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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

सिरपुर के शिल्पकार .....Sirpur Chhattisgarh......ललित शर्मा

लक्ष्मण  मंदिर 
प्रारंभ से पढ़ें 
धार्मिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत में तीर्थाटन की परम्परा सहस्त्राब्दियों से रही है। परन्तु समय के साथ लोगों की रुचि एवं विचारधारा में परिवर्तन हो रहा है। काम से ऊबने पर मन मस्तिष्क को तरोताजा करने के लिए लोग प्राचीन पुरातात्विक एवं प्राकृतिक स्थलों के सपरिवार दर्शन करके मानसिक थकान दूर करते हैं। साथ ही उन्हें देश दुनिया के विषय में जानकारी भी मिल जाती है। जब भी अपनी प्राचीन धरोहरों को देखते हैं तो हमें उनके निर्माताओं पर गर्व होता है कि उन्होने सहस्त्राब्दियों पूर्व ऐसे निर्माण किए या कराए जिससे आने वाली पीढ़ी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करे। प्राचीन शिल्पियों ने भवन निर्माण सामग्री की गुणवत्ता के विषय में कोई समझौता नहीं किया, तभी हमें हजारों वर्ष पुरानी संरचनाए देखने मिल जाती हैं। प्राचीन भवन निर्माण, नगर विन्यास, मुर्ति शिल्प की उत्कृष्टता एवं भव्यता के नाम पर पाण्डुवंशीय शासकों की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) का स्मरण होता है। जब भी सिरपुर जाता हूँ कुछ न कुछ नया देखने मिलता है। अद्भुत शहर है, इसका तिलस्म मुझे अपनी ओर खींचता है, प्रतीत होता है कि पिछले जन्म का कोई नाता है इस नगर से।

उत्खनन में प्राप्त लौह, कांसा, प्रस्तर की मूर्तियाँ एवं उपकरण 
सिरपुर को बनाने बसाने वाले अज्ञात शिल्पियों के प्रति मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। अन्य स्थलों पर दृष्टिपात करने से वहाँ के भवन, मंदिर,मूर्तियों पर निर्माण करने वाले शिल्पियों के नाम नही मिलते।  संसार को अद्वितीय रचना देने के बाद भी शिल्पियों के हाथ काटे जाने की कहानी सामने आती हैं। धम्मपाद के बोधिराज कुमारवत्थु पृष्ठ ४१० में एक कारीगर का हाल इस प्रकार लिखा है कि बोधिराज कुमार ने एक महल बनवाया, बनाने वाले कारीगर ने उसे बड़ा ही विचित्र बनाया। बोधिराज ने सोचा कि यह कारीगर कहीं दूसरे स्थान पर ऐसा महल न बना दे, इसलिए इसके हाथ कटवा देना चाहिए। राजा ने यह बात अपने सलाहकार से भी कह दी, सलाहकार ने यह खबर कारीगर तक पहुँचा दी। कारीगर ने अपनी पत्नी को संदेश भेजा कि वह घर-द्वार मालमत्ता बेच कर एक दिन महल देखने का निवेदन करे। स्त्री ने यही किया, राजा से अनुमति लेकर महल देखने गई, कारीगर उसे एक कोठरी में ले गया और स्त्री तथा प्राण बचाने हेतू लड़कों समेत गरुड़ यंत्र पर चढ़कर भाग गया।

