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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

संगतराश : एक मुलाकात


थौड़े की चोट से छेनी से निकलता संगीत आकर्षित करता है मुझे, मंत्र मुग्ध सा उस शिल्पकार के समीप खड़ा हो जाता हूँ जो प्रस्तर प्रसव द्वारा एक सजीव प्रतिमा को जन्म दे रहा है। उसकी पीड़ा में सहभागी हो जाता हूँ, इतना अधिक अंतरंग कि वह मेरे वुजूद पर छा जाता है, उससे अलग नहीं हो पाता। लगता है उस प्रतिमा को मैं ही आकार दे रहा हूँ तन्मय होकर। शायद पिछले जन्म में संगतराश था, आज हर्फ़तराश हूँ, इस जीवन में भी तराशने का कार्य ही है। शिल्पकार की यही नियति है, उसे तराशना ही पड़ता है, आने वाली पीढी को विरासत में देने के लिए, चाहे  जो भी हो।  
अद्भुत शिल्प-सिरपुर (फ़ोटो - सुशील जाचक)
भरी दुपहरिया, सूरज की तपन के मारे सिर भन्नाने लगा। राह चलते हुए एक स्थान पर ठक-ठक ठका-ठक की मधुर लय सुनाई देने पर देखा कि एक अधेड़ जोड़ा स्वेद कणों से नहाया छेनी हथौड़ी से पत्थर तराश रहा है। उसके हथौड़े की चोट से पत्थरों के किरचे ईर्द-गिर्द उड़ रहे थे। सिर पर धूप से बचने के लिए घास-फ़ूस की छाया बना रखी है। समीप पहुंचता हूँ तो बाईक बंद होने पर उनका ध्यान मेरी तरफ़ होता है, वे दोनो पति-पत्नी सावधान हो जाते हैं और सोचते हैं कि कोई ग्राहक आया है। समीप ही ईंटों की बेंच पर पत्थर के किरचे बिखरे पड़े थे तथा लाल चीटियों का डेरा था। उसे साफ़ करने कहता तो महिला एक टूटा हुआ झाड़ू ढूंढ कर लाती और उसे बहारती है। बेंच बैठने लायक हो जाती है। गर्मी लगभग 42 डिग्री रही होगी। ऐसे में शीतल छांव सुहानी हो जाती है।
प्यारे लाल और बुधवंतिन
बैंच पर बैठकर थोड़ी देर बाद उनसे चर्चा प्रारंभ करता हूँ, पुरुष का नाम प्यारे लाल सोरी और स्त्री का नाम बुधवंतिन। बुधवंतिन "सिल" को रुप देने के लिए तेजी से हथौड़ा चला रही है। माथे पर चमकती पसीने की बूंदे बह कर नाक के उपर से ठोढी पर ठहर कर टपक रही है। इसकी परवाह किए बिना वह अपनी धुन मे मगन है। मेरे सवाल के जवाब में प्यारे लाल कहता है कि "सिल-बट्टा" बनाना उनका पुश्तैनी काम है। पूर्वज भी यही करते थे और मेरे बच्चे भी यही काम करते हैं। पूरा परिवार सिल बट्टा बनाने का ही काम करता है। पिताजी के साथ मैं बचपन से ही पत्थर तराशने का काम कर रहा हूँ इसलिए  पढ़ लिख नहीं बन पाया। मेरे साथ काम करने के कारण मेरे बेटे भी नहीं पढ पाए। अब मैं नाती पोते वाला हो गया हों। बेटे और बहु सिल बट्टा बेचने के लिए उड़ीसा गए हैं।
संगतराश एवं ब्लॉगर
गरियाबंद जिले की छुरा तहसील के पोंड़ गाँव में लगभग 12-13 घर बेलदारों के हैं। ये अपने कार्य के लिए पत्थर पोंड डोंगरी से लाते हैं। पत्थर लाने में भी बहुत समस्या है। ठेकेदार से लेकर माईनिंग के चौकीदार तक सबको पैसा देना पड़ता है। तब कहीं जाकर एक सिल का पत्थर 15-20 रुपए में मिलता है। उसके बाद भी धमकी चमकी चालु रहती है। प्यारे लाल कहता है कि हमारा पुस्तैनी धंधां है, किसी के पास एकाध एकड़ खेती है, हमें बारहों महीना पत्थर तोड़ कर जीवन चलाना पड़ता है। जैसे सरकार कंड़रा लोगों को बांस देती है, वैसे हमें भी पत्थर देने चाहिए। पुस्तैनी पेशेवरों का सरकार को ध्यान रखना चाहिए। पर सुनता कौन है। हाड़ तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। जिस तरह बढ़ई लकड़ी पहचानता है अपने काम लायक, उसी तरह हमें भी पहाड़ से पत्थर पहचान कर लाना पड़ता है। फ़िर वह सामने पड़े पत्थर पर हथौड़े की चोट करता है। उससे ठक की ध्वनि निकलती है। इस तरह का पत्थर ही काम आता है सिल बट्टा के लिए। न अधिक कठोर न अधिक मुलायम।
बुधवंतिन
प्राचीन काल से मानव के जीवन में नित्य काम आने वाले यंत्र बना रहा है प्यारे लाल। हजारों वर्ष पुराने स्थलों के उत्खनन में भी सिल बट्टे और चक्कियाँ मिलती हैं। ये ऐसे उपरकरण है जो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान में भी चलन में हैं। प्यारे लाल बताता है कि माटी छाबना (इसके उपर वाले पट को मिट्टी से छाबना पड़ता है) , खुसेरा (चलाने के लिए इसमें बगल से हत्था घुसाया जाता है) और ठाड़ खुंटा वाला (इसमें हत्था उपर लगता है) तीन तरह का "जांता" (हाथ चक्की) बनाते हैं। मसुर, उड़द एवं मुंग की दाल बनाने  के लिए "जंतली" होती है जिसका आकार छोटा होता है। प्राचीन काल में भी ऐसे ही घरेलू उपकरण बनाए जाते थे। गाँव के घरों में आज भी ये उपरकरण मिल जाते हैं और इन्हे बनाने की प्रक्रिया भी सतत जारी है।
