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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

रेणुका के तट पर यादों की धुंध

तम्बू से बाहर निकला, रेणुका धुंध की चादर ओढ स्थिरता से बह रही थी, सूर्य की किरणें कोहरे की चादर को भेदने का प्रयास कर रही थी। कोहरा भी आज चादर लेकर नहीं, रजाई लेकर आया था और उसने भी ठान लिया था आज तो उसकी ही विजय होगी। बाहर से तम्बू ओस से भीगा हुआ था, पचकौड़ रात को कह रहा था " साहब यहाँ तम्बू मत लगाईए, रात को भालू आते हैं और जंगली सुअर भी।" मैने उसे टालते हुए कह दिया कि मुझे इनसे बचने का मंत्र मालूम है।वो तो अपने गाँव चला गया और मैं रह गया तम्बू में अकेला। अलाव में 3 मोटे लट्ठे लगा दिए थे, दो करदीप जला कर लटका दिए ताकि उनसे ऊष्मा बनी रही।

शीत लहर सी चल रही थी, नदी किनारे की रेत ठंडी हो चुकी थी, ऐसा लगता था कि इग्लू में सोया हूँ। ठंड का असर देख कर स्लीपिंग बैग के भीतर अपना सुलेमानी कोट पहनकर सोया। जब तुम नहीं होती तो कोट से निकली उष्मा तुम्हारे सानिध्य सी राहत देती है मुझे, सीने लगा कर सो जाता हूँ, सीना गर्म रहे तो शिराओं में रक्त जमने का खतरा कम हो जाता है, धमनियाँ उष्मा पाकर सुचारू रुप से कार्य करती हैं। तुम्हारी यादों के इलेक्ट्रोन, प्रोट्रोन, न्यूट्रोन, गॉड पार्टिकल्स जैसे लघु परमाणु  विस्फ़ोट करते रहते हैं। यही तो देह के विद्युत केन्द्र हैं, जो सतत उर्जा बनाए रखते हैं। 

हाँ! एक चीज तो भूल रहा हूँ, जो मय तुमने नयनों से पिलाई थी, सदियाँ बीत गई, उसका असर अभी तक है। महुआ तो बेवफ़ा है, चढता है और उतर जाता है। मगर तुम्हारी वफ़ा की मय जब से मुंह लगी है उतरती ही नहीं है। मय का सागर उमड़ता घुमड़ता है इन नयनों में। पता नहीं कौन सा जादू है, आँखें बंद करते ही भीतर उतर जाता हूँ, चलचित्र सा चलने लगता है। बाहर अंधेरा होते ही भीतर उजाले का विस्फ़ोट हो जाता है। चकाचौंध इतनी अधिक कि प्रकाशमय सतरंगी वलय आसमान में उड़ते दिखाई देते हैं। मन करता है उन वलयों को पकड़ कर तुम्हारे गले का हार बना दूँ। जब तुम आओ तो तुम्हारे साथ-साथ इन्द्रधनुष चले। मैं तो मय पीकर मत्त रहना चाहता हूँ। मुझे ऐसी तंद्रा चाहिए जिससे बाहर आना ही न हो।

नदी किनारे की रेत पर टहलते हुए सोचता हूँ कि पूर्व जन्म में भी कभी मेरा काफ़िला यहीं रुका होगा। आज भी कारवां यहीं ठहरा है, अलाव की राख में दबी चिंगारी को एक बार फ़िर हवा देकर मैने अग्नि प्रज्वलित की है। बनजारा एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर आगे बढ जाता है परन्तू कभी चूल्हे में या अलाव में पानी डाल कर अग्नि को शीतल नहीं करता। उसकी अग्नि सतत प्रज्वलित रहती है। यही अग्नि उसे अगले पड़ाव तैयार मिलती है, बनजारे की बाट देखते हुए। अग्नि जीवन से लेकर मृत्यू तक साथ निभाती है, इसी आशा में कि फ़िर वह स्वर्णकार आएगा और अपनी फ़ूंक से राख उड़ा कर अग्नि प्रज्जवलित करेगा। राख को राख कर देगा, धूंआ को धूंआ कर देगा, अग्नि को स्वर्णिम बना देगा।

इस वीराने में सिर्फ़ मैं हूँ और तुम हो, साथ है नदी का बहता हुआ जल, किनारे पर सदियों से खड़े वृक्ष मेरी ओर ताक रहे हैं, शायद सोच रहे हैं, आज फ़िर यह मुसाफ़िर अकेला है। कैसा पागल है, घूम फ़िर कर फ़िर यहीं डेरा लगा लेता है। शायद कुछ गाड़ कर गया है यहाँ। उसे ही पुन: पाने की अभिलाषा इसे बारम्बार यहाँ खींच लाती है। हाँ! गाड़ा है मैने, यहाँ जीवन की सुनहरी यादों को। उसकी पैरी की खनखनाहट आज भी मेरे कानों में सुनाई देती है। बस उसी खनखनाहट सुनने चले आता हूँ मैं। कांसे की लघु घंटिकाओं की मघुर ध्वनि मुझे रोमाचिंत कर देती है। उसके स्वागत में रोम-रोम उर्जा से भर जाता है। लगता है कि उन्मुक्त आकाश में विचरण कर रहा हूँ। नर से नारायण हो गया हूँ।

