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बुधवार, 12 मार्च 2014

नगाड़ों का सफ़र

संतागमन के साथ प्रकृति खिल उठती है, खेतों में रबी की फ़सल के बीच खड़े टेसू के वृक्ष फ़ूलों से लद जाते हैं, मानों प्रकृति धानी परिधान पहन कर टेसू के वन फ़ूलों से अपना श्रृंगार कर वसंत का स्वागत कर रही हो। टेसू के फ़ूलों से प्रकृति अपना श्रृंगार कर पूर्ण यौवन पर होती है तथा वातावरण में फ़ूलों की महक गमकते रहती है। पतझड़ का मौसम होने के कारण पहाड़ों पर टेसू के फ़ूल ऐसे दिखाई देते हैं जानो पहाड़ में आग लग गई हो। विरही नायिका के हृदय को भी अग्निदग्ध करने में यह ॠतू कोई कसर बाकी नहीं रखती। इसी समय होली का त्यौहार आता है और दूर कहीं नगाड़ों के बजने की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। साथ ही होली के फ़ाग गीत वातावरण को मादक बनाने में सहायक होते हैं।
टेसू (शुक चंचु) के फ़ूल
"अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी" फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है। 
कोकड़ा
शनिचरी बाजार में मेरी मुलाकात नगाड़ों की दुकान सजाए मन्नु लाल हठीले से होती है, नगाड़े बनाने एवं बेचने में इनकी उत्मार्ध बुधकुंवर भी हाथ बटाती दिखाई देती है। मन्नु लाल मिट्टी की हांडियों पर चमड़ा कसते हैं और बुधकुंवर चमड़े को विभिन्न रंगों से सजाती है। इनकी दुकान में 80 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक के नगाड़े की जोड़ियाँ विक्रय के लिए रखी हुई हैं। पूछने पर बताते हैं कि इनका पैतृक घर डोंगरगढ में है। गत 20 वर्षों से ये नगाड़ा बनाने एवं बेचने का काम करते हैं। होली के अवसर पर विशेषकर नगाड़ों की बिक्री होती है। बाकी दिनों में जूता चप्पल बेचने का काम करते हैं।
मन्नु लाल हठीले एवं बुधकुंवर
छत्तीसगढ़ अंचल में नगाड़े बनाने का काम विशेषत: चमड़े का व्यवसाय करने वाली मोची, मेहर और गाड़ा जातियाँ करती हैं। फ़ूलकुंवर कहती है कि पहले शादी के अवसर पर दफ़ड़ा एवं निशान बाजा बहुत बिकता था, परन्तु धुमाल बाजा आने के कारण इनकी बिक्री कम हो गई। दफ़ड़ा निशान बजाने वाले भी अब कम ही हैं। होली के बाद नगाड़ों की बिक्री पर विराम लग जाता है, महीनें में कोई एकाध जोड़ी नगाड़ा बिक्री होता है, वह भी कबूलना एवं बदना वाले लोग देवता-धामी मंदिर आदि में चढाने के लिए ले जाते हैं। कबुलना नगाड़े इन नगाड़ों से बड़े बनते हैं। 
नगाड़ों पर कलमकारी
नगाड़ा बनाने के लिए मिट्टी की हाँडी के साथ चमड़े का उपयोग होता है। मन्नु लाल बताते हैं कि नगाड़े की जोड़ी में दो सुर होते हैं, जिसे "गद" और "ठिन" कहते हैं। इसका निर्माण बैल या गाय के चमड़े से होता है। पशु के शीर्ष भाग का चमड़ा पतला होता है जिससे "ठिन" एवं पार्श्व भाग का चमड़ा मोटा होता है इससे "गद" नगाड़ा बनाया जाता है। हाँडी पर चमड़ा मढने के लिए भैंसे के चमड़े की रस्सियों उपयोग में लाई जाती हैं। तभी नगाड़ों से "गद" एवं "ठिन" की ध्वनि निकलती है। छोटा नगाड़ा बनाने के लिए बकरा-बकरी और अन्य जानवरों का चमड़ा उपयोग में लाया जाता है। इसे बजाने के लिए दो डंडियों का इस्तेमाल होता है जिन्हें स्थानीय बोली में "बठेना" कहा जाता है। नगाड़े की वास्तविक ध्वनि का आनंद गाय-बैल के चमड़े से मढे नगाड़े में ही आता है। 
नगाड़े बजा कर "गद" एवं "ठिन" ध्वनि का परिक्षण
मन्नुलाल कहते हैं कि होली के समय नगाड़े बेचकर 10 -15 हजार रुपए बचा लेते हैं। मंह्गाई बहुत बढ गई है, कच्चे माल का मूल्य भी आसमान छू रहा है। पहले एक ट्रक माल लेकर आते थे, वर्तमान में एक मेटाडोर ही नगाड़े लेकर आए हैं, किराया भी बहुत बढ गया। साथ ही रमन सरकार की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि राशन कार्ड में चावल, गेहूं, नमक, चना इत्यादि मिलने से गुजर-बसर अच्छे से चल रहा है। वरना जीवन भी बहुत कठिनाईयों से चलता था। इसी बीच फ़ूलकुंवर कहती है कि उनका स्मार्ट कार्ड नहीं बना है, आधार कार्ड बन गया है। इतना कहकर वह चूल्हे पर भोजन बनाने की तैयारी करने लगती है। 
नगाड़े संवारती बुध कुंवर
इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था। युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।
पतझड़ का मौसम खड़ुवा के जंगल में
वर्तमान में नगाड़ा मंदिरों में आरती के समय बजाया जाता है या फ़िर होली के अवसर पर बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में सामूहिक होलिका दहन स्थल पर फ़ाग गीतों के साथ इसका उपयोग किया जाता है। नगाड़ा बजता है तो गायक का उत्साहवर्धन होता है और सुर ताल बैठने पर फ़ाग गीत रात के सन्नाटे को चीरते हुए दूर तक सुनाई देते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ वसंत का रंग सारे वातावरण पर छा जाता है। होली समीप है और नगाड़ों की ध्वनि मन को मोह रही है। आस पास बजते नगाड़े का होली का स्वागत कर रहे हैं …… डम डम डम डम डमक डम डम…………

