ें 
धार्मिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत में तीर्थाटन की परम्परा सहस्त्राब्दियों से रही है। परन्तु समय के साथ लोगों की रुचि एवं विचारधारा में परिवर्तन हो रहा है। काम से ऊबने पर मन मस्तिष्क को तरोताजा करने के लिए लोग प्राचीन पुरातात्विक एवं प्राकृतिक स्थलों के सपरिवार दर्शन करके मानसिक थकान दूर करते हैं। साथ ही उन्हें देश दुनिया के विषय में जानकारी भी मिल जाती है। जब भी अपनी प्राचीन धरोहरों को देखते हैं तो हमें उनके निर्माताओं पर गर्व होता है कि उन्होने सहस्त्राब्दियों पूर्व ऐसे निर्माण किए या कराए जिससे आने वाली पीढ़ी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करे। प्राचीन शिल्पियों ने भवन निर्माण सामग्री की गुणवत्ता के विषय में कोई समझौता नहीं किया, तभी हमें हजारों वर्ष पुरानी संरचनाए देखने मिल जाती हैं। प्राचीन भवन निर्माण, नगर विन्यास, मुर्ति शिल्प की उत्कृष्टता एवं भव्यता के नाम पर पाण्डुवंशीय शासकों की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) का स्मरण होता है। जब भी सिरपुर जाता हूँ कुछ न कुछ नया देखने मिलता है। अद्भुत शहर है, इसका तिलस्म मुझे अपनी ओर खींचता है, प्रतीत होता है कि पिछले जन्म का कोई नाता है इस नगर से।

उत्खनन में प्राप्त लौह, कांसा, प्रस्तर की मूर्तियाँ एवं उपकरण 
सिरपुर को बनाने बसाने वाले अज्ञात शिल्पियों के प्रति मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। अन्य स्थलों पर दृष्टिपात करने से वहाँ के भवन, मंदिर,मूर्तियों पर निर्माण करने वाले शिल्पियों के नाम नही मिलते।  संसार को अद्वितीय रचना देने के बाद भी शिल्पियों के हाथ काटे जाने की कहानी सामने आती हैं। धम्मपाद के बोधिराज कुमारवत्थु पृष्ठ ४१० में एक कारीगर का हाल इस प्रकार लिखा है कि बोधिराज कुमार ने एक महल बनवाया, बनाने वाले कारीगर ने उसे बड़ा ही विचित्र बनाया। बोधिराज ने सोचा कि यह कारीगर कहीं दूसरे स्थान पर ऐसा महल न बना दे, इसलिए इसके हाथ कटवा देना चाहिए। राजा ने यह बात अपने सलाहकार से भी कह दी, सलाहकार ने यह खबर कारीगर तक पहुँचा दी। कारीगर ने अपनी पत्नी को संदेश भेजा कि वह घर-द्वार मालमत्ता बेच कर एक दिन महल देखने का निवेदन करे। स्त्री ने यही किया, राजा से अनुमति लेकर महल देखने गई, कारीगर उसे एक कोठरी में ले गया और स्त्री तथा प्राण बचाने हेतू लड़कों समेत गरुड़ यंत्र पर चढ़कर भाग गया।

तीवरदेव विहार का मूर्ति शिल्प 
आज हम देखते है तो सिरपुर एक छोटा सा गाँव है, पर ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन प्रतापी राजा हुए, उन्होनें ५७ वर्ष तक शासन किया, यह काल दक्षिण कोसल के लिए स्वर्णिम काल था। वास्तुकला एवं सांस्कृतिक समृद्धि उत्कर्ष पर थी। मंदिरों भवनों के साथ सरोवरों का निर्माण हुआ। कारीगरी के अनुपम नमुने यत्र तत्र परिलक्षित होते हैं। ईंटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर का शिल्प मन मोह लेता है। मगध के राजा सूर्य वर्मन की पुत्री, महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा ने दिवंगत पति हर्षगुप्त की स्मृति में इसका निर्माण कराया था। इस मंदिर का निर्माण काल 650 ईस्वी के लगभग माना जाता है। 7 फिट ऊँची जगती पर निर्मित इस मंदिर के मुख्य द्वार पर दशावतार, कृष्ण लीला, अलंकारिक प्रतीक, मिथुन दृश्य एवं द्वारपालों का अंकन है। तीवरदेव विहार में उत्कीर्ण मूर्तियों का शिल्प देखते ही बनता है। शिल्पकार ने बहुत ही बारीकी से शास्त्रीय अंकन किया है। जातक कथाओं का भी अंकन प्रभावोत्पादक है। मूर्ति शिल्प में वस्त्रों का अंकन महीन कारीगरी से हुआ है। ऐसा ही मनमोहक शिल्प आनंदप्रभ कुटी विहार, सुरंग टीला, गंधर्वेश्‍वर मंदिर, पंचायतन बालेश्वर महादेव मंदिर में दिखाई देता है। 
विशाल बाज़ार क्षेत्र सिरपुर 

