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सोमवार, 18 जुलाई 2016

ग्वालियर फ़ोर्ट की सैर

सुबह हुई, स्नान ध्यान के उपरांत सारा सामान पैक करके हम ग्वालियर भ्रमण के लिए निकल गए। हमने एक ऑटो तय किया था, जो 700 रुपए में ग्वालियर के किले साथ कुछ अन्य स्थान भी भ्रमण करवाएगा। श्री गणेश ग्वालियर के किले से ही की। ग्वालियर के किले तक पहुंचने के लिए दो रास्ते हैं। एक ग्वालियर गेट कहलाता है जिससे केवल पैदल ही जाया जा सकता है. दूसरे रास्ते ऊरवाई गेट से गाड़ी से जाया जाता है। भूतल से 350 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. किले का मुख्य प्रवेश द्वार हाथी पोल के नाम से जाना जाता है जो सिंधिया स्कूल होते हुए, मान मंदिर महल की ओर ले जाता है। किले का कुछ हिस्सा सिंधिया परिवार की निजी संपत्ति है।
ग्वालियर फ़ोर्ट का रास्ता
किले तक पहुंचने के लिए दो सुरक्षा द्वार हैं। ऑटो वाले पहले द्वार के पूर्व ही सवारियों को छोड़ देते हैं, फ़िर यहाँ उपलब्ध पैट्रोल गाडियों से आपको मुंह मांगी कीमत पर ऊपर जाने के लिए किराया तय करना पड़ता है। क्योंकि इस द्वार के बाद किले की खड़ी चढाई पड़ती है। आज बहुत भीड़ भाड़ भी थी। किले ऊपर गुरुद्वारा बंदी छोड़ है, जहाँ पर्व मनाया जा रहा था। भारत के कई प्रांतों से सिक्ख श्रृद्धालू यहां पहुंचे हुए थे। ऑटो वाले ने गेट पर छोड़ दिया। यहाँ से खड़ी चढाई होने के कारण ऊपर जाने में कठिनाई होने लगी। वैसे तो किले तक पैदल ही जाने का मन था। परन्तु स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। किले के इस रास्ते पर दोनो तरफ़ पहाड़ी को काट कर शैलोत्कीर्ण जैन तीर्थकंरों की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया है। जो स्थानक एवं आसनस्थ मुद्रा में हैं। हमने कार रुकवा कर इन प्रतिमाओं का अवलोकन किया।
शैलोत्कीर्ण  जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ
यहाँ शैलोत्कीर्ण जैन एवं हिन्दू दोनो तरह की प्रतिमाएँ हैं। हिन्दू देवताओं विष्णु, सूर्य, उमा महेश्वर, शिवलिंग इत्यादि की प्रतिमाएं है। जैन धर्म के चौबीस तीर्थकंरों की छोटी बड़ी कई प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। इसके अलावा चट्टानों को काटकर चैत्यों का निर्माण भी किया गया है। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों को उनके पाद-पाठ पर बने खास चिन्हों से पहचाना जा सकता है । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर की मूर्ति के नीचे बैल की आकृति है । पार्श्वनाथ जी की मूर्ति के पाद आधार पर सर्प की आकृति अंकित है । शंख चिन्ह वाली बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की मूर्तियाँ हैं तथा सिंह चिन्ह वाली चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्ति है । रास्ते के दोनो तरफ़ हमें जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं दिखाई देते हैं।
किले में जल प्रबंध के लिए बावड़ी
किले पर पहुंचने के बाद सबसे पहले सिंधिया स्कूल का द्वार दिखाई देता है। इसके आगे बढने पर बावड़ी बनी हुई। इस बावड़ी में 84 स्तंभों का मंडप है। प्रस्तर निर्मित यह बावड़ी शाही आवासीय परिसर में जल मुख्य स्रोत रही होगी। बावड़ी का द्वार मेहराबदार है, यह इस्लामिक एवं हिन्दू शैली के मिश्रित स्थापत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यहां नागरी शिलालेख भी दिखाई देता है। इसके समीप ही भारतीय पुरातत्व संरक्षण द्वारा संचालित संग्रहालय भी है, जिसमें इस क्षेत्र से प्राप्त प्रतिमाएं एवं पुरा सामग्री प्रदर्शित की गई है। किले के इस परिसर मानमंदिर, कर्ण महल प्रमुख हैं। 