(डिस्क्लैमर - सभी चित्र एवं लेखन सामग्री लेखक की निजी संपत्ति हैं, इनका बिना अनुमति उपयोग करना कापीराईट के अधीन अपराध माना जाएगा। अनुमति के लिए shilpkarr@gmail.com पर सम्पर्क करें।)

8 टिप्‍पणियां:

  1. होली के आगमन के पूर्व नगाड़ों पर आपका ध्यान जाना और सविस्तार उनकी जानकारी इकठ्ठा कर प्रस्तुत करना सराहनीय है. ज्ञान वृद्धि तो हुई.

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  2. बहुत सुन्दर रोचक जानकारी ....चल हां रे बिरज में दे दे बुलौवा राधे को...फाग की महफ़िल जमती थी कभी ....सभी बंधु बांधव, मित्रगण सौहाद्र पूर्ण होली मनाते थे ...अग्रिम बधाई ललित भाई .......

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  3. मंदिर में बजने वाले नगाड़ों में पशु -चर्म , थोडा अजीब लगा फिर याद आया ऋषि मुनि भी तो मृग चर्म का आसन प्रयोग किया करते थे !
    रोचक जानकारी !

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  4. वसंत ऋतु मे तो सचमुच दिल खिला खिला हो जाता है . चारों ओर मस्ती का माहौल बन जाता है . फूलों की बहार सी आ जाती है .
    टेसू के फूल की फोटो को तो चुराने का दिल कर रहा है ! :)

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  5. आपने हमेशा अपने लेखन से सांस्कृतिक परम्परा व जानकारियों को सहेजने, समेटने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. इस पारम्परिक वाद्य यन्त्र "नगाड़ा" के बारे में इतनी विस्तृत जानकारियां कहीं और उपलब्ध नहीं ... सुन्दर चित्रों के लिए भी आपका आभार

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  6. सच कहा आपने, नगाड़ों की थाप पर होली का नृत्य उन्मादित हो जाता है।

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