तीवरदेव विहार का मूर्ति शिल्प 
आज हम देखते है तो सिरपुर एक छोटा सा गाँव है, पर ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन प्रतापी राजा हुए, उन्होनें ५७ वर्ष तक शासन किया, यह काल दक्षिण कोसल के लिए स्वर्णिम काल था। वास्तुकला एवं सांस्कृतिक समृद्धि उत्कर्ष पर थी। मंदिरों भवनों के साथ सरोवरों का निर्माण हुआ। कारीगरी के अनुपम नमुने यत्र तत्र परिलक्षित होते हैं। ईंटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर का शिल्प मन मोह लेता है। मगध के राजा सूर्य वर्मन की पुत्री, महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा ने दिवंगत पति हर्षगुप्त की स्मृति में इसका निर्माण कराया था। इस मंदिर का निर्माण काल 650 ईस्वी के लगभग माना जाता है। 7 फिट ऊँची जगती पर निर्मित इस मंदिर के मुख्य द्वार पर दशावतार, कृष्ण लीला, अलंकारिक प्रतीक, मिथुन दृश्य एवं द्वारपालों का अंकन है। तीवरदेव विहार में उत्कीर्ण मूर्तियों का शिल्प देखते ही बनता है। शिल्पकार ने बहुत ही बारीकी से शास्त्रीय अंकन किया है। जातक कथाओं का भी अंकन प्रभावोत्पादक है। मूर्ति शिल्प में वस्त्रों का अंकन महीन कारीगरी से हुआ है। ऐसा ही मनमोहक शिल्प आनंदप्रभ कुटी विहार, सुरंग टीला, गंधर्वेश्‍वर मंदिर, पंचायतन बालेश्वर महादेव मंदिर में दिखाई देता है। 
विशाल बाज़ार क्षेत्र सिरपुर 

भूमिगत अनाज की कोठी के साथ गुप्त चेंबर 
उत्खनन में विशाल व्यापार क्षेत्र प्राप्त हुआ है, ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व योजनाबद्ध रुप से बाजार की बसाहट वास्तुकारों के कौशल को प्रदर्शित करती है। बाजार के मध्य मुख्य मार्ग पर जब हम चलते हैं तो लगता है सारा बाजार जीवंत हो उठा। दुकानों के बरामदे, फिर दुकान और उसके पीछे अनाज रखने की भूमिगत कोठियाँ प्रत्येक दुकान में पाई गई हैं, जिससे जाहिर होता है कि उस काल में वस्तु विनिमय होता था। लोग अपने साथ अनाज लेकर आते थे और अपने काम की वस्तु खरीद कर बदले में ले जाते थे। बाजार क्षेत्र में ३ कुंए प्राप्त हुए हैं, जिससे पेयजल की व्यवस्था होती थी। चूना पत्थर से निर्मित कुंए वर्तमान में जस के तस हैं, काल की मार से सुरक्षित भी। बाजार क्षेत्र में उत्खनन के दौरान एक भवन से धातु की लगभग 80 प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। प्रतिमाओं को देखने से पता चलता है कि धातु शिल्पकला उत्कृष्ट कोटि की थी। बाजार में सभी तरह की मानवोपयोगी वस्तुओं व्यापार होता था। जहाँ से धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई, उस भवन में दो अंतराल और पीछे की तरफ आंगन नुमा संरचना है। अनुमान है कि किसी व्यापारी श्रेष्ठी का निवास रहा होगा।

लोहार का घर 
मुख्य मार्ग के पूर्व में दो आवास आमने‍-सामने हैं, जिनके मध्य में बड़ा आंगन है, एक आवास में दो मुख्य द्वार हैं तथा पीछे की तरफ अनाज रखने की भूमिगत बड़ी कोठियाँ हैं, यहाँ से लोहे के औजार एंव कच्चा माल प्राप्त हुआ है। जाहिर है कि यह लोहार का निवास एवं कार्य स्थल दोनों होगा। इसके सामने एक मुख्य द्वार का आवास है, यहाँ से उत्खनन में ताम्रपत्र एवं ढ़लाई का कच्चा माल प्राप्त हुआ है। यहाँ तांबा का कार्य करने वाले ताम्रकार का निवास था। ये तांबे और कांसे की मुहर ढ़ालने का कार्य कुशलता से करते थे। बाजार की पूर्व दिशा में ही बरगद के वृक्ष के समीप सोनार का घर एवं भटठी प्राप्त हुई है। इससे प्रतीत होता है कि परम्परागत शिल्पकारों को श्रीपुर में मान सम्मान एवं राजकीय संरक्षण प्राप्त था। लकड़ी एवं पत्थर का काम करने वाले बढ़ई एवं प्रस्तर शिल्पकारों के आवास का पता नहीं चलता। परन्तु उनके कार्य सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। बढ़ईयों के कार्य को प्रस्तर शिल्पियों ने अपने प्रस्तर शिल्प में स्थान दिया है। लकड़ी का सामान हजारों वर्षों तक अक्षुण्‍ण नहीं रह सकता। परन्तु प्रस्तर शिल्पियों के कार्य हजारों वर्षों तक विद्यमान रहते हैं। ये मंदिर निर्माण के स्थान पर ही कार्य करते थे। मंदिरों के उत्खनन मे प्राप्त पत्थरों के किरचे एवं अधूरी प्रतिमाएं इसका प्रमाण हैं।