पत्थर को आकार देता शिल्पकार प्यारेलाल
प्यारे लाल कहता है कि इन उपकरणों को बनाने के बाद बेचने के लिए दूर-दूर तक जाना पड़ता है। कांकेर, केसकाल, कोंडागाँव, दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर, उड़ीसा तक सामान बेचने जाते हैं। पहले तो गदहों पर लाद कर ले जाते थे, अब इन्हें बनाने के बाद मेटाडोर एवं  ट्रक में भरकर ले जाते हैं। फ़िर किसी बड़े शहर या कस्बे में रख कर सायकिल पे लेकर गाँव-गाँव बेचने के लिए जाते हैं। एक सिल 100-150 रुपए में बिक जाती है। जांता का चलन कम हो गया है। गाँव-गाँव में बिजली से चलने वाली चक्कियाँ हो गई है। लेकिन सिल बट्टा तो बिकता ही है। ग्रामीण अंचल में जिसके घर विवाह होता है वह एक सिल जरुर खरीदता है। पाणीग्रहण के वक्त "शिला रोहण" के लिए सिलबट्टा गरीब से गरीब व्यक्ति खरीदता है। इसे पार्वती का प्रतीक माना जाता है और यह बेटी के दहेज में उसकी सखी के रुप में उसके साथ जाता है। हमारा समाज बूढा देव एवं बूढी माई की पूजा करता है। वर्तमान में कुछ वर्षों से विश्वकर्मा भगवान की पूजा भी करने लगे हैं।
एक की कमाई से जीवन नहीं चलता
मान्यता है कि सिल और बट्टा एक साथ बेचा और खरीदा नहीं जाता है। बट्टे को शिव का स्वरुप माना जाता है और सिल को पार्वती का। इन दोनो को जन्म देने वाला "शिल्पकार" होने के कारण वह इन दोनों का पिता है। इसलिए वह दोनों को एक साथ नहीं देता। पहले दोनों में किसी एक को लेना पड़ता है फ़िर कुछ दिन बाद इसकी जोड़ी पूरी करनी पड़ती है। जो लोग जानकार है वह कभी सिल बट्टा एक साथ नहीं खरीदते। जिन्हे जानकारी नहीं है उन्हे हम बता देते हैं और सिल बट्टा एक साथ नहीं देते। यह मान्यता हमारे समाज में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। सांवली सी लड़की स्कूल ड्रेस पहने मुझे आती दिखाई देती है। उसे पास बुलाकर नाम पूछता हूँ तो प्यारे लाल कहता है, ये मेरी पोती है शारदा साहब। पूछने पर लड़की बताती है कि वह 4 थी क्लास में पढती है। स्कूल में मिलने वाले मध्यान भोजन के बारे में बताती है कि चावल, दाल, सब्जी, खीर, बड़ी की सब्जी और अन्य चीजें भी भोजन में मिलती हैं। अंडा के विषय में पूछने पर कहती है कि अंडा की सब्जी नहीं मिलती। दो वर्षों पूर्व मध्यान्ह भोजन का एक सर्वे किया था तो छुरा ब्लॉक के कुछ स्कूलों में अंडा की सब्जी देने की बात सामने आई थी। शारदा खेलने चली जाती है। 
विक्रय के लिए रखा सिल-बट्टा - सहस्त्राब्दियों की गारंटी
कौन सी जाति के हो? मेरे प्रश्न के जवाब में प्यारे लाल अपनी जाति "बेलदार" बताता है और कहता है कि हम आदिवासी ही हैं साहब, उनके और हमारे गोत्र मिलते हैं जैसे कुंजाम, बघेल, सोरी, नेताम, मरकाम, मरई इत्यादि। लेकिन काम के आधार पर हमें लोग बेलदार कहते हैं, बेलदार जाति नहीं कर्म है, आरंग तरफ़ सतनामी लोग बेलदार कहलाते हैं और उड़ीसा में राजपूत बेलदार होते हैं। हमारा जाति प्रमाण पत्र नहीं बनता। हमारी जाति के कुछ लोग कलेक्टर से मिलने गरियाबंद गए थे। क्या हुआ उसका पता नहीं। बुधवंतिन भी हमारी बातों में शामिल हो जाती है, पर उसका हथौड़ा निरंतर सधा हुआ प्रहार पत्थर पर कर रहा है। मैं कहता हूँ " तैं तो मोर काकी सही दिखत हस" (तुम तो मेरी काकी जैसी दिख रही हो) तो वह मुस्काती है। प्यारे लाल कहता है - "तोर काकी अइसन नी हो ही, ये ह त बिलई ए" ( आपकी काकी ऐसी नहीं होगी, यह तो काली है।) मोर काकी कोदो सांवर हे (मेरी काकी का रंग कोदो के रंग जैसा है।) हम तीनो ठहाका लगाते हैं। हथौड़ों की चोट के साथ माथे पर चुहती पसीने की बूंदों के बीच हँसी जीवनामृत का कार्य करती है। मैं हँसते-हँसाते ठहाके लगाते हुए उनसे विदा लेता हूँ।     

