लिव इन रिलेशनशिप पर बहस चल रही है, इसमें हम भी अपनी देहाती, गंवई सोच के साथ सम्मिलित हो गये हैं अब यह बहस सार्थक है कि व्यर्थ अभी इस पर फ़ैसला समय करेगा। लेकिन फ़िर भी हम गाल बजाए जा रहे हैं।
इस विषय पर हम शहरों के बारे में तो कुछ नही कह सकते क्योंकि वहां तो पड़ोसी को भी पड़ोसी पहचानता नही है। कौन, कैसे, और किसके साथ रह रहा है, इससे किसी को कोई मतलब नही है, लेकिन गांव कस्बे में इसका असर जरुर पड़ता है,
लगभग सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। लिव इन रिलेशनशिप संबंधों को एक नया नाम दिया जा रहा है। बिना विवाह के एक साथ पति पत्नी की तरह रहना अर्थात एक बेनामी रिश्ते में बंधना।
बंधन शब्द विवाह संस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है तथा यंहा पर भी कहा जाएगा एक बेनामी रिश्ते में बंध गए। लेकिन बंधना जरुर है।
इस विषय पर हम शहरों के बारे में तो कुछ नही कह सकते क्योंकि वहां तो पड़ोसी को भी पड़ोसी पहचानता नही है। कौन, कैसे, और किसके साथ रह रहा है, इससे किसी को कोई मतलब नही है, लेकिन गांव कस्बे में इसका असर जरुर पड़ता है,
लगभग सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। लिव इन रिलेशनशिप संबंधों को एक नया नाम दिया जा रहा है। बिना विवाह के एक साथ पति पत्नी की तरह रहना अर्थात एक बेनामी रिश्ते में बंधना।
बंधन शब्द विवाह संस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है तथा यंहा पर भी कहा जाएगा एक बेनामी रिश्ते में बंध गए। लेकिन बंधना जरुर है।
यह सब कहने-सुनने तक अच्छा लगता है, इस पर जोरदार बहस हो सकती है, इसमें शरीक होकर हम अपनी बुद्धिमता प्रकट कर सकते हैं, अपना ज्ञान बघार सकते हैं, लेकिन जब घर का कोई बच्चा सामाजिक दायरे से बाहर निकल कर बे्नामी रिश्ते रखता है तो क्या उसके परिजन और माँ बाप उसे स्वीकार कर पाएंगे?
कौन माँ -बाप चाहेगा उसकी लड़की या लड़का बिगड़ जाए, जब गांव समाज में इसकी जानकारी होगी तो क्या वे शान और सम्मान से रह पाएंगे? क्या बिरादरी उसे बख्श देगी?
लिव इन रिलेशनशिप से क्या सहस्त्राब्दियों से बना हुआ सामाजिक ढांचा बदल जाएगा? क्या इसे सामाजिक मा्न्यता मिल पाएगी? बहुत सारे सवाल जेहन मे आते हैं।
लिव इन रिलेशनशिप के मायने क्या हैं?
भारत की जन संख्या का एक बड़ा भाग गांवों मे निवास करता हैं। हमारे संस्कारों में यह बताया गया है कि जन्म से जातक पर तीन ॠण चढे रहते हैं, 1-पितृ ॠण, 2-ॠषि ॠण तथा 3-राष्ट्र ॠण्। जिसे हम पुरुषार्थ चतुष्टय के द्वारा चुकाते हैं। इन पुरुषार्थ चतुष्टय का जीवन में महत्वपुर्ण स्थान है।
पूरा सामाजिक ताना बाना इसके इर्द-गिर्द ही बुना गया है। रिश्तों की पहचाने के लिए प्रत्येक रिश्ते को अलग अलग नाम दिया गया है। पुरुषार्थ चतुष्टय में गृहस्थ आश्रम को महत्वपुर्ण स्थान दिया गया है। गृहस्थ आश्रम ही बाकी के तीनों आश्रमों को चलाता हैं।
अब कहते हैं कि बिना किसी नाम के तथा काम के एक साथ रहा जाए उसे मान्यता दिजिए और मान्यता मिल भी गई तो उससे क्या होगा? जवानी के दिन तो उछल कूद में निकल जाएंगे लेकिन जब बुढापा आएगा तो कौन संभालेगा?