तीवर देव विहार का मुख्य द्वार एवं प्रतिमाएं 
सिरपुर में परम्परागत शिल्पियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था एवं रहन सहन एवं आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे। इसका अनुमान उनके आवासों के स्तर से लगाया जा सकता है। तीवरदेव विहार के मुख्य द्वार की पट्टिका मे उत्कीर्ण चाक पर बरतन बनाता हुआ कुम्हार शिल्पकारों की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है। जब कुम्हार के कार्य को विहार के सिंह द्वार में प्रदर्शित किया है तो मानना चाहिए कि शिल्पकारों को महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त था। सुरंग टीला के स्तंभों में शिल्पकारों ने अपने हस्ताक्षर छोडे हैं। यहाँ स्तंभों पर ध्रुव बल, द्रोणादित्य, कमलोदित्य एंव विट्ठल नामक कारीगरों के नाम उत्कीर्ण हैं। किसी राज्य या राजा के कार्यकाल की स्थिति का आंकलन हम उसके काल में हुए शिल्प कार्य, निर्माण एवं उसके द्वारा चलाए गए सिक्कों से करते हैं। इनका निर्माण परम्परागत शिल्पकारों के बगैर नहीं हो सकता। राजाश्रय मिलने पर ही शिल्पकार स्वतंत्र हो कर कार्य करते थे। यजुर्वेद में "कुलालेभ्य कर्मारेभ्यश्च वो नमः" के अनुसार कुम्हार और बढ़ईयों से लेकर जितने भी कारीगर हैं सबके लिए आदर एवं अन्न की व्यवस्था बतलाई गई है। शिल्पियों एवं रथकारों को यज्ञ मे शामिल होने का भी आदेश है और इनका दर्जा ब्राह्मणों के बराबर दिया गया है। 

तमेर के घर से प्राप्त ताम्रपत्र 
कई शिला लेखों में एवं ताम्रपत्रों में लेखक के नाम का जिक्र होता है।  कुरुद में प्राप्त नरेन्द्र के ताम्रपत्र लेख में उत्कीर्णकर्ता के रुप में श्री दत्त का, आरंग मे प्राप्त जयराज के ताम्रलेख में अचल सिंह का, सुदेवराज के खरियार में प्राप्त ताम्रलेख में द्रोणसिंह का, महाभवगुप्त जनमेजय के ताम्रलेख में रणय औझा के पुत्र संग्राम का वर्णन है। प्रथम पृथ्वीदेव के अमोदा में प्राप्त ताम्रपत्रलेख में वर्णन है कि "गर्भ नामक गाँव के स्वामी ईशभक्त सुकवि अल्हण ने सुन्दर वाक्यों से चकोर के नयन जैसे सुंदर अक्षर ताम्र पत्रों पर लिखे जिसे सभी शिल्पों के ज्ञाता सुबुद्धि हासल ने शुभ पंक्ति और अच्छे अक्षरों में उत्कीर्ण किया।" द्वितीय पृथ्वीदेव के रतनपुर में प्राप्त शिलालेख संवत 915 में उत्कीर्ण है " यह मनोज्ञा और खूब रस वाली प्रशस्ति रुचिर अक्षरों में धनपति नामक कृती और शिल्पज्ञ ईश्वर ने उत्कीर्ण की। उपरोक्त वर्णन से शिल्पकारों की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का पता चलता है। जारी है ....... आगे  पढ़ें 

18 टिप्‍पणियां:

  1. हमने अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को ठीक से नहीं संजोया. जो बची हुई हैं उनसे पता चलता है कि देश कितना समृद्ध था.