भूमिगत अनाज की कोठी के साथ गुप्त चेंबर 
उत्खनन में विशाल व्यापार क्षेत्र प्राप्त हुआ है, ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व योजनाबद्ध रुप से बाजार की बसाहट वास्तुकारों के कौशल को प्रदर्शित करती है। बाजार के मध्य मुख्य मार्ग पर जब हम चलते हैं तो लगता है सारा बाजार जीवंत हो उठा। दुकानों के बरामदे, फिर दुकान और उसके पीछे अनाज रखने की भूमिगत कोठियाँ प्रत्येक दुकान में पाई गई हैं, जिससे जाहिर होता है कि उस काल में वस्तु विनिमय होता था। लोग अपने साथ अनाज लेकर आते थे और अपने काम की वस्तु खरीद कर बदले में ले जाते थे। बाजार क्षेत्र में ३ कुंए प्राप्त हुए हैं, जिससे पेयजल की व्यवस्था होती थी। चूना पत्थर से निर्मित कुंए वर्तमान में जस के तस हैं, काल की मार से सुरक्षित भी। बाजार क्षेत्र में उत्खनन के दौरान एक भवन से धातु की लगभग 80 प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। प्रतिमाओं को देखने से पता चलता है कि धातु शिल्पकला उत्कृष्ट कोटि की थी। बाजार में सभी तरह की मानवोपयोगी वस्तुओं व्यापार होता था। जहाँ से धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई, उस भवन में दो अंतराल और पीछे की तरफ आंगन नुमा संरचना है। अनुमान है कि किसी व्यापारी श्रेष्ठी का निवास रहा होगा।

लोहार का घर 
मुख्य मार्ग के पूर्व में दो आवास आमने‍-सामने हैं, जिनके मध्य में बड़ा आंगन है, एक आवास में दो मुख्य द्वार हैं तथा पीछे की तरफ अनाज रखने की भूमिगत बड़ी कोठियाँ हैं, यहाँ से लोहे के औजार एंव कच्चा माल प्राप्त हुआ है। जाहिर है कि यह लोहार का निवास एवं कार्य स्थल दोनों होगा। इसके सामने एक मुख्य द्वार का आवास है, यहाँ से उत्खनन में ताम्रपत्र एवं ढ़लाई का कच्चा माल प्राप्त हुआ है। यहाँ तांबा का कार्य करने वाले ताम्रकार का निवास था। ये तांबे और कांसे की मुहर ढ़ालने का कार्य कुशलता से करते थे। बाजार की पूर्व दिशा में ही बरगद के वृक्ष के समीप सोनार का घर एवं भटठी प्राप्त हुई है। इससे प्रतीत होता है कि परम्परागत शिल्पकारों को श्रीपुर में मान सम्मान एवं राजकीय संरक्षण प्राप्त था। लकड़ी एवं पत्थर का काम करने वाले बढ़ई एवं प्रस्तर शिल्पकारों के आवास का पता नहीं चलता। परन्तु उनके कार्य सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। बढ़ईयों के कार्य को प्रस्तर शिल्पियों ने अपने प्रस्तर शिल्प में स्थान दिया है। लकड़ी का सामान हजारों वर्षों तक अक्षुण्‍ण नहीं रह सकता। परन्तु प्रस्तर शिल्पियों के कार्य हजारों वर्षों तक विद्यमान रहते हैं। ये मंदिर निर्माण के स्थान पर ही कार्य करते थे। मंदिरों के उत्खनन मे प्राप्त पत्थरों के किरचे एवं अधूरी प्रतिमाएं इसका प्रमाण हैं।

