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रविवार, 22 नवंबर 2015

शिल्पकला का आदर्श लिंगराज मंदिर एवं मुक्तेश्वर मंदिर समूह

परशुरामेश्वर मंदिर से आगे बढने पर एक अन्य मंदिरों का समूह है, जो मुक्तेश्वर मंदिर समूह कहलाता है। यहां परमेश्वर एवं मुक्तेश्वर 950 ईस्वीं के लगभग का निर्मित मंदिर है। यहां का स्थापत्य बेजोड़ है। इसका शिखर 35 फुट ऊंचा है तथा यहां का तोरणद्वार अलंकरण भी अत्यंत दर्शनीय है। परमेश्‍वर मन्दिर अभी सुरक्षित अवस्‍था में है। यह मन्दिर इस क्षेत्र के पुराने मन्दिरों में सबसे आकर्षक है। इसमें आकर्षक चित्रकारी भी की गई है। एक चित्र में एक नर्त्तकी और एक संगीतज्ञ को बहुत अच्‍छे ढंग से दर्शाया गया है। इस मन्दिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है। यह शिवलिंग अपने बाद के लिंगराज मन्दिर के शिवलिंग की अपेक्षा ज्‍यादा चमकीला है।  
मुक्तेश्वर मंदिर समूह 
मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर में नागर शैली और कलिंग वास्तुकला का अद्भूत मेल देखा जा सकता है। मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर में नक़्क़ाशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस मन्दिर में की गई चित्रकारी काफी अच्‍छी अवस्‍था में है। एक चित्र में कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाया गया है। एक अन्‍य चित्र में पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मन्दिर के दरवाज़े आर्क शैली में बने हुए हैं। इस मन्दिर के खंभे पर भी नक़्क़ाशी की गई है। इस मन्दिर का तोरण मगरमच्‍छ के सिर जैसे आकार का बना हुआ है। इस मन्दिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है इसे मरीची कुंड के नाम से भी जाना जाता है।
मुक्तेश्वर मंदिर पुजारी एवं लेखक 
थोड़ी देर हमने इस मंदिर समूह परिसर में व्यतीत किए। शिल्प की दृष्टि से भी यह अनूठे हैं। इसके बाद हम यहाँ से लिंगराज मंदिर की ओर चल पड़े, जिस रास्ते से आए उसी रास्ते से चलकर लिंगराज मंदिर पहुंचे। लिंगराज मंदिर में उत्सव के कारण कुछ अत्यधिक सुरक्षा व्यवस्था दिखाई दे रही थी।  यहाँ मोबाईल कैमरे इत्यादि फ़ोटोखींचक साधन वर्जित हैं, आप बाहर से फ़ोटो ले सकते हैं, परन्तु भीतरी चित्र नहीं ले सकते। वैसे यह मंदिर भारतीय पुरातत्व के संरक्षण में है। परन्तु मुझे मित्रों ने कहा था कि यहाँ पंडों की ही चलती है, इसलिए फ़ोटो खींचने के नाम पर वाद-विवाद करना ठीक नहीं है। हमने कैमरा-मोबाईल और खड़ाऊ ऑटो रिक्शा में ही छोड़ दिए और मंदिर में प्रवेश किया। 
त्रिभंगी शालभंजिका मुक्तेश्वर 
मंदिर परिसर में पहुंचते ही पन्डा जी आ गए, हमने विनम्रता पूर्वक उनसे हाथ जोड़ लिए और आगे बढ गए। मंदिर में भोग का समय हो गया था और पाकशाला से मृदापात्रों में भोजन आने लगा। जिसे शिवलिंग के ईर्द-गिर्द वर्तुलाकार रखा जा रहा था। भारत में भगवान शिव कई रुपों में पूजे जाते हैं, भुवनेश्वर में शिवजी लिंगराज के नाम से पूजित हैं। रोचक तथ्य यह है कि लिंगराज मंदिर का प्रांगण 180 फीट है और कलश की ऊंचाई 40(8x5) मीटर है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा 8 फीट ऊंची है और यह जिस पीठिका पर स्थापित है वह जगह भी धरती से 8 फीट ऊंचाई पर है। मंदिर प्रांगण में भी 8 देवताओं के मंदिर हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार को सिंहद्वार के नाम से जाना जाता है। इसके एक ओर त्रिशूल तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र है। मुख्य मंदिर में शिव के अलावा विष्णु भी शालिग्राम के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