14 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगी सिल बनाने वाले इन कर्मठ बेलदारों से मुलाकात !

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  2. ......शारदा खेलने चली जाती है।
    मतलब अगली पीढ़ी इस विरासत को खो देगी। विलुप्ति की ओर कदम बढ़ गए।

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  3. नए जमाने में बिजली से चलने वाली मिक्सी जैसी मशीनों के बीच अब सिल बट्टे बनाने की कला विलुप्त होती जा रही है ,लेकिन गाँवों में आज भी कहीं न कहीं घरों में इनका चलन है .ऐसे ही घर-परिवार वाले इस शिल्प को और इसके शिल्पियों को जीवित रखे हुए हैं .इन मेहनतकशों के विलुप्तप्राय शिल्प को और उनकी कठिन जीवन शैली को इस सुन्दर आलेख के माध्यम से उभारने का आपने सराहनीय प्रयास किया है .बधाई और शुभकामनाएं .

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  4. संगीता पुरी

    संगतराश से अपनी मुलाकात का आपने बहुत ही सुंदर प्रस्‍तुतीकरण किया है ..
    दो नए शब्‍दों के अर्थ बताइए .. संगतराश और हर्फतराश से पहली बार परिचित हुई ..
    अब पढाई लिखाई नही मध्‍यान्‍ह भोजन को ही सरकार ने विद्यार्थियों की मुख्‍य जरूरत मान ली है ..
    सिलबट्टे में पीसे मसालों , सामानों से बने व्‍यंजनों में जो स्‍वाद होता है मिक्‍सी से पिसे गए व्‍यंजनों में नहीं !!

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  5. अजय त्यागी

    भले ही अगली पीढी इस कार्य को न करे, लेकिन अभी तक तो इनके परिवार में एक भी पढा लिखा नहीं है। शारदा पढ रही है तो इस बात की खुशी है कि वह अपने परिवार को शिक्षित बनाएगी तथा विवाहोपरांत ससुराल को भी। इससे सदियों से अंधकार में जीवन यापन कर रहे दो परिवारों में शिक्षा का प्रकाश फ़ैलेगा।

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  6. तब आकार तराशते हथौड़े और छेनी और अब आधार तराशते हथौड़े और छेनी।

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  7. काम करने वाले हमेशा ही अंधेरों में खोये रहे.

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  8. संग्रहणीय पोस्ट.... आवश्यकता है ऐसे लोगों के काम को कठिनाईयों को जानने की

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  9. लोग देख कर भी जिन्हें अनदेखी करते हुए निकल जाते हैं, उनकी मेहनत और पसीने को शब्द दे दिए आपने. एक शिल्पकार ही शिल्पकार को अच्छी तरह पहचान सकता है. संगतराश की हर्फ़तराश से अनोखी मुलाकात ...संग्रहणीय आलेख... आभार

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  10. पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूं पहार।
    याते तो चाकी भली पूज खाय संसार।।

    yaayawar ki yaayawari ka hi sangtarash

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  11. शिक्षा तो सबको मिलनी ही चाहिए। जब कोई और साधन/विकल्प न हो तो पुश्तैनी धंधा कितना भी कम लाभप्रद हो, कुछ न होने से तो बेहतर ही है। और यह हर कदम पर रिश्वत देने की मजबूरी, इस भ्रष्टाचार के हटे बिना देश का भला कैसे हो सकता है?

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