तीवर देव विहार का मुख्य द्वार एवं प्रतिमाएं 
सिरपुर में परम्परागत शिल्पियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था एवं रहन सहन एवं आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे। इसका अनुमान उनके आवासों के स्तर से लगाया जा सकता है। तीवरदेव विहार के मुख्य द्वार की पट्टिका मे उत्कीर्ण चाक पर बरतन बनाता हुआ कुम्हार शिल्पकारों की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है। जब कुम्हार के कार्य को विहार के सिंह द्वार में प्रदर्शित किया है तो मानना चाहिए कि शिल्पकारों को महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त था। सुरंग टीला के स्तंभों में शिल्पकारों ने अपने हस्ताक्षर छोडे हैं। यहाँ स्तंभों पर ध्रुव बल, द्रोणादित्य, कमलोदित्य एंव विट्ठल नामक कारीगरों के नाम उत्कीर्ण हैं। किसी राज्य या राजा के कार्यकाल की स्थिति का आंकलन हम उसके काल में हुए शिल्प कार्य, निर्माण एवं उसके द्वारा चलाए गए सिक्कों से करते हैं। इनका निर्माण परम्परागत शिल्पकारों के बगैर नहीं हो सकता। राजाश्रय मिलने पर ही शिल्पकार स्वतंत्र हो कर कार्य करते थे। यजुर्वेद में "कुलालेभ्य कर्मारेभ्यश्च वो नमः" के अनुसार कुम्हार और बढ़ईयों से लेकर जितने भी कारीगर हैं सबके लिए आदर एवं अन्न की व्यवस्था बतलाई गई है। शिल्पियों एवं रथकारों को यज्ञ मे शामिल होने का भी आदेश है और इनका दर्जा ब्राह्मणों के बराबर दिया गया है। 

तमेर के घर से प्राप्त ताम्रपत्र 
कई शिला लेखों में एवं ताम्रपत्रों में लेखक के नाम का जिक्र होता है।  कुरुद में प्राप्त नरेन्द्र के ताम्रपत्र लेख में उत्कीर्णकर्ता के रुप में श्री दत्त का, आरंग मे प्राप्त जयराज के ताम्रलेख में अचल सिंह का, सुदेवराज के खरियार में प्राप्त ताम्रलेख में द्रोणसिंह का, महाभवगुप्त जनमेजय के ताम्रलेख में रणय औझा के पुत्र संग्राम का वर्णन है। प्रथम पृथ्वीदेव के अमोदा में प्राप्त ताम्रपत्रलेख में वर्णन है कि "गर्भ नामक गाँव के स्वामी ईशभक्त सुकवि अल्हण ने सुन्दर वाक्यों से चकोर के नयन जैसे सुंदर अक्षर ताम्र पत्रों पर लिखे जिसे सभी शिल्पों के ज्ञाता सुबुद्धि हासल ने शुभ पंक्ति और अच्छे अक्षरों में उत्कीर्ण किया।" द्वितीय पृथ्वीदेव के रतनपुर में प्राप्त शिलालेख संवत 915 में उत्कीर्ण है " यह मनोज्ञा और खूब रस वाली प्रशस्ति रुचिर अक्षरों में धनपति नामक कृती और शिल्पज्ञ ईश्वर ने उत्कीर्ण की। उपरोक्त वर्णन से शिल्पकारों की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का पता चलता है। जारी है ....... आगे  पढ़ें 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