मैने देखा है कि इस तरह की हरकत करने वालों का बुढापा बहुत खराब हो जाता है। अगर परिवार रहे तो नाती पोतों के साथ समय कट जाता है लेकिन नही तो फ़िर पागल खाना ही नजर आता है, वह व्यक्ति सामाजिक न रहकर असामाजिक तत्व हो जाता है, तथा समाज भी स्वीकार नही करता।
आज पश्चिम के देश भी हमारी सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित हैं, वहां की औरते भारतीय पति चाहती हैं क्योंकि ये टिकाउ होते हैं। शादी को पवित्र कार्य माना गया है इसे सात जन्मों का साथ कहा गया है। लेकिन पश्चिम की गंदगी को हम सर पर उठाकर घुमने की सोच रहे हैं। जबकि वहां के लोग इससे त्रस्त हो चुके हैं।
टीवी में एक सिरियल आता था जिसमें पति पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका बेवफ़ाई पकड़ने के लिए जासुसों का प्रयोग किया गया था, वे उन्हे कैमरे पर सबुत के साथ पकड़ते थे।
इससे पता चलता है कि पश्चिम मे विवाह जैसे संबंधों के प्रति लोग गंभीर नही हैं, लेकिन जो गंभी्र हैं अगर उनके साथ बेवफ़ाई होती है तो वे अवसाद तथा पागल पन की बिमारी से ग्रसित होकर गंभीर अपराधों को जन्म दे रहे हैं।
विवाह करना सिर्फ़ यौन तुष्टि ही नही हैं। इसे सम्पुर्ण जीवन में जीना पड़ता है अपने परिवार का निर्माण कर उसका पालन पोषण और निर्वहन करना पड़ता है।
अब हमारी प्राचीन समाजिक व्यस्था की बात करें तो वह हमारी जांची परखी तथा देखी भाली ब्यवस्था है। जिसके प्रति हमें कोई संदेह नही है, ऐसा नही है कि कोई एक पुरुष या महिला भारत के सवा सौ करोड़ लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तथा सभी लोग उससे सहमत हैं।
इन रिश्तों से जो समस्याएं खड़ी होगीं उनका समाधान किसी के पास नही है। इन रिश्तों का समर्थन करने वाले आधुनिक और समर्थन न करने वाले पुरातनपंथी कहला रहे हैं।
अगर अपने संस्कारों को साथ जीना पुरातन पंथी है तो यह भी स्वीकार्य हैं, हमें गर्व है हमारी संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्था पर जिसे हमारे पुर्वजों ने कायम किया है।
एक सत्य घट्ना की ओर ले चलता हुँ जो आज से लगभग 10 वर्षों पुर्व घटित हुई थी, हमारे गांव के पास एक शिक्षक परिवार रहता था, उसके परिवार में 6 सदस्य थे, एक लड़का और तीन लड़कियां और स्वयं पति-पत्नी, बस इसी समय की बात है। परिक्षांए चल रही थी, घर की बड़ी लड़की परीक्षा दिलाने गयी थी और उधर से ही आकर उसी गांव में अपने प्रेमी के घर में उसके साथ रहने चली गयी। शिक्षक ने जब यह बात सुनी तो उसने उसी वक्त अपने परिवार के चारों सदस्यों समेत आत्म हत्या कर ली।
एक लोम हर्षक कांड कुछ ही घंटों में घट गया। लेकिन उस समय वह लड़की अपने परिवार के सद्स्यों की मौत पर भी नही आयी। जिसको भी जानकारी मि्ली वह स्तब्ध हो गया। एक साल बाद समाचार मिला की उस लड़की ने भी अपने प्रेमी के घर में फ़ांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। इस तरह के क्षणिक संबंधों के कारण एक परिवार पुरी तरह समाप्त हो गया।
लिव इन रिलेशनशिप का आधार पारस्परिक प्रेम या प्रगाढ संबंध नही है यह तो एक अघोषित अनुबंध जैसा है कि हमें जब तक अच्छा लगे एक दुसरे के साथ रहना है। जब कुछ खटपट हो तो अपना बोरिया बिस्तर समेटो और दुसरा घर देखो।
इस तरह के रिश्ते खतरनाक हो सकते हैं जो यौनिक उच्श्रृंखलता को जन्म देगें। इससे पैदा होने वाले भीषण संकट का सामना करना आसान नही होगा। भले ही इसे कानुनी मान्यता मिल जाए लेकिन समाज मान्यता नही देगा।
यह कोई समाज सुधार आन्दोलन तो नही है जो समाज इसे मान्यता देने के लिए सील मुहर लेकर बैठा है। एक बिगड़ैल परम्परा की शुरुवात अवश्य हो जाएगी जिससे समाज का युवा वर्ग उच्चश्रृंखल हो सकता है।
अब कोई एक दो लोग रह भी लें तो क्या फ़रक पड़ता है। हमारा तो यही देहाती चिंतन है। यही विचार हमारे मन में आए और हमने आपके सामने रख दि्ए और विचार उमड़ेंगे घुमड़ेंगे तो और लिखेंगे।