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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सूर्य मंदिर कोणार्क के विध्वंस की कथाएं - कलिंग यात्रा

प्रारंभ से पढ़े…… जब इतिहास के पन्नों पर समय की गर्द जमा हो जाती है तो सत्यता भी प्रभावित होती है। तब बहुत सारी किंवदन्तियाँ, मिथक, कहानियां एवं गल्प कथाएं उसका स्थान लेकर सत्य को ढक कर भ्रमित कर देती हैं। यही स्थिति कोणार्क की भी है। इसके विध्वंस के पार्श्व में कई तरह के मिथक एवं लोकमान्यताएं प्रचलित हैं। इनके बीच सत्यान्वेषण करना कठिन एवं दूरुह कार्य है। लिखित अभिलेख एवं प्रमाण मिलने पर सत्यता सामने आ जाती है, परन्तु प्रमाण न होने के कारण सिर्फ़ कयास ही लगाए जा सकते हैं या जनश्रुतियों एवं लोकमान्यताओं पर ही आधारित रहना होता है।

चुम्बक पत्थर - विध्वंस के पीछे जनश्रुति है कि सूर्य मंदिर के शिखर पर एक चुम्बक पत्थर लगा था, इसके प्रभाव से समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत इस ओर खींचे चले आते थे जिससे उन्हें भारी क्षति होती थी और उनके दिशा निरुपण यंत्र चुम्बक के प्रभाव में आने के कारण भ्रमित हो जाते थे। जिससे दिशा भ्रम हो जाता था। इसलिए मुस्लिम नाविक इसे निकाल ले गए। केन्द्रीय शिला के स्थान पर यह चुम्बक प्रयुक्त होता था, इसे निकालने के कारण मंदिर की भित्तियों का संतुलन बिगड़ गया और दीवारे गिर पड़ी। इस घटना कोई आधार नहीं मिलता न कोई लिखित अभिलेख। सबसे पहले प्रश्च यह उठता है कि शिखर की टनों वजनी शिला को आवेशित कर चुम्बक किस तरह बनाया गया होगा? आठ सौ वर्षों पूर्व इतने बड़े चुम्बक बनाने का उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि चुम्बकीय पत्थर की कहानी कपोल कल्पित है।

वास्तु दोष - कई वास्तु शास्त्री मानते हैं कि मंदिर निर्माण परिकल्पना में वास्तु दोष था। यह भवन वास्तु के नियमों के विपरीत तैयार हुआ था। वास्तु शास्त्री तर्क देते हैं कि - मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए। पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है। प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है, जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है। नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचा है। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं। मै मानता हूं कि सूर्यमंदिर के पतन में कोई वास्तु दोष कार्य नहीं कर रहा था। यह मानव के दिमाग की उपज मात्र है। बिसु महाराणा उत्तम दर्जे का वास्तुकार था, उसके कार्य पर संदेश नहीं किया जा सकता।

राजा की अकाल मृत्यू - यह कई इतिहासकारों का मत है, कि कोणार्क मंदिर के निर्माणकर्ता, राजा लांगूल नृसिंहदेव की अकाल मृत्यु के कारण, मंदिर का निर्माण कार्य खटाई में पड़ गया। इसके परिणामस्वरूप, अधूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। लेकिन इस मत को एतिहासिक आंकड़ों का समर्थन नहीं मिलता है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ १२७८ ई. के ताम्रपत्रों से पता चला, कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने १२८२ तक शासन किया। कई इतिहासकार, इस मत के भी हैं, कि कोणार्क मंदिर का निर्माण १२५३ से १२६० ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है। ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से यह दावा भी खारिज हो जाता है।

शिल्पकार की मृत्यू - जन श्रुति है कि इस मंदिर में कभी पूजा नहीं हुई, एक दंतकथा प्रचलित है कि संपूर्ण प्रकार के निर्माण हो जाने पर शिखर के निर्माण की एक समस्या उठ खड़ी हुई। कोई भी स्थपति उसे पूरा कर न सका तब मुख्य स्थपति के धर्मपाद नामक 12 वर्षीय पुत्र ने यह साहसपूर्ण कार्य कर दिखाया। उसके बाद उसने यह सोचकर कि उसके इस कार्य से सारे स्थपतियों की अपकीर्ति होगी और राजा उनसे नाराज हो जाएगा, उसने उस शिखर से कूदकर आत्महत्या कर ली। इस मौत के पश्चात इस मंदिर में न प्राण प्रतिष्ठा हुई और न कोई पूजा हो सकी। इसलिए देख रेख के अभाव में मंदिर ढहते गया।

एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। 

बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में, इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। सूर्य मंदिर से हम चंद्रभागा के तट की ओर चल पड़े ………   आगे पढ़े जारी है………

2 टिप्‍पणियां:

  1. कोणार्क का मंदिर न केवल अपनी वास्‍तुकलात्‍मक भव्‍यता के लिए जाना जाता है बल्कि अपनी अद्भुत शिल्‍पकला और बारीकी के लिए भी प्रसिद्ध है।
    आपने सही कहा है "बहुत सारी किंवदन्तियाँ, मिथक, कहानियां एवं गल्प कथाएं उसका स्थान लेकर सत्य को ढक कर भ्रमित कर देती हैं। यही स्थिति कोणार्क की भी है। इसके विध्वंस के पार्श्व में कई तरह के मिथक एवं लोकमान्यताएं प्रचलित हैं। इनके बीच सत्यान्वेषण करना कठिन एवं दूरुह कार्य है।" परन्तु प्रत्येक बिन्दुओं पर आपके विचार अत्यंत गहन चिंतन, मनन व अध्ययन को दर्शाते हैं .... आभार

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