आमचो बस्तर के साथ राजिम यात्रा ............. ललित शर्मा

राजीवलोचन मंदिर परिसर 
तेरे जैसा यार कहाँ, कहाँ ऐसा याराना ......... चलभाष गाने लगा, कोई बात करना चाहता है, चलभाष पर नया नम्बर दिखाई दिया। चलो बात कर लेते हैं, नम्बर नया हो या पुराना और कौन से हम किसी के कर्जदार हैं जो फोन पर नया नम्बर देख कर न उठाएं, हेलू.........सर! मैं राजीव रंजन बोल रहा हूँ, 14 अक्टुबर को रायपुर पहुँच रहा हूँ, आपके साथ राजिम और सिरपुर चलना है, साथ चलेगें तो अच्छा लगेगा।...... क्यों नहीं, जरुर चलेगें। फिर घरेलू बातचीत होते रही, कुछ चर्चा "आमचो बस्तर" भी हुई। हमने १६ तारीख का सुबह जल्दी चलकर जाने का कार्यक्रम बना लिया। इधर 15 तारीख को पितृमोक्ष अमावस्या थी और भाई अशोक बजाज की माता जी का बारहवां और पगड़ी रस्म भी। 14 को राजीव रायपुर पहुँच गए और हमारा कार्यक्रम पहले ही बन गया। १५ तारीख को राजीव रंजन "आमचो बस्तर" के साथ दोपहर मे अभनपुर पहुँच गए। इनके पहुँचने से पहले विवेक विश्वकर्मा डीजीएम बीएसएनएल पहुँचे हुए थे। हम सभी चाय पीकर अशोक भाई के यहाँ कार्यक्रम में पंहुचे। वहाँ प्रसादी का कार्यक्रम चल रहा था। अशोक भाई से मिलकर हम राजिम चल पड़े।

राजेश्वर-दानेश्वर मंदिर 
राजिम नगर सोंढूर-पैरी-महानदी के त्रिवेणी संगम पर रायपुर से 45 कि मी एवं अभनपुर से 18 कि मी  पर देवभोग जाने वाले मार्ग पर स्थित है। रास्ते  में हसदा के मोड़ पर साहू चाट वाला अपनी दुकान लगाए तैयार था, मन तो ललचाया, पर समय की कमी होने से आगे बढ़ गए। नयापारा पहुँच कर पहला काम खाने का किया। महानदी पार करके राजीव लोचन मंदिर पहुँचे। पहले राजीव लोचन मंदिर के ईर्द गिर्द लोगों ने कब्जा कर रखा था। दुकानों के बीच से होकर मंदिर में प्रवेश करना पड़ता था। यह मंदिर केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। एतिहासिक मंदिर परिसर से अवैध कब्जा हटाने का एतिहासिक कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण मंडल के तत्कालीन अधीक्षण डॉ प्रवीणकुमार मिश्रा ने किया। आज राजीव लोचन मंदिर अपने पुराने रूप के करीब पहुँच चुका है। राजीव लोचन मंदिर महानदी (चित्रोत्पला गंगा) के पूर्वी तट  पर स्थित है। लोक मान्यता है कि  महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्नान करने से मनुष्य के सारे कष्ट मिट जाते हैं और वह मृत्युपरांत विष्णु लोक को प्राप्त करता है। यहाँ का कुम्भ मेला जग प्रसिद्ध हो चुका है, यह मेला माघ मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि  जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक राजिम की यात्रा न कर ली जाए।

महामंडप, मुख्य द्वार एवं मूर्ति शिल्प 
महाशिव तीवरदेव के ताम्रपत्र एवं राजीव लोचन मंदिर से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि  राजिम के विष्णु मंदिर (राजीव लोचन) का निर्माण 8 वीं सदी में नलवंशी राजा विलासतुंग ने कराया था। शिलालेख में रतनपुर के कलचुरी नरेश जाजल्यदेव प्रथम और रत्नदेव द्वितीय की कुछ विजयों का उल्लेख है। उनके सामंत (सेनापति) जगतपालदेव ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। हम मंदिर के पश्चिमी द्वार पर पहुच गए। द्वार पर ही नारियल एवं पूजा सामग्री वालों ने अपनी दुकाने सजा रखी हैं। कार के रुकते ही पूजा सामग्री वाले झपट पड़े, मुझे देखते ही पहचान गए कि यह पण्डा कुछ नहीं देने-लेने वाला। मंदिर प्रांगण में निर्माण कार्य चल रहा है। आगामी नवम्बर की 19 तारीख से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण मंडल रायपुर, विश्व दाय सप्ताह का आयोजन कर रहा है। पश्चिम दिशा से प्रवेश करने पर सबसे पहले राजेश्वर एवं दानेश्वर मंदिर दिखाई देते हैं। इन मंदिरों के सामने राजीवलोचन का भव्य प्रवेश द्वार महामंडप है। इसकी चौखट के शीर्ष भाग में शेषशैया पर विष्णु भगवान विराजमान हैं लतावल्लरियों के मध्य विहाररत यक्षों की विभिन्न भाव भंगिमाओं एवं मुद्राओं में प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गयी हैं। बायीं दीवाल के स्तम्भ पर एक पुरुष की खड़ी प्रतिमा है, जिसका एक हाथ ऊपर है तथा दूसरा हाथ ह्रदय को स्पर्श कर रहा है। कमर पर कटार एवं यज्ञोपवित धारण किए हुए है। 