मानमंदिर महल
इतिहास पर नजर डालें तो इस किले का निर्माण सन 727 ईस्वी में सूर्यसेन नामक एक स्थानीय सरदार ने किया जो इस किले से 12 किलोमीटर दूर सिंहोनिया गांव का रहने वाला था। यह किला कई राजपूत राजाओं के अधीन रहा है। किले की स्थापना के बाद करीब 989 सालों तक इसपर पाल वंश ने राज किया। इसके बाद इसपर प्रतिहार वंश ने राज किया। 1023 ईस्वी में मोहम्मद गजनी ने इस किले पर आक्रमण किया लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। 1196 ईस्वी में लंबी घेराबंदी के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले को अपनी अधीन किया लेकिन 1211 ईस्वी में उसे हार का सामना करना पड़ा. फिर 1231 ईस्वी में गुलाम वंश के संस्थापक इल्तुतमिश ने इसे अपने अधीन किया, इस तरह किले पर कब्जे को लेकर युद्ध चलते रहे। 
मान मंदिर महल में कुंआँ और कैदखाना
मानसिंह ने इस दौरान इब्राहिम लोदी की अधीनता स्वीकार ली थी। लोदी की मौत के बाद जब मानसिंह के बेटे विक्रमादित्य को हुमायूं ने दिल्ली दरबार में बुलाया तो उन्होंने आने से इंकार कर दिया। इसके बाद बाबर ने ग्वालियर पर हमला कर इसे अपने कब्जे में लिया और इसपर राज किया। लेकिन शेरशाह सूरी ने बाबर के बेटे हुमायूं को हराकर इस किले को सूरी वंश के अधीन किया। शेरशाह की मौत के बाद 1540 में उनके बेटे इस्लाम शाह ने कुछ समय के लिए अपनी राजधानी दिल्ली से बदलकर ग्वालियर कर दिया। इस्लाम शाह की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी आदिल शाह सूरी ने ग्वालियर की रक्षा का जिम्मा हेम चंद्र विक्रमादित्य (हेमू) को सौंप खुद चुनार चले गया। हेमू ने इसके बाद कई विद्रोहों का दमन करते हुए कुल 1553-56 के बीच 22 लड़ाईयां जीतीं। 1556 में हेमू ने ही पानीपत की दूसरी लड़ाई में आगरा और दिल्ली में अकबर को हराकर हिंदू राज की स्थापना की। इसके बाद हेमू ने अपनी राजधानी बदलकर वापस दिल्ली कर दी और पुराना किला से राज करने लगा।
मान मंदिर के महल के समक्ष तोप
इसके बाद अकबर ने ग्वालियर के किले पर आक्रमण कर इसे अपने कब्जे में लिया और इसे कारागर में तब्दील कर दिया गया. मुगल वंश के बाद इसपर राणा और जाटों का राज रहा फिर इस पर मराठों ने अपनी पताका फहराई। 1736 में जाट राजा महाराजा भीम सिंह राणा ने इस पर अपना आधिपत्य जमाया और 1756 तक इसे अपने अधीन रखा। 1779 में सिंधिया कुल के मराठा छत्रप ने इसे जीता और किले में सेना तैनात कर दी। लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिया. फिर 1780 में इसका नियंत्रण गौंड राणा छत्तर सिंह के पास गया जिन्होंने मराठों से इसे छीना। इसके बाद 1784 में महादजी सिंधिया ने इसे वापस हासिल किया। 1804 और 1844 के बीच इस किले पर अंग्रेजों और सिंधिया के बीच नियंत्रण बदलता रहा। हालांकि जनवरी 1844 में महाराजपुर की लड़ाई के बाद यह किला अंततः सिंधिया के कब्जे में आ गया.
किले परिसर में तोमर राजा का कर्ण महल
