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सोमवार, 5 सितंबर 2016

मांग भरने की प्रथा के प्राचीन प्रमाण

मंदिरों में देवी-देवताओं के अतिरिक्त ग्राम्य जीवन की झांकी भी शिल्पांकित की जाती थी। जिससे पता चलता था कि उस काल का रहन सहन एवं पहनावा किस तरह का है। 

वाण वंश के राजा विक्रमादित्य द्वारा 870-900 ईंस्वीं में निर्मित पाली जिला कोरबा छत्तीसगढ़ के शिवालय में करदर्पण देख कर मांग में सिंदूर भरती विवाहित स्त्री का मनोहर शिल्पांकन किया गया है। 

इससे यह प्रमाण मिलता है कि उस काल में माँग भरने का प्रचलन था। वैसे तो वैदिक काल से विवाहित स्त्रियों को मांग में सिंदूर भरना अनिवार्य था।
पाली का शिवालय और मांग भरती  स्त्री 
दरअसल इसके पीछे स्वास्थ्य से जुड़ा एक बड़ा वैज्ञानिक कारण बताया जाता है। सिर के उस स्थान पर जहां मांग भरी जाने की परंपरा है, मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण ग्रंथी होती है, जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। 

यह अत्यंत संवेदनशील भी होती है। यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। 

पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। 

विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाहके बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं। 

पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है। 

ज्ञात हो कि 10 वीं 11 वीं शताब्दी में इस शिवालय का जीर्णोद्धार कलचुरी शासक जाज्ल्लदेव ने कराया था।

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