रतिसुखअभिलाषिणी अभिसारिका नायिका
पुरुष मूर्ति के दोनों तरफ नारियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। एक मूर्ति स्त्री और पुरुष की युगल है। इसमें पुरुष स्त्री से छोटा दिखाया गया है, वह हाथ में सर्प धारण किये हुए है। लोग इसे सीता की प्रतिमा मानते हैं पर सर्प के साथ पुरुष काम का प्रतीक है, इसलिए इसे रतिसुखअभिलाषिणी अभिसारिका नायिका की प्रतिमा माना जा सकता है। इसके साथ ही यहाँ पर आकर्षक मिथुन मूर्तियाँ भी दिखाई देती है। इनके वस्त्र अलंकरण भी नयनाभिराम हैं। अंतराल में ललाट बिम्ब पर गरुडासीन विष्णु की प्रतिमा है। यहाँ पर राजीव अपनी नायिका की तलाश में आये हैं, उसका वस्त्र अलंकरण देख रहे हैं। हमने यहाँ के चित्र लिए और मुख्य मंदिर की तरफ चल पड़े। मंडप एवं मुख्य मंदिर के बीच अन्तराल है। पिछली बार गए थे तो यहाँ भागवत महापुराण का पाठ हो रहा था और भगवताचार्य अपने प्रवचन में से क्विज पूछ रहे थे श्रोताओं से, सही उत्तर देने वाले को इनाम भी दिया जा रहा था। यह तरीका मुझे पसंद आया, इनाम के लालच में श्रोता भागवत का श्रवण ध्यान लगा कर करते हैं और अंत में प्रश्नों का उत्तर देकर इनाम भी पाते है।

राजा जगतपालदेव के रूप में बुद्ध 
मुख्य मंदिर आयताकार प्रकोष्ट के बीच में निर्मित है। भू विन्यास योजना में राजिम का मंदिर महामंडप, अंतराल, गर्भगृह एवं प्रदक्षिणा मार्ग में बंटा हुआ है। गर्भ गृह में प्रवेश करने के लिए पैड़ियों पर चढ़ना पड़ता है। सामने ही एक स्तम्भ पर पूर्वाभिमुख गरुड़ विराजमान है। सामने काले पत्थर की बनी चतुर्भुजी विष्णु की मूर्ति है। जिसके हाथो में शंख, गदा, चक्र एवं पद्म दिखाई देते है। इसे ही भगवान राजीवलोचन के नाम से जाना जाता है और पूजा अर्चना की जाती है। बायीं भीत पर दो शिलालेख लगे है, इनसे ही इस मंदिर के निर्माताओं एवं जीर्णोद्धारकर्ताओं की जानकारी मिलती है। राजीव लोचन की नित्य पूजा क्षत्रिय करते है, विशेष अवसरों पर ब्राह्मणों को आमंत्रित किया जाता है। इस मंदिर के उत्तर में जगन्नाथ मंदिर है। इसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के वामन अवतार की प्रतिमा लगी है। जिसमें तीसरा पग राजा बलि पर के शीश पर रखते हुए विष्णु को दिखाया है। मैंने पुजारी से पूछा कि लोगों से सुना है कि यहाँ पर राजा जगतपाल की प्रतिमा भी है। तो उसने महामंडप में बायीं तरफ लगी एक प्रतिमा की तरफ संकेत किया। यह प्रतिमा भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की दिखाई पड़ी। राजीव ने कहा कि कोंडागांव में जिस तरह बुद्ध आदिवासी देवता भोंगापाल बन गए उसी तरह यहाँ भी बुद्ध जगतपाल हो गए। परन्तु राजीवलोचन मंदिर में अकेली बुद्ध की प्रतिमा का मिलना समझ से परे है।

