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बुधवार, 4 जून 2014

अचानकमार: लमनी के गाँधी प्रोफ़ेसर खैरा

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तिलाई डबरा से बायसन से साक्षात्कार के बाद सफ़र आगे बढा, राह में अचानकमार गाँव है, 10 बरसों से देख रहा हूँ कोई बदलाव नहीं है। सड़क पर वही इकलौता झोंपड़ी वाला होटल, जिसमें भजिया, बिस्कुट एवं चाय मिलती है। ठंड के दिनों में यहाँ से गुजरने वाले यात्रियों के लिए आग तापने का एकमात्र सहारा है। एक बार ठंड से ठिठुरते हुए मैने भी गर्माहट के लिए हाथ पैर तापे थे। होटल की भट्टी में लगे हुए मोटे लट्ठ किसी बाबाजी के धूने या बिरहाग्नि की तरह 24X7 कल्लाक जलते रहता है। आज का मौसम आग तापने लायक नहीं था। गाड़ी वाताकूलन पर थी। हम सीधे जा रहे थे पर सड़कें लहरा रही थी किसी मदमस्त त्वंगी की मानिंद। पिछली बार नेपाल से लौटते हुए लमनी नाका से चढे हुए एक महुआ मतंग को हमने यही पर उतारा था।
अचानकमार का केंवची द्वार
हम अचानकमार के चर्चित ग्राम लमनी पहुंच गए। चड्डा जी ने ब्रेक लगाने का आदेश दिया। गाड़ी से उतरते ही दुकान के समाने बैठे खादीधारी कृशकाय व्यक्ति पर निगाह पड़ी। मैने तुरंत पहचान लिया कि ये "दिल्ली वाले प्रोफ़ेसर" हैं, नाम भूल रहा था। चड्डा साहब और उनका परस्पर 20 वर्षों का स्नेहिल संबंध है। दोनो ही जंगल और उसके निवासियों के संरक्षण हेतू तपस्या कर रहे हैं। दुआ सलाम के पश्चात चड्डा साहब ने हमारा परिचय प्रोफ़ेसर खैरा से कराया। उन्होने ने अपना थैला खोला और उसमें से चनामुर्रा (जिसमें मिक्चर मिला रखा था) मुट्ठी भर मेरे हाथ पर धर दिया। उनके थैले में कागज और स्केच पेन के साथ दो-चार पैकेट पारले जी एवं कुछ टेबलेट भी दिखाई दी। मुर्रा चबाते हुए उनसे चर्चा होने लगी। 
प्रोफ़ेसर पीडी खैरा चना मुर्रा देते हुए
जानकारी के लिए बता दूं इन शख्सियत का नाम प्रो पी डी खैरा है। ये दिल्ली विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे हैं। पहले अपने छात्रों के साथ बैगा आदिवासियों पर किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में अचानकमार आए। वापस लौटने के बाद इन पर भी वैरियर एल्विन की आत्मा सवार हो गई और 25 वर्षों से इस लमनी ग्राम में ही निवास कर बैगा आदिवासियों के उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं। 80 वर्ष की उम्र में छपरवा के हाई स्कूल में बच्चों को अंग्रेजी पढाने जाते हैं। पहले इस स्कूल में अंग्रेजी का कोई शिक्षक नहीं था। वहाँ से लौट कर लमनी के छोटे बच्चों से वनांचल के जीवन से संबंधित चित्र बनवाते हैं। जब उन्होने मुझसे चित्रों के विषय में चर्चा की तो लगा कि आदिवासियों की परम्परागत चित्रकारी पर कोई काम करवा रहे हैं। परन्तु लमनी के बच्चे सफ़ेद कागज पर स्केच पेन से रंगीन चित्र बना रहे हैं जिसमें उनकी दिनचर्या झलकती है।
लमनी स्थित प्रोफ़ेसर पीडी खैरा की पर्ण कुटी
चर्चा करते हुए कार पर निगाह पड़ी तो चक्का पंचर दिखाई दिया। गाड़ी के टायर ट्यूबलेस थे, प्रोफ़ेसर खैरा ने एक बंदे को हवा भरने कहा और मुझे अपनी पर्ण कुटी में बच्चों की बनाई पेंटिंग दिखाने ले गए। एक कमरे की उनकी कुटिया सुंदर है, जिसमें दो खिड़कियाँ और एक दरवाजा है, सामने छोटी परछी है और थोड़ा लकड़ियों का घेरा। कमरे में प्रवेश करने पर थोड़ा सा ही सामान दिखाई दिया। थोड़े से बर्तन एवं एक टेबल एक तख्त। टेबल पर कागज, पुस्तकें फ़ाईले इत्यादि रखी है और तख्त इनके सोने के काम आता है। सीधी साधी साधू सी जिन्दगी पर जज्बा आसमान से भी बड़ा। एक सीएफ़एल बल्ब कवेलू की छत से लटक रहा था। पूछने पर पता चला की बैटरी से चलता है। इस गांव में मोबाईल फ़ोन काम नहीं करता। एक व्यक्ति ने डब्लु एल एल कनेक्शन लेकर पीसीओ खोल रखा है, आवश्यकता होने पर उसी से बात होती है। 
आदिवासी बच्चों के बनाए चित्र दिखाते हुए
प्रोफ़ेसर खैरा कुटिया से बाहर आते हैं उनके हाथों में बहुत सारे बच्चों के बनाए चित्र हैं  जिन्हें मुझे दिखाते हैं। चित्रों में आदिवासी जनजीवन की कहानियाँ  चित्रित हैं, जो रोजमर्रा में घटित होता है वही उनके चित्रों का विषय है। मछली पकड़ना। पेड़ काटना, शिकार करना। जंगली जानवरों के चित्र, जिन्हें वे अपने आस पास हमेशा देखते हैं। बच्चों ने अपनी कलम से सारा जहान रच डाला है। चित्रों से दिखाई देता है कि उन्हें रंगो की कितनी समझ है। रंग बिरंगे फ़ूलों के साथ रंग बिरंगी चहचहाती चिड़िया और काली बिल्ली भी बनाई हुई है। प्रोफ़ेसर खैरा चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं - सरकार वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदल रही है। इसके विषय में कुछ करना होगा। आप भी लिखिए और मैं भी कुछ प्रयास करता हूँ। 
लमनी के गांधी प्रोफ़ेसर खैरा
गांधीवादी विचारों से ओत प्रोत व्यक्ति दिल्ली जैसी सर्वसुविधायुक्त राजधानी को छोड़ कर अचानकमार के लमनी जैसे गाँव में बैगा आदिवासियों के बीच रह कर उनके विकास के लिए कार्य कर रहा है, यह आज के जमाने में बड़ी बात है। जहाँ मोबाईल फ़ोन, बिजली, डॉक्टर जैसी सामान्य सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहाँ बैगा आदिवासियों के साथ उनके जैसी ही झोपड़ी में रहकर उनके दुख दर्द को समझा जा सकता है। कहते हैं कि प्रोफ़ेसर खैरा बैगा आदिवासियों के लिए प्रशासनिक स्तर से लेकर न्यायालय स्तर तक लड़ाई लड़ते हैं। आदिवासियों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं विस्थापन के मुद्दे पर उन्होने 25 वषों तक उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर सफ़र तय किया है। हमारी गाड़ी के टायर में हवा भर जाती है और हम उनसे पुन; मिलने का वादा करके विदा लेते हैं।  सफ़र जारी है……… आगे पढें

