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शनिवार, 9 जनवरी 2010

गीत अधुरा रह गया

ज एक स्मरण पर चलते हैं. गुरुदेव रविन्द्र नाथ मृत्यु शैया पर अंतिम सांसे ले रहे थे. 
तभी एक व्यक्ति आकर कहने लगा-" धन्य हैं आप! आपने जीवन सार्थक कर लिया. छ: हजार गीत रचे. आप तो तृप्त हो गए. संसार के लिए एक अनूठी धरोहर छोड़ी है आपने".

गुरुदेव ने आँखें खोली और नम्रता से बोले-" तृप्त कहाँ हुआ? मेरा प्रत्येक गीत अधुरा ही रहा. जो मेरे उदगार थे, वे तो मेरे अन्दर अभी भी अटके हुए हैं. 

ये छ: हजार गीत तो उस दिशा में की गई मात्र असफल चेष्टाएँ है. उन उदगारों को बाहर लाने का प्रयास भर हैं. 

मैंने छ: हजार बार कोशिशें की किन्तु वह गीत अधुरा ही रहा जिससे मैं गाना चाहता था. उस गीत को, 

उस उदगार को गाने का प्रयास करने में ही था की तब तक बुलावा आ गया". गीत अधुरा रह गया. 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर पोस्ट ललित जी!

    संसार में भला क्या कोई कभी तृप्त हो सकता है?

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  2. सच कहा उन्होने...सृजनतमकता कभी पूरी नहीं होती... हर समय यही लगता है की और बेहतर लिखा जा सकता था

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  3. अच्छा प्रसंग लाये हैं, आभार!!

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  4. अच्छी जानकारी दी आपने ..
    'परम अभिव्यक्ति' के न हो पाने की
    कसक बहुत सालती है , यही कसक
    कवि मुक्तिबोध को भी परेशान करती रही ..
    ........ आभार ,,,

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  5. सही कहा आपने, यही भावना तो आदमी को श्रेष्ठतम बनाती है।

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