राम मंदिर की मिथुन मूर्तियाँ 
पुजारी जी से प्रसाद ग्रहण कर हम राम मंदिर के दर्शनों को चल पड़े। यहाँ से बस्ती के बीच 50 कदम की दूरी पर राम मंदिर है। यह मंदिर भी ईंटों का बना है, इसके स्तम्भ पत्थरों के हैं।अधिलेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इस पूर्वाभिमुख मंदिर का निर्माण भी कलचुरी नरेशों के सामंत जगतपालदेव ने कराया था। मंदिर के महामंडप में प्रस्तर स्तंभों पर प्राचीन मूर्तिकला के श्रेष्ठतम उदहारण है। इन स्तंभों पर आलिंगनबद्ध मिथुन मूर्तियों के साथ शालभंजिका, बन्दर परिवार, माँ और बच्चा तथा संगीत समाज का भावमय अंकन है। मकरवाहिनी गंगा,  राजपुरुष, अष्टभुजी गणेश, अष्टभुजी नृवाराह की मूर्ति है। मिथुन मूर्तियाँ का शिल्प उत्तम नहीं है। जैसे नौसिखिये मूर्तिकार ने इसे बनाया हो। हमने चित्र लिए, दो सज्जन वहां पर थे, राममंदिर के केयर टेकर के विषय में पूछने पर पता चला की वह कहीं गया है। वे दोनों भी यहीं के केयर टेकर थे। एक ने बताया की वह मलार से स्थानांतरित होकर यहाँ आया है। 

प्राचीन यंत्र
राम मंदिर के प्रदक्षिणापथ से सम्बंधित प्रवेश द्वार शाखाओं से युक्त है, इनके अधिभाग पर गंगा-यमुना नदी देवियों की मूर्तियाँ हैं, राजिम के किसी भी मंदिर के प्रवेश द्वार में नदी देवियों की मूर्तियाँ नहीं है। राजीव ने टिप्पणी दी कि राजिम के मंदिरों का शिल्प सर्वोत्तम भव्य एवं बहुत ही सुन्दर है। मंदिर से बाहर निकलते हुए मुझे एक प्राचीन यंत्र दिखाई दिया। जिसका प्रयोग निर्माण के दौरान होता था, पता नहीं किसने उस भारी भरकम यंत्र को भी तोड़ कर रख दिया। दुनिया में उत्पाती लोगों की कमी नहीं है। बेमतलब ही नुकसान करने में इन्हें मजा आता है। सीमेंट आने के कारण अब यह काम में नहीं आता। वर्ना इसके बिना निर्माण कार्य संभव नहीं था। कभी इस यन्त्र के विषय में विस्तार से लिखूंगा। 

कुलेश्वर महादेवमंदिर में संध्या जी 
राजिम दर्शन कर अब हमें सिरपुर की और चलना था, लेकिन कुलेश्वर महादेव की चर्चा न हो तो राजिम यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। पुराविद डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार कुलेश्वर महादेव का प्राचीन नाम उत्पलेश्वर महादेव था जो कि अपभ्रंश के रूप में कुलेश्वर महादेव कहलाता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर नदियों के संगम पर स्थित है। यह अष्टभुजाकार जगती पर निर्मित है। नदी के प्रवाह को ध्यान में रखते हुए वास्तुविदों ने इसे अष्टभुजाकार बनाया। इसकी जगती नदी के तल से 17 फुट की ऊंचाई पर है। कुल 31 सीढियों से चढ़ कर मंदिर तक पंहुचा जाता  है। कहते हैं कि मंदिर के शिवलिंग को माता सीता ने बनाया था। मंदिर में कार्तिकेय एवं अन्य देवताओं की मूर्तियाँ लगी हैं। किंवदंती है की नदी के किनारे पर स्थित संस्कृत पाठशाला ब्रह्मचर्य आश्रम से कुलेश्वर मंदिर तक सुरंग जाती है। सुरंग का प्रवेश द्वार संस्कृत पाठशाला ब्रह्मचर्य आश्रम में है, जिसमे प्रवेश करके मैंने स्वयं देखा है। प्रवेश द्वार छोटा है। सीढियों से नीचे उतरने पर दो कमरे हैं जिसमे काली माई की प्रतिमा रखी है एवं आगे का रास्ता बंद कर दिया गया है।