पैरों तले का रेत कसमसाकर मुझे वास्तविकता का बोध कराता है, रेत के कसमसाने की ध्वनि मुझे सुनाई दे रही है। परन्तु मधुर लघु घंटिकाओं की ध्वनि के बीच यह ध्वनि मंद हो गई। कदम आगे बढाते ही जूते रेत में धंस कर उसे रौंद रहे हैं। जूतों के तले  से होता हुआ अहसास मस्तिष्क की शिराओं तक पहुंच कर झनझना रहा है।  रेत के नीचे बहती हुई नदी इशारा कर रही है कि जम कर कदम रखो वरना बह जाओगे। न जाने तुम्हारे जैसे कितने बह गए इस बहते हुए जल में। मुझे डर नहीं है बह जाने का। अगर बह जाऊंगा तो कहीं न कहीं किनारा मिल गया जाएगा। फ़िर जीवन की डोर भी इतनी कमजोर नहीं होती। नदी के साथ साथ चलती है। पकड़ ही लूंगा उसे किसी घाट पर।

चिड़ियाँ चहचहाने लगी, धुंध और भी गहरी होती जा रही थी। सूरज की किरणें जितनी ताकत लगा रही थीं, उससे अधिक धुंध पसरती जा रही थी। चिड़ियों की चहचहाट का मधुर संगीत मुझे प्रकृति के साथ जोड़ रहा है। बीच-बीच कौंवे की कर्कश कांव कांव मधुर वीणा के संगीत के बीच ड्रमर द्वारा ड्रम ठोकने का अहसास करा रही हैं। दोनों की जुगलबंदी चल रही है। चिड़ियों की चहचहाट के साथ कौंवे की काँव काँव बढते जाती है। लगता है आज संगीत का मुकाबला ये जीत ही लेगें। हठधर्मिता है इनकी। कहाँ चिड़ियों का मधुर गान और कहाँ कौंवों की कर्कश ध्वनि। चलना चाहिए अब मुझे यहाँ से, जुगलबंदी छोड़ कर नदी किनारे से तम्बू की ओर लौट आता हूँ।

अलाव की बिखरी हुई लकड़ियों को समेट कर उन्हें थोड़ी सी हवा देता हूँ, हवा मिलते ही भभक कर ज्वाला आसमान की तरफ़ लपकती है। आज इन ज्वालाओं को भी आसमान से निपटने दिया जाए। उसे अपने आसमान होने पर बहुत घमंड है। ये ज्वालाएं उसके घमंड की जमी हुई बर्फ़ को भी पिघलाने की ताकत रखती हैं। अलाव के पास रखी शिला पर बैठ जाता हूँ। जैसे यह विक्रमादित्य का बत्तीस पुतलियों वाला सिंहासन हो। सिहांसनारुढ आसमान से टक्कर लेती ज्वालाओं का खेल देखने वाले सिर्फ़ तीन ही हैं, मैं हूँ, तुम हो और सामने वृक्ष पर बैठी काली चिड़िया है और सदियों पुरानी वही कहानी है जो बनजारे छोड़ चले।

8 टिप्‍पणियां:

  1. इतिहास देखते समय बहुधा इतिहास में उतर जाता है मन, बहुत सुन्दर वर्णन, बहुत रोचक विधा।

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  2. देते चलिये हवा कुछ ना कुछ सुलगता रहे ना सुलगे तो थोड़ी महुवा छि‌ड़क दीजिये :)

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  3. वाह!!! बहुत सुन्दर वर्णन, बहुत रोचक विधा।

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  4. लेखन मे पैनापन किसी प्रेम को दर्शाता वाह जी

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  5. अद्भुत शैली …ऐसा लगा जैसे सारी घटना चलचित्र की भांति आँखों के सामने घूम गई हो … जारी रहेगी सदियों पुरानी अधूरी वही कहानी जो बनजारे छोड़ चले, आपकी लेखनी के माध्यम से ......

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  6. वाह ! यह गद्य है या कविता ! बहुत खुबसूरत कविता।

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  7. आप सबको नववर्ष 2014 की मंगल कामनाएं...

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  8. आदरणीय सर , बहुत बढ़िया व टॉप का ब्लॉग आपका है , सर कल ३१-१२-२०१३ को आपके ब्लॉग का लिंक मै अपने ब्लॉग पोस्ट पे दे रहा हूँ , कृपया पधारने की कृपा करें , धन्यवाद
    I.A.S.I.H top 2013 ( टॉप १० हिंदी ब्लोगेर्स , हिंदी सोंग्स , टॉप वालपेपर्स , टॉप १० फ्री pc softwares वेबसाइट लिंक्स ) और ?

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