शिवोपासक 
लिंगराज मंदिर भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित है, इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090-1104 में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मन्दिर, भुवनेश्वर का मुख्य मन्दिर है, इसे ययाति केशरी ने 617-657 ई. में बनवाया था तथा इसके बाद अपनी राजधानी को जाजपुर से भुवनेश्वर स्थानांतरित किया। धार्मिक कथा है कि लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। ययाति केशरी द्वारा बिन्दूसागर सरोवर एवं उसके निकट ही लिंगराज के विशालकाय मन्दिर निर्माण के पश्चात कई शताब्दियों से भुवनेश्वर पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। 
कंदुक क्रीड़ारत अप्सरा 
यह जगत प्रसिद्ध मन्दिर उत्तरी भारत के मन्दिरों में रचना सौंदर्य तथा शोभा और अलंकरण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। लिंगराज का विशाल मन्दिर अपनी अनुपम स्थात्यकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर में प्रत्येक शिला पर कारीगरी और मूर्तिकला का चमत्कार है। इस मन्दिर का शिखर भारतीय मन्दिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारम्भिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे तो प्रायः सीधा तथा समकोण है किन्तु ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर प्रायः वर्तुल दिखाई देता है। इसका शीर्ष चालुक्य मन्दिरों के शिखरों पर बने छोटे गुम्बदों की भाँति नहीं है। 
मकर द्वार मुक्तेश्वर 
मन्दिर की पार्श्व-भित्तियों पर अत्यधिक सुन्दर नक़्क़ाशी की हुई है। यहाँ तक कि मन्दिर के प्रत्येक पाषाण पर कोई न कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह मानवाकृतियों तथा पशु-पक्षियों से सम्बद्ध सुन्दर मूर्तिकारी भी प्रदर्शित है। सर्वांग रूप से देखने पर मन्दिर चारों ओर से स्थूल व लम्बी पुष्पमालाएँ या फूलों के मोटे गजरे पहने हुए जान पड़ता है। गणेश, कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। गौरीमन्दिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मन्दिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं।
लिंगराज मंदिर (गूगल से साभार)
गर्भग्रह के अलावा जगमोहन तथा भोगमण्डप में सुन्दर सिंहमूर्तियों के साथ देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। यहाँ की पूजा पद्धति के अनुसार सर्वप्रथम बिन्दुसरोवर में स्नान किया जाता है, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं, जिनका निर्माणकाल नवीं से दसवीं सदी का रहा है।। गणेश पूजा के बाद गोपालनीदेवी, फिर शिवजी के वाहन नंदी की पूजा के बाद लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है। जहाँ आठ फ़ीट चौड़ा तथा क़रीब एक फ़ीट ऊँचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है। लिंगराज मंदिर के दर्शन के पश्चात बिकास बाबू ने धौलिगिरि पहाड़ चलने की योजना बना ली और हम वहां चल पड़े। जारी है……आगे पढें।

4 टिप्‍पणियां:

  1. उस जमाने में हाथों से ये बना लिए गए और आज के जमाने में हमारे यहाँ के इंजीनियर बड़ी-बड़ी मशीनों से भी सड़क ठीक से नहीं बना पाते :)

    http://ulatpalat.blogspot.in/2015/11/blog-post_21.html

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  2. सुंदर चित्रों व अनुपम जानकारी से परिपूर्ण जीवंत वर्णन। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है। आभार सहित शुभकामनाएं...

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