राजीव रंजन "आमचो बस्तर"
राजिम दर्शन करने के बाद हम चम्पारण से आरंग होते हुए सिरपुर चल पड़े। राजिम से आरंग लगभग 28 किलोमीटर है। रास्ते में हमने प्रभात सिंह को फोन लगाया तो उनके फोन से कोई उत्तर नहीं आया। क्योंकि हम तय कार्यक्रम से एक दिन पहले चल रहे थे। फिर आदित्य सिंह को फोन लगाने पर पता चला की वे महासमुंद में हैं। इस दिन पितृमोक्ष अमावश्या भी थी, इसलिए आदित्य सिंह महासमुंद पहुँच गए थे। उन्होंने कहा कि आप सिरपुर पहुचे मै  तत्काल निकल रहा हूँ। नदी मोड़, तुमगांव निकल चुका था। अब भूख लगने लगी तो रास्ते में कोई ढाबा भी दिखाई नही दे रहा था। हम सिरपुर के मोड़ से आगे निकल गए ढाबे की खोज में 5 किलोमीटर आगे जाने पर नवागांव में जंगल-मंगल ढाबा मिला। वहां तो सिर्फ जंगल मंगल ही था। चावल ख़त्म हो चुके थे, सब्जी नहीं थी, हमने रोटी बनवाई और काले उड़द चने की दाल ली। प्रभात सिंह का फोन भी आ गया, उन्होंने रेस्ट हाउस बुक कर दिया था। प्रभात सिंह रायपुर में थे, उन्हें सुबह आना था। 

"आमचो भारत" वाले यायावर 
नवागांव से चलने पर मैंने राजीव से कहा कि  सिरपुर का रेस्ट हाउस बहुत बढ़िया है और महानदी के किनारे पर स्थित है, सुबह उठने पर पुण्य सलिला महानदी के दर्शन होंगे, पर रेस्ट हाउस पहुचने पर चौकीदार ने पुराना रेस्ट हाउस खोला, जिसके कमरे को महानदी नाम दिया गया था। नए रेस्ट हाउस के बारे में कहने पर उसने बताया की वह मंत्री के लिए बुक है। बस यही खाली है, मरते क्या न करते, केयर टेकर को बुलाने कहा तो उसने आकर कहा कि उसकी तबियत ख़राब है वह नहीं आ रहा। आस-पास खेत होने के कारण कमरे में लाइट जलाते ही कीड़े भर गए। वैसे मैंने देखा है कि जितने भी रेस्ट हाउस है वे अघोषित रूप से मंत्रियों और अधिकारियों के लिए पूर्णकालिक बुक रहते हैं, रेस्ट हाउस के केयर टेकर नहीं चाहते कि कोई वहां आकर रुके। मुझे बताया गया कि रेस्ट हाउस कि बुकिंग महासमुंद के अधिकारी करते हैं, हमने अपने आप को धन्य समझा, कम से कम पुराना रेस्ट हाउस तो खुल गया, रात गुजारने के लिए। अब मंत्री जी ही जाने इन हालातों में सिरपुर को किस तरह विश्व धरोहर का दर्जा दिलाएंगे, जबकि रेस्ट हाउस के ये हाल हैं। रात्रि कालीन भोजन  में आदित्य सिंह ने कम्पनी दी, हमने सुबह के कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार की और सुबह के इंतजार में लोट-पोट हो गए। .......जारी है,  आगे पढ़ें .........