7 टिप्‍पणियां:

  1. सच्‍चे समाजशास्‍त्री हैं प्रो. खेरा.

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  2. प्रोफेसर खेड़ा अद्भुत मानव हैं, विश्वास नहीं होता कि ऐसी मनुष्य की ऐसी प्रजाति अभी हमारे साथ है। आपका लेख > स्तुत्य।

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  3. प्रो. पी. डी. खैरा जैसे महान व्यक्तित्व आज भी है जानकर बहुत ख़ुशी हुई .प्रो. खैरा के कार्यों और विचारों को शब्दों के माध्यम से हम तक पहुँचाने के आपके प्रयास के लिए हार्दिक बधाई और आभार

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  4. बढ़िया बढ़िया संस्मरण महाराज घूमने का सही मजा आप ही उठा रहे हैं ।

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  5. मैं उन सौभाग्यशाली में हूँ जीने इस गांघी का स्नेह मिला है,इनके पढ़ाये बैगा छात्र अंग्रेजी में अच्छे नम्बर से पास हो रहे है.पर उनकी नौकरी की चिंता इसको बनी है..नहीं तो पढाई का क्या लाभ ..! सर्वस्य त्यागी को मेरा सौ सौ प्रणाम ..!!

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  6. पोफेसर खैरा जैसे लोगों के कारण ही थोड़ी बहुत बची है वसुंधरा विश्वास की

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