1 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई ने मराठा विद्रोहियों के साथ मिलकर इस किले पर कब्जा किया। लेकिन इस जीत के जश्न में व्यस्त विद्रोहियों पर 16 जून को जनरल ह्यूज के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना ने हमला कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई खूब लड़ीं और अंग्रेजों को किले पर कब्जा नहीं करने दिया। लेकिन इस दौरान उन्हें गोली लग गई और अगले दिन (17 जून को) ही उनकी मृत्यु हो गई। भारतीय इतिहास में यह ग्वालियर की लड़ाई के नाम से वर्णित है। लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद अग्रेजों ने अगले तीन दिन में ही किले पर कब्जा कर लिया। 
किला परिसर में अमर महल
हमने मान मंदिर महल का भ्रमण किया मान मंदिर महल को 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह तोमर द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह तोमर पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे।उनके शासनकाल को ग्वालियर का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस किले के विशाल कक्षों में अतीत आज भी स्पंदित है। यहां जालीदार दीवारों से बना संगीत कक्ष है, जिनके पीछे बने जनाना कक्षों में राज परिवार की स्त्रियां संगीत सभाओं का आनंद लेतीं और संगीत सीखतीं थीं। महल के समक्ष ही तोप रखी हुई है और कुछ कारीगर संरक्षण के लिए पत्थर तराश रहे थे।
कर्ण महल के समीप इस इमारत का स्थापत्य देखने लायक है।
 इस महल के तहखानों में एक कैदखाना है, इतिहास कहता है कि ओरंगज़ेब ने यहां अपने भाई मुराद को कैद रखवाया था और बाद में उसे समाप्त करवा दिया। जौहर कुण्ड भी यहां स्थित है। इसके अतिरिक्त किले में इस शहर के प्रथम शासक के नाम से एक कुण्ड है सूरज कुण्ड। नवीं शती में गुर्जर प्रतिहार वंश द्वारा निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो कि 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड संगम है। भगवान विष्णु का ही एक और मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था।
संरक्षण कार्य में लगा हुआ शिल्पी
इस परिसर में कर्ण महल एवं विक्रम महल हैं। कर्ण महल का निर्माण राजा कीर्ति सिंह ने 1480-1486 के बीच करवाया था, इनका एक अन्य नाम कर्ण सिंह भी था, उनके नाम पर ही इस महल का नाम कर्ण महल प्रचलन में आया। हिन्दू स्थापत्य शैली में निर्मित इस महल में विशाल हॉल में उनका दरबार लगता था तथा इसके साथ स्नानघर भी निर्मित है। उपर की मंजिल में जाने के लिए पैड़ियां बनी हुई है। इसके समीप ही निर्मित हॉल की छत वास्तुकला का अद्भुत नमूना एवं दर्शनीय है। यह परिसर राज्य पुरातत्व के संरक्षण में है तथा यहां प्रवेश शुल्क राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा लिया जाता है। इस परिसर में मोरियों द्वारा जल निकासी की उत्तम व्यवस्था है, इसके लिए पत्थर के पाईप बनाकर नालियों में डाले गए हैं। जारी है आगे पढ़ें…

2 टिप्‍पणियां:

  1. ग्वालियर किला अभी तक नहीं देख पाये हैं, अच्छा लगी जानकारी और उत्सुकता जागी है मन में। .

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  2. ललित जी बहुत ही गहन वर्णन किया आपने ग्वालियर के किले का, किले के बारे में पढ़ कर व फोटो देखकर मै अपनी यात्रा की यादों मे लौट गया। वाकई ग्वालियर का किला बहुत ही खूबसूरत व इतिहास को समेटे हुए है।

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