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  2. सिरपुर पर जबरदस्त आलेख. अब यकीन हो गया कि छत्तीसगढ़ का इतिहास सुरक्षित रहेगा.

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  3. गहन पुरातत्व ज्ञान से भरपूर सम्पूर्ण पोस्ट .

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  4. सदा की भांति सुन्दर जानकारी देती अद्भुत कड़ी गहन पुरातत्व ज्ञान से भरपूर सम्पूर्ण पोस्ट .

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  5. इतने सारे बोलते हुए से चित्र, उत्खनन से प्राप्त शिल्प और उस काल का इतना विस्तृत वर्णन पढ़कर इतिहास पुनर्जीवित हो गया है... २६०० साल पुराना सिरपुर का इतिहास अब सचमुच सुरक्षित है ...

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  6. रहस्यों और इतिहास के न जाने कितने अध्याय छिपे हैं यहाँ ।

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  7. इतिहास से आपकी रूचि से हम भी लाभान्वित हो रहे हैं !
    आभार !

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  8. बहुत रोचक लेख .. आपकी ऐतिहासिक और पुरातात्विक रूचि से हम सभी पाठकों का ज्ञानवर्द्धन हो रहा है ..

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  9. ललित जी,
    बहुत अच्छी जानकारी मिली ..
    आपका आभार

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  10. वाकई मानना पड़ेगा भाई ललित की

    मेहनत को ......इतिहास का गहन

    अध्ययन कर यहाँ अलंकृत रूप में

    प्रस्तुत करना ....साधुवाद, धन्यवाद

    के पात्र हैं ...इसे कहते हैं "ऑल राउंडर"

    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं

    सहित ...............

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  11. जीवंत विवरण पढ़कर सिरपुर की यादें ताजा़ हो गईं।
    श्री रामोजयति !
    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  12. आदरणीय, इतिहास में सिरपुर और पंड्य राजाओं के बारे में पढ़ा था, पर इतना विस्तृत वर्णन नहीं था..खासतौर पर शिल्प पर जबरदस्त जानकारी है ....बहुत बहुत धन्यवाद् !

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  13. विस्मृत वैभव के इन अध्यायों को प्रकृति से जीवंत परिवेश सहित एक अनुभव के रूप में जानना आनंदित करता है, साथ ही वर्णन-कौशल और भाषा की रमणीयता मन को मुग्ध कर देती है-आभार आपका ऍ

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  14. बहुत ऐतिहासिक रोचक लेख
    बहुत अच्छी जानकारी मिली .....ललित जी

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  15. ललित जी ,
    सिरपुर यात्रा वॄतांत के माध्यम से आपने छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण प्राचीन धरोहर को ब्लॉग जैसे सशक्त प्लेटफार्म पर रोचकता से प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है,नई पीढी को इसका लाभ मिलेगा तथा अपने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक गौरव से परिचित भी होगी। ...अन्यथा पता नहीं हम जैसे दूरस्थ कितने लोग इस धरोहर की जानकारी से अपरिचित रह जाते। आशा है कि पर्यटन के क्षेत्र में सिरपुर भारत का सिरमौर बनेगा नई पीढ़ी को धरोहर सँजोने की प्रेरणा मिलेगी ...आपको साधुवाद!
    सादर...

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  16. ताम्र पत्र पर कौन सी लिपि में क्या लिखा गया है, उसे भी दर्शना चाहिए था!

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